अनुपस्थित‌ियों का सतत शोक, साहित्यकारों की सिकुड़ती हुई दुनिया

अनुपस्थित‌ियों का सतत शोक, साहित्यकारों की सिकुड़ती हुई दुनिया

हिंदी के सुपरिचित कवि, आलोचक एवं भाषाविद्। शब्द सक्रिय हैं (कविता-संग्रह), खुली हथेली और तुलसीगंध (संस्मरण) व कविता का स्थापत्य, कविता की अष्टाध्यायी एवं शब्दों से गपशप सहित समीक्षा व आलोचना की कई पुस्तकें। कई ख्यात कवियों की कृतियों का संपादन। तत्सम् शब्दकोश के सहयोगी संपादक एवं बैंकिंग वाङ्मय सीरीज (पाँच खंड) के रचयिता। उ.प्र. हिंदी संस्थान से ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल आलोचना पुरस्कार’ सहित अन्य सम्मानों से विभूषित।

यही हाल विवेकानंद की जीवनगाथा को लेकर हुआ जब विवेकानंद पर उनकी उपन्यास सीरीज का पहला खंड ‘तोड़ो कारा तोड़ो’ का प्रकाशन हुआ। इसके साथ ही जैसे एक नए विवेकानंद का जन्म हमारे बीच हुआ। पहला खंड पढ़ते ही पाठकों की माँग होती कि इसका दूसरा खंड कब तक आ रहा है। इस तरह उनके बहुआयामी उपन्यासों के अनेक खंड आते गए और पाठक उनकी किस्सागोई में रमते गए।

योंतो हर साल कुछ साहित्‍यकार हमसे विदा होते हैं, किन्‍हीं व्‍याधियोंवश या उम्रदराज होने के नाते। किंतु पिछला कोरोना का दौर बहुत ही भयावह रहा है।

अब जब इस महामारी को पूरे विश्‍व में पसरे हुए लगभग डेढ़ साल से ज्‍यादा का समय हो चला है, विश्‍व के कोने-कोने से अनेक लेखक-कवि विदा हुए होंगे। पर जहाँ तक भारत की बात है, हम देखते हैं कि हमने अपने बीच से अनेक बौद्धिक शख्‍सियतें देखते-देखते ओझल हो गईं। फेसबुक पर सूचनाएँ आतीं तो हम पढ़कर स्‍तब्‍ध रह जाते। अनेक लेखकों, कवियों, कथाकारों, साहित्‍यकारों ने अपनी जान इसलिए गँवा दी कि वे महामारी के प्रभाव में आए तो उन्‍हें बेहतर स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाएँ नहीं मिलीं, अस्‍पताल नहीं मिले, बेड नहीं मिले, आॅक्‍सीजन का प्रबंध नहीं हुआ। लिहाजा डेढ़ साल की अवधि में ही हमने अपने बीच से लगभग तीस से ज्‍यादा साहित्‍यकारों को खोया है। ऐसी एक सूची हम बनाएँ तो उनमें ये नाम आते हैं—कवियों में कुँअर बेचैन, विजेंद्र, राजेंद्र राजन, मोहन कुमार नागर, नरेंद्र मोहन, महेंद्र गगन, सुनीता बुद्धिराजा, कमलेश द्विवेदी, तरन्‍नुम रियाज और जहीर कुरेशी तो कथाकारों उपन्‍यासकारों में—नरेंद्र कोहली, रमेश उपाध्‍याय, मंजूर एहतेशाम, लाल बहादुर वर्मा, प्रभु जोशी, शिव कुमार शिव, मुशर्रफ आलम जौकी, सूरजपाल चौहान, विश्‍वेश्‍वर तथा आलोचकों-गद्यकारों में—रेवती रमण, गुरचरण सिंह, कांति कुमार जैन, लोक वार्त्ताकारों में जगदीश पीयूष, भाषाविदों में अरविंद कुमार और मीडिया व प्रिंट मीडिया के पत्रकारों में—राजीव कटारा, रोहित सरदाना, कनुप्रिया, कलाकारों में—पं राजन मिश्र, पं. देबू चौधरी, बुद्धदेव दासगुप्‍ता, सतीश कौल, श्रवण राठौर इतिहासकारों-कथाकारों में—योगेश प्रवीण और श्‍याम मुंशी का जाना बौद्धिक साहित्‍यिक-सांस्‍कृतिक और कलात्‍मक जगत् का खाली होते जाना है। ऐसे शून्‍यों की भरपाई नहीं होती।

‘दीप शिखा जगती है भावों की,
प्रकाश अविरल होता है
अंदर छिपा कहीं सलोना शिशु होता है।’

यह अंश कविवर विजेंद्र के सानेट-संग्रह ‘उदित क्षितिज पर’ का है। कितनी सहजता से उन्होंने रचना प्रक्रिया की बात की है कि कैसे भावों की दीपशिखा के जलते ही उसका अविरल प्रकाश चित्त में फैल जाता है, जहाँ कहीं एक सलोना शिशु छिपा होता है। ऐसे सरल-सलोने चित्त और निरवधि काल के उद्गाता कवि विजेंद्र २९ अप्रैल, २०२१ को नहीं रहे। इसके आसपास ही उनकी सहधर्मिणी भी नहीं रहीं। परिवार के लिए दुहरा दुःख। पर सत्‍य यही कि एक-एक कर हिंदी के बड़े लेखक जिस तरह विदा होते जा रहे हैं, सरस्वती का मंदिर जैसे सूना होता जा रहा है।

याद आता है, उनकी पुस्तक ‘ऋतु का पहला फूल’ के प्रकाशन पर कुछ समीक्षात्‍मक लिख-लिखकर उन्हें भेजा तो उन्हें काफी पंसद आया। ‘ऋतु का पहला फूल’ भले ही आद्योपांत किसी बसंत की आभा से विरचित न हो किंतु इस संग्रह को व्‍यापक चर्चा मिली और इस पर उन्हें बिड़ला फाउंडेशन का ‘बिहारी पुरस्कार’ प्रदान किया गया। इसके बाद उनके कवित्व की सुगंध राजस्थान तक सीमित न रही बल्कि हिंदी जगत् की मुख्य धारा के वे सम्मानित कवि माने जाने लगे तथा ‘मीरा पुरस्कार’ व ‘पहल सम्मान’ से समाहत किए गए। उनके व्यक्तित्व का एक और पहलू था ‘ओर’ तथा ‘कृति ओर’ का संपादन प्रकाशन। साहित्‍यिक पत्रकारिता में इस पत्रिका के अवदान को भुलाया नहीं जा सकता।

