फत्तू भूखा है

फत्तू भूखा है

विलक्षण लोकयात्री देवेंद्र सत्यार्थी हिंदी साहित्य के बड़े अद्भुत कथाशिल्पी और किस्सागो थे। उन्होंने अपना पूरा जीवन इस विशाल देश की धरती से उपजे लोकगीतों की खोज में लगाया, और इसके लिए देश का चप्पा-चप्पा छान मारा। यहाँ तक कि जेब में चार पैसे भी न होते थे, पर इस फक्कड़ फकीर की उत्साह भरी यात्राएँ अनवरत जारी रहतीं। धरती उनका बिछौना था और आकाश छत, जिसके नीचे उन्हें आश्रय मिल जाता। इस तरह राह में मिलने वाली ढेरों अकथनीय तकलीफें झेलकर भी धुन के पक्के सत्यार्थीजी के पाँव रुके नहीं। उन्होंने घोर तंगहाली में दूर-दूर की यात्राएँ करके, देश के हर जनपद के लोकगीत एकत्र किए और उन पर सुंदर भावनात्मक लेख लिखे तो देश भर में फैले हजारों पाठकों के साथ-साथ महात्मा गांधी, गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर और महापंडित राहुल सांकृत्यायन तक उनके लेखन के मुरीद बने।

 

विलक्षण लोकयात्री देवेंद्र सत्यार्थी हिंदी साहित्य के बड़े अद्भुत कथाशिल्पी और किस्सागो थे। उन्होंने अपना पूरा जीवन इस विशाल देश की धरती से उपजे लोकगीतों की खोज में लगाया, और इसके लिए देश का चप्पा-चप्पा छान मारा। यहाँ तक कि जेब में चार पैसे भी न होते थे, पर इस फक्कड़ फकीर की उत्साह भरी यात्राएँ अनवरत जारी रहतीं। धरती उनका बिछौना था और आकाश छत, जिसके नीचे उन्हें आश्रय मिल जाता। घोर तंगहाली में दूर-दूर की यात्राएँ करके उन्होंने देश के हर जनपद के लोकगीत एकत्र किए और उन पर सुंदर भावनात्मक लेख लिखे तो देश भर में फैले हजारों पाठकों के साथ-साथ महात्मा गांधी, गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर और महापंडित राहुल सांकृत्यायन तक उनके लेखन के मुरीद बने।

इन्हीं लोकयात्राओं में हासिल हुए अनुभवों की अकूत संपदा ने सत्यार्थीजी को कहानीकार भी बनाया। ‘फत्तू भूखा है’ सत्यार्थीजी की अद्भुत कहानी है। एक तरह की आत्मकथात्मक कहानी। फत्तू उनके घर भैंसों को चराने वाला युवक है। एक अनाथ लड़के की तरह वह इस घर में आया और फिर हमेशा के लिए यहीं का होकर रह गया। भैंसों की वह इतने मन और लगन से सेवा-टहल करता है कि उनका दूध दूना हो गया। पर बदले में पैसे या तनख्वाह लेना उसे मंजूर नहीं। आखिर वह इस घर का ही तो प्राणी है। पर एक दिन जब उसकी प्यारी भैंस रेशमा बिकने लगी, तो उसने घर में भूख हड़ताल कर दी। उसे सबने मनाने की कोशिश की, पर वह नहीं माना। तब उसे वचन दिया गया कि रेशमा नहीं बिकेगी। पर आखिर जो कुछ हुआ, उसने फत्तू को भीतर-बाहर से तोड़ दिया। और सिर्फ फत्तू ही नहीं, कहानी का पाठक भी अंत तक आते-आते एकदम स्तब्ध सा रह जाता है।

भूख मर रही है। अब यह बढ़ तो नहीं सकती। पहले तो साँपिन की तरह बल खाते हुए बढ़ती चली आ रही थी। चूल्हे में आग नजर नहीं आती। आज आग नहीं जलेगी। दोपहर तो कभी की ढल गई। पिताजी भूखे हैं, चाचा भूखा है, चाची भूखी है, माँ भी, मैं भी, छोटा भाई भी। और फत्तू भी तो भूखा है।

