हिंदी का जादू...

बेल्जियम देश का एक युवक, जो बचपन से बहुत पढ़ाकू है, जिसने कई भाषाओं की अनेक कविताएँ, कहानियाँ आदि पढ़ी हैं, अचानक गोस्वामी तुलसीदास की एक चौपाई पढ़ लेता है, जो जर्मन भाषा में अनूदित थी। यह चौपाई उसे इतना चमत्कृत कर देती है कि वह उसके प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाता। उसके जीवन की दिशा ही बदल जाती है। वह इंजीनियर बनने की बजाय संन्यासी बनने की राह चुन लेता है तथा जब उसे विदेश में धर्मप्रचार के लिए चुना जाता है तो वह तुलसीदास के ‘भारत’ का चयन करता है।

ग्रीक, फ्लेमिश, लेटिन, अंग्रेजी, जर्मन आदि अनेक भाषाओं का यह ज्ञाता दर्शन-शास्‍त्र में स्नातकोत्तर धर्मप्रचारक हिंदी सीखने के लिए छोटे बच्चों की कक्षा में बैठकर हिंदी सीखता है और हिंदी का जादू उसे हिंदी, संस्कृत में स्नातक होने से आगे जाकर हिंदी में डी.फिल. तक ले जाता है। वह भारत का ऐसा प्रथम शोधार्थी बन जाता है, जिसने ‘हिंदी माध्यम’ से शोध-ग्रंथ लिखकर विश्वविद्यालय को अपने नियम बदलने पर विवश किया। उन दिनों हिंदी में पी-एच.डी. के लिए भी अंग्रेजी में शोध-ग्रंथ प्रस्तुत करना पड़ता था। यह हिंदीसेवी अपने शब्दकोश के माध्यम से करोड़ों हिंदीप्रेमियों का प्रेरणास्रोत बन जाता है। जी, बेल्जियम के इस हिंदी सेवी को हम सब फादर कामिल बुल्के के नाम से जानते हैं।

जापान के प्रोफेसर तोमियो मिजोकामि भी हिंदी के जादू में बँध जाते हैं। वे गांधी तथा नेहरू के व्यक्तित्वों से प्रभावित होकर हिंदी से जुड़ते हैं, किंतु एक बार हिंदी के संपर्क में आने के बाद पूरा जीवन हिंदी को ही समर्पित कर देते हैं। वे स्वीकार करते हैं कि यदि हिंदी उनके जीवन में नहीं आती तो वे बहुत कुछ खो देते। आज भी उनका एक-एक पल हिंदी के लिए समर्पित है।

न्यूजीलैंड के रोनाल्ड स्टुअर्ट मेक्ग्रेगोर को बचपन में फीजी से प्रकाशित हिंदी व्याकरण की एक पुस्तक भेंट में मिल जाती है। इस पुस्तक को पढ़ने की जिज्ञासा में वे हिंदी सीखने की ओर प्रवृत्त होते हैं, किंतु उन्हें भी हिंदी का जादू ऐसे जकड़ लेता है कि वे भी अपना जीवन हिंदी को समर्पित कर देते हैं। मेक्ग्रेगोर भारत आकर हिंदी पढ़ते हैं, फिर कैंब्रिज विश्वविद्यालय में हिंदी का अध्यापन करते हैं तथा हिंदी व्याकरण पर ‘एेन आउटलाइन ऑफ हिंदी ग्रामर’ जैसी महत्त्वपूर्ण पुस्तक लिखते हैं। ये कोई छुटपुट नाम हैं, न ही अपवादस्वरूप हैं। दुनिया भर के अनेक देशों के कितने ही नाम गिनाए जा सकते हैं, जो हिंदी के जादू से बँधे और फिर हिंदी के अध्यापन, लेखन या प्रचार-प्रसार में ही पूरे जीवन लगे रहे। इंग्लैंड के रुपर्ट स्नेल हों या चेकोस्लाविया के डॉ. ओदोलेन स्मेकल या हंगरी की मारिया नगेशी या रूस के प्रोफेसर वारान्निकोव...बहुत लंबी सूची है। सन् 1698 में जॉन जोशुआ केटलर डच भाषा में हिंदी भाषा के व्याकरण पर पुस्तक लिखते हैं। सन् 1771 में बेंजामिन शुल्ज हिंदी के व्याकरण पर ‘ग्रेमेटिका हिंदुस्तानिका’ नामक पुस्तक लिखते हैं। रूस के गेरासिमलेव रूसी हिंदी व्याकरण लिखते हैं। सन् 1655 में ईस्ट इंडिया कंपनी एडवर्ड टेरी नामक विद्वान् को भारत में यह जानने के लिए देश भर का दौरा करने का दायित्व सौंपती है कि कौन सी भाषा है जो देश भर में समझी जा सकती है। टेरी भारत भर में घूमने के बाद अपनी रिपोर्ट में बताते हैं कि पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण—पूरे देश में हिंदी हर जगह समझी जाती है। एडवर्ड टेरी स्वयं हिंदी के प्रशंसक बनकर इंग्लैंड लौटते हैं। महारानी विक्टोरिया भारत से गए रसोइए को गीत गुनगुनाती सुनती हैं और हिंदी से इतना प्रभाव‌ित होती हैं कि हिंदी सीखने के लिए भारत से शिक्षक की व्यवस्‍था की जाती है, और महारानी विक्टोरिया का हिंदी प्रेम उनसे हिंदी में कविता भी लिखवा लेता है।

