शीत-रात का अनुराग

शीत-रात का अनुराग

सुपरिचित साहित्यकार। गीत, गजल, कविता, दोहा, कहानी, लघुकथा, संस्मरणात्मक रेखाचित्र आदि अनेक विधाओं में १५२ कृतियाँ प्रकाशित। राजस्‍थान ब्रजभाषा अकादमी, जयपुर की त्रैमासिकी ब्रजशतदल एवं साहित्य मंडल श्रीनाथद्वारा की पत्रिका हरसिंगार का सहयोगी संपादन कार्य। अनेक साहित्यिक संस्‍थाओं द्वारा सम्मानित।

रात के एक बजे ट्रेन ने पेंड्रा रोड स्टेशन पर उतारा। अनजाने मुझे और सुनील को शीत का आभास तब हुआ, जब हम प्लेटफॉर्म पर उतरे। कोच की गरमी में बाहर की ठंडक का थोड़ा भी अंदाजा हमें नहीं था। अपने शहर में जहाँ हम गरमी की गुनगुनाहट छोड़कर आए थे, वहीं मध्य प्रदेश के सिरमौर अमरकंटक के नजदीकी कस्बे में वह गरमी गरम लिहाफों में, ऊनी वस्त्रों और कंबलों की आड़ में सिमटी दिखाई दी। वहाँ के शीत का प्रकोप हमारे शहर के दिसंबर-जनवरी माह जैसा ही हमें महसूस हुआ। चारों ओर उड़ती धुंध और कोहरे ने जैसे ही तन को छुआ, एक अप्रत्याशित ठंड भरी सिहरन विद्युत् गति से बदन पर दौड़ पड़ी।

इस ठंड से बचने के प्रथम प्रयास में हम दोनों ने हाथों से अपनी छाती को कस लिया। ट्रेन ज्यों बिना किसी के कहे रुकी थी, वह बिना किसी से बोले खट-खट की आवाज के साथ चल निकली। ट्रेन के जाने के साथ ही प्लेटफॉर्म पर आवाजाही खत्म हो गई। स्टेशन पर शीत का प्रवाह और अधिक पसर गया। कोहरे की चादर में बल्बों एवं ट्यूबलाइटों का प्रकाश घुल-घुलकर प्रसारित हो रहा था। प्लेटफॉर्म पर बिछी कुरसियों का खालीपन अब कोहरा ही भर रहा था। सुनसान प्लेटफॉर्म के दरवाजे में प्रवेश करते हुए मैंने यात्री प्रतीक्षालय के फर्श, कुरसियों और कोनों में लोगों को कंबलों, गरम दुशालों और उधड़ी रजाइयों में लिपटे हुए देखा। स्टेशन की दुकान और थ‍ड़ियाँ धुँधलके में अपने होने का प्रमाण दे रही थीं। लेकिन हाँ, इन सब से इतर मूँगफली, गुटखे, बीड़ी बेचने वाले एक साये को मैंने उस सर्दी में बेखौफ बिक्री करते देखा था। उस वातावरण में कोहरे के अलावा कहीं भी किसी प्रकार की कोई गतिविधि दिखाई नहीं दे रही थी

इस दृश्य को देखकर लगा, जैसे शीत के जिन्न ने हमारे तन को जकड़ लिया हो। गरम कपड़ों की अनुपस्थिति में हमने प्याज के छिलकों की तरह सिर्फ सादा कमीजों से तन को ढक लिया। ओढ़ने और बिछाने की चद्दरों ने भी हमें इस भीषणता से बचाने में एक असफल मदद की।

रात को यों तो खाना खाया था, लेकिन सर्दी से बचने के बहाने चाय पीने की असंभव सी इच्छा को बल मिला, नर्मदा मैया ने हमारी इस इच्छा को जल्द पूर्ण कर भी दिया।

उसी समय प्लेटफॉर्म पर धुंध में से दुबले-पतले बदन, हाथ में चाय की केतली और कप लटकाए ‘चाय-चाय’ की टेर लगाती एक आकृति को घूमते देखा। सुनील ने उसे आवाज दी। लंबे-लंबे डग भरती वह आकृति शीघ्र ही हमारे सामने आ खड़ी हुई।

“दादा भाई चाय?” मादक, मोहक और आकर्षण से भरी हुई आवाज से मन उस आकृति की ओर खिंच गया।