फत्तू ने कल भी कुछ नहीं खाया था। इधर सारे घर में बताया तो यही गया कि किसी ने कुछ नहीं खाया। पर एक माँ को छोड़कर सबने कुछ-न-कुछ डाल ही लिया था मुँह में चोरी-छिपे। गुस्से से जला-भुना फत्तू भैंसों के समीप खाट डालकर सो गया था। अनेक वर्षों से वह इसी जगह सोता आया है।

फत्तू मुसलमान है। जी हाँ। हम हिंदू हैं। होंगे! पर फत्तू एक मुद्दत से हमारी भैंसों की सेवा करता आया है। कम दूध देने वाली भैंसें अधिक दूध देने लगीं। नाच नचाने वाली अड़ियल भैंसें सीधी हो गईं। वह वेतन भी तो नहीं लेता। वह तो घर का आदमी है। जी हाँ, घर का आदमी। सब अपना-अपना काम करते हैं। वह भैंसों को सँभालता है। भैंसें उसे चाहती हैं। जरा किसी भैंस के शरीर पर हाथ फेर दिया, बस वह उस पर खुश हो गई। भैंस तो भैंस, अभी परसों तक तो यह हाल था कि वह किसी भैंस के शरीर पर अपना हाथ फेरता और मुझे यों लगता कि वह मेरे शरीर पर हाथ फेर रहा है।...हाँ तो आज फत्तू भूखा है।

भैंसें भी उदास नजर आती हैं...उन्होंने कैसे जान लिया कि फत्तू भूखा है? गोमा का मुँह उतर गया है। बंतो मुँह बाँधे बैठी है। रेशमा की आँखों में आँसू आना चाहते हैं। बेजुबान भैंसों ने कैसे जान लिया कि फत्तू भूखा है?

कल फत्तू भूखा नहीं रहा होगा। किसी भैंस का दूध पीकर पड़ रहा होगा। नहीं, नहीं, वह ऐसा आदमी नहीं। जरूर वह कल भी भूखा रहा होगा। और वह आज तो भूखा है ही।

माँ कह रही है—रोटी खा ले, फत्तू!...पेट के साथ क्या दुश्मनी है? कल से चूल्हा ठंडा पड़ा है। अभी चूल्हे में आग जलाऊँगी। बस तू जरा हाँ कर दे, फत्तू!

मैं फत्तू के समीप खड़ा हूँ। इधर मेरी उदासी बढ़ रही है। फत्तू भूखा है। उसकी आँखें मंदिर के दीयों के समान टिमटिमा रही हैं। मुँह से वह कुछ नहीं बोलता।

“तुम भी एक ही गुस्सैल हो, फत्तू!” मैं कहना चाहता हूँ, “तुम्हारे कपड़ों से तो गोबर की बू आती है। फिर मैं तुम्हारे पास दौड़ आता हूँ। तुम्हारा यह गुस्सा मुझे सिरे से नापसंद है। पेट के साथ क्या दुश्मनी! माँ सच कहती है।”

अभी कल तक मेरे हँसने-खेलने के दिन थे। अब मैं समझदार हो रहा हूँ। केवल हँसता-खेलता रहता तो आठवीं की परीक्षा में सारे स्कूल में प्रथम कैसे रहता? सब लड़कों के सामने हेडमास्टर साहब ने मुझे शाबाशी दी थी। कुछ दिन और हूँ इधर। हाईस्कूल में भरती होने के लिए बाहर जाना होगा। फिर न वहाँ फत्तू होगा, न गोमा, न बंतो, न रेशमा। हाँ तो फत्तू आज भूखा है।

पहले-पहल फत्तू इस घर में आया था तो वह मुझसे एक ही वर्ष बड़ा था—एक अनाथ लड़का। खुले शब्दों में वह वेतन माँग सकता था। उसने तो घर का आदमी बनना ही पसंद किया। लोगों ने उसे सौ-सौ पट्टियाँ पढ़ाईं। उस पर कुछ प्रभाव न हुआ। माँ ने भी बहुत कहा, “फत्तू, तनख्वाह ले ले!” पर वह हमेशा इसे मजाक समझता रहा। बेटा माँ से तनख्वाह ले, यह तो न होगा। बस यही उसका गढ़ा-गढ़ाया जवाब था।

