विश्व मंच पर हिंदी...

पूरे देश में तथा विश्व भर के अनेक देशों में बसे हिंदी-प्रेमियों में खुशी की लहर दौड़ गई थी। पूरे सोशल मीडिया पर यह समाचार छा गया था कि संयुक्त राष्ट्र में अब हिंदी की गूँज सुनाई देगी। दरअसल संयुक्त राष्ट्र की महासभा (जनरल एसेंबली) ने अपने कामकाज के प्रचार-प्रसार के लिए छह आधिकारिक भाषाओं के साथ-साथ पुर्तगाली, स्वाहिली, उर्दू, बांग्ला तथा हिंदी को भी अपना लिया है।

छह आधिकारिक भाषाएँ अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पैनिश, चीनी, रूसी, अरबी हैं। झूठ सोशल मीडिया का एक स्‍थायी भाव बन गया है, अति उत्साही लोगों ने पोस्टर बनाकर या वीडियो बनाकर यह प्रचारित कर दिया कि हिंदी संयुक्त राष्ट्र की ‘सातवीं भाषा’ बन गई है और इसे भारत की महान् उपलब्धि बता दिया गया; फिर क्या था, सब खुशी में इतने भावविह्व‍ल हो गए कि बिना सच्चाई जाने झूठे संदेश को फॉरवर्ड करने लगे! जिन्होंने सच बताने का प्रयास किया, उन्हें खुशी में बाधक मानकर ‘ट्रोल’ किया गया। भारत में एक वर्ग ने खुश होने का एक नया साधन खोज लिया है कि सच्चाई कुछ भी हो, एक झूठ गढ़ों और फैला दो! खैर, बात हिंदी की हो रही थी। निश्चय ही बहुत खुशी की बात है कि संयुक्त राष्ट्र में हिंदी का प्रवेश हुआ। भले ही ‘उर्दू’ पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा है और ‘बांग्ला’ बांग्लादेश की, लेकिन ‘हिंदी’ के साथ इन मूल रूप से भारतीय भाषाओं को शामिल किया जाना भी खुशी की बात है।

भारत के हिंदी-प्रेमियों, हिंदी-सेवियों को हिंदी के संयुक्त राष्ट्र में एक कदम रखने के बाद इस बात पर गहन विचार-विमर्श करने तथा गंभीर प्रयास करने की आवश्यकता है कि हिंदी कैसे अपना ‘सही’ स्थान पाए। ‘सही’ स्थान निश्चय ही संयुक्त राष्ट्र की सातवीं आधिकारिक भाषा का दर्जा प्राप्त करना होगा।

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। आबादी के लिहाज से विश्व का दूसरा सबसे बड़ा देश है। हिंदी की बात करें तो लिपि की वैज्ञानिकता, व्याकरण, शब्द संख्या आदि के पैमाने पर संयुक्त राष्ट्र की किस आधिकारिक भाषा से कम श्रेष्ठ है। लेकिन एक कहावत है ‘अपना दाम खोटा तो परखनेवाले का क्या दोष!’ जब संयुक्त राष्ट्र में पहली बार हिंदी के संदर्भ में चर्चा हुई थी तो एक विदेशी राजनयिक ने कटाक्ष किया था कि ‘पहले अपने देश में तो हिंदी ले आइए।’ उन राजनयिक की पोस्टिंग कभी भारत में भी हुई थी और वह भारत में हिंदी की स्थिति से परिचित थे। ऐसा ही एक प्रसंग और याद आता है एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन था। सभी देशों के प्रतिनिधि माइक पर आते तथा अपने-अपने देश की भाषा में बोलकर बैठ जाते। जब भारत की बारी आई तो उसने अंग्रेजी में वक्तव्य दिया। सम्मेलन के संचालक ने चुटकी लेते हुए कहा, ‘आपकी अपनी कोई भाषा नहीं है! ओह! याद आया, आप लोग तो सदियों गुलाम रहे हैं।’ कितना कटु तथा लज्जा में डुबोनेवाला कटाक्ष था यह, लेकिन उसे यह अवसर भारतीय प्रतिनिधि ने प्रदान किया था। यह बात दशकों पुरानी है किंतु भारत में हिंदी को लेकर क्या कोई बुनियादी बदलाव आया है! पिछले दिनों संस्कृति मंत्रालय द्वारा भारत के इतिहास का सबसे बड़ा साहित्य महोत्सव शिमला में आयोजित हुआ। वाहनों से उतरकर लगभग आधा किलोमीटर आयोजन स्‍थल तक जाना था। दोनों तरफ दुकानों में अंग्रेजी के बोर्ड थे। तीन प्रतिष्ठित कवि सा‌थ थे—मैंने कहा, ‘हिंदी का कोई अक्षर दिख जाए तो आपको बधाई दे दूँ!’ पूरे शिमला में किसी होटल, किसी दुकान में हिंदी नहीं खोज पाएँगे सिवाय सरकारी कार्यालयों के, जबकि हिमाचल प्रदेश की राजभाषा हिंदी है। तर्क दिया जा सकता है कि शिमला पर्यटन-स्‍थल है, दूसरे प्रांतों से लोग आते हैं किंतु किसी अन्य हिंदी भाषी प्रांत के किसी भी नगर में यही दृश्य देखने को मिलेगा!

