माटी-चंदन-सोना

माटी-चंदन-सोना

सुपरिचित लेखक। पत्र-पत्रिकाओं में आलोचना, कविता, ललित-निबंध एवं कहानी प्रकाशित। विगत २०१८ से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग में सहायक आचार्य पद पर कार्यरत।

गाँव के खेतों और खलिहानों में सिर्फ झलकती वह सूरज की पहली किरण कितनी मनोहारी और आकर्षक होती यह कितनों को पता है। आजकल देश में पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से नगरागमन काफी तेजी से हो रहा है, अब न तो हमारे पास संस्कृति बची न सभ्यता बची, न प्रेम बचा न परिवार, अगर कुछ शेष है तो वह कुंठा और संत्रास परिवार तेजी से विघटित हो रहे हैं। अब तो संयुक्त परिवार केवल किस्से और कहानियों में ही पाए जाते इस सूक्ष्म परिवार का यह बढ़ता प्रचलन हमें नगरों की ओर जाने को प्रेरित करता है। गाँव की खुशहाली और हरियाली को छोड़कर नगर के तनाव भरे प्रदूषित और बहुत ही कावादी अट्टालिकाओं में प्रवेश करना लोगों को इतना भा रहा है की ये लोग अब ताबीर और तसवीर को भी बदलने में हिचकिचाते नहीं।

यदि किसी कृषि प्रधान देश में उस देश के देशवासी गाँवों से शहरों में पलायित हो रहे हो वह भी तेजी से तो उस देश का भविष्य तय करना मेरे बस की बात नहीं। दिन-रात चट्टी-चौराहों पर पान और चाय की दुकानों पर सरकार को महँगाई पर कोसने वाले लोग इतनी छोटी सी बात क्यों नहीं समझ पाते पर शायद इसमें कमी सरकार की भी है। आजादी के 65 वर्ष बाद भी इस देश की सरकार गाँव में आम आदमी की आम जरूरतों की पूर्ति करने में उनकी मौलिक आवश्यकताओं रोटी, कपड़ा और मकान की भी पूर्ति करने में असफल रही है। हालात दिन पर दिन बदतर होते जा रहे हैं, परंतु इसमें कमी किसकी है, क्या इस पर कभी विचार हुआ? हाँ, हुआ पर शायद निर्णय पहले हो जाता है। चिंतन का ढोंग बाद में वास्तव में सारी कठिनाइयों कि जब हम स्वयं है भारत वर्ष का व्यक्ति अति भाग्यवादी होता है उसे तनिक भी अपने कर्म और अपने पौरुष पर विश्वास नहीं है। भैया तो भगवान् भरोसे अपनी जिंदगी काट रहा है या फिर सरकार भरोसे इस देश की आधी आबादी युवकों और नौजवानों की है। वह देश अगर इस प्रकार की दृष्टि रखें तो यह अत्यंत चिंता का विषय पर क्या करें यह इस देश का सत्य है चिंता तो इस बात की है कि जो हुआ सो हुआ आगे भी देश की मानसिकता मैं बदलाव होता दिखाई नहीं पड़ रहा। वहीं सरकार को कोसने की आदत व्यवस्था पर तंज कसना दूसरों में कमियाँ झाँकना वाहर भारत कब सुधरेगा। यह देश हम भूल कैसे सकते हैं कि हम उस देश के निवासी हैं, जहाँ राम ने जन्म लिया वह राम जो राजपुत्र होते हुए भी जनता में एक आदर्श प्रस्तुत करने हेतु और समाज कल्याण की मंशा से १४ वर्ष का वनवास काटे वह चाहते हैं तो माता कैकेयी को मनाकर अपना वनगमन टाल सकते थे, परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया भारत के लाख मान मनौवल के बाद भी वह नहीं रुके क्यों की उन्हें मालूम था कि अगर उन्होंने ऐसा किया तो उनका आदर्श चरित्र धूमिल होगा। हम उस महान् शंकराचार्य के वंशज हैं, जिन्होंने संपूर्ण भारतवर्ष का को अपने कदमों से नापा और भारत की अखंडता का संदेश दिया हम विवेकानंद के मानने वाले हैं, जिन्होंने विश्व को ज्ञान दिया, हम अपनी उन घाटी को क्यों भूल गए, क्यों भूल गए हम गीता के श्लोकों, जिसमें श्रीकृष्ण ने कहा अर्जुन से की हे अर्जुन! कर्म करो, फल की इच्छा मत करो। हम आक्रमण होते जा रहे हैं और अपनी कमियों का ठीकरा सरकार और व्यवस्था पर छोड़ते हैं।