चूल्हे में आग नहीं जली। सारे घर में अफरा-तफरी फैल रही है। फत्तू चुप है। जी चाहता है कि उसकी खाट के गिर्द कोई अजीब सा नाच नाचूँ और उस गीत के बोल गुनगुनाऊँ जो मुझे बहुत पसंद है—फत्तू की पगड़ी में कोयल का घोंसला! पर अब तो हवा भी थम गई। मुझे भी शांत होकर बैठ जाना चाहिए। टकटकी बाँधे मैं फत्तू की ओर देख रहा हूँ। कितना सुकड़ू सा आदमी है। पर वह दूध में बसता है। रेशमा और गोमा को दुहते समय, शुरू में या आखिर में, उनके थनों को मुँह लगाकर जितना चाहे दूध पी सकता है। कोई निगरानी तो नहीं करता। पर नहीं, नहीं, वह इस तरह दूध नहीं पीता। घर का आदमी जो ठहरा। पूरा दूध दुहकर लाता है। मेरी निगाह में तो वह एक मूर्ख है। उसे तो खूब दूध पीना चाहिए। लाख कोई झख मारा करे, चोरी का नाम दिया करे। मैं तो इसे चोरी न कहूँगा। अपने दूध की चोरी भी क्या! जी हाँ, फत्तू तो घर का आदमी है।

चाची ने आज भी चोरी-छिपे पँजीरी खा ली होगी। ऊपर से वह फत्तू की मिन्नत किए जा रही है—देख, फत्तू बेटा! रेशमा कितनी उदास हो रही है। ठीक ही तो है। रेशमा को फत्तू से पूरी हमदर्दी है—चाची से कहीं ज्यादा।

रेशमा की बड़ी-बड़ी आँखों में झाँककर मैं पूछता हूँ—क्या तुम जानती हो रेशमा, कि चाचाजी फत्तू की सलाह लिए बिना ही तुम्हें बेच डालेंगे? और उसकी बड़ी-बड़ी आँखें जैसे आँसुओं से गीली हो गईं। जैसे वह कहना चाहती हों—फत्तू के बिना मैं कैसे जिंदा रहूँगी? और मेरे कारण वह इस घर को तो छोड़ने से रहा।

गोमा अलग उदास बैठी है। जैसे कहना चाहती हो—फत्तू यहाँ से चला गया तो मैं कैसे जिंदा रहूँगी? जब वह मुझे नजर नहीं आता तो मुझे बिनौले भी अच्छे नहीं लगते।

बंतो ने अपनी थूथनी गोबर और पेशाब से लथपथ जमीन पर रख छोड़ी है। जैसे वह अब इसी तरह बैठी रहेगी। उसके शरीर पर कभी फत्तू ने मालिश नहीं की। वह जानती है कि उसे सबसे अधिक प्रेम रेशमा से है। उसी को वह सबसे अधिक बिनौले खिलाया करता है। पर वह ईर्ष्या में फँसकर फत्तू से घृणा नहीं करती।

वचनी ने घास को मुँह तक नहीं लगाया। पहले फत्तू खाएगा। जी हाँ, पहले तो फत्तू को ही खाना चाहिए। और जब तक फत्तू अपनी जुबान से हुक्म नहीं देता, वचनी अपने पेट की बात कभी नहीं सुनेगी।

चाची कह रही है, “इन गरीब भैंसों का ही कुछ खयाल करो, फत्तू! क्या खाओगे? बोलो तो। जो खाओ, वही पका दूँ। तुझे तेरे अल्लाह का वास्ता! अब गुस्से को थूक दो। तेरे चाचा ने तो वैसे ही भूलकर सुंदर लुहार के पास रेशमा को बेच देने की बात कह दी थी। मैं देखूँगी कि किस तरह तुम्हारे चाचा रेशमा को बेच डालते हैं। उन्हें आने तो दो। मैं खुद उनका हाथ पकड़ लूँगी। वही होगा फत्तू बेटा, जो तुम चाहोगे। बस अब जिद न करो। पहले कुछ खा लो।”

