RNI NO - 62112/95
ISSN - 2455-1171
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'तुळु' भाषा की दो कविताएँसुपरिचित लेखक। जाने-माने अनुवादक। कुल २४ पुस्तकें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ द्वारा ९०१८ का ‘सौहार्द सम्मान’ सहित अनेक सम्मानों से सम्मानित। तुळु भाषा कर्नाटक के तटीय प्रदेश (मंगलुरु, उडुपी आदि) में प्रचलित है, जिसे कर्नाटक की प्रमुख व प्रथम भाषा ‘कन्नड़’ के बाद का स्थान प्राप्त है। द्रविड़ भाषा समूह में भी तुळु भाषा शामिल है। तटीय कर्नाटक के ‘यक्षगान-बयलाट’, ‘भूतारा धना’, ‘सिरि पाड्दन’ आदि कला तथा आराधना से संबंधित प्रकारों को देश-विदेशों में लोकप्रिय बनाने में तुळु भाषा की अहम भूमिका है। कन्नड़ के अवकाश प्राप्त प्राध्यापक डॉ के. चिन्नप्पगौडा, जो तुळु भाषा के हैं, साथ ही तुळु भाषा के कवि भी हैं। ‘भूत अराधाना’ के क्षेत्र में व्यापक अनुसंधान कार्य किया है। पाल्ताडी रामकृष्ण आचार भी तुळु भाषा के जानेमाने कवि तथा लेखक हैं। तुळु भाषा में इनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। कर्नाटक सरकार द्वारा स्थापित ‘तुळु साहित्य अकादेमी’ के पूर्वाध्यक्ष हैं। अवकाश प्राप्त पाल्ताडी रामकृष्ण आचार तुळु भाषा व साहित्य को समृद्ध बनाने में कार्यरत हैं। यहाँ पर उपर्युक्त दो कवियों की तुळु भाषा की दो कविताओं का हिंदी रूपांतर प्रस्तुत कर रहे हैं।
क्या बुद्ध रोया! मूल : पाल्ताडी रामकृष्ण आचार अनुवाद : एच.एम. कुमारस्वामी बुढ़ापा रुग्ण मृत्यु को देख रो उठा सिद्धार्थ त्यागकर गाँव-घर जा बैठे तुम कानन में पीकर झरने का पानी खाया तुमने जंगल के फल बैठकर बरगद के नीचे तपस्या की शांतिमंत्र प्राप्त कर बने बुद्ध तुम जब बंद हुआ तुम्हारा रोना तब चमक उठी मुसकराहट तुम्हारे मुख पर।
इच्छाओं के दास बनेंगे जो, होंगे धोखे का शिकार इच्छा व धोखा त्याग दे दोनों को, तो हिंसा को स्थान नहीं बुद्ध के शुद्ध मन व मुग्ध मुँह को देख मारे खुशी के लोग बन गए पागल उद्घोषित कर बैठे बुद्धं शरणं गच्छामि।
किसा गोतमी बच्ची के शव को लपेटकर आई तुम्हारे पास और पूछी उसने तुमसे मृत्यु को रोकने असरदार दवा क्या है? कहा तुमने तब...बिन मृत्यु के घर से लाओ सरसों गौतमी की समझ में आयी तब पैदा जो हुआ है मरण सहज ही है उसे जातस्य मरणं ध्रुवम्।
उस दिन तुम गए अंगुलिमाला को तलाशने तुम्हारे सिर काटने वह जो आया, स्वयं झुकाया सिर तुम्हारे सामने आज कांदहार में उमरखान आया तुम्हें खोजते धर्मांध लॉडेन चकनाचूर कर दिया तुम्हें तुम्हारी स्निग्ध हँसी आज तुम्हारी रक्षा नहीं कर पाई तुम्हारी तपस्या का फल कोई निकला नहीं सारी दुनिया हँसी मगर तुम्हे दंडित करनेवालों को नहीं हुआ कुछ नहीं असर दागकर गोली उड़ा दिया तुम्हारे सिर को बम रखकर चीर डाला तुम्हारे पेट को बंदूक गोली बारूद से चकनाचूर कर डाला तुम्हें तुम्हारी पावन मिट्टी को बनाया उन्होंने श्मशान इतना होने पर भी यह तथागत रोया नहीं होंठ फटते रहे तुम हँसते ही रहे काश, पागल वे, क्या कर रहे हैं? सोचे नहीं; मालूम ही नहीं रहा उनको कहते-कहते ही तुम हो गए विलीन मिट्टी में खामखाह बरबाद किया तुम्हें उन्होंने।
