हिंदी में पाठकों की कमी?

केरल साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित 'साहित्य महोत्सव' के उद्घाटन के समय अकादमी के अध्यक्ष समेत जिन चार पदाधिकारियों से परिचय कराया गया, वे सब-के-सब साहित्यकार थे—पूर्णकालिक साहित्यकार। यानी उनकी आजीविका का साधन लेखन ही था। सभी के कई दर्जन कहानी-संग्रह, उपन्यास आदि प्रकाशित हो चुके थे। सभी के उपन्यास आदि लाखों की संख्या में खरीदे जाते थे।

यहाँ एक खुशनुमा चक्र था। पाठक लाखों की संख्या में किताबें पढ़ते हैं, इसलिए प्रकाशक भी किताबें छापने को तत्पर रहते हैं। चूँकि न छपने की समस्या है, न रॉयल्टी की, न अपनी नौकरी की विविध चुनौतियों की, इसलिए लेखक निश्चिंत होकर लिखता है और हर वर्ष या हर दूसरे वर्ष में एक किताब लिखता है।

हिंदी में चक्र इसके उलटा चलता है। हिंदी में प्रायः अंशकालिक (पार्ट टाइम) लेखक ही मिलेंगे। लेखन के बलबूते जीवन चलाने की कल्पना भी असंभव सी प्रतीत होती है।

यहाँ यह भी विचारणीय है कि हिंदी भाषियों की संख्या अनुमानतः ९० करोड़ के आसपास होनी चाहिए और प्रायः लेखक-कवि की पुस्तकों की ३०० से ५०० प्रतियाँ छपती हैं तथा उनका बिकना भी कठिन हो जाता है। ये पुस्तकें पाठकों के हाथोंहाथ न लेने के कारण लेखक-प्रकाशक के बीच तनाव रहता है और आरोप-प्रत्यारोप के दौर चलते हैं। ऐसी कटु और अप्रिय स्थितियों से बचने का एक ही उपाय है कि ‘पुस्तक संस्कृति’ विकसित हो और पाठक पुस्तकें खरीदना शुरू करें। जो लेखक अपने पद-प्रतिष्ठा से ‘थोक खरीद’ करा सकते हैं, फिल्मी ग्लैमर से पाठक जुटा लेते हैं, उनकी बात छोड़ दें तो एक आम लेखक के लिए छपना ही कठिन कार्य है। ऐसी स्थितियों में स्वस्‍थ लेखन अथवा उत्कृष्ट कृतियों की अपेक्षा कैसे की जाती है! ऐसा भी होता है कि जो आर्थिक दृष्टि से सक्षम है, उसका कमजोर लेखन भी प्रकाशित हो जाता है, किंतु एक अच्छा लेखक प्रकाशन से वंचित रह जाता है। तभी हिंदी में कुछ अपवादों को छोड़कर लेखकों की कृतियों की संख्या अत्यंत सीमित रहती है।

हिंदी के समानांतर मलयालम, मराठी, बांग्ला, तमिल आदि में हिंदी की तुलना में बहुत कम आबादी के बावजूद किताबें पढ़ी जाती हैं, बिकती हैं और वहाँ पूर्णकालिक लेखक नियमित लेखन करते हैं।

ऐसी परिस्थितियों में हमारे बीच से अभी स्मृतिशेष हुए युगप्रवर्तक लेखक नरेंद्र कोहलीजी एक प्रकाश-स्तंभ बनकर मार्ग दिखाते हैं। हिंदी लेखकों को निश्चय ही उनसे बहुत कुछ सीखने एवं प्रेरणा लेने का प्रयास करना चाहिए। आम हिंदी लेखकों की तरह उन्होंने भी आजीविका के लिए महाविद्यालय में अध्यापन कार्य किया, किंतु अपने उत्कृष्ट लेखन के माध्यम से ऐसी प्रतिष्ठा अर्जित की, पाठकों की विराट् संख्या अर्जित की कि अच्छे-भले जमे-जमाए महाविद्यालय में अध्यापन से स्वयं मुक्ति ले ली तथा पूरी तरह लेखन को समर्पित होकर हिंदी के गिने-चुने ‘पूर्णकालिक’ साहित्यकारों में शामिल हुए। यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि उनके लेखन में ऐसा क्या है, जिससे वे प्रेमचंद के बाद हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय लेखक बने? हिंदी के हजारों लेखकों को इस प्रश्न का उत्तर ईमानदारी से खोजना चाहिए और उस उत्तर से ही हिंदी लेखन की अनेक चुनौतियों का समाधान मिल जाएगा। कोहलीजी ने करोड़ों  लोगों की आस्‍था से जुड़ी रामकथा को आधुनिक संदर्भों से जोड़कर इसे नए दृष्टिकोण से प्रतिबिंबित किया।

