उजालों को पुकारें

दृश्य एक : यह एक प्रतिष्ठित सरकारी विद्यालय है। वरिष्ठ अधिकारी उपस्थित हैं। अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य में हिंदी पखवाड़े का समापन समारोह भव्य रूप में आयोजित किया गया है। एक कवि-सम्मेलन का आयोजन किया गया है। उद्घोषणा में बताया जा रहा है कि कई हजार छात्र एवं उनके माता-पिता इस कवि-सम्मेलन को ‘ऑनलाइन’ सुन रहे हैं। सभागार में विभिन्न विद्यालयों से आए शिक्षक उपस्थित हैं। वरिष्ठ अधिकारियों तथा प्रधानाचार्य द्वारा भाषणों में समारोह की प्रशंसा के साथ-साथ विद्यार्थियों को बहुत अच्छी प्रेरक बातें बताई जा रही हैं। कवि-सम्मेलन में एक तथाकथित हास्यकवि माइक पर आए हैं। वे कविता सुनाने से पहले तरह-तरह के चुटकुलों तथा द्विअर्थी जुमलों से, नेताओं के विकृत उपहास से मनोरंजन कर रहे हैं। शिक्षक भरपूर आनंद में मगन हैं और जोरदार तालियों से सभागार गुँजा रहे हैं। फिर कविजी कविता के नाम पर कुछ तुकबंदियाँ सुनाते हैं, जिनमें भरी हुई फूहड़ता एवं अश्लीलता स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आ रही है। सभागार में बैठे शिक्षकों के आनंद में कोई कमी नहीं आई है। कविजी को इस बात का जरा भी ध्यान नहीं है कि उन्हें छात्र-छात्राएँ सुन रहे हैं। उन्हें तो तालियों की गूँज से मतलब है और अपने ‘लिफाफे’ से।

किशोरवय के छात्र-छात्राओं में वे भी होंगे, जिनका एक विषय हिंदी है तथा उनके मन-मस्तिष्क पर कविता की कैसी एक दूसरी छवि गढ़ी जा रही है। कविजी का कारोबार खूब चमक रहा है तथा वही उनके आमंत्रित किए जाने का आधार बना है। अब यह प्रश्न अलग है कि जिन शिक्षकों ने ऐसे कवि को आमंत्रित किया है, उनका ‘हिंदी’ अथवा ‘कविता’ अथवा छात्र-छात्राओं की सुरुचि एवं संस्कार-निर्माण के प्रति कोई दायित्व है अथवा नहीं। यदि एक प्रतिष्ठित सरकारी विद्यालय में वरिष्ठ अधिकारियों तथा शिक्षकों से भरे सभागार में इतनी फूहड़ता, अश्लीलता तथा विकृति परोसी जा सकती है तो फिर इस देश का सांस्कृतिक परिदृश्य कैसा होगा, सांस्कृतिक संपन्नता का स्तर क्या होगा? जब विद्यालयों में ऐसा होगा तो व्यावसायिक आयोजनों में तथाकथित ‘कविता’ का स्वरूप क्या होगा, यह अनुमान लगाना सहज है। ऐसे आयोजन हमारी युवा पीढ़ी को क्या दे रहे हैं, यह भी विचारणीय है।

दृश्य दो : यह एक प्रतिष्ठित महाविद्यालय है। आयोजन ‘हिंदी विभाग’ का है और यह अपने आप में ही महत्त्वपूर्ण हो जाता है। यहाँ यह उल्लेख भी आवश्यक है कि किसी समय महाविद्यालयों के हिंदी विभाग के आयोजनों में जैनेंद्र कुमार, दिनकर, अज्ञेय, गिरिजा कुमार माथुर जैसी विभूतियाँ आमंत्रित की जाती थीं। इस महाविद्यालय में भी एक अवसर विशेष पर ‘कवि-सम्मेलन’ का आयोजन है। सभागार में शिक्षक, शोधछात्र तथा एम.ए., बी.ए. के छात्र-छात्राएँ हैं। यहाँ भी आमंत्रित कवियों की स्थिति दृश्य-एक जैसी ही है।

