महिला सशक्तीकरण : नए क्षितिज

कुछ दिनों पहले का समाचार था—३४ महिलाएँ केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल की ‘कोबरा कमांडो’ बनेंगी। केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल की महिला बटालियन भी विश्व की अनूठी बटालियन है, जहाँ से इन्हें चुना गया है। ‘कोबरा कमांडो’ जिस तरह के जोखिम भरे करतब करते हैं, वे हम सबको आश्चर्यचकित कर देते हैं। इनका प्रशिक्षण इतना कठोर होता है कि गिने-चुने साहसी ही सफल हो पाते हैं। इन शेरनियों का चयन महिला सशक्तीकरण का बेमिसाल उदाहरण है।

पिछले दिनों चार भारतीय महिलाओं ने सैन फ्रांसिस्को से बेंगलुरु तक की सबसे लंबी दूरी पर विमान उड़ाकर विश्व कीर्तिमान बनाया। इस ‘नॉनस्टॉप’ १६,००० किमी. यात्रा में ये वीरांगनाएँ उत्तरी ध्रुव के ऊपर से गुजरीं। यह बेहद जोखिम भरा कारनामा था। ईंधन के जम जाने का खतरा और दूर-दूर तक विमान उतारने की संभावना नहीं...और भी कितनी ही चुनौतियाँ। किंतु कमांडिंग ऑफिसर जोया अग्रवाल ने अपनी तीन सहयोगी महिला अधिकारियों के साथ यह जोखिम भरी यात्रा संपन्न करके भारत को गौरवान्वित किया।

इसी प्रकार पाँच प्रबुद्ध महिलाएँ ‘सेफ स्पीड चैलेंज’ स्वीकार करके वाघा सीमा से कन्याकुमारी तक कार यात्रा करती हैं। रक्षामंत्री श्री राजनाथ सिंह तथा सड़क परिवहन मंत्री श्री नितिन गडकरी इनकी यात्रा को शुभारंभ करने हेतु उपस्थित होते हैं। ये महिलाएँ इस विराट् यात्रा में यातायात संबंधी अध्ययन भी करती हैं तथा लोगों को सड़क दुर्घटनाओं के प्रति जागरूक भी करती हैं।

अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति की प्रशासनिक टीम में सात-आठ भारतीय महिलाओं को अत्यंत संवेदनशील उच्चपद दिए गए हैं। यह भारतीयों के लिए तो गर्व का विषय है ही, साथ ही महिलाओं की प्रतिभा और क्षमता के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण की अनिवार्यता को भी रेखांकित करता है।

पत्थर तोड़ने वाले एक गरीब मजदूर की बेटी मीनू सोरेन अमेरिका में होनेवाली ‘विश्व एथेलिटिक चैंपियनशिप’ में भारत का प्रतिनिधित्व करने हेतु नामित की गई है।

बड़ी उम्र की महिलाओं के साथ-साथ छोटी उम्र की बच्चियाँ भी उत्कृष्ट कार्य करके भारत का गौरव बढ़ा रही हैं। मात्र सात वर्ष की नन्ही ‘प्रसिद्धि’ आठ विद्यालयों में नौ हजार से अधिक वृक्ष लगाकर, और आठ विद्यालयों में फलों की वाटिका स्थापित करने में सूत्रधार बन जाती है और गणतंत्र दिवस पर प्रधानमंत्रीजी से सम्मान पाती है।

झाबुआ की छोटी उम्र की छात्रा कोरोना काल में देशी साधनों से ‘सामुदायिक हैंडवॉश’ केंद्र स्थापित करने की सूत्रधार बन जाती है। यूनीसेफ इस बच्ची को ‘सद्भावना दूत’ घोषित कर सम्मानित करता है।

पिछले दिनों में ही जब भारत की सबसे अमीर महिलाओं पर एक सर्वेक्षण किया गया तो एक हजार करोड़ से अधिक का कारोबार स्थापित करने वाली ३८ महिलाओं में से ३१ महिलाएँ ऐसी थीं, जिन्होंने सारी सफलता अपने ही बलबूते पर प्राप्त की है और उसमें उनके पिता अथवा पति की कोई भूमिका नहीं रही। इनमें २५ महिलाएँ उद्यमी हैं, जबकि ६ प्रोफेशनल महारत हासिल करनेवाली। दिल्ली पुलिस की सीमा खोए हुए ७६ बच्चों को उनके परिवार से मिलाकर उनके आशीष तो बटोरती हैं, ‘आउट ऑफ टर्न’ प्रोन्नति प्राप्त कर ‘ए.एस.आई.’ भी बन जाती हैं।