जिसने गीत की एक लंबी शानदार परंपरा देखी हो, मंच की एक लंबी शानदार पारी खेली हो, देश विदेश के हजारों मंचों पर गीत के राजकुमार की तरह काव्यपाठ किया हो तथा अपनी मोहिनी मुसकान और गीत के लालित्य से मोह लेने का कौशल जिसके पास हो, ऐसे कुँअर बेचैन का इस असार संसार से जाना हिंदी की एक बहुत बड़ी क्षति है। वे चंदौसी मुरादाबाद में जनमे थे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की धरती छंद की दृष्टि से उर्वर मानी जाती है। गीतों के एक से एक धुरंधर कवि यहीं पैदा हुए। नीरज, भारत भूषण, किशन सरोज, बलबीर सिंह ‘रंग’, रमेश रंजक तथा रामावतार त्यागी ऐसे बहुतेरे गीतकार इसी इलाके से ताल्लुक रखते हैं। इनमें से हर गीतकार का अपना रंग रहा है तथा मंच की दुनिया इनसे ही पहचानी जाती रही है। यही कारण है कि कुँअर बहादुर सक्सेना से कुँअर बेचैन बने इस कवि ने लिखना शुरू किया तो गीतों में जैसे एक नई चमक और गमक आ गई। उनके शुरुआती संग्रहों ‘पिन बहुत सारे’ तथा ‘भीतर सांकल, बाहर साँकल’ सहित अनेक काव्य-कृतियों को पढ़ने का सुअवसर मिला है तथा कह सकता हूँ कि जीवन-जगत् का ऐसा कौन सा भाव होगा, जो कुँअरजी की रचनाओं में द्रष्टव्य न हो। मान का गीत हो, मनुहार का गीत हो, विरह का हो कि शृंगार का हो, ओज का हो या उदात्त का हो, आशा और उल्लास का हो, कुँअर बेचैन के यहाँ लगभग तमाम रस, तमाम शैलियों के गीत मिल जाएँगे। लगभग पैंतीस से अधिक कृतियों के रचयिता कुँअर बेचैन गीत, गजल, कविता, महाकाव्य, हाइकू, उपन्यास व समालोचना विधाओं के रचनाकार हैं। इनमें नौ गीत-संग्रह, पंद्रह गजल-संग्रह, एक महाकाव्य, एक हाइकू, एक दोहा-संग्रह, दो उपन्यास, एक यात्रा-वृत्तांत व कुछ अन्य कृतियाँ शामिल हैं।

कुँअरजी को जीवन में बहुत से सम्मान मिले। छोटी बड़ी संस्थाओं को मिला लें तो कोई ढाई सौ से ज्यादा संस्थाओं द्वारा वे सम्मानित हुए हैं। किंतु इनमें उल्लेखनीय है—उ.प्र. हिंदी संस्थान का साहित्य भूषण सम्मान, हिंदी गौरव सम्मान, परिवार संस्था, मुंबई का सम्मान, गीत गौरव, गीत पुरुष, भारतश्री, राष्ट्रीय आत्मा पुरस्कार व कबीर पुरस्का‍र आदि। कुँअरजी ७९ वर्ष का भरापूरा जीवन जीकर इहलोक से विदा हो चुके हैं, किंतु उनके गीत उनकी गजलों की अनुगूँज कभी भी मंद नहीं पड़नेवाली।

सुनीता बुद्धिराजा जहाँ एक ओर एक सुधी कवयित्री थीं, वहीं उनके लिए संगीतकारों के साक्षात्‍कार बहुत ही मोहक और आख्‍यान सरीखे लगते हैं। आधी धूप की कविताएँ विषाद और वेदना से भरी हैं तो ‘प्रश्‍नापांचाली’ एक प्रबंधकाव्‍य का सा आस्‍वाद देनेवाली कृति है। बरसों तक जनसंपर्क के एक बड़े पद पर प्रतिष्‍ठित सुनीताजी अपने समय के अनेक संगीतकारों के सान्‍निध्‍य में रहीं। सात सुरों के बीच उनकी बेहतरीन कृति है तथा पंडित जसराज पर लिखी पुस्‍तक उन्‍हें अनंत काल तक कालजयी बनाए रखेंगी।

याद आती है प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित ‘आधी धूप’ की उनकी एक कविता—‘एक था मन’। वह अपने पूरे पाठ में उदास कर देनेवाली कविता है। एक स्त्री के मन की चौह‍‍‌ियों और उसकी तमाम तहों के भीतर उतरती हुई एक संवेदनशील कविता। जहाँ ऐसा संवेदनशील मन हो, वहीं कलाएँ विश्रांति का अनुभव करती हैं। यह कविता इस तरह है—

एक था मन

कभी-कभी खुश और उदास था मन

और कभी दूर या पास था मन

मेरी तुम्हारी बात था मन

नए-नए गीतों का

स्मृतियों का, फूलों का

हाशिए पर लिखी अनगिनत भूलों का

साक्षी था मन

रामजी का सिया का वनवास था मन

एक था मन

उनकी पुस्‍तकें ‘सात सुरों के बीच’ और ‘रसराज पंडित जसराज’ इसी सांगीतिक सुगंध के कोने हैं, जहाँ शब्द केवल निमित्त मात्र हैं, वे अर्घ्य सरीखे हैं—सुरों के देवताओं को प्रसन्न करने के निमित्त ‘धूप दीप नैवेद्य’ सरीखे। सुनीता के कवि मन ने जिस समर्पण, साधना और कलात्मकता से कलाकारों के ये वृत्तांत सहेजे हैं, वे एक साथ जीवन चरित, ललित वार्त्ताओं, रम्य रचनाओं, संस्मरण और रिपोर्ताज का सा सुख देते हैं। यह कम उल्लेख्य नहीं कि इसके आकल्पन में भी वही चारुता है, जो इसके शब्द-संयोजन में। कुछ शामों, यात्राओं, संवादों और आलाप से रची यह गंगोत्तरी सचमुच अंत:करण को निमज्जित कर देती है। अब तक के जिए सर्जनात्मक जीवन और संगीत सहकार को आगामी पीढ़ी के लिए एक धरोहर के रूप में सहेजनेवाली सुनीता बुद्धिराजा को विस्मृत नहीं किया जा सकता।

