RNI NO - 62112/95
ISSN - 2455-1171
ग़ज़लें![]() सुपरिचित कवि। ‘समय सापोक्ष हूँ मैं’ (कविता-संग्रह), ‘तथागत’ (गीत-संग्रह), ‘जहान है मुझमें’ (ग़ज़ल-संग्रह) सहित अनेक रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। भारत के प्रधानमंत्री द्वारा ‘मीडिया इंटरनेशनल अवार्ड’, भारत के राष्ट्रपति द्वारा ‘साहित्यश्री पुरस्कार’ सहित अनेक पुरस्कारों से पुरस्कृत। दूरदर्शन, आकाशवाणी आदि टी.वी. कार्यक्रमों में कविता पाठ प्रसारित। : एक : जब भी दिल से तुझे याद करता हूँ मैं खुशबुओं के नगर से गुजरता हूँ मैं। गुनगुनी साँस की रेशमी आँच में धूप सुबह की होकर उतरता हूँ मैं। नर्म एहसास का खुशनुमा अक्स बन लफ्ज के आईने में सँवरता हूँ मैं। चंपई होंठ की पँखुरी पर तिरे ओस की बूँद बनकर उभरता हूँ मैं। आसमानों से जब भी गुजरता हूँ मैं चंद सूरज हैं जिन पर ठहरता हूँ मैं। एक मुट्ठी जमीं, एक मुट्ठी गगन फिर भी इल्जाम दुनिया पे धरता हूँ मैं। मेरे घर में बगावत के आसार हैं घर में रक्खे खिलौनों से डरता हूँ मैं। मेरे जीवन में अब कोई सावन नहीं जेठ, वैशाख की माँग भरता हूँ मैं। रूह बेचैन है, जिस्म पारे का है एक मंजिल पे कम ही ठहरता हूँ मैं। जख्म तो जख्म है, जख्म नासूर है जिनको सुनसान लम्हों में भरता हूँ मैं। मेरे अंदर भी इक ऐसा बाजार है जिसमें ‘नीरव’ को नीलाम करता हूँ मैं। : दो : पास जब आया तिरे खुद अपना सानी हो गया रेशमी लम्हों की मैं नाजुक कहानी हो गया। वो मचलती खुशबुओं का एक दरिया था मगर मैं भी रेगिस्तान की तपती जवानी हो गया। जब से तेरे नाम को जोड़ा गया है मेरे साथ ऐसी रुसवाई हुई मैं पानी-पानी हो गया। क्या हुआ, कैसे हुआ, क्योंकर हुआ बतलाएँ क्या वो तो मुंसिफ ही रहा, मैं हुक्मे सानी हो गया। आनेवाली नस्ल लिक्खेगी मुझे तारीख में मैं तो क्या मेरा मुकद्दर भी कहानी हो गया। आँख की देहलीज पर सोया धुएँ को ओढ़कर मैं सुलगते हादसों की राजधानी हो गया। उसको काँधे पर सिफारिश के फरिश्ते लाए थे मैं जमीनी ही रहा वो आसमानी हो गया। हम तो जैसे आए थे बस्ती में वैसे ही रहे वो मगर इस शहर का जिल्लेसुभानी हो गया। मेरी नजरों में कोई मंजिल नहीं नीरव मगर मैं जहाँ ठहरा वही पत्थर निशानी हो गया। : तीन : तुम्हारी याद के साये दिखाई देने लगते हैं तो आँसू आँख को आकर बधाई देने लगते हैं। लगें जब सूखने नगमे लिखे साँसों से जो हमने तो अपने खून की, हम रौशनाई देने लगते हैं। भटकती मेरी साँसें हैं जो बीहड़ में उदासी के तो तन्हाई के जुमले भी सुनाई देने लगते हैं। अदालत में खुदा की जब, कभी सुनवाई होती है तो ज़ालिम खुद सुबूत ए पारसाई देने लगते हैं। महाजन जब उदासी का वसूली करने आता है ढुलकते आँसुओं की हम कमाई देने लगते हैं। जरूरत पड़ने पर नीरव नहीं जो काम आते हैं मुनाफिक जब मिलेंगे तो सफाई देने लगते हैं। : चार : याद बीते दिनों की जो आने लगी बुझती शम्मा की लौ थरथराने लगी। काली परछाइयाँ रक्स करने लगीं मौत खुद मर्सिया आके गाने लगी। ख्वाब आने से जिसके परेशान हैं नींद आँखों में ये कैसी आने लगी। धूप सूरज का घर छोड़कर जा रही रात की धुंध साँसों पे छाने लगी। काटने को नसें ब्लेड से हाथ की जिंदगी खुद-ब-खुद कँपकँपाने लगी। छोड़कर दुनिया जाने की आई घड़ी जब सुना रूह ने, मुसकराने लगी। कैसा ‘नीरव’ चमन का चलन ये हुआ जिस्म फूलों का खुशबू जलाने लगी। पंडित सुरेश नीरव आई-204, गोविंदपुरम, दूरभाष : 9810243966 |
मार्च 2023
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