गौर वर्ण, दुबला-पतला बदन। उम्र तकरीबन चौदह-पंद्रह वर्ष। चौड़े माथे पर पसरे छोटे-छोटे भूरे रंग के घुँघराले बालों पर एक पीली सफेद ऊनी टोपी। अपने में भोलेपन को समेटे पतली स्नेह पूरित आँखें। आँखों के ठीक बीच में एक चौड़ी-सपाट सुघड़ नासिका, जो उसकी सुंदरता में चुंबकत्व का व्यापार करने में सक्षम होती। साथ ही उस नासिका की सुंदरता को सवाया करते थे, गुलाबी पतले मुसकान बिखेरते होंठ। गोरे सूखे गालों के नीचे छोटी ठोड़ी से उस चेहरे की छवि मन में उतरती जाती थी। उस किशोर ने बदन पर एक गरम खुली पीले रंग की किसी बड़े व्यक्ति की जाकिट को पहना नहीं था बल्कि, सर्दी से बचने को ओढ़ रखा था। उसका गरम मोटा सफेद पाजामा और रेग्जीन के पुराने उधड़े जूते भी किसी की कृपा दृष्टि की पुष्टि करते दिखाई दे रहे थे। हाथ में काली सफेद केतली से गरमागरम चाय को कप में कर हमें थमाते हुए उसकी आवाज पुनः मन पर थाप दे गई—“यह लो दादा भाई!”

चाय की गरम भाप ने एक क्षण कोहरे की ठंडक को विस्थापित कर दिया। शरीर को गरम करने के लिए हमने चाय को दोनों हाथों में बाँध लिया और तब मैं बोला, “रात को कोई होटल मिल पाएगा?”

“अब एक बजे कौन सा होटल खुला मिलेगा, दादा भाई?”

चाय का दाम देने को हमने उसके हाथ में सौ का नोट रख दिया।

“इतना बड़ा ठोक भाई?”

“नहीं, इससे छोटा तो नहीं मिल पाएगा।” मैंने कहा।

“चलो, छोटा ठोक देखता हूँ।” कहकर उसने अपनी आँखें, मस्तिष्क व हाथ तीनों से जाकिट, पायजामे और अंदर शर्ट की जेबों को खोजा और सफलता पाकर मेरा हिसाब कर वह अपनी दुकानदारी के लिए निकलने को हुआ तो मैंने पुनः पूछ लिया—

“अमरकंटक के लिए कोई साधन मिलेगा?”

“सुबह छह बजे बस आएगी।” उसने जाते-जाते जवाब दिया और फिर उसी तरह ‘चाय-चाय’ की टेर लगाता हुआ वह आगे बढ़ गया।

अब करना था प्रतीक्षालय में उस शीत भरी रात से स्वयं को बचाने का कोई गरम प्रयास। सभी कोने पहले से ही कब्जाए हुए थे। कोई स्थान न पाकर हम प्रतीक्षालय के दरवाजे के किनारे पर ही आ सटे। खुले वातावरण में गहरी-अँधेरी रात में ठंड की मार कुछ ज्यादा ही लगती है, यह उस समय हमें महसूस हुआ। सूनेपन, अँधेरे और कोहरे में आसरे का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। भगवान् भरोसे छोड़ हम नाउम्मीदी के शिखर पर इस ठंड से दो-दो हाथ तो क्या कर पाते, लेकिन अपने को ओढ़कर वहीं किसी समाधान की राह में बैठ गए। हमारी आँखों में दिन भर की थकान से नींद घिर आई थी, लेकिन ठंड ने शरीर के समस्त अंगों को जागरण करने पर मजबूर कर दिया था।

‘चाय-चाय’ की आवाज से पुनः चेतना जागी। वही किशोर अपनी टेर लगाता हमारे निकट आ गया। हमने उससे पुनः चाय ली और उससे पुनः वही निवेदन किया।

उसके चेहरे पर एक मुसकान बिखर आई। वह हमारी स्थिति को समझ गया और बोला, “दादा भाई! अब कोई ठोक नहीं मिलेगा। हाँ, मेरी बाड़ी में चलना चाहो तो चलो।”