कवियों में मंच के जयी रचनाकार राजेंद्र राजन का जाना गीत के एक हितुआ कवि का जाना है। उनका होना मंच पर हिंदी कविता के पक्ष में एक ऐसी विश्‍वसनीय आवाज का होना था, जिसने मंच से गीतों की गंगा बहाई और कविता से कल्‍मष साफ करने में एक भूमिका अदा की। उनका पहला काव्य-संकलन ‘पतझर-पतझर सावन-सावन’ आया तथा पहला गीत-संग्रह ‘केवल दो गीत लिखे मैंने’ और वर्ष दूसरा गीत-संग्रह ‘खुशबू प्‍यार करती है’ आया। उनके गीत हिंदी में चर्चित हुए। कुछ साल पहले ही उनका गजल-संग्रह ‘मुझे आसमान देकर’ आया था। उन्‍हें उनके साहित्‍यिक अवदान के लिए ‘साहित्‍यभूषण सम्‍मान’ और कई सम्‍मानों से नवाजा गया था। गीत के क्षेत्र में मंच पर जब-जब निगाह जाएगी, राजेंद्र राजन की कमी खलेगी। उनका गीत भला कौन भूल सकता है—

केवल दो गीत लिखे मैंने,

एक गीत तुम्हारे मिलने का

एक गीत तुम्हारे खोने का

हिंदी गजल की चर्चा हो और हम जहीर कुरेशी को भूल जाएँ, यह असंभव है। अरसे से वे हिंदी गजल की पहचान बने हुए थे। यथार्थवादी गजलों का दौर चला तो वे सबसे पहले ऐसे प्रयोगों के साथ सामने आए और कई गजल-कृतियाँ हिंदी समाज को दीं। भीड़ में सबसे अलग, समंदर ब्‍याहने आया नहीं है, चाँदनी का दुःख व पेड़ तनकर भी नहीं टूटा जैसी गजल कृतियों के साथ लेखनी के स्‍वप्‍न व एक टुकड़ा धूप जैसी काव्‍य-कृतियाँ भी सराहना का विषय बनीं। वे स्नातकोत्तर (एम.ए. उत्तरार्ध, हिंदी) पाठ्‍‍‍यक्रम में सम्मिलित होनेवाले देश के पहले हिंदी गजलकार माने जाते हैं। ‘आधुनिक काव्य’ विषय के अंतर्गत जहीर कुरेशी की बीस गजलें उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगाँव और पाँच गजलें स्वामी रामानंद तीर्थ मराठवाड़ा विश्वविद्यालय, नांदेड़ में एम.ए. (उत्तरार्ध) हिंदी पाठ्‍‍‍यक्रम के अंतर्गत निर्धारित हैं।

लाहौर में जनमे हिंदी कविता व आलोचना के सशक्‍त हस्‍ताक्षर डॉ. नरेंद्र मोहन भी इसी बीच चले गए। उनका परिवार बहुत पहले दिल्‍ली आकर बस गया था। वे दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय के एका कॉलेज में अध्‍यापक थे तथा हिंदी संसार को उन्‍होंने अनेक काव्‍यकृतियाँ व आलोचनात्‍मक कृतियाँ दीं। ‘इस हादसे में’, ‘सामना होने पर’, ‘एक अग्‍निकांड जगहें बदलता’, ‘हथेली पर अंगारे की तरह’, ‘संकट का दृश्‍य नहीं’, ‘एक सुलगती खामोशी’, ‘एक खिड़की खुली है अभी’ जैसे कविता-संगहों से उन्‍होंने हिंदी कविता-संसार को समृद्ध ही नहीं किया बल्‍कि रामदरश मिश्र, बलदेव वंशी व अन्‍य सहयोगियों के साथ मिलकर विचार-कविता का भी प्रवर्तन प्रस्‍तावन किया। बाद में उनकी गति, नाटकों व एकांकियों में हुई तथा प्रताप सहगल की तरह वे नाटकों में रम गए व ‘कहे कबीर सुनो भई साधो’, ‘सींगधारी’, ‘कलंदर’, ‘नो मैंस लैंड’, ‘अभंग गाथा’, ‘मिस्‍टर जिन्‍ना’, ‘व हद हो गई यारो’ जैसे कई नाटक लिखे, जो जगह-जगह मंचित भी हुए।

आलोचना के क्षेत्र मे नरेंद्र मोहनजी का योगदान प्रभूत है। विचार कविता के साथ-साथ लंबी कविता के रचना-विधान व उसकी मुहिम को आगे बढ़ाने में उनका बड़ा योगदान माना जाता है। कविता को विचार से सहबद्ध कर देखने के क्रम में उन्‍होंने कविता की वैचारिक भूमिका जैसी कृति लिखी तो लंबी कविता पर भी उनके काम को सराहा जाता है। ‘आधुनिक और समकालीन रचना संदर्भ’, ‘समकालीन कहानी की पहचान’, ‘आधुनिकता के संदर्भ में हिंदी कहानी’, ‘शास्‍त्रीय आलोचना से विदाई’, ‘समकालीन कविता के बारे में’, ‘बीसवीं शताब्‍दी का उत्तरार्ध’, ‘हिंदी कहानी’, ‘रचना का सच’, ‘विभाजन की त्रासदी’ व ‘भारतीय कथादृष्‍टि’ जैसी अनेक आलोचनात्‍मक कृतियाँ उन्‍होंने दीं। मंटो पर उनकी कृति को भी काफी चर्चा मिली। वे उत्तर जीवन में अपनी आत्‍मकथा लिख रहे थे तथा ऐसी कई कृतियाँ प्रकाशित हुईं। उन्‍हें ‘शिरोमणि साहित्‍यकार सम्‍मान’, ‘साहित्‍यभूषण सम्‍मान’ व कई पुरस्‍कार मिले।

