मन चातक हुआ

मन चातक हुआ

सुपरिचित कथाकार। अब तक आठ कहानी-संग्रह, दो यात्रा-संस्मरण, एक वृहद उपन्यास, दस बालोपयोगी पुस्तकें, पुकार जगन्नाथ की (यात्रा-संस्मरण) प्रकाशित। छत्तीसगढ़ी राजभाषा सम्मान, न्यू कबीर सम्मान, राज्यपाल शिक्षक सम्मान, छत्तीसगढ़ रत्न, राष्ट्रपति पुरस्कार एवं साहित्य मंडल, नाथद्वारा से मानद उपाधि।

‘‘रे, ऐसे माँजो नऽ यार!'' उसने मूठा भर पैर में पहले मिट्टी, फिर घड़ी डिटर्जेंट पाउडर लगाया, फिर पूरी ताकत से लोहे की बड़ी वाली कड़ाही झाँय-झाँय करके माँजने लगा। भुजाओं की सारी श्‍क्ति वह इस काम में झोंक देना चाहता था। उसने अपने दाँत भींचकर अपनी भावनाओं को वश में करने की कोशिश की। उसका मुँह बिगड़ा और रक्त वर्ण नेत्रों से अश्रुधार बह चली, जो नाक से निकलने वाले पानी के साथ मिलकर काली तैलीय कड़ाही की कालिख में मिल गई।

“लाओ भइया, हम करते हैं, जब माँज लें तब देखना!’’ काले रंग का भील युवक जीवन उसे कड़ाही माँजते देखकर ‍ श्‍र्मिंदा हो गया था।

उसने अपने आस-पास निगाहें दौड़ाईं, चारों ओर जूठे पत्तल-दोने, डिस्पॉजल गिलास आदि पड़े हुए थे। टेंट वालों के बरतन साफ करवा रहा था वह। कल जहाँ शेर-शराबा था, बाजे-गाजे थे, आज वहाँ सन्नाटा पसरा हुआ था, जिसे बीच-बीच में वे लोग तोड़ते थे, जिन्हें अपना सामान लेना था। कई रातों से जगे लोग जहाँ-तहाँ कोंटा पकड़कर सो रहे थे। कहते भी हैं, “क्या तुम्हारे मड़वा का बिहान है, जो ऐसे सब सो रहे हैं?’’ नाम लेकर पुकारने पर भी कोई उठने का नाम नहीं ले रहा था। जिसे भूख लग रही है, वह स्‍वयं लेकर खा-पी ले रहा है, अभी-अभी दीना आया था अपना चौका-बेलन लेने, कल पूड़ी बेलने के लिए मोहल्ले वालों के चौके-बेलन आए थे आज लौटाने की गरज किसे है? एक वक्त का न्योता था तो क्या आज भी भूख नहीं लगेगी? वह चार बातें सुनाकर गया था। वह तो सुनाकर ही गया है, टेंट वाले, लाइट वाले, कैटरिंग वाले तो आज का भी बिल बना लेंगे, सालों के पास है कहाँ फूटी कौड़ी भी जो देंगे? इन्हें तो कोई किराए पर भी कुछ न दे। वह तो गजानन की अगुआई है, जो सारे सामान समय से पहले पहुँचा गए। जानते हैं, जो बनेगा उससे दो पैसा अधिक ही मिल जाएगा। वक्त-बेवक्त का सहारा बना रहेगा।

इन लोगों के विश्वास को बनाए रखने के लिए ही तो हिम्मत जुटाकर मोर्चे पर डटा था वह। सारा सामान एकजाई करा के उसने रास्ते की ओर देखा, अब आ जाए, जिसे आना हो। उसी समय टेंट वाले का ट्रैक्टर आ गया। वे जल्दी-जल्दी अपना सामान गिन-गिनकर ट्रॉली में रखने लगे। किसी को आवाज देना व्यर्थ था, सो उसने उसका बिल पेमेंट कर दिया। पाँच बज गए उसे मैदान साफ करते। उसने उदास नजरों से उस रास्ते को देखा, जिससे आज सुबह-सुबह शुभि

