स्मृतियाँ

स्मृतियाँ

सुपरिचित व्यंग्य-लेखक एवं उपन्यासकार। ‘घूँघट के पट खोल’, ‘शहर बंद है’, ‘अटैची संस्कृति’, ‘अपने-अपने लोकतंत्र’, ‘फ्रेम से बड़ी तसवीर’, ‘कदंब का पेड़’ (व्यंग्य-संग्रह), ‘जाने-अनजाने दु:ख’ (उपन्यास)। उत्कृष्ट लेखन के लिए भारतेंदु पुरस्कार, अखिल भारतीय अंबिका प्रसाद दिव्य पुरस्कार प्राप्त।

 

वे अपने आपको एक असफल इनसान मानते हैं। अब पचहत्तर की उम्र में क्या सफलता और क्या असफलता! जीवन पूरा बीत गया। थोड़ा सा जीवन शेष बचा है। इसे किस काम में लगाएँ? इस संबंध में अभी तक वे ठीक से निर्णय नहीं कर पाए।

पत्नी साथ में हैं। उनका शुरू से यह मानना है कि औरतों को अच्छी कमाई करने वाला एक आज्ञाकारी पति मिल जाए, बस। उनका जीवन सफल है। इस कसौटी पर उनकी पत्नी का जीवन बहुत सफल है। पढ़ी-लिखी ज्यादा नहीं हैं। मैट्रिक पास हैं। उन्होंने अपने जीवन में बहुत कोशिश की कि उनकी पत्नी कम-से-कम ग्रैजुएट हो जाएँ, परंतु पढ़ाई-लिखाई में उनका मन नहीं लगा। वे पढ़-लिखकर क्या करती! उन्हें कौन सी कमाई करनी है? पति हैं तो इतने पढ़े-लिखे। कर रहे हैं अच्छी नौकरी। ला रहे हैं हर माह मोटी तनख्वाह। उन्हें अपने पति से बस इतनी शिकायत रही, जैसे दूसरे प्रोफेसर ट्यूशन करते हैं। परीक्षाओं के प्रश्नपत्र बनाते हैं। परीक्षा की कॉपियाँ जाँचते हैं और मोटी रकम लेकर साधारण छात्रों को अच्छे नंबर देकर पास कराते हैं, ऐसा कुछ उनके पति क्यों नहीं करते? उन्हें ऐसा करना चाहिए। सिर्फ तनख्वाह के पैसों से भला क्या होता है! मेरी भी इच्छा होती है कि नई डिजाइन के जेवर बनवाऊँ। वही पुराने नेकलेस पहनते-पहनते ऊब गई हूँ। दूसरे प्रोफेसरों की बीबियाँ कैसे नए-नए जेवर पहनती हैं। पत्नी ने एक-दो बार अपनी इच्छा अपने पति को बताई थी। पति ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। इसके अलावा उसे अपने पति से कोई शिकायत नहीं रही। वे घर की पूरी जिम्मेदारियाँ भलीभाँति उठा रहे हैं। अब तो उनके पति रिटायर हो गए। पेंशन में गुजारा चल रहा है।

लोग उन्हें एक सफल इनसान समझते हैं। बेटे और बेटी दोनों बाहर अच्छी नौकरी में हैं। दोनों की शादी हो गई। वे यहाँ अपने शहर में रिटायर जीवन बिता रहे हैं। वे इस पड़ाव पर आकर अकसर सोचते हैं—क्या खोया, क्या पाया? उन्हें लगता है कि उन्होंने खोया ही खोया है। जो पाया है, वह बहुत कम है। अकसर वे अपने कमरे में चुपचाप बैठे रहते हैं। खो जाते हैं अतीत की स्मृतियों में और सोचते हैं कि ऐसा नहीं, वैसा होता तो ज्यादा अच्छा था। और दुःखी हो जाते हैं इस बात को लेकर कि वैसा क्यों नहीं हुआ।