वीर रस के तथाकथित कवि महात्मा गांधी के प्रति अपमानजनक टिप्पणियों से तालियाँ लूटने के प्रयास में हैं। वे स्वयं को टैगोर, मैथिलीशरण गुप्त, सुब्रह्मण्य भारती, दिनकर, भवानीप्रसाद मिश्र जैसे कवियों से (जिन्होंने गांधीजी की महानता पर दर्जनों कविताएँ रची हैं) बड़ा मान रहे हैं। हास्य कविता के नाम पर वही चुटकुलेबाजी, जुमलेबाजी, फूहड़ता, अश्लीलता, विकृति परोसी जा रही है। इससे क्या अंतर पड़ता है कि आयोजन महाविद्यालय में है। आयोजन में कवियों को आमंत्रित करने वाले महाविद्यालय के हिंदी विभाग के विद्वान् हैं, वे भी अच्छी स्तरीय कविता तथा कविता का कारोबार कर रहे कवियों की बाजारू कविता में अंतर नहीं कर पाए। फिर वही प्रश्न व्याकुल करता है कि आखिर हमारी सांस्कृतिक चेतना को क्या हो गया है! चिंता की बात यह भी है कि ऐसी संस्थाएँ, जिनका दायित्व साहित्य का संरक्षण-संवर्धन है, सुकवि निर्माण है, उनके कर्ता-धर्ता भी इसी भेड़चाल के शिकार हैं। राजनीतिक हस्तक्षेप, विधायकों, सांसदों या मंत्रियों की सिफारिशें स्थिति को और जटिल बना देती हैं।

दृश्य तीन : यह एक प्रतिष्ठित बाल विद्यालय का वार्षिकोत्सव है। यहाँ सबकुछ अंग्रेजीमय है, वह एक अलग ही विचारणीय विषय है, किंतु उससे भी अधिक इस आयोजन की प्रस्तुतियाँ विचारणीय हैं। भारत के ‘हिंदी भाषी प्रांत’ के इस विद्यालय के आयोजन में उस ‘भारत’ के दर्शन दुर्लभ हैं, जिसके सांस्कृतिक वैभव की तुलना पूरे विश्व में किसी देश से कर पाना कठिन होगा। इस विराट् देश के तीन दर्जन से अधिक राज्यों में कैसे-कैसे अद्भुत लोकनृत्य हैं, जिनकी छवियों की अनुगूँजें एक स्थायी प्रभाव छोड़ती हैं। स्वाभाविक है कि ऐसी छवियाँ बालमन में भी गहरा प्रभाव छोड़ेंगी तथा उन्हें भारत के सांस्कृतिक वैभव से परिचित कराएँगी। किंतु इस आयोजन के सूत्रधार भारत की गौरवशाली धरोहर से शायद स्वयं अपरिचित हैं। इस वार्षिकोत्सव में कुछ नितांत फूहड़ फिल्मी गानों पर बच्चे-बच्चियाँ नृत्य कर रहे हैं, जिनके शब्द उद्धृत करने में मुझे संकोच हो रहा है, किंतु सभागार में उपस्थित बच्चों के माता-पिता, विद्यालय प्रबंधन के वरिष्ठ पदाधिकारी गद्गद होकर तालियाँ बजा रहे हैं। ऐसे कितने ही दृश्य प्रस्तुत किए जा सकते हैं। आयोजक बदल जाएँगे, सभागार में बैठे दर्शक बदल जाएँगे, किंतु विकृति, अपसंस्कृति के अँधेरे का स्वरूप उतना ही कालिमायुक्त रहेगा। चाहे प्राचार्यों का सम्मेलन हो, अवकाशप्राप्त आई.ए.एस. अधिकारियों का सम्मेलन हो, किसी मंत्रालय का आयोजन हो, प्रस्तुतियों के स्तर पर कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता। देश की एक प्रख्यात शास्त्रीय एवं उपशास्त्रीय संगीत साधिका को पद्मश्री से सम्मानित किया गया तो उन्होंने एक साक्षात्कार में अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहा था कि पद्मश्री का सम्मान तो हर्ष की बात है, किंतु पहले जो लोग छोटे-मोटे आयोजनों में बुला लेते थे, अब पद्मश्री के बाद बुलाने से हिचकते हैं और यह आजीविका के लिए एक संकट सा खड़ा हो गया है। उनकी पीड़ा हमारे सांस्कृतिक परिदृश्य पर एक गंभीर टिप्पणी प्रस्तुत करती है। तथाकथित पॉप संगीत के नाम पर फूहड़ गाने गाने वाले एक शाम के कई-कई लाख वसूलते हैं और शास्त्रीय संगीत के महान् साधकों को आजीविका के संकट का सामना करना पड़ता है। जिन दृश्यों में हमने विकृत प्रस्तुतियों के अँधेरों की झलक देखी, वे तो शायद कुछ हजार तक सीमित रही हो, किंतु जो चैनल लाखों घरों तक पहुँचते हैं, उन्होंने तो फूहड़ता और विकृति की सारी सीमाएँ तोड़ दी हैं। द्विअर्थी संवादों वाले कुछ कार्यक्रम तो अच्छी-खासी टी.आर.पी. भी बटोर रहे हैं। चर्चाओं में भी अधिकांश चैनलों पर कितनी कड़वी, अभद्र भाषा का प्रयोग किया जाता है और कुछ चर्चाओं में यह सिलसिला भद्दी गालियों तक भी जा पहुँचा है।