शुभि ‍गेंदे के फूलों से सजी कार में बैठकर मनोज के साथ चली गई थी। वैसे ही उसकी खूबसूरती का कोई जवाब नहीं है, उस पर दुलहन का रूप! सोने को मात देते रंग पर लाल कामदार साड़ी, जिसे उसने बनारस के कारीगर से ऑर्डर देकर बनावाया था। हीरे जड़ी बड़ी सी नथ, जिसे उसने इसी कजरी के समय उसके गाने पर मुग्ध होकर बनवा दिया था, नाभि के ऊपर झूलता चार लड़ी वाला हार, जिसे उसने उसके अठारहवें जन्मदिन पर तोहफे में दिया था, उसे एक अनजानी सी आशा ने अपनी गिरफ्त में ले लिया था, “अब तो ‍शुभि अपनी इच्छानुसार अपना जीवनसाथी चुन सकती है।’’

उसकी सोच कहीं से गलत नहीं थी, शुभि ने अपनी मर्जी से अपना जीवन साथी चुना, किंतु उसका चुनाव गजानन को पूरी तरह चाट गया। वह मोटा सा कंगन जो उसकी कलाइयों के बीच अपनी द्युति बिखेर रहा था, उसके बी.ए. पास होने की खुशी में उसने अपने हाथों से पहनाया था; उसे गर्व हुआ था अपनी किस्मत पर, भले ही उसके भाग्य में विद्या नहीं लिखी थी, किंतु उसके जीवन में कोई तो है, जो बी.ए. पास है। जिस सामग्री से ब्यूटिशियन ने उसे सजाया था, उस दस हजार के मैकअप बक्स को उसने ही तो खरीदकर दिया था। उसका सजा-सजाया रूप दुनिया की सारी सुंदरियों से उसे पृथक् करता था। मनोज के गले में पड़ी मोटी सी चैन उसने उसे पहली बार अपने घर आने की खुशी में दी थी, जमाने से स्त्री के संसर्ग के लिए तरसते उसके कमरे में जैसे बहार आ गई हो। उसकी भाभियाँ दौड़-दौड़कर शुभि की खातिरदारी कर रही थीं। उसके बेटे-बेटी उसकी बगल में घुसे जा रहे थे। उसे लगा था, जैसे वह हमेशा के लिए उसके घर आ गई है, उसने अपने गले से उतारकर चैन उसके गले में डाल दी थी।

“कहाँ जाने वाला है सोना? एक दिन अपना सबकुछ लेकर शुभि उसी के घर तो आने वाली है!’’ उसके मन के इतने अंदर से सोचा गया कि उसका सुखद आभास उसे भी बहुत हलका सा हो पाया, जैसे गरमी से व्याकुल दोपहरी में कहीं से ठंडी हवा का झोंका स्पर्श करता हुआ आगे बढ़ जाए। जिस लहँगे-चोली को पहनकर उसने मनोज के गले में जयमाला डाली थी, उसे तीस हजार में उसी ने दिलवाया था। सुनहरी कामदार चप्पलें उसने कानपुर से मँगवाई थीं, महँगे मैकअप को धोने वाली आँसू की धार उसी के लिए थी, वह जानता है। बस वह जो शुभि की माँग में दमक रहा है पीला सिंदूर! वही उसका नहीं था।

उसकी आहों को वह महसूस कर रही होगी, वह जानता है। पास आने का मौका तो बहुत मिला उसे, लेकिन उसे लगता था, जैसे छू लेने से वह मैली हो जाएगी। अलंकारों से अनजान होना उसे तब बहुत खलता था, जब वह उसकी उपयुक्त प्रशंसा न कर पाता था। जब बहुत प्यार आता, वह कोई भारी-भरकम उपहार देकर उसे प्रसन्न कर देता था। उसे उसका पहला स्पर्श आज भी याद है, वह घायल होकर उसके घर के एक कोने में पड़ा था। उसकी बाँह में गोली लगी थी। एक दिन पहले ही विधान सभा के लिए वोट पड़े थे। अपने पसंदीदा प्रत्याशी को जिताने के लिए अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर बूथ कैप्‍चर कर लिया था उसने। सारे बैलेट पेपर पर उन लोगों ने मोहर लगा दी। मतदाताओं को बीच में ही रोक दिया गया था। पोलिंग पार्टी मुँह बाएँ देख रही थी। व्यवस्था के लिए एक सिपाही था, जिसके हाथ में एक डंडा था, क्या कर लेता इन लोगों का? (उस समय आज की तरह सुरक्षा बल तैनात नहीं किया जाता था।)

