RNI NO - 62112/95
ISSN - 2455-1171
लघुकथाएँ - एहसान![]() सुपरिचित लेखक। लघुकथा, कहानी, बाल-कथा, कविता, बाल-कविता, पत्र-लेखन, डायरी-लेखन एवं सामयिक देश की अनेक साहित्यिक पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन। हिंदी-अकादमी (दिल्ली), दैनिक हिंदुस्तान (दिल्ली) से पुरस्कृत एवं अनेक पुरस्कारों से पुरस्कृत।
एहसान “रूबी! कल जल्दी आ सकती है क्या?” “दीदी! कितनी जल्दी?” “यही कोई सुबह आठ बजे!” “सर्दी में इतनी जल्दी?...आपको कहीं जाना है क्या? रोज तो आप दो-ढाई बजे निकलती हैं?” “बातें मत बना। बस यह बता कल सुबह आठ बजे आ सकती है या नहीं आ सकती? नहीं आ सकती तो मैं कोई और इंतजाम करती हूँ। मुझे कल नौ बजे हर हाल में निकलना है। इसलिए आठ के बाद मत आना।” “नाराज मत होइए दीदी। मैं आ जाऊँगी। रेशमा आंटी और सरला दीदी का काम बाद में निपटा दूँगी।” “ठीक है! भूलियो मत।” “दीदी! नहीं भुलूँगी। पर एक बात आपको भी बतानी पड़ेगी।” “वह क्या?” “यही कि आप ऐसे किस ऑफिस में जॉब करती हैं, जो दोपहर बाद दिन में तीन बजे शुरू होता है और देर रात तक चलता है। सब लोगों के ऑफिस तो दिन में ही अपना काम निपटा लेते हैं?” “तू बहुत बोलती है। हर काम के अपने नियम होते हैं, जो वहाँ के काम के हिसाब से तय होते हैं।” “दीदी, गुस्सा मत कीजिए। मैं तो इसलिए पूछ रही थी कि मेरी बड़ी बेटी ने इंटर के बाद कॉलेज ज्वॉइन किया है और वह पढ़ाई के साथ-साथ कुछ काम भी करना चाहती है। मुझे दिन भर खटते देखकर कहती है कि कॉलेज से आने के बाद कोई छोटी-मोटी जॉब कर ले तो मुझे भी दो पैसे का सहारा हो जाएगा। उसके बाप का तो आपको पता ही है, अपनी सारी कमाई या तो शराब में उड़ा देता है या फिर रात के अँधेरे में न जाने किन बेगैरत औरतों को दे आता है!” नाजिमा की हिम्मत नहीं हुई कि तेज चाल से बरतन माँजते उसके हाथों को रोककर बताए कि मेरे काम का पता लेगी तो मुझे भी दीदी की जगह किसी बेगैरत का दर्जा देने में देर नहीं करेगी। उसने इतना ही कहा, “रूबी! क्यों किसी को बेगैरत या गैरत वाली कहकर अपनी जबान खराब करती है। क्या पता, उन औरतों के आदमियों के इसी तरह के करतबों ने उन्हें बेगैरत बनाया हो? तू चिंता मत कर, मैं अपने बॉस से तेरी बेटी के लिए किसी अच्छे काम की बात जरूर करूँगी। अगर वहाँ बात न भी बनी तो भी बहुत से दूसरे अधिकारी मुझे जानते हैं और वे सारे भी मेरी बात को टालते नहीं हैं ।” रूबी ने अपने पल्लू से सर को सलीके से ढका और हसरत भरी निगाहों से उसकी ओर देखते हुए बोली, “दीदी! मेरी बेटी और मुझ पर यह एहसान जरूर कर दीजिए, जिंदगी भर दुआ दूँगी।” नजिमा रूबी की मदद करके खुश तो थी, पर उसे लगा कि काश उसके संपर्कों की पहुँच उसका शरीर नहीं, उसकी अपनी वह काबिलीयत होती, जिसकी कदर उसके अपने शौहर ने नहीं की।
वैभव की वैभवी रोज मर्रा की जिंदगी में अत्यंत सक्रिय विभा को अचानक घुटनों में दर्द की शिकायत रहने लगी और दर्द ने पैदल चलना भी मुश्किल कर दिया। आदतन शुरू में विभा ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। बढ़ी हुई सर्दी में धूप के लिए जब घर की छत की ओर जाने वाली सीढ़ियाँ चढ़ना भी मुश्किल हो गया तो वैभवजी पत्नी पर झल्लाए, “विभा! कब तक बढ़ती हुई उम्र को नकारती रहोगी, लगता है तुम्हारे घुटनों पर गठिया ने दस्तक दे दी है, डाक्टर को दिखाना जरूरी है।” “जाने दीजिए, मुझे कुछ नहीं हुआ है। सिंकाई वगैरह करूँगी तो ठीक हो जाऊँगी। डॉक्टर के पास गई तो दो-चार हजार का बिल बना देगा।” “दो का बिठाएँ या दस का, जाना तो पड़ेगा ही।” वैभवजी फिर बोले। “बड़े आए डॉक्टर के पास ले जाने वाले। हर बार अपने ही अपने नुस्खों से ठीक हुई