कुछ हिंदी प्रेमी इस बात से खुश हो लेते हैं कि मुंबई में हिंदी के लिखे साइनबोर्ड दिख जाते हैं, जबकि वह गैर-हिंदी भाषी है, किंतु वे बोर्ड हिंदी में नहीं, मराठी में होते हैं, जिसकी लिपि ‘देवनागरी’ ही है। मराठी भाषियों में कम-से-कम अपनी भाषा के प्रति सम्मान तो है। हिंदी भाषियों के मन में अपनी हिंदी के प्रति सम्मान कब जागेगा? दिल्ली के ‘ऐरोसिटी’ चले जाइए, मजाल है कि हिंदी का एक अक्षर कहीं दिख जाए; किसी भी मॉल में चले जाइए, खोज लीजिए, हिंदी का एक अक्षर! क्या आपके संज्ञान में हिंदी भाषी प्रांतों के करोड़ों परिवारों में किसी ऐसे परिवार का पता है, जहाँ बच्चे को जरा सी समझ आने पर ‘तुम्हारी नोज कहाँ है’, ‘तुम्हारी आइज कहाँ है’ न सिखाया गया हो; अंग्रेजी की घिसी-पिटी ‘पोयम’ न सिखाई गई हो।

आप यूके के स्कॉटलैंड जाइए, हर साइनबोर्ड पर पहले स्कॉटिश में लिखा मिलेगा, फिर अंग्रेजी में। वेल्स जाइए तो पहले वहाँ की भाषा में, फिर अंग्रेजी के नामपट मिलेंगे। हिंदी से रोजी-रोटी कमानेवाला भी अंग्रेजी में ‘विजिटिंग कार्ड’ थमाएगा। हिंदी से करोड़ों रुपए कमानेवाले अभिनेता-अभिनेत्रियाँ अंग्रेजी में बोलकर शान दिखाते हैं—भले ही चैनल हिंदी का हो तथा कार्यक्रम भी हिंदी में हो! आज भी भारत के हजारों कॉन्वेंट स्कूलों में हिंदी में बात करना प्रतिबंधित है। याद करिए मध्य प्रदेश के कस्बे शिवपुरी के कॉन्वेंट स्कूल की घटना, जहाँ एक बच्चे को कक्षा में अपने साथी से हिंदी में बात करते हुए ‘पकड़ा गया’ और आठ पेज में ‘आई विल नॉट स्पीक इन हिंदी’ (मैं हिंदी में नहीं बोलूँगा) की सजा सुनाई गई थी। छात्रों को तरह-तरह की अन्य सजा देने की खबरें भी खूब सामने आई हैं—अपराध—‌‘हिंदी में बात कर लेना।’ जबलपुर के इंजीनियरिंग कॉलेज के, माँ-बाप की इकलौती संतान की आत्महत्या को भी याद करना जरूरी है, जिसने लिखा कि ‘मेरी अंग्रेजी कमजोर है, जिसके कारण मुझे अपमान का शिकार होना पड़ता है! इसी तरह इंदौर की प्रतिभावान छात्रा ने इसलिए आत्महत्या कर ली कि उसका अंग्रेजी का परचा ‘अच्छा नहीं’ हुआ! बाद में परिणाम आया तो अंक मिले थे ८३ (तिरासी)। अंग्रेजी का इतना भयावह आतंक! भविष्य नष्ट हो जाने की आशंका। ऐसा आपने दुनिया के किसी और देश में देखा-सुना है कि फ्रांस के किसी छात्र ने इसलिए आत्महत्या कर ली हो कि उसे जर्मन भाषा अच्छे से नहीं आती! आज भी पूरे देश में जितने भी प्रतिष्ठ‌ित पाठ्यक्रम हैं, चाहे चिकित्सा हो या अभियांत्रिकी या कानून या चार्टर्ड एकाउंटेंट या आर्कीटेक्चर या अन्य, सबका माध्यम (अपवादों को छोड़कर) अंग्रेजी ही है। इसीलिए हर तरफ अंग्रेजी का ही वर्चस्व है। अंग्रेजी ही आज भी ‘महारानी’ बनी हुई है। हिंदी दुर्दशा, उपेक्षा की शिकार है। ‌हिंदी भाषियों में हिंदी को लेकर गुलामी की मानसिकता से छुटकारा नहीं मिल रहा है। हिंदी भाषी प्रांतों में भी घर-घर दरवाजे के बाहर अंग्रेजी की नामप‍‍‌ि‍ट्ट‍याँ मिलेंगी। मांगलिक कार्यों, जैसे विवाह आदि के निमंत्रण-पत्र अंग्रेजी में ही मिलेंगे, भले ही किसी हिंदी कवि, लेखक, पत्रकार, हिंदीसेवी का परिवार क्यों न हो! अंग्रेजी इतनी हावी है कि हिंदी के एक वाक्य में अंग्रेजी के तीन-चार शब्द अवश्य प्रवेश पा जाएँगे। कुछ लोग ‘हिंगलिश’ को भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने को कटिबद्ध हैं। आत्मीय रिश्तों के लिए भी ‘मेरी मदर’, ‘मेरे फादर’, ‘मेरी सिस्टर’, ‘मेरी वाइफ’ आदि का बोलबाला है।

