राजस्‍थान के तीर्थ-दर्शन

राजस्‍थान के तीर्थ-दर्शन

सुपरिचित लेखज़्-संपादज़्। बुलंदशहर (उ.प्र.) के मीरपुर-जरारा गाँव में जन्म। देसी चिज़्त्सि लेखन में विशेष दक्षता। जीवनोपयोगी जड़ी-बूटियाँ’, ‘स्वास्थ्य के रखवाले’, ‘सचित्र जीवनोपयोगी पेड़-पौधे’, ‘घर का डॉक्टर’, ‘स्वस्थ जैसे रहें?’ तथा शुद्ध अन्न, स्वस्थ तनजृतियाँ चर्चित। साहित्य मंडलनाथद्वारा द्वारा संपादज़्-रत्नकी मानद उपाधि। संप्रति सवेरा न्यूज’ (साप्ताहिज़्) ज़ संपादन एवं आयुर्वेद पर स्वतंत्र लेखन।

 

 

 

१३ मार्च, 2020, शुक्रवार की सायं को हम चार जन—मैं, मेरी श्रीमतीजी, बेटी रिचा तथा छोटा बेटा पीयूष चेतक एक्सप्रेस में सवार हुए और तड़के सवा पाँच बजे चित्तौड़गढ़ स्टेशन पर उतर गए। यहाँ कँपाने वाली ठंड है, क्योंकि एक दिन पूर्व इस पूरे अंचल में बारिश और ओलावृष्टि हुई थी। स्टेशन के प्रतीक्षालय में दैनिक क्रिया से निवृत्त हो तैयार हो गए। प्रातः सात बजे ही हमारे पूर्व परिचित केशवराज का ड्राइवर साथी हमसे मिला कि आप तैयार हो जाइए, तब तक केशवभाई पहुँच रहे हैं। इस बीच हमने वहीं चाय-नाश्ता किया और फिर मैंने दोनों बच्चों को रेलवे स्टेशन की दीवारों पर बने चित्र दिखाए, जो मेवाड़ के रणबाँकुरे राणाओं की गौरव-गाथा बयाँ कर रहे हैं। आठ बजे के करीब केशवभाई आ गए, प्रणाम-पाती हुई। फिर मैंने उन्हें ‘साहित्य अमृत’ का फरवरी अंक दिया, जिसमें पिछली यात्रा के वर्णन में उनका काफी जिक्र आया है। इसे देखते ही केशवभाई की खुशी का पारावार न रहा। वे अपने सब ड्राइवर साथियों को दिखाने लगे कि इस आर्टिकल में सर ने मेरे बारे में लिखा है। केशवभाई बड़े ही मिलनसार और सहज व्यक्ति हैं।

मैंने केशव को अपना कार्यक्रम बताया और खर्च के बारे में पूछा। केशवभाई कहने लगे—सर, आप जो भी देंगे, मैं खुशी से ले लूँगा। मैंने कहा कि हर बात में स्पष्टता रहनी चाहिए, आपको नुकसान नहीं होना चाहिए। सकुचाते हुए केशव ने 1800 रुपए का खर्च बताया। तब हम अपना सामान रख तुरंत ऑटो में बैठ गए। केशव ने कहा, सर रूट के हिसाब से पहले आपको आवरी माता, साँवलिया सेठ मंदिर, फिर शनिदेव का मंदिर दिखाता हूँ। यहाँ से लौटकर आपको चित्तौड़गढ़ का किला दिखाऊँगा।

चाय-नाश्ता तो कर ही लिया था। अब हमारा ऑटो चित्तौड़ को छोड़ भदेसर मार्ग पर असावर गाँव की ओर दौड़ने लगा। ऑटो में ठंडी हवा लग रही है, सो बच्चों ने शॉल ओढ़ ली, मैंने भी मफलर से कान कस लिये। जब तक हम मंदिर पहुँचें, तब तक मैं आपको चमत्कारी आवरी माता के विषय में वह सब बताता हूँ, जो केशव ने हमें बताया।

आवरी माता का मंदिर राजस्थान के भदेसर जिले में चित्तौड़गढ़ स्टेशन से करीब 38 किमी. की दूरी पर है। यह राजस्थान के प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। कहा जाता है कि आसावर गाँव में स्थित यह मंदिर 750 वर्ष पुराना है। इस मंदिर के बारे में एक लोककथा प्रचलित है कि भदेसर में आवाजी नाम के एक जमींदार थे। उनके सात बेटे और एक बेटी थी। बेटी का नाम ‘केसर’ था। बचपन से ही वह पूजा-पाठ में निमग्न रहती थी। जब वह विवाह योग्य हुई तो जमींदार ने अपने सातों बेटों को केसर के लिए सुयोग्य वर खोजने के लिए भेजा। सातों भाई अलग-अलग दिशा में अलग-अलग गाँवों में गए और अपनी-अपनी समझ से योग्य वर देखकर विवाह पक्का कर आए। विवाह की तैयारियाँ होने लगीं। सातों जगह से एक ही दिन बारातें आ रही थीं। कन्या केसर बड़ी चिंतित थी। कुछ उपाय न देखकर उसने कुलदेवी की आराधना की कि इस मुसीबत से मुक्ति दिलाएँ। ठीक विवाह वाले दिन धरती फटी और केसर उसमें समा गई।

बेटी को धरती में समाते देख पिता ने दौड़कर बेटी का पल्लू पकड़ लिया। इससे नाराज होकर केसर ने पिता को लूला हो जाने का शाप दे दिया। बाद में शाप से मुक्ति के लिए पिता ने इस मंदिर का निर्माण कराया, जो आज ‘आवरी माता’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस मंदिर में मनोकामना तो पूरी होती ही है, पर यह मंदिर पक्षाघात से पीड़ित रोगियों के इलाज के लिए ज्यादा प्रसिद्ध है। दैनिक आरती में सब रोगी तथा उनके तीमारदार शामिल होते हैं। पक्षाघात से प्रभावित अंग पर मलने के लिए रोगियों को मंत्रों और पवित्र रागों से सिद्ध किया तेल दिया जाता है। आवरी माता की पूजा-अर्चना से रोगी के पीड़ित अंग ठीक हो जाते हैं, तब बहुत से रोगी श्रद्धा और समर्पण से चाँदी या सोने का उक्त अंग बनवाकर माता को अर्पण करते हैं। मंदिर प्रातः साढ़े पाँच बजे से रात्रि दस बजे तक खुला रहता है। हनुमान जयंती तथा नवराते यहाँ धूमधाम से मनाए जाते हैं।

