RNI NO - 62112/95
ISSN - 2455-1171
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दोहों का संसारसुपरिचित कवयित्री। संप्रति उप-संपादिका ‘साहित्य अमृत’। उसने पूछा क्या हुए, सूखे हुए गुलाब। आँखों से मैंने दिए, भीगे हुए जवाब॥
दुख भूलूँ मैं आपणे, हरूँ ग़ैर की पीर। लिखना मेरे ईश्वर, ऐसी ही तक़दीर॥
आना तुम विश्राम को, थक जाएँ जब पाँव। ठंडी-ठंडी छाँव है, मेरे मन का गाँव॥
रस्सी से बाँधे गए, अरमानों के हाथ। आँखों को भी सी दिया, इन होठों के साथ॥
आँखों को सागर कहा, चेहरे को आकाश। लिखने से पहले मुझे, पढ़ भी लेते काश॥
मैंने अपनी हसरतें, कर डाली जब होम। पत्थर का दिल था मगर, पिघला जैसे मोम॥
मेरे तो रहते नहीं, क़ाबू में जज़्बात। आते हो जब सामने, भूलूँ करना बात॥
सबके दिल की हसरतें, पूरी कर भगवान। छोटे-छोटे हैं यहाँ, आदम के अरमान॥
बदलूँ तो मैं वक्त हूँ, थम जाऊँ हालात। छू लो तो अहसास हूँ, छलकूँ तो जज़्बात॥
मीठा क्यों लगने लगा, इतना कड़वा नीम। बीमारी है इश्क़ की, कहने लगा हक़ीम॥
शर्बत सी है ज़िंदगी, कड़वाहट मत घोल। बेहतर हैं खामोशियाँ, चुभते हों जब बोल॥
मिट्ठु तेरी याद में, बैठी हूँ गमगीन। क्या होती है क़ैद अब, मुझको हुआ यक़ीन॥
शहरों की इन बस्तियों, में पत्थर के बाग। कंकरीट की झाड़ियों, से निकले है आग॥
भीतर हैं चिंगरियाँ, भले हुई हूँ राख। फूँको मुझमें फूँकनी, रक्खो मेरी साख॥
करके जब हस्ताक्षर, तुझको किया कबूल। काग़ज़ पर भी खिल गए, जाने कितने फूल॥
नहीं किसी की बाज़ुएँ, नहीं किसी का हाथ। केवल मुझको चाहिए, एक तुम्हारा साथ॥
चेहरे पर चेहरा लिये, चलते सभी जनाब। पहना सबने है मगर, दिखता नहीं नक़ाब॥
कहता था इक ज्योतिषी, पढ़ मेरी तक़दीर। रेखाएँ हैं दर्द की, सहनी होगी पीर॥
कष्टों के सिक्के बहुत, मुझ पर दिये उछाल। मन के दामन में प्रभो, ख़ुशियाँ भी तो डाल॥
खामोशी से ही सही, किया प्रेम का जाप। मैं राधा तो हूँ नहीं, पर मोहन हैं आप॥
ऐसे पिघली याद में, जैसे पिघले मोम। यानी तेरे इश्क़ में, हो जाऊँगी होम॥
खुद से जितनी दूर हूँ, उतनी उसके पास। मुझको मेरा ही नहीं, होता अब अहसास।
मेरी भी सुन लीजिए, दाता कभी अपील। पेचीदा ये केस है, खुद हूँ आज वकील॥
जो बीती वो लिख यहाँ, आँसू यहीं निचोड़। आ री मेरी ज़िंदगी, काग़ज़ पे दम तोड़॥
हर मुश्किल के प्रेम से, सुलझाए हैं केश। जीवन सख़्ती से मगर, आया फिर भी पेश॥
करो मरम्मत हाथ की, अब तो मेरे राम। रेखाएँ वो खींच दे, जिनमें तेरा नाम॥
पूरे तो होते नहीं, मेरे सारे ख़्वाब। इनकाे तुमने तोड़कर, अच्छा किया जनाब॥
खुद में रहना भी कभी, नहीं रहा आसान। यादों से ही भर गया ख़ाली पड़ा मकान॥
ख़ुशियाँ अपनी बेचकर, लेती दर्द उधार। ज़रा निभाकर देखिए औरत का किरदार॥
कैसा अब अफ़सोस है, अगर जले हैं हाथ। रक्खा मैंने सोचकर, अंगारों पर हाथ॥
दुनिया मेरे दर्द से, बिल्कुल बेपरवाह। मैंने जब आहें लिखीं, मुझे मिली है वाह॥
आँखों पे रक्खे गए, जाने कितने नाम। झील पियाले ताल और साक़ी सागर जाम॥
अपनों ने रोकी सदा कदमों की रफ़्तार। सबक़ ज़िंदगी ने यही, दिया हज़ारों बार॥
मुझको तुमसे प्यार है तुमको मेरी चाह। आकर मुझसे ही रहो, होकर बेपरवाह॥