एक गड़बड़ हो गई, विरोधी पार्टी वाले प्रत्याशी का भाई मारा गया। जैसे ही कांस्टेबल का मोबाइल खड़का, पलक झपकते ही पुलिस ने पूरा इलाका घेर लिया। शुभि के बाप नारायण ने गोबर ढोने वाले ठेले में लादकर रात के अँधेरे का लाभ उठा उठाते हुए उसे अपने दोस्त के घर में छिपा दिया। उसकी गोली निकालकर मरहम-पट्टी की। पूरे गाँव में पुलिस की घेराबंदी हो गई। हर घर की तलाशी ली जाने लगी। नारायण ने उस घर के दरवाजे पर आग जला दी और बैठकर तापने लगा। जैसे ही पुलिस वाले तलाशी लेने आए, तीन स्टार वाले के पैरों में गिर पड़ा, “हुजूर, मेरी बहू के बच्चा हुआ है, अंदर कैसे जाएँगे? परदे वाली मेरी बहू हुजूर, दया करें! जैसी मेरी इज्जत वैसी ही आपकी इज्जत!” वह रोने लगा। तभी अंदर से छोटे बच्चे के रोने की आवाज आई, जिसे सुनकर पुलिस पार्टी आगे बढ़ गई। अब यह तो संयोग था कि सचमुच उस घर में नव प्रसूता थी, जिसकी जानकारी नारायण को भी नहीं थी।

बाकी सारे आरोपी पकड़े गए थे। उसकी खोज जारी थी। माघ की ठिठुरती रात में नारायण उसी ठेले में सुलाकर उसे अपने घर अमलडीहा ले आया था। वहाँ वह ज्यादा सुरक्षित था। उसी के संकेत पर नारायण ने उसके घर वालों को समाचार पहुँचा दिया था, ताकि वे अग्रिम जमानत करवा सकें। उसे कई दिन रहना पड़ गया था इस घर के सबसे पिछले कमरे में। वहाँ पहुँचने के दूसरे ही दिन सुबह-सुबह आई थी वह उसके पास, अपने नन्हे-नन्हे कोमल हाथों से उसके माथे का स्पर्श करते हुए मीठे स्वर में पूछा था उसने, “चाचा! आपको बहुत दर्द है?’’ उसने आँखें खोलकर देखा था, बेसन की गुड़िया सी वह कजरारे नैनों वाली लड़की उसके सामने खड़ी थी। लगभग ग्यारह वर्ष की होगी उस समय शुभि। एक दम हलका सा बोध हा‘ने लगा था उसके स्त्रीत्व का। शायद अभी सोकर ही उठी थी, उसकी काली अलकें उसके गुलाबी गालों पर झूम रही थीं।

“पहले तो बहुत दर्द था, जब से शुभि बिटिया ने छुआ, दर्द एकदम से गायब हो गया।’’ उसने कुछ झूठ नहीं कहा था, उसके स्पर्श में अवश्य कोई जादू था। कुछ दिन में वह अच्छा होकर अपने घर चला गया। उसके भाइयों ने उसकी अग्रिम जमानत करा ली थी। लेकिन यह घर न छूट सका। परंतु हाँ, आज छूट गया, शुभि चली गई इस घर से। अब क्या करने आएगा यहाँ? उसने एक बार निगाहें उठाकर उस दरवाजे को देखा और डबडबाई आँखों से आँसुओं की धार बह चली।

“हाय मेरी माँ! अब कल से मैं क्या करूँगा? कैसे कटेगा मेरा दिन?’’ उसने लंबी आह भरी। सामान बटोरते लोग अपने हाथ रोककर उसे देखने लगे थे। वह बड़ी बेदर्दी से अपनी आँखें मल रहा था। जैसे गीले कपड़े निचोड़ रहा हो। वैसे ही रुमाल से उसने अपनी आँखें सुखाईं, जेब से बोरोप्लस का छोटा पैक निकालकर चेहरे पर लगाया, परंतु अपनी आँखों की सुर्खी नहीं ढँक सका।