इसी तरह की अनेकानेक उत्कृष्ट उपलब्धियों के समाचार हर दिन मिलते रहते हैं—भारत से भी तथा विश्व के अन्य देशों से भी। भारत के एक छोटे से गाँव की महिलाएँ संकल्प कर लेती हैं तो सात-आठ माह के परिश्रम से एक मंदिर की ओर जानेवाले झाड़-झंखाड़ वाले बीहड़ पहाड़ी रास्ते को समतल कर साफ-सुथरी सड़क में बदल देती हैं।

ये सारी-की-सारी उपलब्धियाँ पिछले कुछ दिनों की ही हैं। जरा सा पीछे नजर डालें तो गणतंत्र दिवस परेड के अंतिम चरण में ‘मोटर साइकिल सवारों’ के हैरतअंगेज कारनामे याद आते हैं। अब ये रोंगटे खड़े कर देने वाले करतब महिलाओं द्वारा किए जाते हैं।

मंगल ग्रह मिशन में महिला वैज्ञानिकों की भागीदारी पर भी नजर जाना स्वाभाविक है। क्या अब भी यह बताने की जरूरत है कि महिलाएँ प्रतिभा और क्षमता में पुरुषों से किसी भी प्रकार कमतर नहीं हैं।

अब ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है, चाहे वह कितना ही जोखिम भरा क्यों न हो, जिसमें महिलाएँ पुरुषों के बराबर उत्कृष्ट सेवाएँ नहीं दे रही हों। वायुसेना तथा नौसेना में भी पिछले दिनों संवेदनशील पदों पर उनकी नियुक्ति हुई है। तब फिर नारी सशक्तीकरण में रुकावटें क्या हैं? सरकारों को ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान क्यों चलाना पड़ रहा है? समाज अपनी मानसिकता से कब उबरेगा?

भारत के संदर्भ में ‘नारी मुक्ति’ या ‘नारी सशक्तीकरण’ को भी सही परिप्रेक्ष्य में समझाना होगा तथा कुछ प्रश्नों के हल खोजने होंगे?

भारतीय नारी पुरुष सत्ता के वर्चस्व से मुक्ति के संदर्भ में, न अपने पति से मुक्ति चाहती है, न पिता या भाई से; वह एक पत्नी के रूप में, माँ के रूप में, बेटी के रूप में, बहन के रूप में अपने सारे दायित्व पूरी तरह निभाने को संकल्पबद्ध है। वह मात्र इतना ही तो चाहती है कि उसे कोख में ही न मार दिया जाए और दुनिया में आने दिया जाए।

वह मात्र इतना ही तो चाहती है कि उसे पढ़ने दिया जाए, अपनी प्रतिभा को विकसित करने का पूरा-पूरा अवसर दिया जाए। जो बनना चाहती है, बनने दिया जाए।

वह मात्र इतनी सी माँग करती है कि उसे ‘देवी’ या ‘दासी’ बनाने की बजाय ‘इनसान’ समझा जाए, जिसके पास एक हृदय है, एक मन है, मस्तिष्क है, आत्मा है! उसकी भी ‘अस्मिता’ है, उसकी भी ‘पहचान’ है, उसका भी ‘सम्मान’ है। वह मात्र इतना ही तो चाहती है कि उसे ‘सुरक्षा’ मिले। वह कहीं भी आ-जा सके—बिना किसी भय या आतंक के। लेकिन अभी भी उसका जीवन कितना काँटों भरा है। तरह-तरह के अपराध, हिंसा के खतरे उस पर मँडराते रहते हैं। छेड़खानी, बलात्कार, तेजाबी हमला, शोषण, अपमान आदि-आदि...लंबी सूची है। हाल ही का एक सर्वेक्षण बताता है कि करोड़ों महिलाएँ यौन हिंसा की शिकार हैं। पुरुष भी अपनी मानसिकता से बाहर आने को तैयार नहीं हैं! पंचसितारा होटलों से लेकर ढाबों तक लाखों पुरुष खाना बनाने के काम में लगे हैं, लेकिन घर की रसोई में प्रवेश मात्र से उसका ‘पौरुष’ आहत हो जाता है! कितना भी कहा जाए कि पति-पत्नी जीवन की गाड़ी के दो पहिए हैं किंतु व्यवहार के धरातल पर एक पहिया ‘ट्रक’ का और एक मोपिड या साइकिल का हो जाता है। भारतीय महिला ‘अनुचरी’ की बजाय ‘सहचरी’ बनना चाहती है। अभी भी महिलाएँ जीवन में कितनी ही वर्जनाएँ, कितनी ही चुनौतियाँ ढो रही हैं। महानगरों तथा नगरों के कुछ परिवारों को छोड़ दें तो कस्बों तथा गाँवों में स्थितियाँ उस गति से नहीं बदल रहीं, जिस गति से बदलनी चाहिए। हमें इस बात पर अवश्य ही गर्व करना चाहिए कि हमारे राष्ट्रनेताओं, संविधान-निर्माताओं ने भारतीय नारियों को अनेक ऐसे अधिकार दिए, जिसके लिए दूसरे देशों में उन्हें लंबा संघर्ष करना पड़ा। अमेरिका का उदाहरण हमारे सामने है, जहाँ इतिहास में पहली बार भारतीय मूल की महिला को उपराष्ट्रपति बनने का सम्मान मिला है, जबकि भारत में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल, मुख्यमंत्री आदि पदों पर महिलाएँ बहुत पहले सुशोभित हो चुकी हैं। जिन-जिन कानूनी सुधारों की आवश्यकता हुई, वे भी निरंतर किए जाते रहे हैं। न्याय-व्यवस्था ने भी महिला सशक्तीकरण में उल्लेखनीय योगदान दिया है।