अब हम भी आवरी माता के मंदिर के पास आ पहुँचे हैं। केशव ने ऑटो सड़क किनारे खड़ा कर दिया, फिर बोला, ‘सर, आप दर्शन करके आइए, मैं आपको यहीं मिलूँगा।’ अभी प्रातः का समय है। इस मंदिर के परिसर में आगे बढ़ते हैं। कोई-कोई दुकानदार अपनी परसाद की दुकानें सजा रहे हैं। मंदिर तक जाने वाला रास्ता काफी चौड़ा है; यहाँ पेड़-पौधे पर्याप्त संख्या में हैं। पटरी पर परसाद लगाए एक बहिन से परसाद लिया; जिसमें नारियल, सिंदूर, चूड़ियाँ, चुनरी आदि हैं। अपने जूते-चप्पल हमने यहीं उतार दिए। आगे बढ़कर मंदिर की ड्योढ़ी पर दंडवत् किया। प्रवेश द्वार से आगे ही माता का छोटा सा मंदिर है। थोड़ी ऊँची बड़ी खिड़की से इसमें प्रवेश किया। माता की मूर्ति मंदिर के मुख्य भाग में बाईं दीवार के साथ विराजमान है, जिसे फूलों और स्वर्णाभूषणों से सजाया गया है। श्रीमतीजी ने मुख्य पुजारीजी के द्वारा माता को पूजा-सामग्री भेंट की, पुजारीजी ने उन्हें प्रसाद दिया। फिर हम सब ने माता को दंडवत् प्रणाम किया। मंदिर के चहुँओर रैलिंग की गैलरी बनी है। मंदिर के दोनों ओर लंबे बरामदों में पक्षाघात के मरीज तथा उनके तीमारदार ठहरे हुए हैं। कुछ रोगी प्रभावित अंगों का व्यायाम कर रहे हैं। आस्था ऐसी है कि रोगी यहाँ से ठीक होकर ही जाते हैं।

मंदिर में माता के दर्शन के बाद गैलरी से होते हुए नीचे की ओर सीढ़ियाँ उतरती हैं, जहाँ एक विशाल तालाब है, इसे बेहद पवित्र माना जाता है। इसमें बड़ी संख्या में मछलियाँ अठखेलियाँ कर रही हैं। यहाँ आने वाले दर्शनार्थी इनको कुछ-न-कुछ जरूर खिलाते हैं। श्रीमतीजी ने इनके लिए चने खरीद लिये, जो हम सब ने मछलियों को खिलाए। जैसे ही दाने पानी पर गिरते हैं, बस मछलियों में छीना-झपटी होने लगती है, पानी में भारी हलचल पैदा हो जाती है। मछलियों का यह खेल कौतुक भरा है। तालाब के ही किनारे रामभक्त हनुमान की सुंदर मूर्ति स्थापित है। हम सब ने संकटमोचक को दंडवत् प्रणाम किया। बेटी रिचा ने यहाँ के कुछ फोटो भी उतारे। मैं देख रहा हूँ, ऊँची-नीची पहाड़ियों और झरनों की खूबसूरती के बीच यह मंदिर बड़ा ही मनभावन लग रहा है। यहाँ पक्षाघात के सैकड़ों मरीजों का इलाज हो रहा है। वास्तव में यह बड़ा चमत्कारी और सिद्ध मंदिर है। बाहर आने के लिए मंदिर के बाईं ओर से रास्ता है। हम लोग पुनः-पुनः दंडवत् कर केशव के पास लौट आए और ऑटो में बैठ आगे के लिए चल पड़े।

अब हमारा ऑटो चित्तौड़गढ़-उदयपुर राजमार्ग पर मंडफिया गाँव की ओर दौड़ रहा है तो हम आपको साँवलिया सेठ (भगवान् कृष्ण) के मंदिर के बारे में कुछ बताते चलते हैं। साँवलिया सेठ का मंदिर चित्तौड़गढ़ से चालीस किमी. दूर चित्तौड़गढ-उदयपुर राजमार्ग पर भदेसर कस्बे के पास मंडफिया गाँव में स्थित है। मंदिर के बारे में कहा जाता है कि आज से लगभग साढ़े चार सौ साल पहले, 1840 ई. के आसपास यहाँ के भोलाराम गुर्जर नाम के ग्वाले को एक रात्रि को स्वप्न में भदेसर के पास चापड़ गाँव में तीन मूर्तियाँ दिखाई दीं। ग्वाले के बताए स्थान पर जब खुदाई की गई तो वहाँ भगवान् कृष्ण की तीन सुंदर मूर्तियाँ निकलीं। इनमें से एक मूर्ति को मंडफिया गाँव में, दूसरी को भदसोड़ा तथा तीसरी को चापड़ गाँव में स्थापित कर दिया गया। इन तीनों स्थानों पर इनके मंदिर हैं और तीनों ही ‘साँवलिया सेठ के मंदिर’ कहलाते हैं। ये तीनों एक-दूसरे से पाँच किमी. के दायरे में स्थित हैं। बड़ी संख्या में कृष्णभक्त यहाँ दर्शनार्थ आते रहते हैं।

