RNI NO - 62112/95
ISSN - 2455-1171
तीन गीत![]() सुपरिचित लेखक। फैली-फैली धूप है (दोहा-संग्रह), गीतों की छाँव एवं अंजुरी भर गीत (गीत-संग्रह) एवं अन्य रचनाएँ प्रकाशित। भारत के नामचीन कवियों और शायरों के साथ लगभग ढाई सौ से अधिक कार्यक्रमों में भागीदारी। विभिन्न टी.वी. कार्यक्रमों में रचनाएँ प्रसारित। वरिष्ठ उपाध्यक्ष, ऑल इंडिया सेक्युलर राइटर्स एसोसिएशन। राजस्थान साहित्य अकादमी सहित लगभग पच्चीस सम्मानों से सम्मानित। सुना जोगिया जिंदगी की कहानी सुना जोगिया। चुप न रह कुछ-न-कुछ गुनगुना जोगिया। छोड़ दे तू गली ये उहापोह की। राह अवरोह की कर दे आरोह की। इस तरह से कथा पूरी कर जोगिया। दे गवाही ये साँसें समारोह की। प्यार करके दिखा सौ गुना जोगिया। चुप न रह कुछ-न-कुछ गुनगुना जोगिया। सो न जाए कहीं चाँद तारों का मन। खो न जाए कहीं भीड़ में ये गगन। इस जवानी भरी रात की देह का। हो न जाए कहीं रास्ते में हवन। मिल के सपनों की चादर बुना जोगिया। चुप न रह कुछ-न-कुछ गुनगुना जोगिया। सोच मत मन की सब खिड़कियाँ खोल दे। इन हवाओं में तू जिंदगी घोल दे। मैं तेरी रीत हूँ मैं तेरी प्रीत हूँ। अपनी खुशबू से मुझको अभी तोल दे। साथ करमों की रुई धुना जोगिया। चुप न रह कुछ-न-कुछ गुनगुना जोगिया। सावन की बौछार पीली पड़ती शाखा पर जब सावन की बौछार हुई। लगा कहीं पर सन्नाटे में पायल की झंकार हुई। समय समर्थक हुआ आज तो शांत हुई विरहा की ज्वाला। भर जाता था बार-बार खाली होकर प्यासी का प्याला। आज नदी द्वारा बादल से बार-बार मनुहार हुई। पीली पड़ती शाखा पर जब सावन की बौछार हुई। होड़ मची थी रस पीने की ध्यान मग्न था नीला अंबर। मंथर-मंथर नाच रही थी धरती आज त्याग पीतांबर। पूर्ण मिलन की सारी किरिया, विधियों के अनुसार हुई। पीली पड़ती शाखा पर जब सावन की बौछार हुई। प्रीत मुखर थी, त्याग मुखर था, साँसों का संगीत मुखर था। एक तरफ तो थी अराधना, एक तरफ का गीत मुखर था। मन की लहरों बीच फँसी थी तन की नैया पार हुई। पीली पड़ती शाखा पर जब सावन की बौछार हुई। उधार की साँसें मैंने उम्र गुजारी लेकर साँसे सभी उधार में। साथ नहीं छोड़ा पतझर ने मेरा कभी बहार में। थी उधार की साँसे फिर भी कभी लजाया नहीं नमन को। अपमानित होने से मैं तो सदा बचाता रहा सदन को। मुझे जीतने पर न मिलता मजा मिला जो हार में। मैंने उम्र गुजारी लेकर साँसे सभी उधार में। कभी नहीं ये चाहा शीतल हो जाएँ अंगारे मेरे। कभी नहीं की चिंता मेरे मुस्काते से मिले सवेरे। न ये देखा कभी कि कितनी चुभन बची है खार में। मैंने उम्र गुजारी लेकर साँसे सभी उधार में। पक्षपात की रेल पकड़कर नहीं गया मैं गंतव्यों पर। मैंने सदा भरोसा रखा काल चक्र के वक्तव्यों पर। घर फूँका है सोच-समझकर अपना बीच बाजार में। मैंने उम्र गुजारी लेकर साँसे सभी उधार में। बनज कुमार बनज ई-492 लाल कोठी योजना, दूरभाष : 9326469538 |
मई 2023
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