“जिस लड़की की कल शादी हुई न ये उसे बहुत मानते थे। शादी का सारा खर्च इन्होंने ही वहन किया है, देख रहे हो न? माँ-बाप से भी ज्यादा रो रहे हैं।’’ काम करते लोग आपस में बातें कर रहे थे।

वह बिना किसी को बुलाए सबका हिसाब करता जा रहा था। “ले जा बेदर्दी पचीस-पचास हजार और ले जा! मेरे लिए तो अब दौलत का भी कोई अर्थ न रह गया। तेरे लिए ही तो इतनी मेहनत की, रात को रात और दिन को दिन न समझा। सोया तो तेरी नींद जागा तो तेरी याद लिये। रात को कौर उठाने से पहले तुझे फोन करता, शुभि ने खाना खा लिया न?’’

“हाँ चाचा! खा लिया, आप भी खा लो!’’

“सुबह के लिए क्या पसंद आएगा अभी बता दो!’’ वह मोबाइल कान से लगाए मुँह में कौर डालता।

“गुरुवार का व्रत है, चाचा!’’

“बस-बस समझ गया।’’ वह मोबाइल रखकर खाने लगता। नींद में भी रटता रहता सेव, संतरा, मौसंबी, पपीता, पेड़ा, बरफी, दूध; परसों सुबह के लिए आलू, गोभी, मटर, टमाटर, बाकी सब तो सब्जी वाला स्वयं ही भर देता है झोले में। दस बजे तक पहुँच जाना चाहिए उसे; भूख का जरा सा भी एहसास नहीं होना चाहिए शुभि को। फूल सी मुरझा जाती है। पहले वह मोटर स्टैंड जाकर गाडि़यों की व्यवस्था देखता, चार प्राइवेट बसें हैं उसकी। कई मुरुम खदानें उसने लीज पर ले रखी हैं। चौबीस घंटे उसके ट्रक नदी से रेत ढोते रहते हैं, ऊपर से नीचे सबकुछ सेट है। रातो-रात लाखों की रेत कहाँ-से-कहाँ पहुँच जाती है, किसी को पता नहीं चलता। अपनी तरक्की को भी वह शुभि की तकदीर मानता है। और क्या? जब उसकी बीवी जलकर मरी थी दो बच्चे छोड़कर, तब क्या था उसके पास पुस्तैनी खेती-बाड़ी के सिवा? और यदि कुछ था तो वह थी उसकी बदनामी।

“गजानन ने अपनी घरवाली को इतना सताया कि जल मरी बेचारी! अपने कुल का नाश करने के लिए जनमा है यह दुष्ट, पुलिस की हिरासत में कैसे जा रहा था, जैसे गौ वध किया हो, अब तो इससे डरकर रहना पड़ेगा, निहायत क्रूर इनसान है।’’ उसके पीछे और भी लोग न जाने क्या-क्या कहते होंगे, अपनी जमा-पूँजी लगाकर बाप ने बचाया था जेल जाने से। उस समय उसकी उम्र बीस के अंदर ही थी। पत्नी की भावनाओं की ओर उसने कभी ध्यान नहीं दिया था। जैसे अन्य लड़कियों से उसके उत्तरदायित्व विहीन संबंध बनते थे, वैसे ही पत्नी से भी बनते थे, बल्कि बेहद सुलभ और सुरक्षित संबंध थे उसके साथ। बच्चे होते गए, माँ-बाप के रहते उसे चिंता भी क्या हो सकती थी। अकसर वह देर रात घर पहुँचता, गालियाँ बकता, मीनू कुछ कहती तो उसे मारता-पीटता, कभी गरम खाना उसके ऊपर फेंक देता, वह अपना जला बदन दूसरों से छिपाती हुई दिन-रात घर के काम में लगी रहती। उसे विश्वास था कि वह कुछ सोचती नहीं, न उसकी कोई भावना है, न ही आवश्यकता। पाँच वर्ष के वैवाहिक जीवन में वह कभी उसकी पसंद की कोई वस्तु लेकर घर नहीं गया, न उसे लेकर कहीं घर से बाहर निकला। अचानक एक दिन उसने सदा के लिए संसार से नाता तोड़ लिया। जीते जी जो नहीं किया, वह मरकर गई, वह एक घृणित मनुष्य के रूप में पहचाना जाने लगा।

