शिकारपुर के उत्पाती

शिकारपुर के उत्पाती

मारे छोटे शहर में इतनी इनसानी विविधता है कि दुनिया के सबसे बड़े चिड़ियाघर में क्या होगी? कोई विपन्न है, कोई संपन्न, शोषित, अपाहिज, पीड़ित, दलित, शक्तिशाली, निर्बल, कुबड़े, काने, हर तरह के मानवीयता के अजूबे उपलब्ध हैं। इनमें शारीरिक एकता दो पैर, दो हाथ, कान-नाक और गरदन की है। दीगर है कि कुछ अंग कर्तव्य निभाने में सक्षम न हों? यदि कोई मानसिक समानता तलाशे तो सब दुखी हैं। बस मात्रा का अंतर है। कोई कम है, कोई ज्यादा, सब सुख के अपने-अपने सपने की तलाश में खोए हैं। सबके अलग-अलग व्यक्तिगत शौक हैं। जितने इनसान हैं, उतने स्वार्थ हैं। किसी की भूख पेट की है, किसी की पैसे की। किसी का स्वार्थ सत्ता है, तो किसी का अभाव से मुक्ति। कोई बेरोजगार नौकरी का इच्छुक है तो कोई छल-कपट, धोखे से जीवनयापन का। कुछ-न-कुछ सब चाहते हैं। बस यह कहना कठिन है कि क्या चाहते हैं?

यदि इन में कुछ जन्मजात उत्पाती हैं, तो यह एक सामान्य सा तथ्य है। इनके बचपन के उत्पातों से इनके माता-पिता तंग थे। वहाँ उत्पाती स्कूल भेजे गए। जैसा सरकारी स्कूलों का चलन है। पढ़ाई के अलावा स्कूल में सब होता है। कभी बच्चों के लिए आवंटित मिड-डे डील का पैसा स्कूल के बुजुर्ग खा जाते हैं, कभी शिक्षा विभाग के कर्मचारी। हमारे उत्पाती नायक से इनके ‘मा-साब’ डरते। एक बार पूरे गाँव ने एक मनोरंजन दृश्य देखा। ‘मा-साब’ भीषण गरमी से परेशान, बिजली के अभाव में, कमीज उतारकर बच्चों की क्लास ले रहे थे कि उत्पाती उनकी कमीज ले उड़ा। वह पीछे-पीछे, उत्पाती आगे-आगे। युवा ‘मा-साब’ एक खेत में गिरे पाए गए और उत्पाती उनकी कमीज से नाक पौंछता घर पर। यदि कोई देखता तो शर्तिया उत्पाती को भविष्य का धावक-नायक मानता, इस फुर्ती से वह स्कूल से चंपत हुए और रास्ते की बाधाएँ फाँदते, घर पहुँचे। धीरे-धीरे इनकी ख्याति ऐसी बढ़ी कि इनके पहले वह पहुँच जाती। इनकी कॉलेज की पढ़ाई के प्रवेश के समय यही हुआ। कॉलेज के प्रिंसिपल ने इन्हें प्रवेश देने से इनकार कर दिया। वह तो स्थानीय विधायक उत्पाती की जाति के थे तो इन्हें उनकी सिफारिश पर प्रवेश मिला। वहाँ शिक्षा के दौरान इनकी उत्पाती छवि और निखरी।