हिंदी के जादू से प्रभाव‌ित ब्रिटिश विद्वान् हेनरी पिनकोट, स्वामी दयानंद से बार-बार आग्रह करते हैं कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए अपने प्रभाव का प्रयोग करें। जब टी.वी. चैनल नहीं थे और न उन दिनों इंटरनेट आया था, अतः भारत के बाहर किसी देश में हिंदी में बोल पाना, हिंदी पढ़ पाना अत्यंत कठिन था; फिर भी कितने ही प्रवासी भारतीय अपने-अपने देशों में निजी प्रयासों से हिंदी पढ़ाने या उसका प्रचार-प्रसार करने में जुटे रहे।

हिंदी का यही जादू है कि पड़ोस के उस देश में, जो हमसे शत्रुता रखता है, सारे केबल ऑपरेटर देशव्यापी हड़ताल कर देते हैं कि उन्हें हिंदी के चैनल दिखाने की अनुमति दी जाए। उन्होंने देखा था कि कैसे ‘रामायण’ या ‘महाभारत’ के प्रसारण के समय लाहौर तथा कराची की सड़कें भी वैसे ही वीरान हो जाती थीं, जैसी भारत के महानगरों की। हिंदी का ही जादू है कि ‘माधुरी’ जैसी बेहद लोकप्रिय फिल्म-पत्रिका के संपादक अरविंद कुमार, जो रात-दिन उन्हीं फिल्मी सितारों के बीच रहते हैं, जिनकी एक झलक पाने के लिए लाखों लोग उत्सुक रहते हैं, सारी चमक-दमक, ग्लैमर को ठुकराकर हिंदी का थिसाॅरस लिखने दिल्ली आ जाते हैं तथा हिंदी को विश्व का सबसे बड़ा शब्दकोश देते हैं। यह भी हिंदी का ही जादू है कि विदेशों में हिंदी के कवि-सम्मेलनों अथवा अन्य कार्यक्रमों में बड़ी-से-बड़ी हस्तियाँ न केवल शामिल होती हैं, वरन् घंटों-घंटों मौजूद रहती हैं। ट्रिनिडाड में कविता-पाठ समाप्त हुआ तो वहाँ की महिला कमिश्नर ने अंग्रेजी में बताया कि जिंदगी में पहली बार दो-ढाई घंटे सिर्फ हिंदी सुनने के लालच में बैठी रही थीं। ठीक यही बात वहाँ की अनेक स्टील फैक्टरियों की मालकिन ने भी कही थी।

हिंदी का यही जादू पूरे भारत में दिखा था, जब अटलजी ने संयुक्त राष्ट्र में हिंदी भाषा में भाषण दिया था। रूस के ख्रुश्चेव भी भारत आए तो हवाई जहाज से उतरते ही सबसे पहले ‘आवारा हूँ’ बोले थे और सारे अखबारों में यही सुर्खी में था। ओबामा जब सीरी फोर्ट में अपने भाषण में हिंदी का एक वाक्य बोल देते हैं—‘बड़े-बड़े शहरों में ऐसी छोटी-छोटी बातें हो जाती हैं’ तो सभागार गगनभेदी तालियों से गूँज उठता है। इसे हिंदी का जादू कहिए, ताकत कहिए, प्रभाव कहिए कि दुनिया का, मीडिया का एक बेहद शक्तिशाली समूह भारत में चौबीसों घंटे का एक अंग्रेजी चैनल बड़ी ठसक के साथ शुरू करता है, किंतु न उसकी कोई पहचान बनती है, न प्रतिष्ठा। फिर वह ह‌िंदी के कार्यक्रम शुरू करता है तो टी.आर.पी. में शीर्ष पर जा पहुँचता है और फिर २४ घंटे का अंग्रेजी चैलन, २४ घंटे के हिंदी चैलन में बदल जाता है। अनगिनत किस्से हैं हिंदी के जादू के, हिंदी की शक्ति के, हिंदी के प्रभाव के...।

यही समय है, सही समय है...