महाभारत को भी उपन्यास-शृंखला के माध्यम से युवा पीढ़ी तक पहुँचाना भी बहुमूल्य योगदान है। इसी प्रकार भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत स्वामी विवेकानंद के संदेशों को ‘तोड़ो, कारा तोड़ो’ के माध्यम से पुनर्जीवित एवं पुनर्प्रतिष्ठित कर देते हैं। इन सभी उपन्यासों के माध्यम से कोहलीजी ने स्वतंत्रता के पश्चात् सामाजिक मूल्यों के विखंडन, राजनीतिक पतन, धर्म का अपने वास्तविक स्वरूप से विचलन को स्वर दिया है। हिंदी लेखकों को यह विचार करने की आवश्यकता है कि उनकी रचनाओं की विषयवस्तु ऐसी हो, जो समाज के व्यापक सरोकारों से जुड़ती हो तथा अपने समय की चुनौतियों को भी पिरोती हो। साथ ही शिल्प के स्तर पर भी इतनी रोचक हो‌ कि पाठक तक सहज संप्रेषित हो सके। यह भी विचार करना आवश्यक है कि लेखन एक साधना है।

एक अन्य पहलू भी विचारणीय है। हिंदी में एक विचित्र चलन है कि लोकप्रियता को नकारात्मक दृष्टि से देखा जाता है, जैसे कि वह किसी रचनाकार के ‘साहित्यिक मूल्यांकन’ में बहुत बड़ी बाधा हो। एक उदाहरण से इसे समझने में आसानी होगी। उर्दू शायर शहरयार मुशायरों में भी जाते हैं, फिल्मों में गीत भी लिख देते हैं, फिर भी सबसे प्रतिष्ठित साहित्यिक सम्मान ‘ज्ञानपीठ’ से विभूषित होते हैं; किंतु हिंदी में कवि-सम्मेलनों में जाने तथा फिल्मों में लिखने के कारण कवि हिंदी कविता से खारिज कर दिए जाते हैं। सी. नारायण रेड्डी के तेलुगू में फिल्मी गीतों का गिनीजबुक में कीर्तिमान है, किंतु वे ज्ञानपीठ से सम्मानित हैं। हमारी हिंदी के आलोचकों का संसार कुछ अजीब है। कई लेखकों-कवियों को लोकप्रियता का खामियाजा भुगतना पड़ा। पाठकों की विशाल संख्या से प्यार एवं सम्मान प्राप्त करने से बढ़कर लेखक के लिए अन्य सम्मान क्या हो सकता है!

हमें साहित्य के ‘संप्रेषण’ पर पुनर्विचार करना होगा। जैसे छंदबद्ध कविता को पूरी तरह तिरस्कृत करके, शब्दों का चक्रव्यूह रचकर जटिल गद्य को मुख्यधारा की कविता बना दिया गया और कविता को जनमानस से पूरी तरह अलग-थलक कर दिया गया। छंदमुक्त कविता एक विधा के रूप में जुड़ जाती तो कोई नुकसान न होता। लेखकों-कवियों को गंभीरता से सोचना होगा कि वे मनुष्यों के लिए लिख रहे हैं अथवा पुस्तकालयों की अलमारियों के लिए? यहाँ किसी प्रकार से सस्तेपन की पैरवी नहीं की जा रही है, किंतु साहित्य के मानदंडों पर खरे उतरने वाले लेखन को संप्रेषण के कारण पाठकों के हृदय तक पहुँचने से मिलने वाली लोकप्रियता को साहित्यिकता में बाधक नहीं माना जाना चाहिए।