आज सुबह की चाय पीने के पश्चात् वे अपने बचपन में चले गए और पिता को दोष देने लगे। काश, उनके पिता उन्हें बचपन में कॉन्वेंट स्कूल में भर्ती करवाते तो उनकी अंग्रेजी इतनी कमजोर न होती। तब उनका भविष्य इससे ज्यादा उज्ज्वल होता। उनके पिता ने साधारण बच्चों की तरह ही उन्हें सरकारी स्कूल में धकेल दिया। बचपन में उनके लिए कोई ट्यूटर भी नहीं लगाया गया। उन्होंने अपने मन से जो कुछ पढ़ लिया सो पढ़ लिया। कोई कुछ बताने वाला नहीं, समझाने वाला नहीं। पिता भी मेरी पढ़ाई के विषय में मुझसे न पूछकर मेरे स्कूल मास्टर से पूछते। हाँ, कॉपी-किताबों की उन्होंने मुझे कोई कमी नहीं होने दी। मैं बचपन से पढ़ाई के क्षेत्र में कोई बहुत अच्छा छात्र कभी नहीं रहा। कैसे रहता? घर पर कोई मुझे ट्यूशन पढ़ाने आता होता तो कोई बात बनती। पिता तहसील ऑफिस में क्लर्क थे। तनख्वाह उनकी कम रही होगी। परंतु बच्चों का भविष्य यों नहीं बनता! उसके लिए माँ-बाप को भी बहुत त्याग करना पड़ता है। मैं किसी तरह द्वितीय श्रेणी में हाईस्कूल पास करके नौवीं कक्षा में आ गया। यहाँ लोग अपना भविष्य चुनते हैं। कोई बायाेलॉजी के विषय चुनता है। कोई मैथ्स लेता है। कई लोग आर्ट के विषय लेकर आगे पढ़ाई करते हैं। पिता ने इस दिशा में ज्यादा दिलचस्पी न दिखाई। उन्होंने हमेशा की तरह मेरा भविष्य स्कूल मास्टर के ऊपर छोड़ दिया। मास्टरजी के अनुसार होशियार बच्चे बायोलॉजी और मैथ्स लेते हैं। साधारण बच्चों के लिए आर्ट्स के विषय ठीक रहते हैं। मुझे साधारण विद्यार्थी मानते हुए आर्ट्स विषयों में दाखिला दिला दिया गया। यह मेरे साथ बहुत बड़ा अन्याय हुआ। क्योंकि मैं मिडिल स्कूल में द्वितीय श्रेणी से पास हुआ था, इस आधार पर मुझे साधारण छात्र मानते हुए नौवीं में आर्ट्स विषयों को पढ़ने के लिए कहा गया। उस समय मुझे ज्यादा समझ न थी। जैसा मेरे स्कूल मास्टरजी ने चाहा, मेरे साथ वैसा ही किया गया। मैं अपने स्कूल मास्टर को कभी माफ नहीं कर सकता।

खैर, मैं आर्ट्स विषयों के साथ पढ़ने लगा। उन दिनों देश में अजीब हवा चली थी—अंग्रेजी हटाओ। अंग्रेजी के खिलाफ शहर में जुलूस निकाले गए। प्रदर्शन हुए। मुझे भी यह सब अच्छा लगा कि विदेशी भाषा जरूर देश से हटाई जानी चाहिए। सरकारी आदेश से अंग्रेजी को ऐक्षिक भाषा की तरह पाठ्यक्रम में शामिल किया गया। उसकी अनिवार्यता समाप्त कर दी गई। मुझे बहुत खुशी हुई। यह तो बहुत बाद में पता चला कि इसमें हमारे ही पैर कट गए। आगे हम दौड़ नहीं सकते थे, सिर्फ घिसट सकते थे। मैं भी किसी तरह घिसटते-घिसटते यहाँ तक पहुँचा।