रेशमा ने अपनी थूथनी फत्तू की खाट पर रख दी और अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से उसकी ओर देख रही है। जैसे कह रही हो—हाँ, हाँ, फत्तू पहले कुछ खा लो। चाची की बात रख लो, कब तक भूखे रहोगे? अपनी भूख की तो मुझे कुछ चिंता नहीं। तुम जरूर मेरे दूध की खीर बनवा लो अपने लिए।

मैं सोच रहा हूँ कि चाची से कैसे सवाल-जवाब करूँ। तेरे अल्लाह का वास्ता! तो क्या फत्तू का अल्लाह और चाची के भगवान् अलग-अलग हैं! दो तो न होंगे। फत्तू को मैं जानता हूँ। वह कोई नमाजी तो नहीं है। पर उसका अल्लाह उस पर खुश जरूर है। जब अल्लाह ने रेशमा और गोमा का दूध बढ़ा दिया था, तो जैसे अल्लाह ने अपनी खामोश जुबान में कहा था कि वह फत्तू से बहुत खुश है। पिछले साल जब एक नई ब्याई भैंस मर गई थी, तो अल्लाह ने फत्तू को किसी गुनाह की सजा दी थी। पर यह कोई न समझे कि अल्लाह यह सजा देकर खुश हुआ होगा। बड़ी मजबूरी में वह अपने बंदों को सजा देता है। अल्लाह भला अपना काम कैसे छोड़ दे? चाची का भगवान् भी उसे कभी-कभी सजा देता रहता है। वह कोई भक्तिन नहीं है। चरखा कातने को वह मंदिर जाने से अच्छा काम समझती है।...भगवान् का मंदिर तो आदमी का दिल है।...तेरे अल्लाह का वास्ता!...इसकी जगह यह क्यों नहीं कहा—मेरे भगवान् का वास्ता!

कल जगदीश दुकान पर चाचा से कह रहा था, “न कोई अल्लाह है, न भगवान्। यह सब वहम है। यदि कोई ऐसी शक्ति होती तो पहले अमीरी और गरीबी की सीमाएँ नजर नहीं आतीं। बल्कि अगर कोई ईश्वर होगा, तो कोई बड़ा महाजन होगा, क्योंकि आजकल महाजनों की चाँदी है। ईश्वर भी पूँजीपतियों की ड्योढ़ी के आगे पहरा देता है।”

जगदीश न जाने क्यों ऐसी बातें किया करता है? जी हाँ, वह अब ग्रैजुएट है। तभी वह ईश्वर को नहीं मानता। क्या सब ग्रैजुएट ऐसे ही होते हैं? क्या ग्रैजुएट होने पर मैं भी ईश्वर के अस्तित्व को नकार दूँगा? अभी तो मेरा ईमान खड़ा है। कल शाम को मैं जगदीश के साथ सैर करने गया था। जब मैंने उसे बताया कि मैंने चाची को चोरी-छिपे पँजीरी खाते देखा है, तो वह गला फाड़कर हँसने लगा। बोला, “मैं भगवान् होता तो चाची को इस हिमाकत के बदले चार घूँसों से तो क्या कम सजा देता!”

खैर, अब चाची की जुबानी यह तो पता चला कि फत्तू नाराज क्यों है? वह रेशमा को चाहता है। किसी भी मुनाफे पर वह उसे बिकने नहीं देगा।

रेशमा और गोमा, बंतो और बचनी—चारों भैंसें एक-दूसरे की ओर देख रही हैं। शायद वे मिलकर फैसला करना चाहती हैं कि फत्तू को खाना खा लेना चाहिए।