दूसरी लहर

जब २०२० का अंत हो रहा था, तब कोरोना भी समाप्ति की ओर बढ़ता प्रतीत हो रहा था। लोग २०२१ से नई आशाएँ जुटा रहे थे। दुनिया भर में वैज्ञानिक टीके पर शोध कर रहे थे तथा सफल हो रहे थे। भारतीय वैज्ञानिकों ने भी सफलता प्राप्त की। जनवरी-फरवरी में कुछ ऐसा वातावरण बना, जैसे कि सामान्य जीवन लौटने वाला हो। बाजारों में भीड़ जुटने लगी थी। रेल, हवाई जहाज आदि चलने लगे थे। सभागारों में सांस्कृतिक आयोजन होने लगे थे। हाँ, यह अवश्य है ‌क‌ि जिन सावधानियों की ओर चिकित्सक जोर दे रहे थे, उनका ठीक-ठीक अनुपालन नहीं हो रहा था। टीके के आ जाने से भी लोगों की निडरता बढ़ गई थी। विशेषज्ञों ने दूसरी लहर की आशंका व्यक्त की थी, किंतु व्यवस्‍था और समाज ने उन पर समुचित ध्यान नहीं दिया। दूसरी लहर आई तो इतना भयानक रूप लेकर आई, जिसकी कल्पना भी नहीं थी। जो लोग लगभग वर्ष भर घरों में बंद रहे, वे टीका लगवाने गए और लौटे तो कोरोनाग्रस्त हो गए। जिन्होंने टीके की दोनों डोज ले रखी थीं, वे भी संक्रमित हो गए। जहाँ पहली लहर में बुजुर्ग ही प्रायः शिकार हुए थे, इस दूसरी लहर में युवा भी इसके शिकार बने। शायद ही ऐसा कोई परिवार हो, जिसने अपना कोई नजदीकी या दूर का रिश्तेदार अथवा मित्र या परिचित न खोया हो, या कोरोना का शिकार न हुआ हो! कितने ही लेखक, कलाकार असमय काल के गाल में समा गए। सबसे दुखद यह कि बहुत से लोगों को समय पर अस्पताल में बिस्तर या फिर ऑक्सीजन अथवा वेंटीलेटर नहीं मिल सके। यह कितना त्रासदीपूर्ण है कि लोगों ने अपने माता-पिता या पति-पत्नी या बेटे-बेटी को आँखों के सामने तड़प-तड़पकर दम तोड़ते देखा। ऐसी भयानक आपदा के समय भी समाज के एक वर्ग का बेहद क्रूर चेहरा सामने आया, जब ऑक्सीजन सिलिंडर हो या रेमडेसिवीर इंजेक्‍शन हो या अन्य दवाएँ हों, मनमाने दाम पर बेचे गए।

किंतु संतोष की बात यह भी है कि मदद करनेवाले हाथ भी खूब बढ़े। चाहे संस्‍थाएँ हों, चाहे व्यक्तियों के निजी प्रयास हों, मानवीयता के प्रति हमारे विश्वास को बनाए रखा। महानगरों के साधनसंपन्न युवाओं ने सोशल मीडिया के माध्यम से दूसरे शहरों के जरूरतमंदों को हर तरह से मदद की। जहाँ उज्जैन के कुछ नवयुवक प्लाज्मा दान करने इंदौर पहुँच जाते हैं, वहीं अपने खर्चे से किसी नगर में जाकर रोजा तोड़कर प्लाज्मा देने की खबरें भी मिलीं। कुछ प्रवासी भारतीयों ने चौबीस घंटे की ‘हेल्पलाइन’ चलाकर लोगों को परामर्श दिया।

इस दूसरी लहर में हजारों बच्चे अनाथ हो गए, क्योंकि माता-पिता में एक चल बसे! कुछ हजार बच्चों ने माता-पिता, दोनों को खो दिया। इन बच्चों की जिम्मेदारी अब समाज की है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी निर्देश जारी किए हैं तथा सरकारों ने भी घाषणाएँ की हैं। सबसे संतोषप्रद बात एक सर्वेक्षण से उभरी है। ब्रिटेन की एक संस्‍था हर वर्ष दान देने का विश्व भर में सर्वेक्षण करती है। इस वर्ष भी १४४ देशों के डेढ़ लाख लोगों के सहयोग से सर्वेक्षण किया। तीन बिंदु लिये गए—(१) अनजान लोगों की मदद, (२) नकद धन की मदद, (३) समय और श्रम देकर मदद। यह सचमुच अत्यंत सुखद है ‌कि दुनिया भर के ३०० करोड़ लोगों ने अनजान लोगों की सहायता की। इस बार भारत भी ८२वें स्‍थान से १४वें स्‍थान पर आ गया। यह मानवीयता और जीवन-मूल्यों पर हमारा विश्वास दृढ़ करनेवाली सूचना है।

(लक्ष्मी शंकर वाजपेयी)

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