पत्नी ने पूछा, “बहुत देर से देख रही हूँ। गुमसुम बैठे हो। क्या बात है?” उसके प्रश्न से तंद्रा टूटी। उससे क्या कहता कि मैं अभी कहाँ था। उसे क्या पता कि मैं किन-किन मोर्चों पर किस प्रकार असफल रहा। उसको तो मिल गया एक आज्ञाकारी कमाऊ पति। उसे अब क्या चाहिए। कुछ नहीं। मेरी असफलताएँ तो मुझे ही कचोटती हैं, और किसी को इससे क्या लेना-देना।

उन्होंने पत्नी से कहा, “बाथरूम में कपड़े रख दो, नहाऊँगा।” इतना कहकर वे उठे और नहाने की तैयारी करने लगे। नहाकर उन्होंने अपना नियमित पूजा-पाठ किया। कंघी करके, लुँगी लपेटे डायनिंग टेबल पर आ पहुँचे। पत्नी समझ गई कि अब इन्हें दोपहर का भोजन चाहिए।

भोजन करके वे आराम करने अपने कमरे में आ गए। प्रायः उन्हें दोपहर में सोने की आदत नहीं है। कभी-कभार एकाध झपकी ले ली तो ले ली। वे बिस्तर पर करवटें बदलने लगे।

वे अब अपने स्कूली जीवन को देख रहे थे। आर्ट्स विषयों के साथ उनकी पढ़ाई चल रही थी। उनकी पढ़ाई में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। फिर दिलचस्पी किस क्षेत्र में थी? यह प्रश्न आज भी उनके लिए बहुत बड़ा है। स्कूल के दिनों में खेलों में उनकी कभी रुचि नहीं रही। न खेलने में, न देखने में। कभी-कभार सहपाठियों के साथ कोई मैच देखने चले गए तो चले गए। परंतु क्रिकेट, फुटबाल या हॉकी के मैच देखने में उनकी कोई दीवानगी कभी नहीं रही। हाँ, फिल्में देखने और फिल्मी गाने सुनने का शौक विद्यार्थी जीवन में रहा, अब नहीं है। सहपाठियों के साथ पहले गपशप कर लिया करते थे। अब रिटायर होने के पश्चात् किसी से ज्यादा मिलना-जुलना पसंद नहीं करते। इस प्रकार वे स्वयं नहीं समझ पाते कि उनके शौक क्या हैं? साधारण छात्रों की तरह उन्होंने द्वितीय श्रेणी में हायर सेकेंडरी की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। उन्हें यह सोचकर अब गुस्सा आता है कि उस समय उन्हें किसी ने क्यों नहीं बताया कि साइंस विषयों के साथ पढ़ाई करो तो बेहतर भविष्य बन सकता है।

उनके कस्बे में डिग्री कॉलेज नहीं था, इसलिए शहर में आकर उन्होंने कॉलेज में एडमीशन ले लिया। यहाँ वे हाॅस्टल में रहने लगे। अपने कस्बे से बाहर निकलकर पहली बार उन्होंने दुनिया को ठीक से देखा और समझा। पहली बार शहर में उन्होंने बेरोजगारी का बीभत्स सच देखा। किसी भी विभाग में नौकरी की थोड़ी सी रिक्तियाँ निकलतीं और इंटरव्यू देने वालों की लंबी कतारें लग जातीं। अब उन्हें समझ में आने लगा कि जीवन में साधारण पढ़ाई-लिखाई से काम नहीं चलने वाला। अच्छी नौकरी पाने के लिए बड़ी डिग्री चाहिए, वह भी अच्छे नंबरों के साथ। उन्होंने अब अपनी पढ़ाई की ओर गंभीरतापूर्वक ध्यान देना प्रारंभ किया। यह अफसोस उन्हें जरूर बना रहा कि काश, वे साइंस विषयों के साथ आगे पढ़ पाते। वैसे वे अंग्रेजी बोल लेते हैं, लिख लेते हैं, परंतु अंग्रेजी में बोलकर या लिखकर वे अच्छी तरह अपने विचार नहीं व्यक्त कर सकते, यह अभाव उन्हें उस समय भी कचोटता था और आज भी कचोटता रहता है। कॉलेज में उन्होंने मन लगाकर पढ़ाई की, बी.ए. प्रथम श्रेणी में पास हो गए। उनके पिता बहुत प्रसन्न हुए और बेटे पर कोई नौकरी तलाश लेने के लिए जोर डालने लगे। कुछ जगहों पर नौकरी के लिए उन्होंने अप्लाई भी किया, परंतु इतनी आसानी से कहीं नौकरी मिलती है।

