कन्नड़ की चार कविताएँ

कन्नड़ की चार कविताएँ

कन्नड़ की सुपरिचित लेखिका एवं अनुवादिका। भगवती प्रसाद वाजपेयी का गद्य साहित्य, साठोत्तरी कन्नड-हिंदी कवयित्रियाँ, अन्वेषण (मौलिक कृतियाँ)। कल्याण की अवनति, सूर्य की छाया, इंद्रधनुष, कन्नड त्रिपदियों और लोककाव्य का हिंदी अनुवाद और हिंदी से कन्नड और कन्नड से हिंदी में अनेक लेख आदि का अनुवाद। इंद्रधनुष कृति के ‌लिए केंद्रीय हिंदी निदेशालय, नई दिल्ली के २०१८ का हिंदीतर भाषी हिंदी लेखक पुरस्कार से सम्मानित। कन्नड़ काव्य के चार लोकप्रिय कवियों की रचनाओं का सुमंगलाजी द्वारा किया गया हिंदी रूपांतर यहाँ पर दे रहे हैं।

लोकतंत्र

          मूलः चेन्नवीर कणवी (१९२८)

      अनुवादः सुमंगला मुम्मिगट्टी

डूबता सूरज बूढ़े सिंह से होकर

पश्चिम पर्वत की गुहा में दुबक रहा है,

अपना सर्वाधिकार अंत होते-होते

लोगों की ओर घूरकर देख रहा है!

शाम के धुँधलके ने गगन सिंहासन पर

काला झंडा उठाकर दिखाया है

पक्षी संकुल एकत्र हो छुटकारे की खुशी में

गाकर जय-जयकार कर रहा है।

दिन की जलती धूप की

साम्राज्यशाही लुढ़ककर

पश्चिम सागर का जहाज चढ़ता रहा तो

संध्या समीर तो स्वातंत्र्य संदेश

लेकर चारों दिशाओं में फैला रहा है।

विस्तृत गगन में फिर से जनता राज्य

विज्रंभित हो रहा है नक्षत्र लोकतंत्र

व्यक्ति-व्यक्ति के गुण-विकास प्रकाश में

जग को प्रकाशित करना उसका मूलतत्त्व।

आकाशगंगा ने शासन सभा चलाकर

मंत्रिमंडल निर्मित किया है;

बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि,

मंगलादि प्रमुखों को

विविध मंत्री बनाकर नियुक्त किया है।

कृत्तिका मृगशिर सप्तर्षि मंडल

राजनीतिक पक्ष दल

दक्षिणोत्तर ध्रुव की मध्यस्थता से

क्या मुख्यमंत्री चंद्र बना है?

छुटकारे का सौभाग्य पाकर गगन में यों

शांति समदर्शिता की शीतल रात ने

धनिक-निर्धन न मानते

समता से संतृप्त किया है

सब को समभाग चंद्रिका।

कवच

          मूलः एल. हनुमंतय्य (१९५८)