जैसे ही उसका मुकदमा खारिज हुआ, कुछ लोगों में उसकी पूछ-परख बढ़ गई। विधानसभा चुनाव के समय उसने बहुत पैसा बनाया किंतु बाप-भाई की आफत कर दी, बूथ कैप्‍चरिंग करके अपने प्रत्याशी को जिताया उसने, आगे लाभ मिला उसे अपना धंधा जमाने में, थाने में बैठे लोग उसे जानते हैं, उसकी पहुँच को जानते हैं।

काम में लगाने की अंतिम कोशिश के रूप में पिताजी ने एक ऑटो रिक्‍शा खरीद कर दिया था। देखो बेटा गजानन! तुम हुए सयाने, कब तक तुम्हारे बच्चों को पालेंगे? भाई-भतीजे किसी के अपने नहीं होते, यदि चार पैसे कमाकर लाओगे, तो कहीं-न-कहीं देखकर तुम्हारा घर फिर से बसा देंगे। वरना हमारे बाद तुम्हारा कौन होगा? मन लगाकर काम करोगे तो लक्ष्मीजी जरूर कृपा करेंगी। बूढ़े की आँखों के आँसुओं ने उसे कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया। उसी समय तो शुभि भी मिली थी न उसे। वह उसके लिए बहुत दौलत कमाना चाहता था। उसका दामन खुशियों से भरना चाहता था। आगे उसने हर साल एक नई गाड़ी खरीदी। उसके ऊपर दोहरा नशा छाया हुआ था, एक शुभि के सौंदर्य का दूसरा दौलत का।

समय की रफ्तार को वह जैसे भूल सा गया। धीरे से दिन ढला और रात की स्याही ने सब कुछ ढँक लिया। कल तो यहाँ रोशनी जगमगा रही थी। बाजे बज रहे थे। नहीं-नहीं, शादी में डेढ़-दो हजार लोग जुटे थे। उसने सैकड़ों प्रकार के व्यंजन बनवाए थे। आगे बढ़-बढ़कर घरातियों-बरातियों को सँभाल रहा था। सब कह रहे थे, गाँव में इतनी शानदार शादी किसी की नहीं हुई। गजानन बड़ा पुण्यात्मा व्यक्ति है, जिसने एक गरीब की बेटी का उद्धार कर दिया। जिसे मानता है, उसे पूरे दिल से मानता है। लोग आपस में बातें कर रहे थे।

वह एकांत पाकर रोता, यदि कोई अकेला मिल जाता तो उसे अपने गम का साक्षी बना लेता। अम्मा, मेरे साथ भयानक धोखा किया इन पापियों ने, मेरे बीसो लाख खा गए, और लड़की दूसरे के हाथ सौंप दी, जिसे सौंपा है, उसके पास है क्या, जो लड़की को सुखी रखेगा? मैंने फूल की तरह रखा उसे। जरा सी गरम हवा न लगने दी। इसके मुँह से बात बाद में निकलती, मैं पूरा पहले करता। कहा कई बार इन मलेक्छों को कि लड़की मेरे यहाँ कर दो, तुम्हारे परिवार का उद्धार कर दूँगा। एक जो इसका भाई है, अरे वही जो लफुट जैसे घूमता रहता है! उसे कोई दुकान खुलवा देता परंतु इनकी समझ में कुछ नहीं आया। मेरी हाय लगेगी इन्हें। अगले जन्म तक भरेंगे मेरा कर्ज, जो कुछ दिख जाता, उसी से वह अपने आँसू पोंछता। मुँह धोकर बोरोप्लस लगाता और हलवाइयों को कोई निर्देश देने लगता।

“आप कोर्ट मैरिज कर सकते थे, आपको रोकने वाला भला कौन माई का लाल है? लड़की भी पूरे पच्चीस की है।’’ उसके आँसू से द्रवित होकर शुभि के किसी रिश्तेदार ने प्रश्न किया था। वह क्या उत्तर देता कि शुभि ने स्वयं अपने लिए जीवनसाथी चुन लिया। फेसबुक पर मित्रता हुई और परछाइयाँ साकार होकर एक-दूसरे की होने के लिए मचल उठीं। पहले जहाँ हर आधे घंटे में वह उसे फोन लगाती थी, इधर साल भर से जब भी वह फोन लगाता, बिजी पाता। वह बहाने करना सीख गई थी। अब बातें मात्र फरमाइश तक सिमटकर रह गईं।