उन्हीं दिनों उनके कॉलेज के एक प्रोफेसर ब्रजलाल वर्मा अपनी भतीजी का रिश्ता लेकर उनके पिता के पास आए। भतीजी उनकी हायर सेकेंडरी पास थी। पास ही गाँव में उनके छोटे भाई रहते थे। उनकी दो बेटियाँ थीं। बड़ी बेटी का रिश्ता इनके लिए आया। प्रोफेसर साहब को मालूम था कि लड़का बेरोजगार है, परंतु उन्होंने लड़के को नौकरी दिलाने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। लड़के के पिता बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने बेटे को समझाया, इससे अच्छा रिश्ता नहीं मिल सकता। उन्होंने प्रोफेसर साहब से आगे पढ़ने की इच्छा व्यक्त की। वे मान गए और शादी तय हो गई।

वे बिस्तर पर करवटें ही बदलते रहे थे कि शाम के चार बज गए। भीतर से पत्नी ने आवाज लगाई, “चाय लेकर आऊँ?”

उन्होंने जोर से “हाँ” कह दी। अब वे पत्नी के विषय में सोचने लगे। वे जब ग्रैजुएट हो गए थे, तब पत्नी हायर सेकेंडरी पास थी। सोचते थे, उसे आगे पढ़ा लेंगे। नहीं पढ़ा पाए। परंतु उसके प्रोफेसर चाचा, जो राजनीति शास्त्र के विभागाध्यक्ष थे, ने उसको जरूर खूब पढ़ाया और इस लायक बनाया कि वे आज सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

पत्नी चाय लेकर आ गईं। वे क्षण भर उसकी ओर देखते रहे मानो कृतज्ञता ज्ञापित कर रहे हों। वे बोले कुछ नहीं। उन्होंने चुपचाप चाय पी ली। शाम को वे कॉलोनी के बीचोबीच बने हुए बगीचे में घूमने जाते हैं। बगीचे में दो-तीन चक्कर लगाकर वहीं बेंच पर सुस्ताने के लिए बैठ जाते हैं। आज भी उन्होंने वैसा ही किया। बेंच पर बैठे-बैठे वे फिर अपने कॉलेज के दिनों में चले गए।

प्रोफेसर साहब के प्रस्ताव के अनुसार शादी हो गई और उन्होंने कॉलेज में राजनीति शास्त्र के विषयों के साथ एम.ए. में एडमीशन ले लिया। उनके काका ससुर कॉलेज में उनके विषय के विभागाध्यक्ष। विश्वविद्यालय में उनका रुतबा। उनकी जान-पहचान का दायरा बहुत बड़ा। एम.ए. करने में कोई ज्यादा समय थोड़े ही लगता है। उसी समय उनकी नई-नई शादी हुई थी। वे कॉलेज में पढ़ रहे थे और परीक्षाएँ दे रहे थे। उन्हें स्वयं यह पता नहीं चला कि वे कैसे एम.ए. की परीक्षा में बहुत अच्छे नंबरों के साथ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गए। उनके काका ससुर बहुत उत्साहित हुए। उन्होंने बिना देरी किए अपने दामाद का अपने ही विभाग में पीएच-डी. के लिए रजिस्ट्रेशन करा दिया। पीएच-डी. होने में भी उन्हें ज्यादा वक्त नहीं लगा। उनके काका ससुर ने उनसे वादा जो किया था कि नौकरी दिलवाने की जिम्मेदारी उनकी है। उन्होंने अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई और एक दिन वे उसी कॉलेज में जहाँ पढ़ते थे, सहायक प्राध्यापक के रूप में नियुक्त हुए।