साँवलिया सेठ मंदिर ट्रस्ट ने मंडफिया में स्थित मंदिर का पुनर्निर्माण कराया, जो आज ‘साँवलियाजी धाम’ कहा जाता है। परंतु पहली बार इसका निर्माण मेवाड़ राजपरिवार द्वारा कराया गया था। साँवलियाजी भगवान् भक्त मीराबाई के वही गिरधर गोपाल हैं, जिनकी वे प्रेम दीवानी थीं। यह धाम वैष्णव भक्तों का पवित्र तीर्थ बन गया है। यहाँ भक्तों की मन-वांछा पूरी होती है, कोई इनके दरबार से खाली हाथ नहीं लौटता है। मंदिर में हमेशा निर्माण-कार्य चलता रहता है। वास्तुकला और शिल्पकारी का यह अद्भुत उदाहरण है। गुजरात के अक्षरधाम मंदिर की तर्ज पर बना यह मंदिर उससे कहीं भव्य और विशाल है। भगवान् साँवलियाजी के बारे में भक्तों में ऐसा विश्वास है कि भक्त साँवलिया सेठ को जितना ज्यादा भेंट करते हैं, वे उसका खजाना कई गुना भर देते हैं। अनेक भक्त अपनी खेती तथा व्यापार में साँवलिया भगवान् का हिस्सा रखते हैं; ऐसे भक्त हर माह आकर भगवान् को उनका हिस्सा भेंट कर जाते हैं। इतना ही नहीं, साँवलिया सेठ के विदेशी भक्त भी हैं, जो विदेशों में अर्जित अपनी आय से भगवान् का हिस्सा उन्हें भेंट करते हैं।

इन भक्तों के द्वारा भारतीय रुपए के अलावा अमरीकी डालर, पाउंड, रियाल, दीनार और नाइजीरियन नीरा के साथ कई अन्य देशों की मुद्रा मंदिर में भेंट-स्वरूप आती है। साँवलिया सेठ की ऐसी मान्यता है कि देश के कोने-कोने तथा विदेशों से हर वर्ष लगभग एक करोड़ भक्त दर्शनार्थ यहाँ आते हैं। यहाँ के पुजारियों की मानें तो करीब साढ़े आठ से नौ लाख तीर्थयात्री और श्रद्धालु हर माह दर्शन करने आते हैं। साँवलिया मंदिर ट्रस्ट इस मंदिर की ही देखरेख नहीं करता है। इसके द्वारा शहर में अस्पताल तथा विद्यालय चलाए जा रहे हैं। मंदिर को मिलने वाली दानराशि ट्रस्ट द्वारा शिक्षा, स्वास्थ्य, धार्मिक आयोजन, मंदिर विकास और मूलभूत सुविधाओं पर खर्च की जाती है। इतना ही नहीं, यह मंदिर ट्रस्ट मंडफिया के आसपास के सोलह गाँवों में विकास कार्य भी इसी राशि से करवा रहा है।

इस मंदिर में एक अनोखी व्यवस्था है कि साँवलिया सेठ मंदिर का भंडारा हर महीने अमावस्या के एक दिन पहले चतुर्दशी को खोला जाता है। इसके बाद अमावस्या का मेला शुरू हो जाता है। दीपावली के अवसर पर यह भंडारा दो माह तथा होली पर डेढ़ माह तक चलता है। बहुत से भक्त मंदिर में रसीद कटवाकर एक नंबर का रुपया दान कर जाते हैं और यह दान राशि लाखों में होती है। केशव ने बताया कि जनवरी माह में जो भंडारा खुला तो उसमें 66 लाख रुपए की दानराशि आई थी। इस राजमार्ग पर प्रशासन द्वारा लगाया गया हरा बोर्ड दिखाई पड़ रहा है कि ‘साँवलिया सेठ मंदिर के परिसर में आपका स्वागत है।’ मंदिर के स्वर्ण-मंडित शिखर पर फहराता भगवा ध्वज दूर से ही दिखाई पड़ रहा है। मंदिर से दूर, जहाँ मंदिर परिसर में सिलसिलेवार दुकानें बनी हैं, वहीं केशव ने ऑटो सड़क किनारे खड़ा कर दिया और बोला, ‘सर, इधर से आप लोग दर्शन करने जाइए। लौटते में चौक पर दुकान से यहाँ का लड्डू और मठरी खरीदना मत भूलिएगा।’ अच्छा, कल सवेरे फोन पर श्याम भाईजी ने भी यहाँ के लड्डू और मठरी की प्रशंसा की थी।

मैं देख रहा हूँ, मंदिर की किलेनुमा चहारदीवारी किलोमीटरों में फैली है। मंदिर के मुख्य द्वार तक आने-जाने के लिए दो चौड़े पक्के रास्ते हैं। जहाँ से मंदिर का रास्ता शुरू होता है, चौक पर फूलमाला, प्रसाद, खान-पान, कॉस्मेटिक्स तथा अन्य चीजों की दुकानें सजी हैं। यहीं से फूलमाला, अगरबत्ती, मिसरी आदि का प्रसाद ले लिया गया। जब हम लोग मंदिर के प्रवेश द्वार पर पहुँचे तो देखा, यहाँ किसी तरह का प्रसाद नहीं चढ़ता है और न ही अंदर ले जाने दिया जाता है। लेकिन प्रसाद बेचने वाले दुकानदार दर्शनार्थियों से प्रसाद ले जाने का बार-बार आग्रह करते हैं। प्रवेश-द्वार पर तैनात सुरक्षा गार्ड प्रसाद लेकर वहाँ रखे टब में गिरा दे रहा है। खैर, मंदिर के प्रवेश-द्वार से आगे बढ़े। भीमकाय नक्काशीदार खंभों पर टिका विशाल हॉल नीचे संगमरमर का फर्श, जो हाल ही में बनकर तैयार हुआ है। इसकी भव्यता और सुंदरता देख दर्शनार्थी यहीं फोटो खींचने में रम जाते हैं।