फिर भी तुमने बहाए नहीं आँसू खिसकते आते रहे पत्थरों के बीचोबीच से सुनाई दे रही थी तुम्हारी आवाज मंद-मंद... हिंसा की दवा नहीं हिंसा बरसाओ करुणा उनके ऊपर।
कहाँ गए तुम्हारे शिष्य सारे क्या चुप बैठे गए समझकर कि यही तुम्हारा आदेश है बुद्धं शरणं गच्छामि कहकर मूँदे क्या आँखें वे सारे संघं शरणं गच्छामि कहकर सो गए क्या वे सारे। यह थिरकना क्यों? मूल : के. चिन्नप्पगौडा अनुवाद : एच.एम. कुमारस्वामी यह थिरकना क्यों रे तेरा और मेरा यह थिरकना क्यों? गंध वस्त्र को उतार साफ-सुथरे धारण कर बजाते ढोल पवित्र पूजा वेदिका के सामने पकड़कर सुपारी-पान साथ ही दिए हुए चावल हाथ में बीती कहानी को ही बार-बार दुहराते मरते तुम। यह थिरकना क्यों रे तेरा और मेरा यह थिरकना क्यों?
लीप-पोतकर मुँह पर चमकीले पीले रंग को बाँधकर पाँवों में भारी मंजीर छनकनेवाले पकड़कर हाथों में धारदार पवित्र खड्ग भाँजते सीधे जलते मशालों को लगाते छाती पर चिनगारी उगलती आग में कूद जाओगे तुम। यह थिरकना क्यों रे! तेरा और मेरा यह थिरकना क्यों?
करते उद्घोषित ऊँची आवाज में भूत* की जन्म कहानी भूत के आविर्भाव की कथा को फिरोकर क्रमबद्ध हर बार धारण कर भूत का भेष नाचते-चीखते भूत के ही जैसे होकर खड़े मुखिया के महल के बाहरी अहाते के कोने में। यह थिरकना क्यों रे! तेरा और मेरा यह थिरकना क्यों?
उत्सव त्योहार छोटे-बड़े, मुर्गबाजी या हो मेला आदि भेस डालकर स्वाँग रचाते भेस डालकर पेट बाँधकर थिरकते तुम छूटने के बाद माया, पवित्र वेदिका से हटकर लौटोगे तुम भ्रमरहित वास्तव को मानकर हार तो यह थिरकना क्यों रे तेरे और मेरे यह थिरकना क्यों रे! तेरा और मेरा यह थिरकना क्यों?
११०, बी.ई.एम.एल, २ स्टेज, वाटर टैंक के नजदीक, देवप्रसाद लेआउट (राजराजेश्वरी नगर), मैसुरु-५७००३३ (कर्नाटक) दूरभाष : ६३६४२२१४०५ drhmkthani@gmail.com —एच.एम. कुमारस्वामी
*भूत : भूत या दैव कर्नाटक के तटीय प्रदेश ‘तुळुनाडु’ में पाए जानेवाले जानपद (Folk) आराधना के दैव हैं, जिन्हें किसी दुःखांत वीर या पुरुष आदि के अवतार अथवा उनकी आत्मा का रूप मानकर पूजा जाता है। विविध प्रकार के भूत या दैव के वार्षिक नेमोत्सव (पूजा) का आयोजन किया जाता है। भूत या दैव का निर्दिष्ट वेश धारण करनेवाले ज्यादत निचले वर्ग के ही होते हैं, जिनकी यह वृत्ति परंपरागत होती है। |
मार्च 2024
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