हूँ।” “ठीक है, मत मानो मेरी बात, जब चारपाई से चिपक जाओगी, तब तो जाओगी न।” वैभवजी चिंतित से लगे। विभा से उनकी झल्लाहट सहन नहीं हुई और अगले दिन उनके साथ हड्डियों के डॉक्टर के सामने जा बैठी। डॉक्टर ने मुआयना किया और बताया कि शरीर में विटामिन-डी की कमी की वजह से हड्डियाँ कमजोर हो गई हैं, घुटनों में शरीर का वजन सँभालने की ताकत कम हो रही है। इसलिए आपको न तो किचन में अधिक देर तक खड़े रहना है और न ही अधिक पैदल चलना है। ये कुछ दवाएँ और साथ में फिजियोथेरैपी का कोर्स करना होगा, तभी रोग पर अंकुश लगेगा। साथ ही हर दिन कुछ देर तक शरीर को धूप लगवाना भी जरूरी है।” “डॉक्टर साहब, मैं तो रोज ही धूप में बैठती हूँ।” विभा बोली। “वह तो ठीक है, पर धूप तो आपके कपड़ों को सेंकती है, शरीर को नहीं। विटामिन-डी तो तब मिलता है, जब धूप सीधे त्वचा को लगे।” डॉक्टर ने कहा। “क्या मतलब, डॉक्टर साहब?” वैभवजी ने अनजान बनते हुए पूछा। डॉक्टर साहब मुसकरा दिए और फिर बोले, “हरे पौधे अपना भोजन खुद बनाते हैं। ये तो आप जानते ही होंगे।” “जी, यह तो सबको पता है।” “अब यह बताइए कि वे अपना यह करतब कैसे कर पाते हैं? “जी, इसके लिए उन्हें खाद-पानी के अलावा धूप में रहना भी जरूरी है।” “और अगर धूप में रखे पौधों को किसी कपड़े से ढक दिया जाए तो क्या तब भी धूप उन पर अपना कार्य कर सकेगी?” “ऐसा कैसे हो सकता है? धूप जब सीधे उनकी पत्तियों पर गिरेगी, तभी तो धूप का असर उन पर होगा और वे अपना भोजन बना पाएँगे।” “बस यही सूत्र हमारी त्वचा के लिए भी सच है, वरना तो सिर्फ कपड़े, जो हमने पहन रखे हैं, वही गरम होकर रह जाएँगे। शरीर में विटामिन-डी तो बनेगा ही नहीं।” डॉक्टर साहब ने कहा। सुनकर विभा शरमा गई। डॉक्टर से विदा लेने के बाद वैभवजी बोले, “ठीक होना है तो डॉक्टर की सलाह तो माननी पड़ेगी।” “तुम्हें तो किसी अंग्रेजन से ब्याह रचाना चाहिए था। वह सारा दिन बदन उघाड़े धूप से विटामिन-डी लेती रहती और तुम्हें मेरे लिए अस्पताल के चक्कर न लगाने पड़ते।” विभा ने रोष से कहा। “गुस्सा क्यों होती हो? तुम्हारे रोग को ठीक करने के लिए मैं दुनिया के किसी भी अस्पताल के चक्कर तब तक लगा सकता हूँ, जब तक तुम पूरी तरह से स्वस्थ नहीं हो जातीं। मैं तो बस इतना चाहता हूँ, वैसे डॉक्टर की सलाह मान लोगी तो रोग जल्द ठीक हो जाएगा।” “तुम्हारे हिसाब से तो मैं आदिवासिओं जैसे कपड़े पहनकर धूप में सिंकती रहूँ और तुम मुझे देखते रहो। लोक-लाज तो जैसे बीते जमाने की बातें हैं, यही न।” “ठीक है, विभा रानीजी। जो आपको उचित लगे, वही कीजिए।” वैभवजी थोड़ा झल्लाने के बाद चुप हो गए। अस्पताल से लौटकर वे अपने काम पर चले गए। अगले दिन विभा के घुटनों की सिंकाई के लिए उन्हें फिर से अस्पताल जाना था। “जल्दी से तैयार हो जाओ। आज अस्पताल में जल्दी पहुँचकर सिंकाई करवा लेंगे, फिर मैं ऑफिस चला जाऊँगा।” वह कह ही रहा था कि उसने पाया कि विभा ने स्वीमिंग सूट जैसा कुछ पहन रखा है और स्वयं को सूर्य के सामने ले जाने की तैयारी भी कर ली है। उसने आँखों को मसलते हुए पूछा, “यह क्या अजूबा है? किसी ने तुम्हें इस लिबास में देख लिया तो बवंडर आ जाएगा?” “बवंडर आए या भूचाल, मेरे लिए लोग नहीं, मेरे लिए मेरा वैभव और उनकी कही गई बात मायने रखती है। अब आपकी विभा पहले धूप का असली सेवन करेगी और फिर जरूरत पड़ी तो अपने वैभवजी के साथ अस्पताल भी जाएगी।” ढलती उम्र में भी विभा के गाल कश्मीरी सेव की तरह लाल हो उठे और वैभवजी का चेहरा गुलाब की तरह खिल उठा। सुरेंद्र कुमार अरोड़ा डी-184, श्याम पार्क एक्सटेंशन, दूरभाष : 9911127277 |
जुलाई 2022
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