मुझे विश्वास नहीं होता कि कोई ग्रैजुएट भी भैंसों से इतना प्यार कर सकता है। न मुझे यही विश्वास होता है कि अल्लाह या भगवान् के अस्तित्व को नकारने वाला आदमी इतनी सरलता और सच्चाई से अपने पालतू पशुओं की सेवा कर सकता है। आदमी अपने त्योहार मनाए और अपनी भैंसों को अपनी खुशी में न शामिल करे, तो यह तो बड़ी मूर्खता होगी। हर साल फत्तू ईद के अवसर पर सवेरे-सवेरे अपनी भैंसों को नहलाता है और फिर एक-एक के कान में कहता जाता है—कल ईद है! और रात को नहर के किनारे वह अपने साथ उन्हें भी ईद का चाँद दिखाकर खुशी से झूम-झूम उठता है। और फिर कार्तिक की पूर्णमासी पर वह उन्हें मेला दिखाने ले जाता है। कहता है—इन्हें भी तो मालूम होना चाहिए कि आज बाबा नानक का जन्मदिन है।

दीवाली की रात आती है तो वह खुरलियों के पास दीये जलाकर रखता जाता है। उसका विश्वास है कि इस खुशी में भैंसों का दूध बढ़ जाता है। पर जगदीश तो नास्तिक है और उसने चाचा को भी नास्तिक बना दिया है। मुझे डर है कि जगदीश कहीं फत्तू को भी अपनी तरह ईश्वर से विमुख न कर दे।

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फत्तू अपनी चारपाई पर पड़ा है। कभी-कभी फत्तू अपने होंठ चूस लेता है और सोचता है—रेशमा, मेरी रेशमा अगर सुंदर के हाथ बिक जाए, तो कौन उसे नई कपास के बिनौले देगा? सूखा न्यार भूसा खाते हुए वह कहती—किधर गया वह मेरा फत्तू? उसके सींग तेल की मालिश के बिना सूख जाते। उसकी नरम और मुलायम पीठ सेही की पीठ की तरह खुरदरी हो जाती। उस समय वह मुँह उठाकर ‘बाँय-बाँय’ करती हुई कुछ तलाश करती हुई सी निगाहों से बाड़े के पार देखती...और फत्तू इससे आगे नहीं सोच पाता। अपने सिर को एक झटका देकर वह उठ बैठा।

रेशमा अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से फत्तू की ओर देखते हुए एक बार फिर अपनी थूथनी खाट की पट्टी पर रख देती है। जैसे कहना चाहती हो—तुम खाना खा लो फत्तू! चाचा जरूर चाची की बात रख लेंगे और मुझे बेचेंगे नहीं। और अगर उन्होंने मुझे बेच भी दिया तो मैं रस्सा तुड़ाकर भाग आऊँगी। मैं किसी भी तरह अपने नए मालिक के घर में बँधकर न रहूँगी। तुम तो जानते ही हो फत्तू कि तुम्हारे बिना मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता। तुम दूध दुहने बैठते हो तो मैं चाहती हूँ कि तुम मुझे घंटों दुहते रहो। मुझे उस समय एक गुदगुदी सी होती है और यह केवल तुम्हारे ही हाथों से दुहे जाने पर।

भूखी आँखों से फत्तू रेशमा की तरफ देखता है। जैसे कह रहा हो—बस चलते तो तुम्हें बिकने नहीं दूँगा, रेशमा! मुझे मालूम है, तुम हमेशा मेरे हाथों से दुहा जाना पसंद करती हो। बल्कि तुम तो इस बात के लिए तरस जाती हो कि मैं कभी तुम्हारे थन को मुँह में लेकर दूध पिऊँ।

चाचा अभी-अभी बाहर से आए हैं। यह देखकर कि फत्तू की नाराजगी के कारण चूल्हा ठंडा पड़ा है, उनका मन सुलगने लगा है। असल में वे फत्तू से तंग आ चुके हैं। वे फत्तू का इस घर में रहना बिल्कुल भी पसंद नहीं करते। क्योंकि वे जानते हैं कि फत्तू अपने होते दूध दुहने का काम उन्हें कभी नहीं सौंपेगा। और वे रोज भैंस के थनों को मुँह में लेकर दूध पीने की इच्छा दिल में लेकर ही इस संसार से विदा हो जाएँगे। अगर वे भी चाची की तरह अल्लाह या ईश्वर का वास्ता देकर फत्तू से कह दें कि रेशमा कभी नहीं बिकेगी, तो सारा मामला ठीक हो सकता है। मुझे तो यही शक है कि वे अल्लाह या ईश्वर को मानते भी हैं या नहीं।

जगदीश उनके पास बहुत आता-जाता है। उन पर जरूर उसकी बातों का असर हुआ होगा। इसलिए अगर पक्के नास्तिक नहीं, तो कच्चे नास्तिक तो जरूर बन चुके होंगे।...डरिए ईश्वर से! चाचाजी...ईश्वर से विमुख!