जहाँ तक आलोचकों की बात है, जिन आलोचकों को हमें खोना पड़ा है, उनमें डॉ. अशोक त्रिपाठी लंबे अरसेे तक दूरदर्शन से संबद्ध रहे थे तथा इलाहाबाद में अपने स्‍थायी आवास पर रहकर स्‍वतंत्र लेखन कर रहे थे। समकालीन कविता पर उनकी आलोचना की कृति अपने दौर की चर्चित कृतियों में रही। बाद में उन्‍होंने अपने को केदारनाथ अग्रवाल की रचनाओं के संपादन में समर्पित कर दिया। उनकी संचयिता प्रकाशित कराई। अनेक कृतियों का संचयन-संपादन किया। उनकी कविता पर एक अलग से छोटी सी आलोचना पुस्‍तिका भी लिखी। इन दिनों वे केदारनाथ अगवाल रचनावली का काम पूरा कर रहे थे। इससे पहले वे आकाशवाणी आर्काइव से साहित्‍यिक रचनाओं की खोज व संचयन में लगे थे तथा नेशनल बुक ट्रस्‍ट से इन रचनाओं से कई खंड हाल ही में प्रकाशित भी हुए हैं। ऐसे अध्‍यवसायी संपादक खोजी संग्राहक आलोचक का जाना हिंदी की एक अपूरणीय क्षति है। कांति कुमार जैन हिंदी के बेहतरीन संस्‍मरणकारों में थे। हाल के वर्षों में उनकी अनेक संस्‍मरणात्‍मक कृतियाँ आईं तथा उनकी बेबाकी की चर्चा भी बेहद हुई। ८८ वर्षीय जैन सागर विश्‍वविद्यालय में हिंदी विभागाध्‍यक्ष रह चुके हैं। कांति कुमार जैन ने ‘तुम्हारा परसाई’, ‘बैकुंठपुर में बचपन’, ‘महागुरु मुक्तिबोध’, ‘लौटकर आना नहीं होगा’, ‘जो कहूँगा सच कहूँगा’, ‘लौट जाती है उधर को भी नजर’, ‘इक्‍कीसवीं शताब्‍दी की हिंदी’ जैसी अद्वितीय पुस्तकों के लेखन के साथ ही छत्तीसगढ़ की जनपदी शब्दावली पर भी महत्त्वपूर्ण शोधकार्य किया। इसके अलावा ‘छत्तीसगढ़ी : बोली और व्याकरण कोष’ की रचना की। हिंदी साहित्य की सेवा के लिए उन्हें ‘भवभूति अलंकरण’ सहित कई पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया था। उन्‍हें इस बात के लिए विशेष याद किया जाता है कि उन्होंने संस्‍मरणों में बेबाकी और तथ्‍यता की अनदेखी नहीं की।

हिंदी के कवि-आलोचक डॉ. क्षमाशंकर पांडेय भी १३ मई को नहीं रहे। वे मिर्जापुर स्थित एक राजकीय महाविद्यालय में हिंदी अध्यापक के पद सेवानिवृत्त होकर स्‍वतंत्र लेखन कर रहे थे। उनकी प्रमुख पुस्तकों में—‘मुक्तिबोध की काव्य भाषा’, ‘शताब्दी बदल रही है’, ‘उग्र विमर्श’, ‘तुलसीदास : एक अध्ययन’, ‘नए सवाल मिले’, ‘पाँय न पाँख’, ‘भारतीय नारीवाद : स्थिति और संभावना’, ‘धूमिल’, ‘रामकथा विविध संदर्भ’, ‘हर गवाही आपकी’, ‘संदर्भ १८५७’, ‘महिला सशक्तीकरण : उपलब्धियाँ और भविष्य’, ‘हमीरपुर और महोबा जनपदों का फाग’, ‘हिंदी का बाजार : बाजार की हिंदी’, ‘१८५७ स्मृति और यथार्थ तथा कारागार के अतिरिक्त गांधी का देश’, ‘हँसी खो गई है’ इत्‍यादि। हाल ही में उनकी एक पुस्‍तक शिवरानी देवी को लेकर आई है। उनका न होना भवदेव पांडेय के बाद काशी के आसपास के एक धुनी आलोचक का चले जाना है।

हम आलोचकों की चर्चा के बीच बिहार के आलोचक रेवती रमण को कभी नहीं भूल सकते, जिन्‍होंने समकालीन लेखन पर सबसे ज्‍यादा कलम चलाई और कई आलोचनात्‍मक कृतियाँ हिंदी संसार को दीं। वे बीमारी से स्‍वस्‍थ हो रहे थे किंतु अचानक उनके न रहने की खबर मिली। बिहार में नंद किशोर नवल व कुमार विमल जैसे धुनी आलोचक के बाद रेवती रमण का अपना स्‍थान रहा है। वे बिहार विश्‍वविद्यालय मुजफ्फरपुर में अध्‍यापन कर चुक हैं व मुजफ्फरपुर में रहते हुए सतत साधनारत थे। उन्होंने अपने जीवन-काल में दस से ज्यादा पुस्तकें लिखीं। साथ ही कई पत्र-पत्रिकाओं तथा कई चयन आधारित कृतियों का संपादन भी किया। उनकी प्रकाशित रचनाओं में ‘समय की रंगत’ (कविता-संग्रह) और ‘कविता में समकाल’, ‘काव्य विमर्श : निराला’, ‘महाकाव्य से मुक्ति’, ‘चिंतामणि प्रकाश’, ‘प्रसाद और उनका स्कंदगुप्त’, ‘भारत दुर्दशा कथ्य और शिल्प’, ‘हिंदी आलोचना : बीसवीं सदी’, ‘जातीय मनोभूमि की तलाश’, ‘सर्जक की अंतर्दृष्टि’ (आलोचना) इत्‍यादि शामिल हैं।

अनुपस्‍थतियों की इस सतत शोकवेला में अरविंद कुमार जैसे कोशकार का जाना भी हिंदी भाषा व कोशकारिता के लिए एक बड़ी क्षति है। उन्‍होंने ‘माधुरी’ के संपादक पद से सेवानिवृत्त‌ि लेकर कोश की दुनिया में प्रवेश किया तथा ‘समांतर कोश’ सहित अनेक कोशों व थिसारस की रचना की। हिंदी में थिसारस के एक तरह से वे जन्‍मदाता कहे जाते हैं। हिंदी में शब्दकोशों की दुनिया में फादर कामिल बुल्के के बाद आदर से लिया जानेवाला नाम अरविंद कुमार का ही है। यद्यपि उनका पहला कोश छियासठवाँ साल पूरा करते-करते छपा। यानी साठ के बाद। लेकिन छपी तो वह इतिहास बन गई। यह युगांतरकारी पुस्‍तक थी—‘समांतर कोश’। इसके साथ शब्दावली, थिसारस और कोशकारिता की उनकी जो परियोजना ‘अरविंद लिंग्विस्टिक्स’ शुरू हुई, वह आज एक महान् अभियान बन चुकी है। ‘माधुरी’ जैसी प्रतिष्ठित फिल्मी पत्रिका के संपादन से निवृत्त होकर उन्होंने यह काम पहले तो अकेले ही शुरू किया किंतु बाद में इस अनुष्ठान में उनकी पत्नी कुसुम, बेटी मीता व पुत्र सुमीत ने भी पर्याप्त हाथ बँटाया।