“चाचा, गरमी से बुरा हाल है, लाइट बार-बार चली जाती है।’’

“इनवर्टर लेकर आ रहा हूँ, घर पर ही रहना!’’ वह सामान लेकर पहुँच गया एक घंटे में। इनवर्टर लग गया। शुभि की माँ चाय-नाश्ता दे गई, जिसे उसने हाथ भी न लगाया। बार-बार आँखें दरवाजे की ओर उठ जातीं, शुभि की एक झलक पाने के लिए। जब न रहा गया, तब उसकी माँ से पूछ बैठा, “शुभि दिखाई नहीं दे रही है?’’

“सो रही है भइया, रात को मच्छरों के कारण सो नहीं पाई थी, जगा दूँ क्या?’’

“अरे नहीं-नहीं, बेचारी की नींद उचट जाएगी! मैं तो आता ही रहता हूँ।” कहते-कहते उसके स्वर में पीड़ा उतर आई थी।

“भाभी! मुझे आप से एक बात कहनी थी।’’ संकोच के मारे उसका स्वर बैठा जा रहा था। स्वर में थरथराहट उभर आई थी।

“हाँ भइया, कहें!’’

“मैं चाहता हूँ कि शुभि मेरे घर जाए!’’

“इसमें कौन सी बड़ी बात है, चली जाएगी।’’ उसने जान-बूझकर नासमझ बनते हुए कह दिया।

“ऐसे नहीं भाभी! हमेशा के लिए!’’

“ए तो और अच्छी बात है, हमारा भार उतर जाएगा।’’ वह उसकी बात हलके में ले रही थी।

“अब आप को कैसे समझाऊँ, समझ में नहीं आता।’’ उसकी निगाहें झुकी जा रही थीं।

“समझ रही हूँ, आपने उसे बड़े प्यार से पाला है, काम न करना पड़े, इसलिए नौकरानी लगा रखी है। अपनी आँखों के सामने रखना चाहते हैं परंतु एक बात समझ में नहीं आई, आप का बेटा तो शुभि से छोटा है, फिर कैसे शुभि आपके घर में सदा रह सकती है भइया? बेटियाँ तो पराया धन होती हैं न?’’ उसने ऐसे समझाया कि वह कुछ कह ही न सका।

“हैलो! शुभि बोल रही हो?’’

“हाँ चाचा! दशहरी आम आ गए हैं बाजार में, मेरा केश किंग और मैकअप का सामान भी समाप्त हो गया है।’’

“चली आओ, दिला देता हूँ सबकुछ।’’

“कैसे आऊँ, ऑटो से?’’

“अरे नहीं! मैं आ रहा हूँ न गाड़ी लेकर।’’ वह उत्साहित हो गया।

“कहीं जाने का मूड नहीं है, चाचा? आप किसी से भेज दीजिए सामान!’’ उसकी उदासीन आवाज सुन कर उसके उत्साह पर पानी फिर गया।

“मैं देख रहा हूँ शुभि कि आजकल तुम मुझसे दूरी बनाकर चल रही हो, क्या मुझसे सेवा में कुछ कमी हो गई?” उसकी आवाज रुआँसी हो गई थी।

“चाचा! आप हर वक्त पीए रहते हैं न, इसीलिए। मुझे शाराबी लोग पसंद नहीं हैं।’’ उसके स्वर का रूखापन उसे अंदर तक चीर गया। अब तक तो कभी ऐसी बात नहीं कही शुभि ने! उसका बाप भी तो हरदम डूबा रहता है। शुभि के सान्निध्य की चाह में उसने न जाने कितनी शाराब पिला दी नारायण को।

‘अब तक तो चाचा से अच्छा कोई था ही नहीं, अब चाचा शाराबी हो गया?’ उसने स्वयं से जैसे पूछा। उसकी आँखों में आँसू भर आए, उसकी शुभि ने उसे शाराबी कह दिया। दिल में पीड़ा का सैलाब उमड़ पड़ा।