“अच्छा सत्याग्रही है!” पिताजी कह रहे हैं, “अब छोड़ो यह भूख हड़ताल, फत्तू बेटा! तुम्हारी यह हड़ताल कब तक चलेगी? तुम्हारी बात मान तो ली गई है। रेशमा बिकेगी नहीं। वह तुम्हारी है और तुम्हारी ही रहेगी। हम डिगेंगे नहीं।”

अगर रेशमा सचमुच बिकेगी नहीं तो खुद चाचा क्यों नहीं कह देते? न भगवान् की कसम खाएँ, न अल्लाह की। केवल कह दें कि रेशमा बिकेगी नहीं। पर आश्चर्य तो इस बात का है कि जब से जगदीश चाचा के पास आने लगा है, चाचा फत्तू की ओर और भी उपेक्षा से देखने लगे हैं।

चाची परे बैठी कमीज सी रही है। जरूर यह चाचा के लिए सी रही होगी। पर मैं सोचता हूँ कि चाचा को यह कमीज हरगिज नहीं मिलनी चाहिए। फत्तू का चाचा को जरा भी तो खयाल नहीं। जी हाँ, अब तो फत्तू को बहुत सख्त भूख लग रही होगी, भूख से उसकी जान निकल रही होगी। पर वह भी एक ही हठीला है। अड़ गया तो अड़ गया हमेशा के लिए। बस अब खुदा भी आकर कहे कि भूख हड़ताल बंद कर दो तो वह एक नहीं सुनने का।

फत्तू की जबान पर बराबर टाँका लगा है। अंदर से निकलकर चाचा उसकी खाट के समीप खड़ा हो गया? दोनों खामोश हैं। ऐसी भी क्या खामोशी है? शायद चाचा झुकने को तैयार हैं। लेकिन बात मुँह पर नहीं आती। कितने जिद्दी हैं चाचा भी। आखिर इसमें जिद की क्या बात है? रेशमा को बेचना इतना जरूरी कहाँ से हो गया? फत्तू भी आखिर इनसान है। अगर वह सचमुच रेशमा को बिकने नहीं देना चाहता तो स्वार्थ में ही चाचा को ही जिद करने की क्या जरूरत है?

फत्तू के दिल में तो सारे घर का दर्द भरा है, सब भैंसों का दर्द भरा है। वह कितना भला आदमी है—बिल्कुल घर का आदमी। आज वह कैसे इतना पराया हो गया कि चाचाजी उसके आगे झुकने में अपनी हेठी समझने लगे। फत्तू अनाथ सही, पर उसने अपना सारा जल इसी नदी में मिला दिया है। और यदि यह सत्य है तो उसका सत्याग्रह ठीक है, भूख हड़ताल भी ठीक है।

क्या रक्त का संबंध बड़ा संबंध है? फत्तू मेरा भाई है। उसका अल्लाह मेरा भी अल्लाह है। उसके साथ मैं भी मुसलमान हूँ। अरे, अरे! यह मैं क्या कह गया? पर ऐसी भी क्या बात है। फत्तू मेरा भाई है। जी हाँ, फत्तू हमेशा मेरा भाई रहेगा। उसकी आँखों में आँखें डालकर मैं हमेशा दिल की बातें भाँप सकता हूँ। और उसके गले में बाँहें डालकर मैं हमेशा कह सकता हूँ—तुम कभी इतने नाराज तो नहीं हो जाओगे फत्तू कि मुझे अकेला छोड़कर चले जाओ?