भारत भूमि कोई भौगोलिक संरचना नहीं है। भारत की उत्पत्ति का कारण भी कोई भौगोलिक और वैज्ञानिक घटना नहीं है। भारत को महान् ऋषियों ने अपने तब और जब से निर्मित किया पता विश्व भर में इसका एक विशिष्ट स्थान है। यही कारण है कि लाखों-करोड़ों साल पुरानी यहाँ की संस्कृति सारस्वत चली आ रही है। क्या आज वही रूम है, जो ५०० वर्षों पूर्व था, वहीं मिस्र आज भी है क्या, जो १००० वर्ष पूर्व था, सभी अपनी पुरानी संस्कृति को छोड़कर नई संस्कृति धारण कर चुके हैं इसलिए हमने कुछ तो है, जो विशेष जो हमें अब तक अपनी संस्कृति अपनी सभ्यता का संरक्षण करने में सफल बनाए रखा है, पर आज जब हम २१वीं शताब्दी में जीवन जी रहे हैं तो हमारे सामने यह एक प्रमुख चुनौती है कि किस प्रकार हम अपनी संस्कृति और सभ्यता पर हो रहे। आक्रमण से खुद को बचाएँ पाश्चात्य सभ्यता मानो अफीम के नशे के सामान हमारे समाज को अपने आगोश में ले रही है और हमें अपने मूल से भटकाने की फिराक में है। हमें इससे बचना होगा हमें यह ज्ञान करना होगा कि पूरा भी उदय का केंद्र है और जो पश्चिम की ओर जाएगा, उसका वही हाल होगा कि जो सूर्य का होता जब तक वह पूर्व में रहता है तो पूज होता उदित है, परंतु ज्यों ही पश्चिम में जाता है, वह गहरे आसमान में डूब जाता। हमें यार निर्णय करना होगा कि हम उगना चाहते हैं कि डूबना चाहते हैं।

मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने कहा कि ‘स्वर्णमयी लंका ना मे लक्ष्मण रोचते जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ हमारी तो जन्मभूमि सोने की है। जितनी उर्वरता और सहजता माँ भारती में है, उतनी शायद ही किसी देश की मिट्टी में हो इस देश की मिट्टी में जनमे ऋषियों-महर्षियों ने विश्व को अपने ज्ञान से प्रकाशित किया वीर सपूतों की जननी यह धरती महान् है। आज भी और हजारों-लाखों वर्ष पूर्व विश्व हमारी ओर लालच भरी आँखों से देखता पर हम क्या करते यह भी एक चिंता का विषय है, हम न तो अपनी धरती से मुँह है न अपनी मिट्टी से मोह है। यहाँ की संस्कृति और सभ्यता से हम दिन-पे-दिन स्वार्थी होते जा रहे। विद्यार्थी पढ़ता नहीं है, शिक्षक पढ़ाता नहीं है, चिकित्सक चिकित्सा नहीं करता, अधिकारी अपने दायित्व का निर्वाह नहीं करता और नेता सेवा भाव नहीं रखता यहाँ आप कोई भी अपना काम ईमानदारी से नहीं करता और सब अपना दोष दूसरे के मत्थे पर चढ़ते चले जाते। सरकार इतने विद्यार्थियों को अध्ययन की सुविधा देती, पर जब पढ़-लिखकर तैयार होते है तो विदेश जाना पसंद करते हैं, क्योंकि उन्हें वहाँ ज्यादा मानदेय प्राप्त कोई व्यवसायी अपना व्यापार देश में जब भरपूर फैला लेता है तो विदेश जाकर वहाँ की जनता को लाभान्वित करता है, ऐसा क्यों है, क्योंकि हमें अपने देश से प्यार नहीं हम अपने देश से जो हमारा भावनात्मक लगाव था वो हम खोते जा रहे हैं। यही कारण है कि हम केवल और केवल अपने विकास के बारे में सोच रहा हूँ देश जाए भाड़ में जब हम सामान्य जनता में शुमार रहते हैं तो हमें जनता और आम आदमी की सारी कठिनाइयों की चिंता होती, क्योंकि हम भी उन्हीं में से एक है, परंतु जब ये इंक्रीज तीन प्रकरण थोड़ा विशिष्ट हो जाते हैं तो उन सारी समस्याओं को भूल जाते हैं उनके बारे में कुछ करने की हमें सुध नहीं रहती। दिन पर हम कभी रोज प्रवचन दिया करते थे, यह हमारे स्वार्थ की पराकाष्ठा ही तो है।

मैं कोई शंकराचार्य, विवेकानंद या अरस्तू और सुकरात नहीं, पर मेरी छोटी समझ से यदि इन समस्याओं की जड़ है तो हमारा हमारी मिट्टी से खत्म होता भावनात्मक रिश्ता। उसके प्रति प्रेम। जिस प्रकार मानवीय प्रेम में कुरूप-से-कुरूप स्त्री भी पुरुष को प्रेम में अप्सरा नजर आती है, कुरूप-से-कुरूप बालक भी उसकी माता को सुंदर प्रतीत होता है, उसी प्रकार यदि हमें अपनी मिट्टी से प्रेम हो तो हमें वह भी सुंदर दिखेगी और हमारा देश तो पहले से ही इतना सुंदर है। जिस देश के माथे पर हिमालय का धवल मुकुट, ललाट पर कश्मीर के कुमकुम-केसर का तिलक, सागर जिसके चरण पखारता हो, ऐसे देश की विविधता और भव्यता का क्या कहना! इसलिए जरूरी है कि हम अपनी मिट्टी से प्रेम करें अपने देश को प्रेम करें, तब जाकर इसकी मिट्टी में हमें चंदन की सुगंध महसूस होगी और सोने सा आकर्षण दिखाई देगा।


विनम्र सेन सिंह
असिस्टेंट प्रोफेसर
हिंदी विभाग,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज
दूरभाष : 9455935555
drvinamrasensingh@gmail.com

 

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