सबसे अधिक चिंता का विषय देशभर में होनेवाले गैंगरेप जैसे भयावह कुकृत्य हैं। यहाँ हमारी पुलिस और न्यायिक व्यवस्था को अधिक सजग होना पड़ेगा तथा शीघ्रातिशीघ्र न्याय देने के लिए फास्टट्रैक कोर्ट जैसी व्यवस्थाएँ सुदृढ़ करनी पड़ेंगी। यह कितना विडंबनापूर्ण है कि ‘निर्भया कांड’ में अपराधी कोई-न-कोई कानूनी दाँवपेंच लगाते रहे और पूरा देश लाचार होकर उन राक्षसों की फाँसी टलते हुए देखता रहा और कितने लंबे अरसे बाद न्याय मिल पाया, जबकि इस कांड पर तो पूरा देश, पूरा मीडिया भी नजर रखे हुए था। तब से कितने ही ऐसे कांड हो चुके हैं!

औद्योगीकरण और शहरीकरण के चलते परिवार व्यवस्था निश्चय ही क्षतिग्रस्त हुई है। ‘संस्कार’ जो हमारे भारतीय जीवन के सुदृढ़ आधार थे, शिथिल हो गए हैं। ‘मीडिया’ और ‘सोशल मीडिया’ पर अश्लीलता व फूहड़ता इतनी बढ़ गई है कि आज मोबाइल पर ही वह सबकुछ सहज उपलब्ध है, जिसकी कुछ दशकों पहले तक किसी को कल्पना भी नहीं थी। अश्लीलता के जहर को नियंत्रित करना ही चाहिए। विडंबना देखिए कि भारत के अनेक क्षेत्रों में पीने का पानी भले ही सहज उपलब्ध न हो किंतु टी.वी. चैनल और सोशल मीडिया से अश्लीलता का जहर भरपूर उपलब्ध है।

नारी सशक्तीकरण के संदर्भ में हमें अपनी प्राचीन भारतीय संस्कृति को भी नहीं भूलना चाहिए। याद करना चाहिए कि कैकेयी को दो वरदान तब मिले थे, जब युद्ध के समय राजा दशरथ के रथ का पहिया टूट गया था तो कैकेयी ने अपने कंधे पर रथ टिकाकर विजय दिलाई थी, अर्थात् महिलाएँ युद्ध तक में भागीदार होती थीं।

गार्गी, मैत्रेयी, लोपामुद्रा जैसी विदुषियों का भी हमें स्मरण कर लेना चाहिए, जिन्होंने शास्त्रार्थ में दिग्गजों को पराजित किया। विदेशी आक्रमणों के बाद नारियों की स्थिति बद से बदतर होती गई। उन्हें परदे में रहने पर विवश होना पड़ा। तरह-तरह की कुरीतियाँ जड़ें जमाती गईं। अब जबकि हम स्वाधीनता के ७५ वर्ष मनाने की ओर उन्मुख हैं, नारी सुरक्षा, नारी सशक्तीकरण, नारी सम्मान की ओर गंभीरता से विचार करना होगा तथा ठोस उपाय सुनिश्चित करने होंगे। यह सुखद है कि साहित्य अपने दायित्व में सजग है और नारी-विमर्श पिछले कुछ दशकों से साहित्य का अनिवार्य अंग बना हुआ है।

 


(लक्ष्मी शंकर वाजपेयी)

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