वर्तमान समय में ‘सोशल मीडिया’ सर्वाधिक प्रभावी है। लोग हर समय मोबाइल फोन से जुड़े रहते हैं। हर दिन कितने ही फर्जी संदेश, फर्जी वीडियो पोस्ट किए जाते हैं और फिर अच्छे-खासे पढ़े-लिखे लोग, तथाकथित बुद्धिजीवी इन सनसनीखेज संदेशों को बिना सोचे-समझे आगे बढ़ा देते हैं। लगभग हर चैनल पर ऐसे फर्जी वीडियो या संदेशों की जाँच-पड़ताल होती है तथा लाखों-करोड़ों लोगों तक पहुँचे इन संदेशों को फर्जी घोषित किया जाता है, किंतु क्या आवश्यक है कि हर व्यक्ति इस खंडन वाले कार्यक्रम को देख पाए। परिणामस्वरूप एक झूठा संदेश या घृणा फैलानेवाला या चरित्रहनन करनेवाला संदेश लाखों लोगों में स्थायी दुष्प्रभाव छोड़ता है। सोशल मीडिया पर जितनी फूहड़ता और अश्लीलता फैली हुई है, वह भी गंभीर चिंता का विषय है तथा उसके दुष्परिणाम भी ऐसे भयानक अवराधों के रूप में सामने आते हैं, जिनमें मासूम बच्चियाँ तक क्रूरता तथा अमानवीयता का शिकार बन जाती हैं। पूरे विश्व में महिला असुरक्षा में हम शर्मनाक स्थिति में हैं।

हम सब को पूरी गंभीरता से विचार करना चाहिए कि हमारे देश में इतनी सांस्कृतिक विपन्नता का अँधियारा कैसे छा गया है। अध्यात्म जैसे पवित्र क्षेत्र में भी तथाकथित संतों ने क्या-क्या किया है और लाखों लोगों के विश्वास की हत्या करनेवाले ये लोग सलाखों में क्यों बंद हैं। जब हम ज्योतिपर्व मना रहे हैं तो अमावस के अँधियारे को दीयों के प्रकाश से पराजित करने के महापर्व पर मन के अँधेरों को उजालों से भरने का प्रयास करें। हर क्षेत्र को फूहड़ता अश्लीलता, अपसंस्कृति, विकृति के अँधेरों से मुक्त करें तभी तो विश्वगुरु बनने का स्वप्न पाल सकेंगे।