इस हॉल के अंदर के दोनों सिरों पर प्रसाद के काउंटर हैं। यहाँ से बाईं ओर मुड़कर विशाल लंबा बरामदा है, जो मुख्य मंदिर तक जाता है। इसमें कलात्मक खंभे तथा नक्काशीदार पत्थर की जालियाँ, इनके बीच-बीच में दीवार पर जगह-जगह कृष्णलीला की सुंदर झाँकियाँ काँच-मंडित तसवीरों में शोभायमान हैं। बरामदों में दोनों ओर स्त्री-पुरुषों के लिए प्रसाधन सुविधा है। मुख्य मंदिर के विशाल गुंबद के नीचे गर्भगृह में भगवान् साँवलिया सेठ (कृष्ण भगवान्) की स्वर्ण-आभूषणों से सज्जित मूर्ति विराजमान है। पंक्तिबद्ध श्रद्धालु दर्शन करते हुए आगे बढ़ते जा रहे हैं। मंदिर की व्यवस्था में लगे पुजारी भी उन्हें आगे बढ़ाते जाते हैं, जिससे छोटे-बड़े सभी को भली प्रकार दर्शन हो सकें। स्वर्ण-रजत की आभा से देदीप्यमान भगवान् कृष्ण की नयनाभिराम झाँकी अपने आकर्षण में बाँध लेती है। गर्भगृह के ठीक सामने अनेक कलात्मक और लकदक करते खंभों पर खड़ा विशाल मंडप है, यहाँ से भी भगवान् के दर्शन किए जा सकते हैं। यहाँ सैकड़ों तीर्थयात्री मंदिर को पार्श्व में लेकर फोटो खींच रहे हैं; वीडियो क्लिप बना रहे हैं। यहाँ बड़ी ही चहल-पहल और हर्षातिरेक का वातावरण है। बेटी रिचा और पीयूष ने भी खूब फोटो खींचे। दोनों भाई-बहन बहुत प्रफुल्लित हैं।

इस मंडप के ठीक सामने विशाल लॉन है, जिसमें हरी घास और फुलवारी करीने से लगाई गई है। यह लॉन चार भागों में बँटा है। इसके पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण संगमरमर के रास्ते हैं। मुख्य मंदिर के सामने थोड़ा बाईं ओर गणेश, शिव तथा चामुंडा माता के छोटे-छोटे मंदिर हैं। मंदिर की सुंदरता और भव्यता बेमिसाल है। मंदिर से बाहर आने के लिए वैसा ही भव्य बरामदा है, जैसा कि अंदर आने के लिए है; यहाँ भी कृष्णलीला की झाँकियाँ दीवारों पर अंकित हैं। मंदिर के शिखर पर बावन किलो स्वर्ण का कलश स्थापित है, जो बहुत दूर से ही दिखाई पड़ता है। दर्शन कर अब हम बाहर की ओर लौट रहे हैं। मंदिर के काउंटर पर आकर लड्डू का प्रसाद लिया; प्रति लड्डू चालीस रुपए का है। मट्ठी उपलब्ध नहीं है, वैसे एक मट्ठी तीस रुपए की है। मंदिर के बाहर सड़क के उस पार एक विशाल शेड बना है, जिसमें हजारों यात्री बैठ या ठहर सकते हैं। मेले के समय यह खचाखच भरा रहता है। मंदिर की चहारदीवारी के साथ जन-सुविधाएँ उपलब्ध हैं, जगह-जगह हाथ धोने के लिए पानी की टंकियाँ तथा पानी के टैंकर खड़े हैं। मंदिर से बाहर निकल हम चौराहे पर आ गए; यहाँ श्रीमतीजी ने सिंदूर खरीदा। बाजार में स्थित मंदिर के काउंटर पर मट्ठी के बारे में पूछा, मट्ठी यहाँ भी उपलब्ध नहीं है। जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाते हुए हम केशव के पास लौट आए।

ऑटो में बैठ अब हम चित्तौड़गढ़ जिले में स्थित कपासन के शनि मंदिर के दर्शन के लिए जा रहे हैं। जब तक हम वहाँ पहुँचें, तब तक शनि मंदिर के बारे में केशव भाई कुछ बता रहे हैं—सर, ऐसी कहावत है कि पुराने समय में मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह अपने हाथी की हौदी पर शनिदेव की मूर्ति लेकर उदयपुर की ओर लौट रहे थे। जहाँ पर आज यह मंदिर है, वहाँ पहुँचने पर अचानक शनिदेव की मूर्ति गायब हो गई। राणा के कारिंदों तथा सैनिकों के बहुत ढूँढ़ने पर भी मूर्ति नहीं मिली। काफी समय के बाद यहाँ के जोतमल नामक जाट के खेत में बेर की झाड़ी के नीचे शनिदेव की मूर्ति का कुछ हिस्सा प्रकट हुआ। फिर क्या था, यहीं पर उनकी पूजा-अर्चना शुरू हो गई। भक्त लोग तेल भी चढ़ाने लगे। हालाँकि कुछ लोगों ने मूर्ति को ऊपर निकालने के प्रयास किए, पर असफल रहे। कालांतर में यहाँ एक महात्माजी आए। कुछ लोगों के साथ मिलकर उन्होंने मूर्ति का अधिकांश हिस्सा ऊपर निकाल लिया; पर बाद में महात्माजी भी न जाने कहाँ चले गए। तभी से यह शनिदेव का स्थान प्रसिद्ध हो गया।

ऐसा भी कहा जाता है कि यहाँ तेल का प्राकृतिक कुंड है। शनिदेव को भेंट कया जाने वाला तेल इसमें इकट्ठा होता रहता है और यह तेल चर्मरोगों में कारगर बताया जाता है। सच या झूठ, ऐसा भी लोगों का कहना है कि एक बार इस प्राकृतिक कुंड से मंदिर के सेवकों द्वारा व्यावसायिक उपयोग के लिए तेल निकाल लिया गया तो वह गुणविहीन होकर मात्र तरल पानी जैसा बन गया। इसको शनिदेव का चमत्कार मान लिया गया। हमारा ऑटो भी अब राजमार्ग को छोड़ बाईं ओर शनि मंदिर के परिसर की ओर मुड़ गया है। रास्ता काफी चौड़ा है। प्रसाद वाले दुकानदार अपनी-अपनी अस्थायी प्रसाद की दुकानों के आगे खड़े होकर बड़े आग्रह के साथ वाहन को अपने यहाँ पार्किंग करने के लिए ट्रैफिक वाले की तरह हाथ का इशारा कर रहे हैं। मथुरा के कोकिला वन में स्थित शनिमंदिर में भी ऐसा ही नजारा देखने को मिलता है। आखिर दाईं ओर खुला स्थान देख केशव ने ऑटो खड़ा कर दिया। जूते-चप्पल हमने ऑटो में ही छोड़ दिए। यहीं एक अस्थायी दुकान से प्रसाद भी ले लिया। प्रसाद में सरसों के तेल की एक शीशी, काले कपड़े की एक छोटी सी गाँठ, नारियल, फूल इत्यादि हैं। आज शनिवार है, अभी ज्यादा भीड़ नहीं है। बेटा पीयूष दिल्ली में हर शनिवार को रोहिणी स्थित शनि मंदिर जाया करता है।

