२ अक्तूबर, 1987 का वह दिन

मेरे एक मित्र की दिल्ली के ओखला औद्योगिक क्षेत्र में एक फैक्टरी का निर्माण कार्य मेरी देखरेख में चल रहा था। मजदूर वहीं रहते थे और सप्ताह के सातों दिन कार्य चलता था बिना किसी अवकाश के।

वह २ अक्तूबर का दिन था, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जन्म दिवस, राष्ट्रीय अवकाश का दिन। हमारे मजदूर काम करना चाहते थे, छुट्टी लेकर क्या करेंगे, कहाँ जाएँगे। अतः मैं भी प्रातः ११ बजे तक निर्माण स्थल पर पहुँच गया था। मजदूर काम कर रहे थे।

थोड़ी दूरी पर पुलिस की एक जिप्सी खड़ी थी, जिसमें ड्राइवर के अतिरिक्त एक सब-इंस्पेक्टर और एक सिपाही बैठे थे। मेरे पहुँचने के लगभग आधा घंटे के बात वह जिप्सी वहाँ से चली और हमारी तरफ आने लगी और आकर हमारे सामने खड़ी हो गई। मुझे थोड़ी घबराहट हुई। कुछ ही देर में वह सिपाही मेरे सामने था। मैंने सोचा कि अब कुछ गड़बड़ होगी।

तभी उस सिपाही ने बोलना शुरू किया, “आपका यह सामान यहाँ खुले में दिन-रात पड़ा रहता है, निगरानी हमें करनी पड़ती है। आप फैक्टरी बनवा रहे हैं, बड़ा अच्छा काम कर रहे हैं। अपने बुजुर्गों का नाम रौशन कर रहे हैं। कोई तो अपने बड़ों की कमाई उड़ा देता है, कोई उसकी कई गुना बढ़ा देता है। आपके बुजुर्ग बड़े खुशकिस्मत हैं, आप उनकी कमाई को और बड़ा रहे हैं।”

मुझे उस सिपाही की बात सुनकर अजब सा आनंद आ रहा था। वह आगे बोला, “आज २ अक्तूबर का राष्ट्रीय अवकाश का दिन है। पर इन बेचारे मजदूरों को इससे क्या। ये तो काम करेंगे तो इन्हें पैसा मिलेगा, तभी चूल्हा जलेगा। सरकार को इनकी क्या चिंता। आप जैसे लोगों के सहारे ही तो इनका जीवन चलता है।”

तभी गाड़ी से आवाज आई, “अरे भई, जल्दी कर और भी काम करने हैं।”

सिपाही ने अपने साहब से कहा कि बस अभी आया और मेरी ओर देखकर बोला, “हम भी तो आप सबका ध्यान रखते हैं, हमारी कौन सुने। गला तर करने का भी कोई साधन नहीं।”

मैं उसकी इतनी लंबी कहानी सुन सब समझ रहा था। वैसे ऐसे सिपाही से मेरा सामना पहली बार ही हुआ था। मैंने जेब से ५० का नोट निकालकर उसकी तरफ बढ़ा दिया और कहा, “पर आज तो सब दुकानें बंद होंगी।” नोट पकड़ते ही वह बेचैन हो रहे साहब की ओर मुड़ते हुए बोला, “हमारे लिए शुष्क दिवस और बाकी दिवस सब एक से हैं। हम ही बंद कराने वाले, हम ही खुलवाने वाले।”

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