ड्यूटी

रविवार का दिन था। छुट्टी का दिन, यानि सबकी ऑफिशियल छुट्टी।

माँ नाश्ता बना ही रही थी कि बेटे ने आकर कहा, ‘माँ, आप बहुत काम करती हो, एक दिन आपको भी आराम करना चाहिए, आज का खाना हम मैनेज कर लेंगे, चलो आप आराम करो।’

बेटे की बात सुनकर माँ की आँखों में पानी आ गया, भला आजतक किसने सोचा था कि माँओं को भी आराम चाहिए, घर की औरतें खुद को चौबीस घंटे का एंप्लॉई ही मानकर चलती हैं।

फिर भी बेटे ने जिद पकड़ ली तो माँ कमरे में आकर आराम करने लगी।

बहुत देर बीत गई, खाने के लिए किसी की आवाज नहीं आ रही थी, भूख भी तेज हो गई थी, माँ उठकर रसोईघर में आई तो देखा, वहाँ तो कोई नहीं था।

हैरानी से बेटे का दरवाजा खटखटाया, बेटा खाने में क्या है, बेटा-बहू कोई फिल्म देखने में लगे थे, सुनते ही बेटे ने कहा, ‘माँ हम दोनों तो आज ब्रेड खा रहे हैं, आप अपना देख लिजिए क्या खाना है।’

‘अरे, घर के बाकी लोग भी तो हैं, तेरे दादा-दादी हैं, वे क्या खाएँगे?’ माँ परेशान हो उठी।

बेटे ने कहा, ‘आज सब अपना-अपना देख लेंगे, आप आराम करो बस।’

माँ ने सुना और चुपचाप रसोईघर में चली गई। इतनी जल्दी दाल-चावल ही बन सकते थे, अतः वही बनाकर सबको परोस दिए।

बेटे ने भी खाते हुए शिकायत के लहजे में कहा, ‘आपको कितना भी कहो, आराम नहीं होता। मैं बोला था न, आज सब अपना-अपना देख लेंगे, आप छुट्टी कर लो।’

माँ मुसकराई और बोली, ‘रहने दे बेटा, यह घर है, दफ्तर नहीं है।’

अंगदान

वे आँख में पानी भरकर बोले जा रहे थे, ‘मेरी आँखों से अधिक दिखाई नहीं देता, दाँत सब नकली हैं, घुटनों का दर्द बढ़ता जा रहा है, ह‌‌िड्ड‍याँ चटकती हैं, गुर्दों की बीमारी है, और भी न जाने कितनी बीमारियों को लिये यह खाल भी लगभग चिपक गई है। इस शरीर में कुछ नहीं बचा है, परंतु मैं चाहता हूँ कि मेरे मरने के बाद यह शरीर किसी के काम आ सके।’

 

 

सुनीता शानू
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