कितनी दूर है, कहाँ है, कैसी है? या किसी भी होनी अनहोनी को बिना सोचे-समझे हम दोनों उसके साथ चलने को तैयार हो गए। अभी हमने सिर्फ हाँ ही की थी कि देखा, वह किशोर हमारा सामान लेकर आगे-आगे चल पड़ा। कुछ ही दूरी पर चाय की एक पुरानी दुकान के बाहर चारों ओर से बंद टिन शेड में सामान रखकर वह किशोर मुसकराता हुआ बोला, “आ जाओ, यही है मेरी बाड़ी।” हमने अंदर आ गए। उस बाड़ी का वैभव बढ़ा रहे थे—सिर्फ एक पट्टी, किनारे रखी लोहे की एक बड़ी सिगड़ी, चाय-चीनी के कुछ डिब्बे, एक तरफ रखा पानी का काई लगा मटका और कुछ थालियों में रखा सामान तथा दीवार पर टँगा किसी साधु का चित्र। धुएँ से टिन की चादरों पर जमा कालापन उस छोटे से बल्ब में साफ दिखाई दे रहा था। हाँ, इस शीत की रात में इसका चारों ओर से ढकाव और सिगड़ी से भरी गरमाहट मुझे उस भद्देपन से कहीं ज्यादा सुखद लग रही थी।

“दादा भाई! इस ठोक बैठ लो। यहाँ गरमी रहेगी।” हम दोनों एक कोने में पड़ी बोरी पर बैठ गए। बाहर की ठंडक से जान बचाने का यही आखिरी रास्ता और उपाय था।

तब मैंने किशोर से पूछा, “तुम यहीं रहते हो?”

“हाँ!”

“तुम्हारा क्या नाम है?”

“गौरे!”

“अच्छा नाम है। माँ-पिताजी?”

“वे गाँव में हैं।”

गौरे मेरे प्रश्नों का जवाब भर ही दे रहा था। लेकिन उसका ध्यान सिगड़ी को तेज करने में था। पत्थर के नीचे से उसने लकड़ी के कुछ टुकड़े डाल एक गत्ते से हवा देकर आग को धधकाने के प्रयास के साथ बोला, “कोहरे से ईंधन भी गीला हो गया है, दादाभाई! थोड़ा धुआँ जरूर छोड़ेगा, तकलीफ देगा।” लेकिन फिर हँसकर बोला, “हाँ, बाड़ी को गरम जरूर कर देगा।”

उसके चेहरे पर कोमल होंठों के बीच छोटी सफेद दंतावलियों की सुंदरता अभी-अभी देखने को मिली। “अब तो शायद रात कट जाएगी?” कहकर हम उस बोरे पर व्यवस्थित होकर सोने को हुए तो गौरे ने कहाँ से, कब आए, क्यों आए, कब जाना है—जैसे अनेक प्रश्नों के उत्तर मुझसे पा लिये। मेरे विषय में जानकर गौरे मुझसे काफी प्रभावित हुआ। उसने गत्ते से सिगड़ी को सुलगा दिया था। हमारी आँखों में अब नींद के झोंके उठने लगे। तब गौरे बोला, “दादा भाई! अब एक चाय मेरी ओर से?”

मेरा आँखें ही नहीं मन भी नींद से घिर रहा था। यात्रा में अधिक चाय पीने से इस समय चाय का मन न के बराबर था। लेकिन गौरे के प्रेमासिक्त अनुरोध को मैं टाल न सका। उसके आग्रह में मैंने अनुराग के बादलों को तैरते देखा था। एक दैन्यता का भाव और आतिथ्य की अभिलाषा उसके चेहरे पर उभरी हुई थी।

अब भी धुआँ उसकी आँखों में लग रहा था। लेकिन इस धुएँ से युद्ध में उसकी जीत के बाद उसने चाय का प्याला मेरे हाथों में थमा दिया। सुनील तो कब का निद्रा की लहरों में गोते लगा रहा था।

“पीकर देखो दादा भाई! स्पेशल बनाई है।” गौरे की यह आत्मीयता मन में एक बीज सी आकर जम गई। वास्तव में गौरे के हाथ की चाय का आनंद ही कुछ अलग था। मैंने बोरी पर लेटे हुए और गौरे ने सिगड़ी के सामने खड़े होकर चाय के घूँट लिये। और तब मैंने गौरे के समस्त हालातों को उसकी मायूसी के साथ सुना। उसके पिता को लकवा था। माँ व दो छोटे भाइयों का खर्चा भगवान् ने उसी के सिर पर ला रखा था। वह दिन में किसी चाय वाले के यहाँ काम करता था और रात में अपनी चाय की बिक्री से अच्छा कमा लेता था।

मैंने आज भाग्य की कठोरता पर कर्म की चोट को पड़ते हुए देखा था।

“ये टिन शैड किस की है।”

“मालिक की है।”