यह कॉलेज की यूनियन में इतने सक्रिय रहे कि एक प्राध्यापक के विरुद्ध प्रदर्शन के दौरान कॉलेज की खिड़कियों के सारे शीशे चूर-चूर हो गए। प्राध्यापक का गुनाह इतना था कि उसने उत्पाती को सीटी बजाकर फिल्मी गानों की धुन सुनाने से रोका था। यूनियन की युनिवर्सिटी में रहकर उत्पाती ने अपने प्रिय विषय समाज शास्त्र में एम.ए. की डिग्री प्रथम श्रेणी के साथ हासिल की। वह भी नकल करके। इतना ही नहीं, वह अपनी बैच के गोल्ड मैडलिस्ट भी साथियों द्वारा एकमत से माने जाते। ऐसो का भविष्य किसी प्रकार की नौकरी के धरातल पर सीमित न रहकर समाज सेवा या सियासत के आसमान में ऊँची उड़ाने भरता है। पर उत्पाती का दिमाग कुछ अलग कुलाँचें भर रहा था। वह तो बचपन से लंबी दौर का विशेषज्ञ जो ठहरा, उसने सियासत को यह सोचकर घास न डाली कि एक दल के दायरे में सीमित होना उसे स्वीकार न था। बार-बार दल बदलने से उसकी उजली जल छवि में दाग लगते। उत्पाती होने के कारण फिलहाल सब उससे खौफ खाते। कब कहो क्या न कर डाले? समाज सेवा, उसकी मान्यता है कि चंदे और देशी-विदेशी सरकारी अनुदान की भीख से अपना अपनी जेब भरने की साजिश है। ऐसी स्वैच्छिक संस्थाएँ जनसेवा का अभिनय भर करके अपनी व्यक्तिगत उल्लू सीधा करती हैं। सरकार की कल्याणकारी नीतियों और इनके सम्मान्नित प्रयासों से स्वतंत्रता के इतने वर्षों में देश अब तक स्वर्ग होता। हुआ भी है। तभी तो इतनी देशवासी, बेरोजगारी, अभाव और कुपोषण और इलाज के अभाव में स्वर्गवासी हो चुके हैं। उत्पाती के समाज के अराजक तत्त्वों से निकट के संबंध रहे हैं। वह सारे के सारे उत्पाती का लोहा मानते हैं। उत्पाती ने सोचा कि समाज में इनकी उपयोगी भूमिका होनी चाहिए, जिससे प्रजातंत्र और इनका दोनों का भला हो।

उसे यह भी विचार आया कि जब आंदोलन धरना, प्रदर्शन सब में भीड़ अनिवार्य है, वरना लक्ष्य कितना भी आदर्श और नेक हो, जन-बल के अभाव में आंदोलन टाँय-टाँय-फिस्स हो जाता है। प्रजातंत्र की सफलता और जन-आंदोलनों का चोली-दामन का साथ है। यह सब मानते हैं कि लोकतंत्र की कामयाबी सार्थक और प्रभावशाली विरोध पर निर्भर है। इसके लिए जनसंसाधन की सहज और सुगम उपस्थिति बेहद आवश्यक है। बिना उचित प्रबंधक के यह कैसे संभव है। उत्पाती ने इस परिप्रेक्ष्य में निर्णय किया कि वह जनता के कल्याण के लिए ‘जन संसाधन प्रबंधन’ संस्थान बनाएगा। वह स्वयं इसका मुख्य कार्यकारी अधिकारी होगा। किसी भी आंदोलन, अनशन, धरना-प्रदर्शन के लिए वह जन, संसाधन का प्रबंध करेगा। उदाहरणार्थ, किसी प्रदर्शन के लिए चार-पाँच सौ समर्थकों की आवश्यकता है। हर व्यक्ति की दर पर दस प्रतिशत मुनाफा लगाकर वह ट्रक, ट्रैक्टर, ट्राली के माध्यम से इनकी ‘सप्लाई’ करेगा। इसमें दिहाड़ी, वाहन, भोजन, घायल की चिकित्सा, जेल जाने का भुगतान व्यय और सब ‘फीस’ में शामिल होगा। यदि कोई भीड़ के नियंत्रण के दौरान चल बसे तो ऐसों को संस्थान अनुदान भी देगा और सरकार से भी दिलवाएगा। उत्पाती इसके भरपूर प्रबंध की व्यवस्था स्वयं करने में अग्रणी होगा। इसमें प्राण गँवाने वाला कोई और नहीं है, उत्पति में उसी का भाई-बंधु है। उत्पाती का यकीन है कि ऐसे संस्थान हर प्रजातंत्र की अनिवार्यता है।