हम सभी ने साथ-साथ मंदिर में प्रवेश किया। कुछ सीढ़ियाँ चढ़ते ही दाईं ओर तेल चढ़ाया जा रहा है; पीयूष ने शनि महाराज को तेल चढ़ाया। यहाँ तेल चढ़ाने के दो ऊँचे काउंटर हैं, जिन पर जाली लगी है, इन्हीं में तेल गिराया जा रहा है। पंक्तिबद्ध हो आगे बढ़े। कुछ सीढ़िया उतरकर बाईं ओर शनिदेव की मूर्ति विराजमान है। बिजली के लट्टुओं की रोशनी में यह स्थान लकदक हो रहा है। यहाँ पर खासी भीड़ हो गई है। श्रीमतीजी ने पुजारीजी को देकर अपनी भेंट शनिदेव के चरणों में अर्पित की और शनिदेव को मत्था टेक हम लोग आगे बढ़ गए। बाहर निकलने का रास्ता भी उतना ही चौड़ा है, जितना कि आने का। यहाँ प्रसाद में बेसन तथा तिल के बड़े-बड़े लड्डू मिल रहे हैं। बेसन का लड्डू चालीस रुपए का तथा तिल का तीस रुपए का है। प्रसाद-स्वरूप हमने दोनों तरह के लड्डू खरीद लिये। बाहर आकर मैदान में बच्चों ने गन्ने का रस पिया। केशव भाई को पूछा तो उन्होंने पीने से मना कर दिया। यहाँ बिल्कुल गाँव जैसा वातावरण है।

यहाँ से ऑटो में बैठ वापस चित्तौड़ लौट पड़े हैं। लगभग बारह बजना ही चाहते हैं। केशव ने ऑटो चित्तौड़गढ़ दुर्ग की ओर मोड़ दिया। कई दरवाजों को पार कर किले के मुख्य दरवाजे पर पहुँचे। किले की प्राचीर पर खड़े होकर केशव ने बच्चों को यहाँ के बारे में बहुत सी बातें बताईं, तब तक मैं टिकटें ले आया। बच्चों ने यहाँ फोटोग्राफी की। केशव ने एक-एक कर कुंभामहल, रनवीर की दीवार, नौलखा भंडार, मीराबाई मंदिर, कुंभश्याम मंदिर आदि दिखाए। अब हम विजय-स्तंभ पर आ गए। रेहड़ी पर चाय की दुकान लगाए उसी बहन (पिछली यात्रा वाली) से चाय बनवाई। केशव ने पिछली यात्रा के वर्णन में उसके लिए लिखी गई पंक्तियाँ उसे दिखाईं और कहा कि बहन, सर ने आपको और आपकी चाय को भी फेमश कर दिया है। चाय वाली बहन बड़ी खुश हुई। चाय तो यहाँ सैकड़ों लोग पीते हैं, पर हमारी चाय पर इतना ध्यान कौन देता है! मैं देख रहा हूँ कि बहन के चेहरे पर कितनी खुशी है और आँखों में आभार।

चूँकि पीयूष जिम में कसरत करने जाता है। वेट लिफ्टिंग के कंपटीशन की तैयारी कर रहा है, अतः प्रातः हेवी नाश्ता करता है, तो कल रात पीयूष ने अपने नाश्ते के लिए तीन रोटियाँ रखवाई थीं। बच्चे ऑटो में बैठे चाय-बिस्कुट ले रहे थे कि तभी एक पिल्ला तथा छोटे-बड़े दो कुत्ते वहाँ आ गए, जो बड़े कमजोर दिख रहे हैं। ऑटो से बाहर निकल पीयूष ने पिल्ले को बिस्कुट खिलाया, वह मजे से खाने लगा। फिर पीयूष ने अपनी रोटियाँ निकाल लीं और टुकड़े तोड़-तोड़कर बारी-बारी से तीनों के मुँह में देकर खिलाने लगा। पिल्ले को रोटी ज्यादा पसंद नहीं आई, वह दो टुकड़े खाकर चाय वाली की रेहड़ी की ओर चला गया, मगर उन दोनों कुत्तों ने रोटी लपालप खा ली। दोनों कुत्ते पीयूष का आभार जताते हुए से वहीं ऑटो के पास बैठ गए।

चित्तौड़गढ़ किला दिखाकर केशव भाई ने हमें बस अड्डे पर उतार दिया। आधा घंटा पहले ही बस निकल गई, यहाँ से अब नाथद्वारा के लिए कोई सीधी बस नहीं है। एक ड्राइवर ने बताया कि मावली तक चले जाओ, वहाँ से मिनी बस आपको जरूर मिल जाएगी। आखिरकार चित्तौड़ से उदयपुर जाने वाली बस में मावली का टिकट लिया। प्रति सवारी टिकट 80 रुपया तथा महिलाओं के लिए 60 रुपए का है। बस लगी हुई है, जो 4:28 बजे यहाँ से प्रस्थान करेगी। राजस्थान रोडवेज का सूक्ति वाक्य है—‘शुभास्ते पन्थानः सन्तु।’ बस का टिकट तो पोस्ट कार्ड से भी लंबा-चौड़ा है। इससे कागज ही की बरबादी होती है; परंतु इस पर छपा पानी की बचत का विज्ञापन प्रेरणादायी है—‘जल से ही हम सबका अस्तित्व है।’

