बना भीम सरहद का रक्षक

बना भीम सरहद का रक्षक

सुप्रसिद्ध रचनाकार। रुपा (खंड काव्य), अंतर्मन, जीजीविषा, त्रिपथगा, अंतरिक्ष की ओर से, प्रपात (काव्य-संग्रह), कानून से संबंधित पुस्तकें व लेख प्रकाशित। बुंदेलखंडीय सम्मान कलमवीर, सृजनवीर सम्मान सहित अनेक सम्मानों से सम्मानित।

सरहद के सिपाही

निशा-सुंदरी रजनी बाला
तिमिरांगन की अद्भुत हाला
हीरक हारों से भरा थाल ले
कहाँ चली जाती हर रात
और बेचकर हार रुपहले
सुबह लौटती खाली हाथ
पूरा थाल खरीदा मैंने
चलो आज तुम मेरे साथ
उस सरहद पर जहाँ पराक्रम
दिखा रहा है अपने हाथ
बना भीम सरहद का रक्षक
रिपु की गरदन तोड़ रहा है,
पहना दो सब हार उसी को
भारत जय-जय बोल रहा है।

   कोरोना

विश्व के इतिहास में
यह राक्षस पहिला नहीं
भस्मासुर जिसके सिर
हाथ रखता भस्म हो जाता
हाहाकार था सारे जगत् में
अपने सर पर हाथ रख कर
मर गया एक दिन
कोरोना भी खुद ही मर
जाएगा कल सबेरे तक।
जब-जब महामारी आई
अपने साथ अपनी मौत
का हथियार भी लाई
बैठकर छिन डाल पर
उड़ जाती कोई चिड़िया।
यह सच है कि आज
लाशों से पटा कुरुक्षेत्र
समूचे विश्व में दहशत
घर में बंद हैं बच्चे
बाहर कफ्यू लगा है
आदमी की साँस से
आदमी डरने लगा है।
किसी की जेब में पैसा नहीं
दुकानें क्या करें ग्राहक नहीं
सन्नाटा पसरा है बाजार में
बंद यातायात के साधन।
माना इस बार संक्रमण की
गति ने बिजली को हराया
महामारी से पटे हैं भू-खंड
भय से भूत भगाए नहीं जाते
संकल्प साहस सावधानी से।
करोना वायरस भी पराजित
हो ही जाएगा एक दिन।
बुलंद हैं होंसले इस आदमी के
वायरस की जिंदगी कितनी
मेघ का टुकड़ा छोटा या बड़ा
सूरज को ढक नहीं सकता।

हे कवि हे महान्

शब्दों में दावानल भर दे
कालकूट सारा जल जाए
नागराज फन नाचे कन्हैया
वृंदावन निर्विष हो जाए
ऐसी झड़ी लगे सावन की
सारा मैल बहा ले जाए
ऐसा दीप जला दे मन में
सूरज से बातें कर पाए
जटा हटा निकले सुरसरिता
नीरक्षीर सागर हो जाए
डुबकी एक लगा यह दुनिया
नई नवेली फिर हो जाए।

दूसरी दुनिया

हरे-भरे पेड़ पौधों की
हँसती-हँसाती दुनिया
ओस की बूँदों सी जहाँ
टपकती रहती हैं खुशियाँ
गुलाबी अधरों पर खेलती
रहती है रेशमी मुसकान।
पवन के संगीत पर
झूमते हैं सब बड़े छोटे।
यह दुनिया शांतिनिकेतन है
गीतांजलि के बोल गूँजते
रहते यहाँ वातारण में
यहाँ भी संघर्ष करना
पड़ता है जीने के लिए
बीज को प्रस्फुटन के लिए
हवा-पानी और मिट्टी चाहिए
होड़ मची रहती है सूरज की
रश्मियों में बहती संजीवनी
ऊर्जा को पकड़ने के लिए
पर टाँग घसीटन नहीं होता
स्वावलंबी है अपना भोजन
बना लेते हैं अपने आप
जड़ों से खींच लेते हैं पानी
यहा दूसरों की थाली पर
नजर गढ़ाई नहीं जाती।
न कोलाहल न छीना-झपटी
न मारपीट न महाभारत
न कृष्ण को अवतरित
होने की जरूरत।

 

२४/डी के देवस्थली फेज-२
दाना पानी रेस्टोरेंट के पास
बाबडिया कला, भोपाल (म.प्र.)

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