“जब नादान थी, तब की बात अलग थी, अब पढ़-लिख गई, समझदार हो गई, मेरा भला चाहती है, तभी तो कहा है, जिसके मन में प्रेम न होगा, उसे क्या गर्ज है कहने की? अपनी शुभि की खुशी के लिए आज से शाराब से तौबा! छोड़कर बताऊँगा। उसके अंदर एक प्रकार की चुनौती स्वीकारने की भावना का उदय हुआ। शाराब के कारण ही तो उसकी पत्नी बच्चों का मोह छोड़कर उससे दूर चली गई। कितनी जगह झगड़ा हुआ? कितने मुकदमें चले? वह याद करने लगा। यों तो आदत बड़ी पुरानी हुई, लेकिन शुभि की खुशी के लिए वह छोड़ देगा शाराब!’’ उसने प्रतिज्ञा की।

कई दिन वह घर से बाहर नहीं निकल सका। जी मिचलाता, दिमाग कुछ काम न करता, शाराब की गंध उसके मन-मस्तिष्क में तारी रहती। वह पागल की तरह लंबी दूरी तय करता तेज चाल चलकर। चार बार नहाता, हनुमानजी की पूजा करता। घर वाले हैरान थे कि यह क्या हो गया इसे। अचानक इस परिर्वतन का कारण कोई नहीं समझ सका।

पंद्रह दिन बाद उसने शुभि को फोन किया।

“कैसी हो शुभि? इतने दिन तुम्हें मेरी याद भी न आई?’’ वह जैसे कराह रहा था।

“ठीक हूँ, चाचा! मुझे लगा, आप मेरी बात से नाराज हो गए।’’

“इसीलिए तो मनाने आ गई?’’

“मैं जानती थी, आप अधिक दिन नाराज नहीं रह सकते थे, इसीलिए चुप थी।’’

“कुछ लाना है क्या? मैं उधर ही आ रहा हूँ।’’

“आइए! एक नए मेहमान से भेंट कराती हूँ। कुछ फल-मिठाइयाँ आ जाएँ।”

“तो अच्छा हो।’’

कौन हो सकता है नया मेहमान? हर एक पल बाद यह सवाल उसके जेहन में उथल-पुथल मचाने लगा था। सब से पहले वह नाई के यहाँ गया, उसने नए चलन के अनुसार बाल कटवाए, कलर करवाया। क्लीनशेव चेहरा खिल उठा। उसने नई टी शार्ट और जिंस पहना। स्टाइलिश जूते खरीदकर पहने। उसने आइना नहीं देखा, शुभि की आँखों में वह अपनी छवि देखना चाहता था। अपनी मोटर साइकिल में उसने दो बड़े झोले लटकाए, एक में ताजे फल और दूसरे में मिठाइयाँ थीं। उस दिन वह अपने मन की बात शुभि को बता देना चाहता था।

शाम का झुटपुटा! लोगों ने अपने-अपने दरवाजे पर आग जला रखी थी, अलाव के धुएँ के साथ मिलकर रसोई घर का धुआँ एक धुंध का निर्माण कर रहा था। अकसर वह इसी समय यहाँ आया करता था। उसने अपनी मोटरसाइकिल नारायण के दरवाजे पर खड़ी की। एक बच्चा दौड़कर आया और दोनों झोले ले गया। वह अंदर आया। आँगन में खाट बिछी हुई थी, उस पर एक दरम्याने कद का युवक बैठा हुआ था। शुभि उसके साथ बैठी हँस-हँसकर बातें कर रही थी। उसने सहज ढंग से गजानन का स्वागत किया। युवक का परिचय कराते हुए उसने कहा, “ये मेरे मित्र हैं चाचा, मनोज नाम है इनका, हैदराबाद में सर्विस करते हैं। पहले फेसबुक मित्र बने, अब आमने-सामने की दोस्ती हो गई। मेरे साथ ही घर-परिवार से मिलने आए हैं। और मनोज! ये मेरे सबसे प्यारे चाचा हैं गजानन शुक्ल, अब इतने से ही समझ लो कि मैं इन्हें अपने पापा से अधिक मानती हूँ!’’ मनोज ने प्रणाम किया। उसके मुँह से आशीर्वाद का कोई शब्द न निकला। शुभि की सहज ढंग से कही गई बात उसके सीने में अलाव जला रही थी। ‘उसने देर तो नहीं कर दी अपनी बात कहने में?’ उसे लगा, मनोज का आज रात रुकने का प्रोग्राम है, इस विचार से वह और व्यथित हो रहा था। अपनी बात कहने का यह उचित अवसर भी तो नहीं था। दस बजते न बजते मनोज फिर मिलने का वादा करके चला गया। वह हर पल सोच रहा था कि शुभि उसके नए गेटअप की ओर ध्यान दे।