गौरे से मैंने काफी देर तब बातें कीं। फिर गौरे ने अपना गाढ़ा चीकट कंबल मेरे ऊपर डाल दिया और बोला, “आप सो जाइए दादा भाई! मैं जब तक स्टेशन पर घूम आता हूँ।”

यह कहकर गौरे उसी उत्साह से स्टेशन की ओर बढ़ चला। मैं उसे उसी उत्साह से जाते देख रहा था। गौरे की ‘चाय-चाय’ की टेर उस शांत वातावरण में साफ सुनाई दे रही थी। मैं उस कंबल में लिपट गया। सफाई पसंद होकर भी आज मुझे उस गाढ़े चीकट कंबल में प्रेम की अनुभूति हो रही थी। माँ की गोद की गरमी भी शायद ऐसी ही रही होगी। क्योंकि उसे ओढ़कर कब नींद आ गई, इसका मुझे पता ही नहीं चला।

ठीक छह बजे चाय का गिलास हाथों में थमाते हुए मुसकराते हुए उस चेहरे ने हमें एक शानदार नींद से जगाया—“दादाभाई! कैसी नींद आई?” उसके चेहरे पर एक मुसकान थी। रात भर की वह थकान अब काफूर हो चुकी थी। चाय का गिलास थमाकर गौरे बोला, “दादाभाई, बस आने को है।” एक घूँट हलक में उतारकर मैं बोला, “तुम नहीं सोए?”

“सो लिया था?”

“कब?”

“आपको पता नहीं चला?”

सच, गौरे के चेहरे पर नींद की उन्मादी का कोई भाव नहीं था। वह पूरी तरह तरोताजा दिखाई दे रहा था। उसके चेहरे की मुसकान से उसका स्वरूप और भी मनोहारी लग रहा था।

तभी बस का हॉर्न बजा। गौरे ने बस आने की सूचना भी दी। मैंने चाय पीने में जल्दीबाजी की तो गौरे ने तसल्ली रखने को कहा। तब उसकी धीरता को मैंने अनुभव किया। यह धीरता मैंने अनुभवी लोगों में ही पाई थी। मेरे चाय पीने तक स्वयं गौरे ने हमारा सारा सामान बस में रखकर अपनी चपलता का परिचय भी दे दिया था। उसकी बाड़ी में से जब मैं बाहर आया तो शीत का प्रकोप तो मानो हमारे लिए ही खड़ा था। भीषण शीत से बचने का प्रयास करते हुए मैंने अपनी जेब से सौ रुपए का नोट गौरे के हाथों में थमाना चाहा। लेकिन गौरे ने साफ मना कर दिया। यहाँ तक कि चाय के दाम भी नहीं लिये। मेरे बार-बार आग्रह को उसने अपनी हठ से दबा दिया। मैं उसके सामने हार गया था। बस रुकी थी लेकिन गौरे नहीं रुका। “दादाभाई! ट्रेन का टाइम हो गया है, चलता हूँ।” कहकर वह केतली थामे प्लेटफाॅर्म की ओर बढ़ गया।

मैंने गौरे को जाते हुए देखा। उसके कदम दृढ़ता से स्टेशन की ओर बढ़ रहे थे। मैं उसे तब तक देखता रहा, जब तक कि वह मेरी आँखों से ओझल नहीं हो गया।

इधर बस भी चल पड़ी। हम आगे के सफर पर बढ़ गए। गौरे वहीं रह गया। लेकिन यादों की ट्रेन पर एक सवारी को मैंने बिठा लिया था। खिलखिलाते, मुसकराते हुए, हाथ में चाय की केतली उठाए वही गौरे आज भी मेरी यादों में उस शीत भरी रात में अनुराग बिखेरता हुआ दिखाई देता है, अपने ‘दादाभाई के कहन से’, ‘चाय-चाय की आनंद भरी आवाज से’, ‘एक गाढ़े चीकट कंबल से।’

आज भी जब कभी सर्दी की रात में कहीं स्टेशन या बस स्टाप पर मैं कुछ देर को रुकता हूँ तो मेरी आँखों के आगे गौरे चाय की टेर लगाता हुआ आ खड़ा होता है। ‘दादा भाई! चाय लीजिए।’ और मैं उससे मिलने की अधूरी कल्पना में महज मुसकराकर रह जाता हूँ कि न जाने कब पेंड्रा रोड जाना होगा और न जाने कब उस अनजाने साथी से मुलाकात हो पाएगी!

 

राधा ओल्ड के पीछे, सादाबाद रोड,
राया, मथुरा-281204 (उ.प्र.)
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