उत्तर प्रदेश के मेरठ जनपद में जनवरी १९३० में जनमे तथा १९४३ में दिल्‍ली आ बसे अरविंद कुमार ने १९८० से ८५ तक सर्वोत्तम ‘रीडर्स डाइजेस्ट’ और १९६३ से ७८ तक ‘माधुरी’ का संपादन किया। इससे पूर्व वे दिल्‍ली प्रेस समूह की पत्रिका में सहायक संपादक थे। १९४५ से ही छापेखाने में बाल श्रमिक के रूप में, फिर प्रूफ रीडर से लेकर लिखने-पढ़ने की दुनिया से आ जुड़े अरविंद कुमार ने अपने उत्तर जीवन में कोश और थिसारस तैयार करने का जो बीड़ा उठाया, उसकी पहली फलश्रुति थी नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा दो खंडों में प्रकाशित समांतर कोश, जिसे उन्होंने १३ दिसंबर, १९९६ को राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा को भेंट किया। २,९०,४७७ अभिव्यक्तियों वाले इस कोश के बाद उनकी यात्रा थमी नहीं, वह द पेंगुइन इंग्लिश-हिंदी/हिंदी-इंग्लिश थिसारस से होती हुई अरविंद वर्ड पावर : इंग्लिश-हिंदी (६७०,००० शब्द) से होती हुई अरविंद लेक्सिकन, शब्देश्वरी और तुकांत कोश तक आ पहुँची है। पत्रकारिता, कविता, कथा-लेखन, फिल्म समीक्षा के विशद अनुभवों के कोश बन चुके अरविंद कुमार ने अपने अकेले के दम पर जीवन के सर्वोत्तम चालीस साल लगाकर जो काम कर दिखाया है, वह बड़ी-बड़ी संस्थाओं के बूते का नहीं है। वे गए चार दशकों में एक ऐसे शब्द-सहचर के रूप में उभरे हैं, जिन्‍होंने अंग्रेजी में उपलब्ध थिसारस की अवधारणा को हिंदी में मूर्त किया तथा अब तक पंद्रह से ज्यादा बहूपयोगी कोशों का निर्माण किया है। इसके लिए उन्‍हें कई प्रतिष्‍ठित पुरस्‍कारों से नवाजा गया है।

इस बीच हिंदी कथा साहित्‍य की दुनिया के कई सितारे लेखक भी हमारे बीच नहीं रहे। इनमें नरेंद्र कोहली, मंजूर एहतेशाम, प्रभु जोशी, लालबहादुर वर्मा, रमेश उपाध्‍याय, विश्‍वेश्‍वर, शिवकुमार शिव, मुशर्रफ आलम जौकी प्रमुख हैं। उपन्यासकार, व्यंग्यकार, नाटककार, कथाकार नरेंद्र कोहली ने गए छह दशकों से हिंदी साहित्य को अपने विपुल उपन्यासों, कहानियों, व्यंग्य रचनाओं से समृद्ध किया है। उनके जाने से भारतीय वाङ्मय और पुराख्या‍नों का औपन्यासिक आख्यान रचनेवाला एक बड़ा लेखक हमारे बीच से विदा हो गया है। यह हिंदी साहित्य के लिए एक अपूरणीय क्षति है। आज से कोई चार दशक पहले का समय था, जब उन्होंने पुराख्यानों को सीरीजबद्ध कर लिखना शुरू किया तथा रामकथा के तमाम आयामों को अनेक खंडों में समेटा और रामकथा के पाठकों को एक अलग अनूठे पाठकीय आस्वाद से जोड़ा। इसी तरह महाभारत की कथा सदियों से कही सुनी जाती रही है, उस पर टी.वी. पर सीरियल भी बन चुका था तथापि महाभारत को अनेक खंडों में उपन्यासों में ढाल कर नरेंद्र कोहली ने यह सिद्ध किया कि रामकथा हो या महाभारत या अन्य पौराणिक प्रसंग लेखक में कल्पना और तर्क का विनियोग हो, तो सर्वथा एक नई कृति सृजित हो जाती है।

यही हाल विवेकानंद की जीवनगाथा को लेकर हुआ जब विवेकानंद पर उनकी उपन्यास सीरीज का पहला खंड ‘तोड़ो कारा तोड़ो’ का प्रकाशन हुआ। इसके साथ ही जैसे एक नए विवेकानंद का जन्म हमारे बीच हुआ। पहला खंड पढ़ते ही पाठकों की माँग होती कि इसका दूसरा खंड कब तक आ रहा है। इस तरह उनके बहुआयामी उपन्यासों के अनेक खंड आते गए और पाठक उनकी किस्सागोई में रमते गए।