साँझ घिर आई थी। उन्हें लगा कि अब घर चलना चाहिए। वे घर आ गए। रोज की तरह पत्नी ने पूछा, “रात के खाने में क्या खाएँगे?” उन्होंने बिना किसी उत्साह के कहा, “कुछ भी बना लो। जो तुम्हारा मन हो।” पत्नी ने भीतर जाते हुए कहा, “मूँग की दाल वाली खिचड़ी बना लेती हूँ। मेरा आज खिचड़ी खाने का मन है।”

उन्होंने अपनी सहमति जताते हुए कहा, “खिचड़ी ही बना लो। ठीक रहेगी।” वे अब बैठक में आकर सुबह के अखबार पलटने लगे। उन्हें अपने बच्चे याद हो आए। शादी के साल भर बाद ही सोनू हो गया। बचपन से बहुत जिद्दी था। वे भले ही कॉन्वेंट में नहीं पढ़ पाए, परंतु उन्होंने सोनू को कॉन्वेंट में दाखिला दिलवाया। उसकी अंग्रेजी बहुत अच्छी रहे, इस बात के लिए वे शुरू से सतर्क रहे। उन्होंने उसके लिए घर पर ट्यूटर भी लगाया। उनका सपना था कि वे अपने सोनू को आई.ए.एस. अफसर बनाएँगे। पर किसी के सपने इतनी आसानी से पूरे होते हैं क्या? सोनू के जन्म के दो साल बाद पिंकी आ गई। सीधी, सरल और शांत स्वभाव वाली पिंकी। इसे भी उन्होंने कॉन्वेंट में भर्ती करवाया। सोचा कि इसे डॉक्टर बनाएँगे। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते गए, वैसे-वैसे वे स्वतंत्र होते चले गए। माँ-बाप अपने बच्चों का भविष्य सोचते हैं और बच्चे अपना भविष्य खुद बनाते हैं। सोनू ने हायर सेकेंडरी करने के पश्चात् बी.बी.ए. जॉइन कर लिया। पिता ने बहुत समझाया कि आई.ए.एस. की तैयारी कर परंतु वह नहीं माना। एम.बी.ए. करने के पश्चात् अब बैंगलोर की एक आई.टी. कंपनी में नौकरी करता है। पिंकी ने हायर सेकेंडरी करने के पश्चात् बी.ए. में एडमीशन लिया। मेडिकल लाइन उसे कभी रास नहीं आई। संयोग से उसी समय उसके लिए एक इंजीनियर लड़के का रिश्ता आया। मेरे काका ससुर जो अब रिटायर हो गए थे। उन्होंने मुझसे कहा, “यह रिश्ता छोड़ना नहीं है।” मैंने वैसा ही किया। पिंकी की शादी धूमधाम से हुई। आज वह अपने ससुराल में है। परंतु अफसोस, वे पिंकी को डॉक्टर नहीं बना पाए। सोचते थे, बेटी डॉक्टर नहीं हो पाई तो बेटे की शादी किसी एम.बी.बी.एस. लड़की से करेंगे। उन्होंने इस दिशा में गंभीरतापूर्वक तलाश जारी की। उन्हें विश्वास था कि वे अपनी बिरादरी में एम.बी.बी.एस. लड़की ढूँढ़ लेंगे। उधर सोनू ने अपनी कंपनी की एक सहभागी लड़की से शादी का प्रस्ताव सामने रखा। वे चाहकर भी इस प्रस्ताव का विरोध नहीं कर पाए। जहाँ सोनू ने चाहा, वहीं उसकी शादी हो गई। अब, बेटे-बहू बैंगलोर में रहते हैं। न तो वे सोनू को आई.ए.एस. अफसर बना पाए और न पिंकी को डॉक्टर। हालाँकि उन्होंने दोनों की पढाई-लिखाई में बचपन से कोई कसर नहीं रखी। सोचते थे, डॉक्टर बहू घर में ले आएँगे। नहीं ला पाए। कुछ भी तो वे अपने मन का नहीं कर पाए। सचमुच कितने असफल आदमी हैं वे।