अपने नियत समय पर बस गंतव्य की ओर ठुमक चली। बस यात्रियों से लगभग पूरी तरह भर गई है। रास्ते में पड़ने वाले गाँवों, कस्बों और बाजारों में बस रुकती है, सवारियाँ उतरती हैं और नई सवारियाँ चढ़ती जाती हैं। एक घंटा बीता, दो घंटे बीते, रास्ता हनुमान की पूँछ की तरह लंबा होता जा रहा है। धूप को भी अब पीलिया हो गया है। बूढ़ा सूरज हमारी बस के एकदम आगे-आगे नाक की सीध में दौड़ रहा है। उधर सूरज डूबने को है, इधर मेरा मन भी डूबा जा रहा है कि यहाँ से वाहन न मिला तो हम कहाँ पड़ेंगे! चिंता की लकीरें गहरी होती जा रही हैं। कहाँ मैं सोच रहा था कि सायंकाल नाथद्वारा पहुँचकर श्रीनाथजी के दर्शन करेंगे। मैं कंडक्टर के पीछे वाली सीट पर बैठा बार-बार पूछ लेता हूँ कि मावली कितनी दूर है?

राजस्थान के राजमार्ग एकदम दुरुस्त हैं। देश में कहीं भी चले जाइए, केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरीजी का काम बोलता है। आखिरकार छह बजते न बजते बस ने हमें मावली चौक पर उतार दिया। यह चौराहा मेरा देखा-भाला था, स्टेशन पास में ही है, सो जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाते हुए हमने स्टेशन पार किया और सड़क के उस मोड़ पर आ गए, जहाँ पर नाथद्वारा के लिए बसें मिला करती हैं। अँधेरे के साये जमीन पर उतरने लगे। एक दुकानदार से पूछने पर पता चला कि फिलहाल नाथद्वारा के लिए कोई बस नहीं है, रोडवेज की अंतिम बस साढ़े आठ के बाद ही आएगी। मैं बड़ा हताश हूँ, बच्चे साथ में हैं। उसी समय एक ऑटो वाला उधर आ निकला। दिनभर के काम के बाद घर लौट रहा है। मैंने उससे पूछा कि नाथद्वारा चलोगे तो उसने कहा कि हाँ चलेंगे, किराया 350 रुपया लगेगा। मैंने पूछा कि 300 नहीं लेंगे क्या? अंततः बहुत आगा-पीछा सोचकर हम उस ऑटो में बैठ नाथद्वारा पहुँच गए। मधुसूदन भाईजी की दुकान पर सामान रख झटपट पहले श्रीनाथजी के दर्शन किए। ‘साहित्य मंडल’ के प्रधानमंत्री श्याम भाईजी ने हमारे ठहरने व कल घूमने की सब व्यवस्था कर दी। भाईजी ने प्रातः हमें नंदालय के बहुत अच्छे से दर्शन कराए। मंदिर से बाहर निकल भाईजी ने हमें चाय पिलवाई। बच्चे आज भी पोदीने वाली उस चाय को याद करते हैं और बेटी रिचा वैसी चाय घर पर बनाने की कोशिश करती है। हमारे ड्राइवर गोवर्धनजी गाड़ी लेकर पहुँच चुके हैं। चाय पीकर हम लोग भी कमरे पर लौटे। जल्दी की वजह से भाईजी ने साहित्य मंडल विद्यालय के कोने पर खड़े खोमचे वाले से पोहा और फाफड़ा का नाश्ता पैक करवा दिया। श्याम भाई गजब के फुरतीले हैं। आलस उन्हें छू तक नहीं गया है। सच्चाई और ईमानदारी की ऊर्जा से सदैव लबालब रहते हैं। भाईजी ने कमरे का किराया, रात्रि के भोजन-नाश्ता आदि का पैसा भी हमें नहीं देने दिया। प्रातः से ही हमारी सेवा में तत्पर, चाय-नाश्ता कराया, फिर भी भाव ऐसा कि मैंने कुछ नहीं किया। भाईजी की इस सदाशयता को किन शब्दों में बयाँ करूँ!

यहाँ से गाड़ी में बैठ हम सबने पहले अपने ड्राइवर गोवर्धन के साथ नाथद्वारा का प्रसिद्ध लालबाग देखा, फिर काँकरोली के लिए निकले। जब तक हम काँकरोली पहुँचें, तब तक यहाँ के बारे में भी आपको कुछ बताते हैं। काँकरोली एक कसबा है, जो नाथद्वारा से 35 किमी. दूर है। यह राजसमंद जिले में उदयपुर-अजमेर राजमार्ग पर स्थित है। महाराणा राजसिंह द्वारा बनवाई गई यहाँ की विशाल ‘राजसमंद झील’ बड़ी प्रसिद्ध है। यहाँ पर भगवान् द्वारकाधीश विराजमान हैं। यह वैष्णव भक्तों का तीसरा पीठ माना जाता है तथा ‘पंचद्वारका’ में भी इसकी गिनती होती है। लेकिन भगवान् द्वारकाधीश का यहाँ पर आगमन कैसे हुआ, यह अपने आप में रोचक है। मुगल काल सनातन धर्म पर बड़ी मुसीबत का दौर था। मतांध औरंगजेब और उसकी क्रूर सेना हिंदू मंदिरों को लूटकर नष्ट-भ्रष्ट कर रही थी। मथुरा के गोकुल में स्थित भगवान् द्वारकाधीश मंदिर पर भी इनकी वक्रदृष्टि पड़ी तो तत्कालीन स्वामी गिरधरजी महाराज अन्य सेवकों के साथ द्वारकाधीश भगवान् के विग्रह को अहमदाबाद ले गए। अहमदाबाद भी उपद्रवियों का केंद्र बनता जा रहा था, तब श्री ब्रजभूषणजी (प्रथम) महाप्रभु की सुरक्षा को ध्यान में रखकर मेवाड़ आए।