o

वर्तमान परिदृश्य में किसी भी भाषा में बाल साहित्य का कितना महत्त्व है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। कितनी ही भाषाओं में तो बाल साहित्य रचे बिना साहित्यकार को पूर्ण साहित्यकार नहीं माना जाता। बाल साहित्य की महत्ता के भी दो पहलू हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण तो यही है कि एक बच्चा बड़ा होकर अच्छा मनुष्य बने, अच्छा नागरिक बने, देश और समाज के प्रति जागरूक हो, देश की संस्कृति, जीवन-मूल्यों, आदर्शों, सरोकारों से संपन्न बने और इस प्रयास में बाल साहित्य उसका सबसे बड़ा संवाहक बने। दूसरा पहलू यह है कि यदि एक बच्चे में साहित्य के प्रति रुचि जाग्रत् होगी तो वह बड़ा होकर साहित्य प्रेमी बनेगा, अच्छा पाठक बनेगा, जिससे लेखक ही लाभान्वित होंगे। किसी बच्चे को जिस लेखक की रचनाएँ प्रभावित करती हैं, उनके प्रति उसके मन में प्रेम एवं सम्मान की स्थायी छाप पड़ जाती है। हिंदी में बाल साहित्य के प्रति साहित्यिक संस्थाओं की जागरूकता तो बढ़ी है, जिसकी झलक हमें विभिन्न प्रांतों की साहित्यिक संस्थाओं द्वारा प्रदत्त सम्मानों तथा सम्मान राशि में वृद्धि द्वारा मिल जाती है। साहित्य अकादेमी द्वारा बाल साहित्यकार सम्मान का शुभारंभ भी सुखद है। अब बच्चों का संसार आमूलचूल बदल गया है। उनके हाथ में मोबाइल आ गया है, जिसे चलाने में वे बड़ों से अधिक पारंगत हैं। इसके भी सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों ही पहलू सामने आए हैं। परिवारों के टूटने से एकल परिवार ही नहीं वरन् सिर्फ माँ या सिर्फ पिता द्वारा परवरिश पानेवाले बच्चे भी एक सच्चाई हैं।

दादी-नानी के किस्से विलुप्त हो गए हैं। महानगरों तथा नगरों में माता-पिता अतिव्यस्तता के कारण बच्चों को समुचित समय नहीं दे पाते। बच्चे जिस प्रकार की भयानक खबरों से साक्षात्कार कर रहे हैं, वह भी उनके बालमन पर गंभीर दुष्प्रभाव डाल रहा है। ऐसे परिदृश्य में बाल साहित्यकारों की भूमिका बेहद चुनौतीपूर्ण हो जाती है। एक तरफ बच्चों की विराट् जिज्ञासा भरी दुनिया से तालमेल बैठाना, दूसरी तरफ उनके आहत मनों पर मलहम लगाने वाले, संवेदना जगाने वाले साहित्य की रचना करना।

बच्चों तक अच्छे बाल साहित्य को पहुँचाने की समस्या भी गंभीर है। हिंदी में व्यापक रूप से पूरे देश में पहुँचने वाली एक भी पत्रिका नहीं है। सीमित साधनों से सीमित वर्ग तक पहुँचनेवाली कुछ पत्रिकाएँ अवश्य इस कठिन कार्य में संलग्न हैं, किंतु इस विशाल देश में उनकी संख्या ‘ऊँट के मुँह में जीरा’ जितनी है। काश! समर्थ संस्थाएँ अथवा प्रकाशक आगे आएँ तथा बाल साहित्य को करोड़ों घरों तक पहुँचानेवाली पत्रिकाओं के प्रकाशन का चुनौती भरा दायित्व सँभालें। यही हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार तथा उसे सक्षम एवं समर्थ ‘राष्ट्रभाषा’ बनाने की दिशा में भी एक सार्थक पहल होगी। यह भी बहुत आवश्यक है कि हिंदी के समर्थ एवं प्रतिष्ठित रचनाकार बाल साहित्य लेखन को दोयम दर्जे का कार्य न मानकर उत्कृष्ट बाल साहित्य की रचना करें। हिंदी में ज्ञानपीठ अथवा साहित्य अकादेमी सम्मान पानेवाले लेखकों-कवियों की सूची को देखेंगे तो बाल साहित्य में उनके योगदान के संदर्भ में निराशा ही हाथ लगेगी। इस स्थिति को बदलने की आवश्यकता है।

‘साहित्य अमृत’ परिवार की आरे से सभी लेखकों व पाठकों को दीपपर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ।

(लक्ष्मी शंकर वाजपेयी)

हमारे संकलन