“हाय चाचा! आज तो एकदम हीरो लग रहे हैं, अब ऐसे ही रहा करें! सब कुछ होते हुए भी रूप बनाए रहते हैं ।’’ शुभि ने प्यार भरी नजरों से देखा, वह निहाल हो उठा।

“तुम जैसे रखोगी, वैसे ही रहूँगा शुभि, और मेरी परीक्षा न लो, मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ।’’ वह एक ही साँस में अपने मन की बात कह गया। सुनकर एक पल को शुभि काठ हो गई किंतु दूसर ही पल ठठाकर हँस पड़ी, “आज तो अच्छे मजाक के मूड में हैं चाचा, कहीं चाचा भतीजी की शादी होती है? मुझे विदा करने के दुःख से ऐसा कह रहे हैं न? मैं समझ रही हूँ।’’

“मैं मजाक नहीं कर रहा शुभि, हमारा कोई खून का रिश्ता नहीं है, सभी लड़कियाँ चाचा कहती रहती हैं, इससे कोई किसी की बेटी नहीं हो जाती। मैं शुरू से ही तुम्हें जीवनसाथी के रूप में देख रहा हूँ।’’

“नहीं चाचा! ऐसा कभी मत कहना! मैं आपकी बेटी की उम्र की हूँ, फिर आप ने हमेशा मुझे बिटिया कहा है। संसार क्या कहेगा? कितनी बदनामी होगी आपकी? ऐसा होने से पहले मैं अपनी जान दे दूँगी चाचा!’’ वह रोती हुई कमरे में भाग गई थी।

“नहीं शुभि, ऐसा कभी न सोचना! मैंने तो मजाक किया था, मैं तो तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। शुभि! तुम जहाँ चाहोगी मैं स्वयं वहाँ तुम्हारी शादी करूँगा।’’ वह रोता हुआ यहाँ से निकला था।

उसके बाद से वह ज्यादातर रिश्तेदारों के यहाँ रहने लगी। जहाँ जाकर वह उसे नहीं देख सकता था। जब वह सुनता कि शुभि आई है, उसकी जरूरत का सामान लेकर दौड़ा आता। उसे हँसाता। अपने जीते जी वह उसे किसी अभाव में कैसे रहने दे सकता था।

“हाँ! अपनी मजाक बन गई जिंदगी का तमाशा देखने अब क्यों आएगा इस दरवाजे पर? बस हो गया!’’ उसने एक उच्छ्वास ली। अब तक मैदान साफ हो चुका था। कुछ कुत्ते अभी भी कचरे के पास आपस में लड़ते कुछ खोज रहे थे। वह घर जाने के लिए मोटर साइकिल उठा ही रहा था कि भाभी आँखें मलती बाहर आ गईं।

“भइया! जो आपने कर दिया, संसार में कोई नहीं कर सकता। हमारी हर तरह से इज्जत रखी। कुछ पानी-वानी पीकर जाओ! पूरा दिन अकेले काम में लगे रहे, हम दाना-पानी भी नहीं पूछ सके।’’ उनकी आँखें अधिक रोने के कारण सूजी हुई थीं।

“नहीं भाभी! कुछ मत लाइए! भूख-प्यास सब शुभि के साथ ही चली गई।” कहते-कहते गला रुँध गया। लाल-लाल आँखों से खारा जल बह चला।

“आते रहना भइया! हमारी गलतियों को माफ कर देना।’’

‘आना तो है ही, नहीं तो शुभि की बदनामी न होगी? लोग कहेंगे, लड़की के लिए ही आता था।’ उसने मन-ही-मन कहा। अभी गाड़ी स्टार्ट हुई ही थी कि उसे चक्कर आया और गाड़ी का एक्सीलेटर उसके हाथ से छूट गया।

 

बी-२८, हरसिंगार, राजकिशोर नगर
बिलासपुर (छ.ग.)
दूरभाष : ०९९०७१७६३६१

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