उस समय मेवाड़ भी बुरे दौर से गुजर रहा था। सूखे के कारण यहाँ पानी की भारी किल्लत हो गई थी। लेकिन उदयपुर के महाराणा राजसिंह ने सहायता का हाथ बढ़ाया और पहले-पहल संवत् 1721 में उन्होंने काँकरोली के आसोटिया गाँव में मंदिर का निर्माण कराया। संवत् 1727 में द्वारकाधीश प्रभु पहले सदरी में बिराजे, फिर भाद्रपद शुक्ल सप्तमी को ठाकुरजी आसोटिया के नए मंदिर में विराजने लगे। संवत् 1751 में यहाँ भारी वर्षा के कारण मंदिर जलमगन हो गया और पानी में एक टापू सा दिखाई देने लगा। ऐसी परिस्थिति में महाराजजी ठाकुरजी को सुरक्षित स्थान देवलमंगरी ले गए, जहाँ ठाकुरजी मात्र तीन दिन बिराजे। इन परिस्थितियों को देखते हुए महाराज कुमार श्री अमर सिंहजी ने नए मंदिर के निर्माण के लिए पहाड़ी पर जमीन निश्चित कर दी। जब यहाँ मंदिर बनकर तैयार हो गया, तब इसका नाम ‘गिरधरगढ़’ रखा गया। संवत् 1776 में चैत्र कृष्ण पक्ष की नवमी को भगवान् द्वारकाधीश इस नए मंदिर में विराजे और आज भी यहाँ पर आने वाले अपने भक्तों का कल्याण कर रहे हैं।

समय-समय पर इस मंदिर का कुछ-न-कुछ निर्माण कार्य होता रहा और संवत् 1980 में मंदिर वर्तमान स्वरूप में बनकर तैयार हुआ। सर्वांग सुंदर हवेलीनुमा यह मंदिर प्रसिद्ध राजसमंद झील के किनारे शान से खड़ा है। इसका स्थापत्य नाथद्वारा में स्थित श्रीनाथजी के मंदिर ‘नंदालय’ की तरह ही है। इसके निर्माण में संगममर पत्थर, ईंट तथा चूने का उपयोग हुआ है। देश के कोने-कोने से कृष्णभक्त यहाँ दर्शनों के लिए वर्ष भर आते रहते हैं। यहाँ प्रातः सात बजे मंगला, आठ से शृंगार दर्शन, नौ बजे से ग्वालदर्शन, साढ़े दस बजे राजभोग दर्शन, अपरा में चार बजे से उत्थापन दर्शन, फिर भोग दर्शन, आरती तथा सायं सात बजे शयन दर्शन होते हैं। समय-समय पर यहाँ कई उत्सव मनाए जाते हैं। होली, दीपावली, रामनवमी, जन्माष्टमी, अक्षय तीज को विशेष आयोजन होते हैं, तब यहाँ भक्तों की भारी भीड़ होती है।

काँकरोली की सड़कों-गलियों को पार करते हुए हमारी टैक्सी मंदिर की पार्किंग में आ पहुँची। अभी दस बजे हैं। अंदर जाने पर पता चला कि राजभोग के दर्शन 10:30 बजे खुलेंगे। तब तक हम मंदिर के बाईं ओर सीढ़ियाँ उतरकर राजसमंद झील देखने आ गए हैं। इसमें मछलियाँ बहुतायत में हैं। दर्शनार्थी इनको कुछ-न-कुछ खिला रहे हैं। हमने भी मछली दाना खरीदकर उन्हें खिलाया। जैसे ही दाना पानी में फेंकते हैं, मछलियों में छीना-झपटी होने लगती। वे पानी से ऊपर उछल जाती हैं। मछलियाँ बहुत जागरूक होती हैं। इनसान से वे सुरक्षित दूरी बनाकर रखती हैं। बिल्कुल किनारे पर दाना गिराने पर वे वहाँ तक आने में परहेज करती हैं। पानी के थोड़ा अंदर डालने पर झुंड-की-झुंड मछलियाँ दानों पर टूट पड़ती हैं। महाराणा राजसिंह द्वारा बनवाई गई इस विशाल झील का ओर-छोर दिखाई नहीं पड़ रहा है। झील के तल से मंदिर कई मंजिल की ऊँचाई पर है। यहाँ से लौटकर मंदिर में दर्शनों की पंक्ति में लगे। मंदिर के प्रवेश द्वार पर दोनों ओर हाथी सवार और शेर-बाघों के सुंदर सजीव चित्र बनाए गए हैं। मंदिर में दर्शन खुले, सब लोग दर्शनों के लिए आगे बढ़े। गर्भगृह में भगवान् द्वारकाधीश की मनोहारी मूर्ति विराजमान है, इनकी अलौकिक छवि श्रद्धालुओं को अपने आकर्षण में बाँध लेती है। यहाँ दर्शन कर अब हम ने बाईं ओर अंदर के कमरे में विराजमान मथुरादास प्रभु के दर्शन किए। पूरा मंदिर बहुत सुदृढ़ और भव्य है। ठाकुरजी को दंडवत् प्रणाम कर अब हम काँकरोली में ही ‘नौ चौकी’ स्थल को देखने आए हैं।

यहाँ पर बहुत सी महिलाएँ मछलियों के चारे के रूप में आटे की गोलियाँ बेच रही हैं और सभी की सभी यहाँ आने वाले दर्शनार्थियों की बड़ी मनुहार करती हैं। हमने भी आटे की गोलियाँ खरीद लीं। ‘नौ चौकी’ राजसमंद जिले के दर्शनीय स्थलों में से एक है। इसका निर्माण महाराणा राजसिंह ने कराया। इसकी विशेषता यह है कि इस राजसमंद झील में उतरने के लिए हर नौ सीढ़ियों के बाद एक बड़ी चौकी या चौखटा बनाया गया है, इसीलिए इसका नाम ‘नौ चौकी’ पड़ा है। यहाँ हर निर्माण नौ के जोड़ से बना है, यही इसकी विशेषता है। सीढ़ियाँ नीचे उतरकर हमने मछलियों को आटे की गोलियाँ खिलाईं। रिचा-पीयूष ने यहाँ खूब फोटो खींचे। यहाँ के दाहिने सिरे पर ऊँची पहाड़ी पर एक मंदिर दिखाई पड़ रहा है। बड़ा मनोरम दृश्य है, यहाँ की सुंदरता दर्शनीय है।