पिताजी कह रहे हैं, “अब जिद छोड़ दो, फत्तू बेटा! तुम देखोगे कि रेशमा तुम्हारे पास ही रहेगी।”

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चाचा अब भी खामोश हैं। न जाने चाचा क्यों खामोश हैं? चाचा चाहें तो एक ही शब्द से फत्तू को खुश कर सकते हैं। लेकिन यह तो तभी हो सकता है कि चाचा जिद छोड़कर सीधे मुँह बात करें। फत्तू में ऐसी क्या बुराई है कि चाचा व्यर्थ ही उसे नाराज करने पर तुल गए हैं। आखिर चाचा अपना इरादा जाहिर क्यों नहीं कर देते? क्या रेशमा को बेचने की जिद बहुत जरूरी है? रेशमा तो बहुत अच्छी भैंस है। उससे तो मुझे भी प्यार है। अब मैं कैसे कहूँ कि चाचाजी, फत्तू के लिए नहीं तो मेरे लिए ही रेशमा को रख लो।

जिस दिन परीक्षा का परिणाम निकला था, मैंने फत्तू को पच्चीस अमरूद दिए थे। वह कितना खुश नजर आता था। उसका मुँह जैसे सूरजमुखी का फूल था। अगर मेरे पास कैमरा होता तो मैं उसका फोटो ले लेता। उस दिन उसने मेरे पास हो जाने की खुशी में एक नया गीत बना डाला था। जब वह गा रहा था, तो मुझे ऐसा लगा कि परीक्षा में तो फत्तू पास हुआ है और मैं केवल एक चरवाहा हूँ। फत्तू की पगड़ी में कोयल का घोंसला—मैं गा रहा था। उसने मुझे कान से पकड़ लिया। उसकी उँगलियों ने चिमटी का रूप धारण कर लिया था। मेरी चीख निकल गई। फिर कहीं उसने मुझे छोड़ा और धमकी दी, “अब मत कहना कोयल का घोंसला फत्तू की पगड़ी में! आठवीं पास कर ली, पर पुरानी शरारतें नहीं गईं।”

मैं इसके आगे-आगे दौड़ा जा रहा था और कहता जा रहा था, “यह तो मेरा गीत है फत्तू, केवल गीत। चिढ़ता क्यों है? कोयल का घोंसला कभी देखा भी है? बात को समझा भी कर!”

उस समय मैंने सोचा कि अपने गीत का बोल बदलकर गाऊँ—रेशमा के सींगों पर कोयल का घोंसला! पर यह स्पष्ट था कि वह इसे पसंद नहीं करेगा। किसी तरह मुझे यह महसूस हो रहा था कि फत्तू मेरा हमउम्र है और किसी जादू के असर से उसकी उम्र पच्चीस की जगह चौदह साल रह गई है। अगर यही बात उसे अमरूद खिलाने से पहले मालूम हो जाती, तो मैं उसे पच्चीस अमरूदों की जगह चौदह अमरूद ही देता।

माँ कह रही है—तेरा चाचा तुझे नाराज नहीं करेगा फत्तू बेटा! मुँह से न बोल, इशारे से कह दे। बोल, आग जलाऊँ चूल्हे में?

चाचा कह उठते हैं, “हाँ, हाँ, जलाओ आग। अरे, फत्तू तो बहुत समझदार लड़का है।”

मैं खुशी से उछलकर परे को सरक जाता हूँ। जी में आता है कि फत्तू के गले में बाँहें डालकर कहूँ—देखो, अब यह तुम्हारी भूख हड़ताल नहीं चल सकती, फत्तू भाई!

चाची ने कमीज पूरी कर ली। उसे मशीन पर ही छोड़कर अब वह चूल्हे के समीप जा बैठी और आग सुलगा रही है। आज भी आग न जलती तो वह जरूर चोरी-छिपे चाचा को पँजीरी खिला देती और खुद भी खा लेती।

मैं चाचाजी की नई कमीज उठा लाया हूँ। मैं कहता हूँ, “फत्तू के लिए भी आज एक नई कमीज होनी चाहिए।”

चाचा और पिताजी एक स्वर होकर कहते हैं, “एक क्यों, पाँच!”

फत्तू उठ बैठा है। सारा घर खुश नजर आता है। अब तो मालूम होता है कि जैसे फत्तू का अपने अल्लाह पर ईमान है, वैसे ही चाचा का अपने भगवान् पर विश्वास है। है भी ठीक। जगदीश का असर इतनी जल्दी कैसे हो सकता था?