आप अपने दिल पर हाथ रखकर, एक सर्वप्रभुतासंपन्न राष्‍ट्र के गौरवशाली नागरिक के रूप में ईमानदारी से सोचकर बताएँ कि क्या देश में हिंदी की इतनी उपेक्षा, अपमान तथा दुर्दशा के भयावह परिदृश्य के बावजूद संयुक्त राष्ट्र में हिंदी के प्रवेश पर खुशी मनाना कितना खोखला लगता है। यह ठीक है कि भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयीजी संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में बोलते हैं तो खुशी मनाई जाती है। रूस के राष्ट्रपति ख्रुश्चेव विमान से उतरते ही नेहरूजी से कहते हैं, ‘आवारा हूँ’ (राजकपूर की फिल्म का संदर्भ) और सारे अखबारों की सुर्खियों में यही वाक्य होता है! ओबामा भारत में एक सभा में अचानक हिंदी में एक वाक्य ‘बड़े-बड़े शहरों में...’ बोल देते हैं, खुशी की लहर दौड़ जाती है। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव विश्‍व हिंदी सम्मेलन के उद्घाटन में ‘नमस्ते, कैसे हैं?’ बोलते हैं तो खुशी की लहर दौड़ जाती है। लेकिन इस तरह खुशी मनाने के साथ हिंदी-सेवियों को बहुत गंभीर होकर हिंदी को अपने ही देश में सुदृढ़ करना होगा, उसे उसका सम्मानजनक स्थान दिलाना होगा। शासन-प्रशासन में, शिक्षा में, न्याय में, कारोबार में हर क्षेत्र में हिंदी को प्रतिष्ठित करना होगा। गुलामी की मानसिकता को उखाड़ फेंकना होगा। यदि स्वाधीनता के अमृत महोत्सव में भी यह न हुआ तो कब होगा? अनेक निराशाओं के बीच सुखद यह है कि भारत सरकार में हिंदी में कामकाज बढ़ा है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीजी वैश्विक मोर्चों पर हिंदी में बोलते हैं। दुनिया भर में भारतवंशी एवं प्रवासी भारतीय हिंदी को अपनी पहचान मानकर समृद्ध करने में लगे हैं। इंटरनेट ने हिंदी के पक्ष में क्रांतिकारी योगदान दिया है। ऐसे में हिंदी-सेवियों को संयुक्त राष्ट्र की सातवीं आधिकारिक भाषा बनाने में जुट जाना चाहिए।

(लक्ष्मी शंकर वाजपेयी)

 

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