यहीं झील के बिल्कुल किनारे स्थित एक इमारत में महाराणा राजसिंह पेनोरमा है। इसका प्रति व्यक्ति पंद्रह रुपया टिकट लगता है। महाराणा राजसिंह बहुत प्रजापालक राजा हुए। यहाँ पाँच कमरों में महाराणा राजसिंह के शासन काल, उनके त्याग, देशरक्षा के लिए किए गए युद्ध, मंत्रियों के साथ मंत्रणा, हाड़ी रानी द्वारा अपना शीश काटकर किया गया बलिदान, महाराणा की कुलदेवी, मुगलों से युद्ध आदि की सुंदर झाँकियाँ मेवाड़ की गौरवगाथा बता रही हैं। सायं को यहाँ लाइट-साउंड शॉ भी दिखाया जाता है। यह सब देखने और देश के लिए राणाओं द्वारा की गई कुर्बानियों को सराहते हुए हम गाड़ी में बैठे और गोवर्धनजी ने गाड़ी नाथद्वारा की ओर दौड़ा दी। पहले उन्होंने नाथद्वारा के गोवर्धन पर्वत के दर्शन कराए। पर्वत पर गाड़ी से ही जाना पड़ता है, कुछ लोग पैदल भी जा रहे हैं। इस पर्वत के ऊपर से पूरे नाथद्वारा का नजारा बड़ा साफ दिखता है, नीचे बहती यहाँ की यमुना अर्थात् बनास नदी पतली धार सी दिखाई पड़ रही है। यहाँ से अब हम नाथद्वारा में भगवान् शिव की जो विशाल मूर्ति बन रही है, उसके पीछे से होकर ‘गणेश टेकरी’ देखने आ गए हैं। यहाँ सफेद संगमरमर का गणेशजी का बड़ा ही भव्य मंदिर है। मंदिर के चौकोर प्रांगण में ढलान की ओर संगमरमर की छतरयिाँ बनी हैं, जहाँ से पूरे नाथद्वारा का नजारा लिया जा सकता है।

यहाँ से कुछ सीढ़ियाँ उतरकर पहाड़ की ढलान को चौरस बनाकर फव्वारे और बच्चों के लिए झूले लगे हैं; फव्वारे में शिव की मूर्ति लगी है, यहाँ से बाईं ओर सीढ़ियाँ उतरकर सुंदर उपवन है, वृक्षों को बिल्कुल यथास्थिति में रख छोटे-छोटे ताल बनाए हैं। छोटी सी टेकरी पर हनुमान मंदिर है, इसके नीचे एक सुंदर तालाब है, जिसमें बच्चे किलोल कर रहे हैं। पहाड़ के पूरे ढलान को बड़ी तरतीब से पर्यटन-स्थल के रूप में ढाला गया है, जिधर ढलान है, उधर ही उतरने के लिए सीढ़ियाँ बना दी गई हैं। पूरे स्थल को देखते हुए हम सीढ़ियों से ढलान की ओर सड़क पर उतर गए; गोवर्धनजी गाड़ी लिये हमें वहीं मिल गए और तुरत-फुरत गाड़ी में बैठ हल्दीघाटी की ओर चल पड़े। सबसे पहले हम हल्दीघाटी स्थित ‘बादशाह बाग’ पर रुके। मेवाड़ के इतिहास में यह बाग अपना विशेष स्थान रखता है। यहाँ के खुले मैदान में मुगलों की सेना ने पड़ाव डाला था। 21 जून, 1576 के दिन राणाप्रताप की राणबाँकुरी सेना का पहली बार यहीं मुगल सेना से मुकाबला हुआ। जिसमें प्रताप की सेना ने मुगल सेना के छक्के छुड़ा दिए और मुगल सेना में भगदड़ मच गई थी। जो बाद में यहाँ से तीन किलोमीटर दूर खमनोर गाँव में इकट्ठी हुई और जहाँ हल्दीघाटी का इतिहास प्रसिद्ध युद्ध हुआ। यह घास का सपाट मैदान है, इसके पीछे ऊँची-नीची पहाड़ियाँ हैं। यह बादशाह बाग राणाप्रताप की मुगलों पर प्रथम विजय की याद दिलाता है।

राजपूती सेना पर गौरवान्वित होते हुए अब हम हल्दीघाटी में ही स्थित महाराणा प्रताप संग्रहालय देखा, फिर स्वामिभक्त चेतक की समाधि। इसके बाद यहाँ से वापस लौट नाथद्वारा-उदयपुर राजमार्ग पर वल्लभाचार्य आश्रम देखा, फिर भगवान् श्रीनाथजी की गऊशाला देखने गए। यहाँ से हमारी गाड़ी मावली स्टेशन के लिए चल पड़ी। काफी समय रहते ही गोवर्धन भाई ने हमें स्टेशन पर उतार दिया। अपने ठीक समय पर चेतक एक्सप्रेस प्लेटफार्म नं. दो पर आकर रुकी और हम अपनी बोगी में चढ़ अपनी बर्थों पर बैठ गए। सबसे पहले हमने भोजन किया, फिर चित्तौड़गढ़ स्टेशन आने पर मैं बच्चों के लिए पोहा तथा चाय ले आया। लगभग नौ बजे हम बिस्तर लगाकर सो गए। भोरे-भोर करीब चार बजे गाड़ी गुड़गाँव पहुँच गई। हमने जागकर अपना सामान समेट लिया और लगभग 5:15 पर हम दिल्ली कैंट स्टेशन उतर गए।

हालाँकि यात्रा में बड़ी दौड़ा-दौड़ी रही, परंतु बच्चों ने खूब आनंद किया। ठीक एक सप्ताह बाद ही देश पर कोरोना का कहर टूट पड़ा। पूरे देश में लॉकडाउन लागू हो गया। इस नाते यह यात्रा और भी स्मरणीय बन गई।

 

जी-326, अध्यापक नगर,

नांगलोई, दिल्ली-110041

दूरभाष : 9868525741

—प्रेमपाल शर्मा

हमारे संकलन