चाचा फत्तू से गले मिल रहे हैं। पिताजी परे खड़े यह तमाशा देख रहे हैं। वे अब कुछ नहीं बोलेंगे। फत्तू कहता है, “रेशमा का क्या फैसला हुआ, यह तो कहो, चाचा?”

चाचा पहले खामोश रहते हैं। फिर बड़े विश्वास से कहते हैं, “मैं रेशमा को कहीं बाहर न ले जाऊँगा। यह तुम विश्वास रखो।”

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चूल्हे पर खीर पक रही है। छोटा भाई बाहर से आकर कहता है, “माँ, पहले मुझे देना खीर।”

“नहीं, माँ!” मैं कहता हूँ, “पहले मुझे देना खीर।”

पिताजी कह रहे हैं, “आँच और तेज कर दो।”

न जाने खीर कब तक तैयार होगी? मरी हुई भूख फिर चमक उठी है। भूख तो आदमी को बावला बना देती है। सव स्वार्थों की माँ है यह भूख। अगले ही रोज जगदीश दुकान पर चाचा से कह रहा था, “जिसने भूख की फिलॉस्फी को समझ लिया, उसने जीवन का भेद पा लिया। फिर न कोई अल्लाह रह जाता है, न भगवान्, न इनसान, न हैवान। मतलब यह है कि फिर अमीर-गरीब का फर्क न रहेगा। न कोई नौकर होगा, न मालिक। आदमी-आदमी सब बराबर होंगे। यह नहीं कि कुछ आदमी अपने को इनसान समझें और दूसरों को हैवान। सारे काम करेंगे और पेट भरकर खाएँगे।”

खीर तैयार हो गई। मैं कहता हूँ, “माँ, पहले मुझे देना खीर।”

छोटा भाई कहता है, “माँ, पहले मुझे देना खीर।”

माँ डाँट लगाकर छोटे भाई को चुप करा देती है। और मैं खुद ही शर्मिंदा हो जाता हूँ। माँ चमककर कहती है, “पहले फत्तू खाएगा, फत्तू भूखा है।”

थाली में खीर भरकर चाची फत्तू के सामने ला रखती है और कहती है, “यह लो रेशमा के दूध की खीर फत्तू बेटा! बासमती के चावल, रेशमा का दूध और गन्ने का रस। ऐसी खीर तुमने पहले कभी न खाई होगी।”

फत्तू खीर खा रहा है और सोचता है कि सचमुच ऐसी खीर उसने पहले कभी नहीं खाई थी। छोटा भाई अलग चमचे भर-भरकर खीर खा रहा है।

सबने आज खीर ही खाई है—रेशमा के दूध की खीर!

रात के साये बढ़ रहे हैं। रेशमा और गोमा, बंतो और बचनी—चारों भैंसें बड़ी-बड़ी आँखों से फत्तू की ओर देख रही हैं। जैसे कह रही हों—तुम्हारी जीत तो हमारी जीत है।

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रात का अंधकार गहरा हो रहा है। रेशमा का ग्राहक भी आ पहुँचता है। पिताजी खामोश हैं। चाचा खामोश हैं। फत्तू भी खामोश है।

अमावस की रात के नन्हे टिमटिमाते दीये के समान फत्तू बड़े गर्व से सिर ऊँचा किए बैठा है। क्योंकि उसे भरोसा है कि चाचा अपना वायदा नहीं भूलेंगे और रेशमा को हरगिज नहीं बेचेंगे।

उधर चाचा रेशमा के ग्राहक की ओर सरक जाते हैं और उनकी कानाफूसी और भी पेचीदा हो रही है।

फत्तू सोचता है कि रेशमा कभी नहीं बिक सकती। आखिर चाचा अपने वायदे के पक्के आदमी जो ठहरे।

हवा के जबर्दस्त झोंके को दीये की लौ की क्या परवाह? जी हाँ, रेशमा का ग्राहक भी एक बार आकर खाली कैसे जा सकता है!

 


प्रस्तुति : अलका सोईं
५-सी/४६, नई रोहतक रोड,
नई दिल्ली-110005
दूरभाष : 09871336616

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