दूरदर्शन पर सोप ओपेरा और मेगा सीरियल की शुरुआत ८० के बाद हुई किंतु नरेंद्र कोहली ने औपन्यासिक शृंखलाओं की शुरुआत १९७५ के आसपास ही ‘दीक्षा’ के प्रकाशन से शुरू कर दी थी। रामकथा पर आधारित स्वंतत्र उपन्यासों की यह शृंखला दीक्षा, अवसर, संघर्ष की ओर और युद्ध (दो भाग) खंडों में विभाजित है। इसके अलावा उन्होंने ‘अभ्युदय’ शीर्षक से दो खंडों में भी रामकथा को औपन्यासिक वृत्तांत में समेटा है। इसी तरह उन्होंने महाभारत की कथा पर आधारित उपन्यास ‘महासमर’ के कई खंड लिखे हैं—‘बंधन’, ‘अधिकार’, ‘कर्म’, ‘धर्म’, ‘अंतराल प्रच्छन्न’, ‘प्रत्यक्ष’ एवं ‘निर्बंध’। महाभारत के आख्यान में रुचि रखनेवाले पाठकों के लिए ‘महासमर’ के खंड बेहद लोकप्रिय हुए। महाभारत की कहानी को अलग से भी कई उपन्यासों में समेटा है, जैसे ‘जहाँ धर्म है वहीं जय है’ यानी यतो धर्म: ततो जय:। कोहलीजी देखते-देखते पुराख्यानों महाभारत और रामायण के प्रसंगों के एक मात्र गल्पकार बन गए। कहानियों में किसी बड़े तोड़-मरोड़ से बचते हुए उन्होंने आधुनिक समय में रामायण, महाभारत और विवेकानंद के जीवन-मूल्यों को भी इस बहाने पुनर्स्थापित किया। विवेकानंद के जीवन पर पाँच खंडों में बृहद गाथा लिखने के बावजूद ‘न भूतो न भविष्यति’ नामक उपन्यास लिखा, जो एक ही खंड में विवेकानंद को एक अलग शिल्प के आईने में देखता-परखता है। इस उपन्यास के लिए कोहलीजी प्रतिष्ठित ‘व्यास सम्मान’ से सम्मानित किए गए।

संस्‍मरणों की उनकी हाल में आई पुस्तक ‘समाज जिसमें मैं रहता हूँ’ नवीनतम कृतियों में है। ‘समाज जिसमें मैं रहता हूँ’ उनके अनुसार न तो समाज विश्लेषण है न समाजशास्त्र की पुस्तक है, पर यह चरित्रों, लोगों, व्यक्तियों के बारे में कहानी शैली में लिखे संस्‍मरणों की पुस्तक है। अपने जीवन से जुड़े सिद्धांतों के अनुसार जिए जीवन की अनेक ऐसी अविश्वसनीय कहानियाँ इसमें उन्होंने पिरोई हैं, जिसे आप एक बार पढ़ने के लिए उठाएँ तो फिर रख नहीं सकते। एक आनॉलाइन वक्तव्य में वे इस पुस्तक के बहाने बोलते हुए कहते हैं, ‘मेरा समाज जिस समाज में मैं रहता हूँ, वह मुझे पिछड़ा मानता है। क्योंकि मैं मैगजीन को पत्रिका, बुक को पुस्तक और मिसेज को पत्नी कहता हूँ। ठीक है, कुछ लोग मेरी भाषा को बोलचाल की भाषा मानने से भी इनकार करते हैं। जब वह बोलचाल की भाषा नहीं हो सकती तो साहित्य की भाषा कैसे हो सकती है, क्योंकि मैं खिलाफत का अर्थ दुश्मनी नहीं, विरोध नहीं, खलीफा का शासन मानता हूँ। क्योंकि मैं बर्फबारी नहीं कहता, हिमपात कहता हूँ, मैं बाबा बर्फानी को अमरनाथ या महादेव शिव कहता हूँ तो ऐसी भाषा वे कैसे स्वीकार कर सकते हैं। मैं सड़क पर खड़े सिपाही को उसका चाय-पानी जो सौ रुपए है, न देकर चालान कटवाता हूँ, जो पूरे पाँच सौ रुपए का है। वह मुझे कई बार समझाता है, बहुत सारे संकेत करता है और जब मैं इस पर अड़ा रहता हूँ कि मुझे पर्ची कटवानी है, तो वह भी यह मानकर कि यह सिरफिरा आदमी है, इससे क्या सिर मारना, मुस‍करा देता है और पर्ची काट देता है।’ दुःख है कि ऐसे जीवंत, भारतीय संस्कृति, वाङ्मय, मिथक और पुराख्‍यानों व जीवन के उदात्त मूल्यों को अपने लेखन में सहेजनेवाला मुखर व स्पष्‍ट‍भाषी एक बड़ा कथाकार हमारे बीच नहीं रहा।

मंजूर एहतेशाम सातवें दशक से उभरे कथाकार उपन्यासकार रहे हैं, जिन्‍होंने हिंदी उपन्‍यास में अनेक नए किरदार दिए तथा विभाजन और भारतीय समाज में मुस‍लिम समस्‍या को अलग तरीके से चित्रित-विश्‍लेषित किया। मुसलिम समाज और उसके बहाने भारतीय जन-जीवन के अनेक देखे-अनदेखे पहलुओं के चितेरे कथाकार मंजूर एहतेशाम भी कोरोना में चले गए। पर ‘सूखा बरगद’ जैसे क्लासिक उपन्यास से हिंदी के पाठकों के बीच वे हमेशा याद किए जाएँगे। १९४८ में भोपाल में जनमे मंजूर एहतेशाम ‘सूखा बरगद’ और ‘दास्‍ताने लापता’ जैसे उपन्‍यासों से सामने आए और हिंदी कथा संसार में चर्चा का विषय बने।

‘बशारत मंजिल’ की किस्सागोई बेहद रोमांचक और सादगी भरी है तो ‘मदरसा’ उनके औपन्यासिक जीवन का एक बड़ा मोड़ है। उनके पात्रों में कहीं-कहीं गांधीवादी इलीमेंट देखने को मिलता है, जिससे लगता है एहतेशाम का हिंदुस्तान को देखने का नजरिया काफी उदार था। ‘मदरसा’ को पढ़ते हुए हमें ऐसा ही अहसास होता है। एहतेशाम के घरवाले चाहते थे कि वे इंजीनियर बनें, पर उन्हें बनना था लेखक। सो इंजीनियरिंग की पढ़ाई अधूरी छोड़कर पहले दवा बेचने का काम किया और फिर फर्नीचर बेचने लगे। बाद में इंटीरियर डेकोर का काम भी किया। पर लेखन हर दौर में जारी रहा। उनकी पहली कहानी ‘रमजान में मौत’ साल १९७३ में छपी। पहला उपन्यास ‘कुछ दिन...और’ वर्ष १९७६ में प्रकाशित हुआ। लेखन के लिए ‘श्रीकांत वर्मा स्मृति-सम्मान’, ‘वागीश्वरी पुरस्कार’, ‘पहल सम्मान’, ‘वीर सिंह देव पुरस्कार’ और ‘पद्मश्री’ से अलंकृत हो चुके एहतेशाम के लेखन की खासियत यह थी कि उनकी रचनाएँ किसी चमत्कार के लिए व्यग्र नहीं थीं, बल्कि अनेक अंतर्विरोधों और त्रासदियों के बावजूद चमत्कार की तरह बचे जीवन का आख्यान रचती रहीं।