क्यों उठता है दर्द ये, क्यों होती है पीर। या तो सोनी जानती, या जाने फिर हीर॥
ऐसा भी गुज़रा समय, नहीं रहा कुछ होश। आँखें चिल्लाती रहीं, पर लब थे ख़ामोश॥
जीवन का यह फ़लसफ़ा, समझे कोई काश। ज़िंदा ही तो डूबता, जो तैरे वो लाश॥
तेरी यादों का यहाँ, रक्खा हुआ हिसाब। छिटपुट लिक्खा था कभी, अब है एक किताब॥
मैंने गिरवी रख दिया, सब कुछ तेरे पास। यादें-साँसें-जिंदगी, सब कुछ तेरे पास॥
तनहा मुझको देखकर, पूछें सभी सवाल। तनहा रहना हो गया, मेरा यहाँ मुहाल॥
यही सोचकर रो दिये, मेरे सब जज़्बात। यादें-साँसें-जिंदगी, सब कुछ तेरे पास॥
चूज़ों को जब पर मिले, भर ली तभी उड़ान। और घोंसला हो गया, चिड़िया का वीरान॥
रिश्तों की गलियाँ यहाँ, होती अक्सर तंग। इनमें चलने के लिए, करनी पड़ती जंग॥
मुझमें अब लहरा रहा, दुख का पारावार। रात रुदाली हो गई, दिन भी है दुश्वार॥
तुमको चाहा टूटकर, मेरा यही गुनाह। तुमको आना है नहीं, देखूँ फिर भी राह॥
घर के आँगन में खड़े, बरगद, पीपल, नीम। जैसे मुझको दे रहे, जीने की तालीम॥
तुमको मेरे दर्द का, कैसे हो अहसास। ज़ख्मों ने पहना हुआ, हँसता हुआ लिबास॥
कैसे अपनों ने यहाँ, तोड़े हैं अरमान। मुझको जिसने भी सुना, सुनकर वो हैरान॥
जो अब तक खोया नहीं, उसकी मुझे तलाश। जो अब तक देखा नहीं, मिल जाता वो काश॥
तेरी तू ही जानता, किसका तुझे जुनून। मेरे दिल को तो नहीं, तेरे बिना सुकून॥
सोचा था नदिया मुझे, करवाएगा पार। माँझी समझा था जिसे, छोड़ चला मँझधार॥
आँसू इसकी आँख में, रहते हैं मौजूद। देखा है दीवार का, सीला हुआ वज़ूद॥
बोली थी ख़ामोशियाँ, छनकी थी ज़ंजीर। तुमने समझी ही नहीं, क्या थी मन की पीर॥
अपनों की ही चोट से, मुझमें पड़ी दरार। मुझसे लिपटी आज फिर, कहकर ये दीवार॥
कौन देखता है भला, टूटा-फूटा काँच। मैंने क़िस्मत से कहा, आकर मुझको बाँच॥
बोला मुझसे ज्योतिषी, पढ़ करके तक़दीर। रेखाओं में दर्द है, सहनी होगी पीर॥
चुपके से पढ़ती रही, ख़बरों काे दीवार। मेरा चेहरा हो गया था शायद अख़बार॥
रस्ता तकते जागते, रहते दर-दीवार। तेरी यादों का यहाँ, लगा हुआ दरबार॥
खुद से ज़्यादा आपकी, करती हूँ परवाह। लेकिन समझे आप तो, इसको एक गुनाह॥
इतरायी थी मैं ज़रा, दिखलाया अंदाज़। बस इतनी सी बात पर, हुए आप नाराज़।
उससे नज़रे ज्यों मिली, दमका मेरा रूप। खिड़की से ज्यों आ गई, इक मुट्ठी भर धूप॥
रस्ता तकते जागते, रहते दर-दीवार। तेरी यादों का यहाँ, लगा हुआ दारबार॥
खुद से ज़्यादा आपकी, करती हूँ परवाह। लेकिन समझे आप तो, इसको एक गुनाह॥
इतरायी थी मैं ज़रा, दिखलाया अंदाज़। बस इतनी सी बात पर, हुए आय नाराज़॥
जब भी जीवन से मुझे, होने लगी थकान। थोड़ा सा आराम कर, चुकता किया लगान॥
उससे नज़रें ज्यों मिली, दमका मेरा रूप। खिड़की से ज्यों आ गई, इक मुट्ठी भर धूप॥
ये किसने माहौल में, बिखराया मकरंद। मुझको तुमसे आ रही, अपने पन की गंध॥
कमरे से दहलीज़ तक, है मेरा संसार। भीतर जब घबरा गयी, आकर बैठी द्वारा॥ —उर्वशी अग्रवाल ‘उर्वी’
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अप्रैल 2024
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