पत्नी ने टी.वी. ऑन कर दिया। समाचार आ रहे थे। प्रायः वे समाचार ही देखते-सुनते हैं। घरेलू किस्म के सीरियल उन्हें बिल्कुल अच्छे नहीं लगते। पत्नी ऐसे सीरियल देखती रहती है। वे अपने कमरे में अखबार कई-कई बार पढ़ते हैं। पत्नी ने उनके लिए हॉकर को बोलकर तीन-चार अलग-अलग अखबार लगवा दिए हैं। वे चुपचाप अखबार देखते हुए अपनी ही दुनिया में खोए रहते हैं। आजकल उन्हें रह-रहकर यह बात बहुत सताती है कि वे जीवन में कुछ नहीं कर पाए। वे सोचते हैं कि वे एक असफल व्यक्ति हैं।

पत्नी ने भीतर से आवाज दी, “खाना डाइनिंग टेबल पर लगा दिया है।” वे अखबारों के ढेर को एक ओर सरका के डाइनिंग टेबल पर आ गए। खिचड़ी स्वादिष्ट बनी है। उन्हें अच्छी लगी। खाना खाने के पश्चात् वे कॉलोनी में थोड़ी देर टहलते हैं। कभी कभार तो बनियान और लुँगी में ही अपने घर के सामने की सड़क में दो-तीन चक्कर लगा लेते हैं। आज उन्होंने लुँगी के साथ कुरता पहन लिया और घर के सामने की सड़क पर टहलने लगे। सामने के बँगले में गुप्ताजी रहते हैं। बड़े उद्योगपति हैं। वे भी रात के भोजनोपरांत बँगले के सामने टहलने निकलते हैं। उनके भी दो बच्चे हैं। दोनों ने अलग-अलग अपने उद्योग स्थापित कर लिए हैं। प्रायः गुप्ताजी की प्रोफेसर साहब से भेंट हो जाती है। आज दोनों फिर आपस में मिले। गुप्ताजी ने बातों ही बातों में प्रोफेसर साहब से कहा, “आप बहुत सुखी व्यक्ति हैं, प्रोफेसर साहब और मैं बहुत दुःखी। लगता है मैं जीवन में कुछ नहीं कर पाया। एक असफल जीवन जिया मैंने।” ऐसा कहते हुए उन्होंने एक लंबी आह भरी।

प्रोफेसर साहब को कोई जबाव नहीं सूझा। क्या कहते वे? वे तो स्वयं यही सोचते रहते हैं।

रात देर तक उन्हें नींद नहीं आई। वे जिंदगी भर विद्यार्थियों को पढ़ाते रहे। उनके जटिल प्रश्नों का अपनी कक्षा में उत्तर देते रहे। आज एक अनुत्तरित प्रश्न उनके सामने है—जीवन की सफलता क्या है? लेटे-लेटे वे फिर जीवन की स्मृतियों में खो जाते हैं और सोचने लगते हैं, काश! जीवन में ऐसा होता।


अश्विनीकुमार दुबे
३७६-बी, आर-सेक्टर, महालक्ष्मी नगर,
इंदौर-45210 (म.प्र.)
दूरभाष : ९४२५१६७००३

हमारे संकलन