रमेश उपाध्याय सातवें दशक में उभरे बेहतरीन कथाकारों में हैं। कोरोना में उनका पूरा परिवार त्रासदी में रहा। शेष लोग उपचार से बच गए किंतु वे नहीं रहे। उत्तर प्रदेश के एटा जिले के बढ़ारी बैस में १ मार्च, १९४२ को हुआ था। रमेश उपाध्याय के साहित्यिक जीवन का आरंभ ६० के दशक में अजमेर से प्रकाशित पत्रिका ल...एक कथाकार, एक विचारक, एक संपादक और एक अध्यापक का यों चले जाना साहित्य में मूल्यों पर भरोसा करनेवालों के लिए आघात है। १ मार्च, १९४२ को उत्तर प्रदेश में जनमे रमेश का आरंभिक जीवन काफी संघर्षों में बीता था। प्रिंटिंग प्रेस में कंपोजिटर से लेकर पत्रकारिता करने तक उन्होंने जीवनयापन के लिए कई तरह के काम किए। इसी दौरान उन्होंने एम.ए., पी-एच.डी. की और दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ वोकेशनल स्टडीज में प्राध्यापक नियुक्त हुए, जहाँ आगे तीन दशकों तक अध्यापन कार्य किया।

रमेश लघु पत्रिका आंदोलन के भी एक समर्पित कार्यकर्ता थे। स्वयं उनके द्वारा प्रकाशित संपादित त्रैमासिक पत्रिका ‘कथन’ कई दशकों तक हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिका के रूप में लोकप्रिय रही। रमेश के अब तक पंद्रह से अधिक कहानी, पाँच उपन्यास, तीन नाटक, कई नुक्कड़ नाटक, आलोचना की कई पुस्तकें और अंग्रेजी व गुजराती में कई पुस्तकों के अनुवाद भी प्रकाशित हुए हैं। उनके एक दर्जन से ज्‍यादा कहानी-संग्रह, कई उपन्‍यास, एक दर्जन के लगभग नाटक, कई आलोचनात्‍मक पुस्‍तकें, निबंध-संग्रह एवं अनुवाद की पुस्‍तकें प्रकाशित हैं तथा दर्जनों पुस्‍तकें उन्‍होंने संपादित की हैं।

अपने समय के अप्रतिम कथाकार, उपन्‍यासकार, कलाकार और हिंदी की लड़ाई के जुझारू योद्धा प्रभु जोशी का न होना एक बड़ा शून्‍य है। उनसे मुलाकात हुई है मेरी। उन्‍हें पढ़ता रहा हूँ। खास तौर पर हिंदी के पक्ष में लिखे उनके उपपत्त‌िपूर्ण लेख यह जताते थे कि यह शख्‍स केवल किसी उद्धोषक की सी साँचे में ढली आवाज का जादूगर नहीं है बल्‍कि हिंदी के गद्य को इस तरह बरतता है, जैसे कोई नर्सरी मालिक नर्सरी में भाँति-भाँति के पौधों की रोपाई-बीजाई और परवरिश करता है। उनकी भाषा की नर्सरी अलग थी, जिसकी कोई और मिसाल हिंदी में नहीं है। खुद भारतीय प्रसारण सेवा के अधिकारी लेखकों के बीच उनकी भाषा के सभी एक स्‍वर से मुरीद थे। मैं भी उनकी भाषाई जादूगरी से ही उनके लेखन की ओर खिंचा। फिर अरसे बाद वे राजकमल प्रकाशन के कार्यालय में मिले। कोई पुस्‍तक उन दिनों प्रकाशनाधीन थी। पता चला, अभी बहुतेरी पांडुलिपियाँ हैं, पूरे जीवन में लिखी और सहेजी हुई, पर कोई ढंग का प्रकाशक हिंदी में नहीं है, जो उन्‍हें तत्‍परता से छाप सके। दस पांडुलिपियों में से कोई एक पांडुलिपि प्रकाशक की समझ में आती है, जो दो-चार साल धूल खाने के बाद मूर्त होती हैं। लेखक के उत्‍साह का बल्‍ब इस प्रक्रिया और प्रतीक्षा में ही फ्यूज हो जाता है। प्रभु जोशी से अनेक बार फोन पर बातें हुई हैं। उनके प्रति आदर से भरा हुआ मैं केवल हाँ-हूँ ही किया करता था। अपने सुयोग्‍य बेटे की बातें भी बताते थे कि कैसे पितृमोह में उसे बाहर के मुल्‍क से यहाँ बुला लिया है। प्रभु जोशी को पढ़ना रोमांच पैदा करता था। भाषा के कितने छिल‍के होते हैं, यह कोई आसानी से नहीं बता सकता। वे सारे छिलके उतारकर दिखा सकते थे। वे किस्‍सा-कहानी के अलावा एक अंतरराष्‍ट्रीय मेधा के चित्रकार थे। पोर्ट्रेट निर्मिति में तो क्‍या कहना! कभी मन में था कि कोई पुस्‍तक आए तो जोशीजी से कवर के लिए चित्र का अनुनय करूँ। पर इसी बीच गए डेढ साल से कोरोना का कहर छाया है और हम सब काल के पैने दाँतों से बचने का प्रयास ही कर रहे हैं। वह कब आहिस्‍ता कंधे पर हाथ रखकर साथ चलने को कहे, कौन जानता है।