एक और आवश्यक तथ्य यह है, कि यह सेवा हर सिद्धांत, उसूल, दल के पूर्वग्रह से मुक्त है। वर्तमान समय की भौतिकता की आस्था के अनुरूप इसमें दलदल की जरूरत नहीं है। यह व्यवस्था दल निरपेक्ष है। सैक्युलर हो या कट्टर कम्युनल, हर दल उचित चार्ज चुकाकर जन से साधन का इंतजाम कर पाएगा। उसूल सिद्धांत तो दिखाने के जनप्रिय हाथी-दाँत हैं, खाने चबाने के तो समान सामान्य दाँत हैं। यह सामान्य दाँत सत्ता चबाने की हसरत में कुछ तो भी प्रदर्शन करने को प्रस्तुत हैं। इन्हें न झूठ से परहेज है, न सार्वजनिक रूप में किसी भी वादे-आश्वासन की। बकवास से। हर सियासी दल का इकलौता लक्ष्य सत्ता हथियाना है। उस प्रक्रिया के दौरान धरना, जुलूस, आंदोलन, प्रदर्शन भी करना ही करना। नीतियों या मुद्दों में क्या जनता के लिए उपयोगी है क्या नहीं, इससे इनका दूर-दूर का वास्ता नहीं है। यह सब विरोध का नाटक वह सीढ़ियाँ हैं, जिन पर चढ़कर सत्ताधारी दल को नीचा दिखाया जा सके और जनता के वोट जुगाड़ हो सके। उत्पाती का धंधा हर प्रजातंत्र का एक लोकप्रिय पेशा है। जन-संसाधन हर दल की दरकार है।

जैसा सर्वविदित है, इक्कीसवीं भौतिकता की सदी है। नैतिकता जीवन-मूल्य और सादा जीवन, उच्च विचार आदि बस अतीत की बातें हैं। चुनाव वर्तमान में एक खर्चीला सौदा है। करोड़ों का खेल है। दल चलाने का खर्चा, प्रचार सामग्री, मीडिया पर थोबड़ा दिखने आदि सभी में दलों को पूँजीपतियों का सहयोग अपरिहार्य है। उन्हीं के दान-चंदे से दल चलने है, चुनाव लड़े जाते हैं, और आंदोलन आदि किए जाते हैं। उत्पाती के जन संसाधन का प्रयोग ऐसे ही समृद्ध उद्योगपतियों के धन से होता है। यह एक ऐतिहासिक सच है कि आजादी के संघर्ष काल से धनपतियों का इसमें आर्थिक योगदान रहा है और गांधी जैसे नेताओं ने इसका सम्मान भी किया है।

जैसा सर्वविदित है, इक्कीसवीं भौतिकता की सदी है। नैतिकता जीवन-मूल्य और सादा जीवन, उच्च विचार आदि बस अतीत की बातें हैं। चुनाव वर्तमान में एक खर्चीला सौदा है। करोड़ों का खेल है। दल चलाने का खर्चा, प्रचार सामग्री, मीडिया पर थोबड़ा दिखने आदि सभी में दलों को पूँजीपतियों का सहयोग अपरिहार्य है। उन्हीं के दान-चंदे से दल चलने है, चुनाव लड़े जाते हैं, और आंदोलन आदि किए जाते हैं। उत्पाती के जन संसाधन का प्रयोग ऐसे ही समृद्ध उद्योगपतियों के धन से होता है। यह एक ऐतिहासिक सच है कि आजादी के संघर्ष काल से धनपतियों का इसमें आर्थिक योगदान रहा है और गांधी जैसे नेताओं ने इसका सम्मान भी किया है। तब आजादी का सपना एक ऐसा आदर्श था जिसके प्रति जन-जन का स्वैच्छिक सहयोग था। अब न वैसे नेता हैं, न वैसा जन-सहयोग। आज के आंदोलन भाड़े की भीड़ पर निर्भर है, जिसमें उत्पातियों की अहम भूमिका है। ऐसों का मूल उसूल केवल ‘पैसा दे, भीड़ ले’ का है। लगता है कि हर दल के पास कार्य-कर्ताओं का अभाव है। कौन अपना वक्त जाया करके आंदोलन-प्रदर्शन में भागीदारी करे और वर्दी के डंडे खाने का खतरा उठाए? देखने में आया है कि प्रदर्शन के दौरान डंडे खाने की नियति कार्यकर्ताओं की है और सुर्खियों में रहने का सौभाग्य नेताओं का। खतरा भाँपते ही नेता या तो नौ-दो-ग्यारह होते हैं या वर्दी द्वारा कैद कर दिए जाते हैं। कहीं वह हिंसा के शिकार न हों, या अश्रुगैस अथवा लाठीचार्ज के। गिरफ्तार वर्करों को ले जाने वाली बस पर नेता पहले से ही सवार मुस्की छाँटता नजर आता है। बड़े नेता का यही तो कमाल है, वह विरोध प्रदर्शन में भी सबसे आगे है। वह सर्वथा सुरक्षित है और धन प्रदर्शन में भी अग्रणी बड़े पूँजीपतियों के दान-चंदे का माध्यम वही है। उन्हीं के जरिए पैसे की गुपचुप या खुले आम आपूर्ति होती है। उनके रहन-सहन, सुरक्षा, वाहन, निवास आदि सब ही धन के दिखाने के साधन है। उधार के रंगीन पंख लगाकर वह खुद को किसी सुरम्य उद्यान में टहलते हुए मोर का भ्रम पालते हैं। दीगर है कि उनके चहेते कार्यकर्ता भी इस मुगालते में नहीं हैं। वह भी समझते हैं कि यह किसी पूँजीपति की कृपा पर बस ठाठ-बाट से जिंदा हैं। जाहिर है कि पूँजीपतियों की वर्तमान प्रजातंत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