      अनुवादः सुमंगला मुम्मिगट्टी

जन्म से बँधा यह

कवच गिरता नहीं उठता नहीं

कर्णदानियों जैसे रखने पर भी काटकर

देह के पार्श्व को एकेक कर

कटता नहीं जन्म-मोह

दे कहने पर भी दाह नहीं दूर होता

जाता नहीं वज्रदेह जैसे

भूगर्भ को चीरकर

निकाले सोने को पिघलाकर रूमाल

बनाकर पोंछ लेने पर भी पिघलकर

जाता नहीं सपने में भी।

कोश पढ़कर देश घूमकर

आने पर भी बगल में सुलग उठेगा

धर्म नामक अधर्म भीतर का

बीज गिरकर अंकुरित हो पेड़ बनकर

फल की दूकान में लहलहाते

हँसते वक्त कवच तन गया था।

खोने के लिए ही घूमे कितने ही

महात्माओं ने मौन नाव में

शास्त्र के वस्त्र में लपेटकर

शरधि पार फेंकने पर भी जहाज चढ़कर

गर्जन बन बिजली बन बारिश की

बूँद-बूँद बनकर मिट्टी में मिल गया कवच

कण होकर अणु होकर व्रण होकर

लहू के आँगन में समा कर लाल सफेद

कणों में प्राण धातु।

अहिंसा अस्त्र को कंधे पर

ढोकर आई सज्जनता के

बुद्धदेव को खामोशी से

दूर रख कालांतरों के

कदमों में नाल बना है कवच।

रामानुजाश्रम में

मिलने पर भी कड़ी अक्षर की

छेनी ने तोड़ दिया था घुटने टेककर।

बसव के जोड़ने पर भी आँच में ही

जंग लगी थी बगल में ही

कल की जीभ जलाने वाले

दर्भ को रख समा गई

माया चरित के चक्र में।

सौ योजन राह तय करने पर भी

कोना कटा नहीं है घिसा नहीं है तनिक भी

पैर लड़खड़ाए नहीं हैं कमर टूटने पर भी

जन्म से मजबूत बना है

छाया से धूप से लता फूल से

जन्म से बँधा यह

कवच निकलता नहीं है

गिरता नहीं है मुझे छोड़कर

जन्म से ही जुड़ गया है

कवच, अछूता कवच।

मिले तो हँसी लाकर दोगी, सखी

          मूलः के. राजेश्वरी गौड़ (१९५४)

      अनुवादः सुमंगला मुम्मिगट्टी

तुम क्यों आजकल

मुँह फुलाए रहती हो—

कहा आईने ने

भौंहें सिकुड गईं, कहा—

मुझे कौन है तुम्हें छोड़कर सखी,

पंछियों जैसे उड़ते हैं यांत्रिक होकर

वाहन छोडे़ हुए धुएँ की

साँस लेते हैं

डिब्बे भीतर का नाश्ता पेट में

घुसाते हैं।

दुलारने की उनींदी आँखों के

लाल को दूसरों की गोद में

धकेलते हैं आँत के बंधन

मुरझाने जैसे मसलते हैं।

प्रीति को खदेड़कर

प्रेत को रखा है

हरियाली चाहनेवाली आँख को

टकरा रही तपती धूप

पैर रखे तो धँस जाने लायक कीचड़

भीतर की रुलाहट बाँट लेने को भी

फुरसत नहीं

एह ही छत तले रहकर भी

न मिलने का समयाभाव

धन के पीछे भाग-भागकर सुस्ताकर

हँसमुख खोकर तन गया है

सखी, मिले तो हँसी लाकर दोगी?

अदृष्‍ट

          मूलः सरजू काटकर (१९५३)

      अनुवादः सुमंगला मुम्मिगट्टी

चेचन्या में यदि पैदा होता तो मैं

मर ही जाता दफना देते ऐसे

मानो किसी को पता न चले

रूसी सैनिकों से

वियतनाम में यदि पैदा होता तो मैं

अमरीका के बमों से

बचा लेना असंभव होता था

बमबारी करनेवालों से उध्वस्त हुआ होता सपरिवार

कराची में यदि पैदा होता तो मैं

काटकर रख देते

शिया-सुन्नी झगड़े में

मुसलमान कहने पर भी छोड़ते न थे दोनों

युगांडा में यदि पैदा होता तो मैं

किसी भयानक बीमारी की

बलि हुआ होता : बीमारी के साथ

मुझे भी दुनिया भर बदनाम किया होता

जर्मनी में यदि पैदा होता तो मैं

ज्यू कहकर जिंदा जला देते

हिटलर के सैनिकों के सामने

घुटने टेककर खड़ा होना पड़ता था रोज

अफ्रीका में यदि पैदा होता तो मैं

वर्णद्वेष की बलि चढ़ गया होता

काला कहकर गोरे, गोरे कहकर निग्रो

छील देते थे मुझे केले की तरह

श्रीलंका में यदि पैदा होता तो मैं

ह्यूमन बम से बचाते

बचाते मर ही गया होता

आकाश को उड़ता था चीथड़ा-चीथड़ा बनकर

सऊदी अरब में यदि पैदा होता तो मैं

हाथ-पैर कटवा लेता

किसी स्त्री को रास्ते में

जाते समय हाथ लगा कहकर

मेरा अदृष्ट अच्छा था;

भारत में ही पैदा हुआ मैं

कुछ भी न होते हुए भी चारों ओर

जीव तो है मेरा मेरे चारों ओर

 

७८, ४ क्रास, श्रीपाद नगर,
रानी चेन्नम्म नगर के पास,
धारवाड़-५८०००१ (कर्नाटक)
दूरभाष : ७६१९१६४१३९

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