लाल बहादुर वर्मा को भला कौन नहीं जानता। इतिहास के प्रश्‍नों के दिग्‍ग्‍ज अध्‍येता व कथाकार के रूप में उन्‍होंने शोहरत हासिल की। पर समय को उनका होना मंजूर न था। अनुवाद, संपादन, कथा-साहित्य, पेशेवर इतिहास लेखन सबमें उनकी दक्षता थी। ‘विश्व इतिहास की झलक’ (दो भागों में), ‘इतिहास : क्यों-क्या-कैसे’, ‘अधूरी क्रांतियों का इतिहास-बोध’, ‘क्रांतियाँ तो होंगी ही’, ‘यूरोप का इतिहास’ जैसी इतिहास की उनकी लिखी पुस्‍तकें छात्रों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुईं। उन्होंने एरिक हॉब्सबाम, जैक लंडन, विक्टर ह्यूगो, हावर्ड फास्ट, आर्थर मारविक, क्रिस हरमन और बॉब डिलन का अनुवाद किया। ‘भंगिमा’ और ‘इतिहासबोध’ जैसी पत्रिकाओं का संपादन भी उन्होंने किया। वे एक जाने-माने कथाकार भी थे। उन्‍होंने ‘उत्तर पूर्व’, ‘मई अड़सठ, पेरिस’ और ‘जिंदगी ने एक दिन कहा’ नामक तीन उपन्यास लिखे। इतना ही नहीं, उन्होंने ‘अपने को गंभीरता से लें’, ‘मानव मुक्तिकथा’, ‘भारत की जनकथा’ जैसी अनेक पुस्‍तिकाएँ भी लिखीं और उनका व्‍यापक प्रचार-प्रसार किया। उनकी लिखी आत्‍मकथाओं ‘जीवन प्रवाह में बहते हुए’ और ‘बुतपरस्ती मेरा ईमान नहीं’ में उनके जीवन सामाजिक जीवन की ईमानदारी झलकती है। उन्‍हें पढ़कर कितने ही छात्र प्रतियोगी परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर उच्‍चतर भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में गए। वे एक बहुत ही अनौपचारिक और सीधे-सादे इनसान थे, जिन्‍होंने अध्‍यवसायिता को जीवन का महत्त्वपूर्ण अनुषंग माना।

यह शोक लेख लिखते हुए ऐसा लगता है कि लोग आते चले जाएँगे और सूची खत्‍म न होगी। यानी इतनी अधिक क्षति हुई है कि उसे चंद पन्‍नों में नहीं समेटा जा सकता। हमारे बीच से जगदीश पीयूषजी विदा हुए। लोक साहित्‍य के अनन्‍य अध्‍येता पीयूषजी ने अवधी साहित्‍य को कई खंडों में हमारे समक्ष रखा। योगेश प्रवीणजी लखनऊ के जीते-जागते इतिहास के मूर्त विचारक थे। गुजिश्‍ता लखनऊ को उनसे अधिक जाननेवाला आज के दौर में भला कौन है। उनकी लखनऊ के इतिहास और भूगोल के चप्‍पे-चप्‍पे पर नजर रहती थी तथा हर जगह की ऐतिहासिकता के बारे में उनका कथन प्रमाण माना जाता है। वे आजीवन लखनऊ में रहे और इतिहास के प्रश्‍नों पर सदैव कार्यरत रहे। कथाकारों मे विश्‍वेश्‍वर का जाना भी दुखद रहा। सूरजपाल चौहान दलित साहित्‍य के महत्त्वपूर्ण हस्‍ताक्षर थे। कविता, कहानी सब में उनकी गति थी। उर्दू के प्रसिद्ध उपन्यासकार, फिक्शन लेखक, आलोचक मुशर्रफ आलम जौकी का जाना भी हिंदी के लिए एक क्षति कही जाएगी। मुशर्रफ आलम जौकी की तीन दर्जन से अधिक पुस्तकें, १४ उपन्यास और अफसानों के आठ संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। वह राष्ट्रीय सहारा उर्दू के समूह संपादक भी रहे। मुशर्रफ आलम जौकी की तीन दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनके १४ उपन्यास और अफसानों के आठ-संग्रह प्रकाशित हुए। हाल के दिनों में उनके उपन्यास ‘मर्ग अंबोह’ और ‘मुर्दाखाने में औरत’ बहुत लोकप्रिय हुए हैं और विश्वस्तर पर स्वीकृति मिली। उनके उपन्यासों में ‘शहर चुप है’, ‘बयान’, ‘मुसलमान’, ‘ले साँस भी आहिस्ता’, ‘आतिशे-रफ्ता का चिराग’, ‘प्रोफेसर एस की अजीब दास्तान’ और ‘नाल-ए-शबगीर’ भी हैं। उन्होंने समकालीन लेखकों के रेखाचित्र भी लिखे। उन्होंने उर्दू की अन्य विधाओं पर भी पुस्तकें लिखीं। विशेष बात यह कि वे भले ही उर्दू की दुनिया के हस्‍ताक्षर हों, पर उन्‍हें हिंदी में भी उसी आदर से पढ़ा व सराहा जाता था। इसी बीच दिवंगत शिव कुमार शिव भी हिंदी कहानी के नामचीन हस्‍ताक्षर थे। कवियों में युवा कवि व चिकित्‍सक डॉ. मोहन कुमार नागर का जाना भी बहुत दुखद रहा। पिपरिया जैसे पिछड़े कस्‍बे में अपने अस्‍पताल में उन्‍होंने सैकड़ों लोगों को बचाया। पर खुद संक्रमण से न बच सके। उनके कई कविता-संग्रह प्रकाशित हैं तथा वे विचार-विमर्श में हमेशा बने रहनेवाले लेखकों में थे। कलाकारों में सतीश कौल, पत्रकारों में—रोहित सरदाना, कनुप्रिया, तरन्‍नुम रियाज; कलाकारों में—पंडिज देबू चौधरी, पंडित राजन मिश्र; फिल्‍मकारों में—बुद्धदेव दासगुप्‍ता सभी हमारी भारतीय संस्‍कृति व समाज के वरेण्‍य हस्‍ताक्षर थे। सभ्‍यता और संस्‍कृति को रचने-सँवारने में इन सारे लेखकों, कलाकारों, संगीतकारों, बौद्धिकों का गहरा योगदान है। उनका कोरोना काल में असमय जाना हमारे समाज की, देश की सभ्‍यता और संस्‍कृति की बहुत बड़ी क्षति है। शायद हम जल्‍दी ही कोरोना से तो उबर जाएँ, पर इस दौरान हुई इन अपूरणीय क्षतियों की भरपाई नहीं हो सकती। हमने जो भी खोया है, अद्वितीय खोया है। पर हमारे शास्‍त्र कहते हैं—नास्‍ति येषां यश: काये जरामरणजं भयम्। ये सभी अपने अक्षरों, शब्‍दों, कृतियों व कलाकृतियों में सदैव याद किए जाते रहेंगे।

जी-१/५०६ ए, उत्तम नगर

नई दिल्‍ली-११००५९

दूरभाष : ९८१००४२७७०

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