कभी-कभी हमें लगता है कि आंदोलनजीवी और उत्पातियों में काफी समानता है। एक के लिए आंदोलन अपनी नेतागीरी की दुकान चलाने का साधन है, दूसरे के लिये धनोपार्जन का। दोनों किसी भी उसूल सिद्धांत से पीड़ित नहीं हैं। दोनों को उचित अवसर का इंतजार है। एक कैमरे के सामने आने को उत्सुक दूसरा उससे बचता है। कहीं आयकर की ‘रेड’ न पड़ जाए? उसकी कमाई भीड़ की सप्लाई की है। उसकी सही संख्या का अनुमान भी कठिन है। वह मानता है कि वह अपनी उत्पाती की भूमिका से सुखी है। वर्तमान विधि से उसे कमाई की सुविधा भी है और उत्पात मचवाने का संतोष भी। उसका संतोष तब आनंद में बदलता है, जब जेल जाने से बचने के अलावा, वह घायलों की सहायता भी करता है। उसे महसूस होता है कि वह किस नेता से कम है? उल्टे, नेता ही उस पर भीड़ और देय दर में रियायत के लिए निर्भर है। सब चुनाव में उससे सहयोग की भीख माँगते नजर आते हैं। उत्पात जीवी और आंदोलनजीवी में एक अन्य समानता है। दोनों धर्म और जाति से कतई प्रभावित नहीं है। आंदोलन का मुद्दा जनविकास का है या जनविनाश का, दोनों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। उनका प्रमुख आकर्षण आंदोलन है, उसका विषय नहीं। तभी तो जीवी बस कपड़े और चोला बदलकर हर आंदोलन का अहम हिस्सा है, उत्पाती की रुचि उससे अपनी वसूली में। आंदोलन की सफलता, असफलता से दोनों का कोई लेना-देना नहीं है।  जैसे लेखक अपने पुरस्कार गिनता है, आंदोलनजीवी अपने आंदोलनों की तादाद। न लेखक को गुणवत्ता की चिंता है, न जीवी को आंदोलन की कामयाबी की। उसे शर्त है कि उसने आंदोलन में हर संभव सहयोग दिया। यहाँ तक कि गिरफ्तारी भी दी, जेल भी गया। हर प्रयास से आंदोलन की सफलता का धर्म निभाया पर वह असफल हो गया तो उसका क्या कुसूर? वह आंदोलनजीवी भी है और वामपंथी सैक्युलर भी। फिर भी उसका ‘गीता’ में विश्वास है। वह अपना कर्म करता है, बिना फल की इच्छा के। ‘जीवी’ की सेवा, सत्ता प्रेरित है, वहीं उत्पाती की धन प्रेरित! आंदोलन के लक्ष्य से दोनों का कोई लेना-देना नहीं है।

यों दोनों को यकीन है कि लोकतंत्र की सफलता में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। एक को मुगालता है कि आंदोलन ही जनतंत्र की आत्मा है, दूसरे का आकलन है कि उसी का सहयोग आंदोलन को आंदोलन का रूप देता है, वरना बिना भीड़ के वह आंदोलन कैसे कहलाता? ‘जीवी’ या उत्पाती में कौन अधिक महत्त्वपूर्ण है, यह निर्णय करना कठिन है जनतंत्र में जन किसके कारण अधिक भुगता है, यह निर्णय जन पर ही छोड़ना शायद उचित हो?

 

९/५, राणा प्रताप मार्ग, लखनऊ-२२६००१
दूरभाषः ९४१५३४८४३८

हमारे संकलन