जैसा इस वर्ष लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्रीजी ने कहा, “हिंदी के लिए भी यही समय है, सही समय है...!”

यदि स्वाधीनता के 75वें वर्ष में भी हमने अंग्रेजी की मानसिक दासता से मुक्ति नहीं पाई तो यह अनुचित ही नहीं, दुर्भाग्यपूर्ण भी होगा। अंग्रेजी भारत में अंतरराष्ट्रीय संपर्क की भाषा रहे, विकल्प न होने तक उच्च शिक्षा तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की भाषा रहे। अंग्रेजी का शासन में तथा रोजमर्रा के जीवन में कोई स्‍थान नहीं होना चाहिए। अंग्रेजी, जिसे भारत के १० प्रतिशत नागरिक भी नहीं समझते, सारी भारतीय भाषाओं के विकास में बाधक बने तथा वर्चस्व की भाषा बने, यह असहनीय है। जिस भाषा को देश के ९० प्रतिश्त लोग नहीं समझते, उसी में राजकाज चलना देश के लिए घातक है। महात्मा गांधी के स्वाधीनता संघर्ष के दिनों की बात याद आती है कि जब भी भारत स्वाधीन हो, मैं चाहूँगा कि अंग्रेज इस प्यारे देश में रहें, किंतु अंग्रेजी को मैं ‘एक दिन’ भी सहन नहीं करूँगा। विडंबना देखिए कि एक दिन क्या 74 वर्षों से वह महारानी बनी बैठी है। जिस हिंदी के जादू की बात अभी की है, वही जादू हिंदीभाषी प्रांतों के हिंदीभाषियों पर भी असर दिखाए।

इटंरनेट आने के बाद हिंदी के विकास में अभूतपूर्व प्रगति हुई है। आज विश्व भर के कई दर्जन देशों में हिंदीप्रेमी भारतवासी/भारतवंशी हिंदी को सशक्त एवं समृद्ध बनाने में लगे हैं। यह क्या किसी चमत्कार से कम है कि सिर्फ कनाडा के ही ४० से अधिक कवियों का संग्रह या ३० से अधिक गद्य लेखकों का संग्रह एक वास्तविकता बन चुका है। हर देश में हिंदी शिक्षण जोरों पर है। अनेक देशों के अनेक शहरों में हिंदी के एफ.एम. रेडियो प्रसारित हो रहे हैं। भारत में भी भारतीय भाषाओं में इंजीनियरिंग तथा अन्य पाठ्यक्रमों के द्वार खुल रहे हैं। यदि भारत के लगभग ७०-८० करोड़ हिंदीभाषी अब भी नहीं जागे तो कब जागेंगे।

हिंदीभाषी क्या करें? यदि ८० करोड़ हिंदी भाषियों में मात्र १० प्रतिशत भी हिंदी को शक्ति तथा समर्थन दे दें तो हिंदी की स्थिति में सुखद बदलाव हो जाएगा। यदि इन करोड़ों के घरों में हिंदी का अखबार खरीदा जाए तो सोचिए हिंदी को कितनी शक्ति मिलेगी। ८० करोड़ हिंदीभाषियों के देश में हिंदी, कविता, कहानी आदि की मात्र ३०० से ५०० किताबें छपना कितना दुखद है! स्वाधीनता के ७५वें वर्ष में हम अंग्रेजी में घर के बाहर तख्ती लगवाना बंद करें। हिंदी से रोजी-रोटी कमाने के बावजूद अंग्रेजी में ‘विजिटिंग कार्ड’ छपवाना बंद करें। मांगलिक कार्यों, जैसे विवाह आदि के निमंत्रण-पत्र अंग्रेजी में छपवाना बंद करें, जो शुद्ध मानसिक गुलामी का परिचय देते हैं। हिंदी पर गर्व करें। बच्चों को हिंदी पढ़ाएँ तथा प्रशासनिक सेवाओं में हिंदी माध्यम अपनाने के लिए प्रेरित करें। हिंदी को ज्ञान-विज्ञान की सामग्री से समृद्ध करें। अनुवाद से विश्व भर की ज्ञान संपदा से सुसज्जित करें। हिंदी संयुक्त राष्ट्र में अपना गौरवशाली स्‍थान बनाए। यही समय है, सही समय है।

 

(लक्ष्मी शंकर वाजपेयी)

 

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