कोरोना! ऐसा मत करो ना

कोरोना! ऐसा मत करो ना

जाने-माने साहित्यकार। आठ ललित-निबंध संग्रह, एक नवगीत, एक संत-साहित्य की पुस्तक प्रकाशित; पत्रिका ‘अक्षत’ का संपादन। ‘बागीश्वरी पुरस्कार’, ‘सृजन सम्मान’, ‘श्रेष्ठ कला आचार्य सम्मान’, ‘निर्मल पुरस्कार’, ‘राष्ट्रधर्म गौरव सम्मान’, ‘ईसुरी पुरस्कार’, ‘दुष्यंत कुमार राष्ट्रीय अलंकरण’ सहित अनेक सम्मान प्राप्त।

सबकुछ जैसे थम सा गया है। सब तालाबंदी में हैं। लोगों से संगरोध या शारीरिक दूरी बनाए रखने का अनुरोध किया जा रहा है। सब अपने घर में रहें। सब सुरक्षित रहें। सब स्वच्छ रहें। सब स्वस्थ रहें। स्वयं सुरक्षित रहते हुए दूसरों को भी सुरक्षित रखें। अनावश्यक न घूमें। अकारण घर से बाहर न निकलें। बार-बार हाथ धोएँ। बड़े-बूढ़ों का ध्यान रखें। प्रसन्न रहें। घर के पुराने रुके हुए काम निपटाएँ। कोई अच्छी सी किताब पढ़ें। योग करें। ध्यान करें। भजन करें। जाप करें। ईश्वर को भजें। बच्चों को वीरता की कहानियाँ सुनाएँ। बच्चों के सामने ध्रुव-प्रह्ल‍ाद, लव-कुश, शंकराचार्य-विवेकानंद के बचपन के पाठ पढ़ाएँ। अपने कुल की परंपराओं का परिवार के साथ बैठकर अनुस्मरण करें। तुलसी बिरवे को और हरा तथा झाम-झूम करने की जुगत करें। तुलसी के पास रोज संझा वेला में दीप जलाएँ। समस्त प्राणियों की रक्षा और सुख की कामना करें। अपनी माँ के मुख पर उभर आई झुर्रियों को संवेदना की आँख से देखें। पिता की हथेलियों की कर्म-रेखाओं की गीता बाँचें। पत्नी की आँखों में उभरे सपनों के रंगों को पहचानें। बच्चों के खेल और उछल-कूद में संतति के उल्लास के अमर गान सुनें। अपने घर में रहते हुए घर में रहने का महत्त्व समझें। घर जीवन का आधार है। संस्कारों की पाठशाला है। इस समय सबसे सुरक्षित आदमी के लिए घर ही है। घर मनुष्य की वासंती रचना है।

कहते हैं कि चीन देश से कोरोना नामक एक झिलमिल विषाणु पैदा हुआ है। वह अदृश्य विषाणु है। वह शरीर के अंदर की गति को रोक देता है। फेफड़ों में घुसकर मानव के श्वसन-तंत्र को ही बंद कर देता है। वह अणु रूप में है। वह अत्यंत ही सूक्ष्म है। महामानव उसके सामने कुछ नहीं है। सूरा सामने हो तो उससे रण में जूझा जा सकता है। रोगाणु शरीर में दिखे तो उसे दवाई से मारा जा सकता है, पर इस झिलमिल विषाणु की तो कोई दवा ही नहीं है, कोई उपचार नहीं है, उसे वश में करने का कोई उपाय नहीं है। चिकित्सा-विज्ञान रात-दिन दवाई की खोज में लगे हैं। विकास की हेंकड़ी उसके सामने बर्फ जैसी पिघलकर रह गई है। विकसित देशों के मस्तक झुक गए हैं। अमेरिका ने घुटने टेक दिए हैं। इटली का गुमान धरा रह गया है। जर्मनी का अभिमान भंग हो गया है। स्पेन का गरूर ढह गया है। इंग्लैंड का घमंड चूर-चूर हो गया है। ब्राजील मुर्दाघर बन गया है। ईरान तेल चाटने लगा है। पाकिस्तान में हड़कंप मचा हुआ है। लगभग दो सौ देशों में कोरोना विषाणु के रूप में मौत बाँटकर चीन देश खुश है। यह जीवभक्षी देश अपनी महाशक्ति की राक्षसी वृत्ति पर इतरा रहा है। दक्षिण कोरिया के पाँव थोड़े सँभले हुए हैं। ऑस्ट्रेलिया को कुछ सूझ नहीं रहा है। जापान विवश है। विषाणु द्वारा पूरे संसार में मौत का तांडव हो रहा है। भारत के चिकित्सक हजारों लोगों का उपचार कर उन्हें स्वस्थ करने की पुरजोर कोशिश में हैं। भारत दवा और दुआ दोनों से काम ले रहा है। भारत दीप जलाकर उसे द्वार से बाहर ही रोक देने की फिराक में है। वह मानव-मानव के भीतर शक्ति प्रकाश को जगाने का लघु, किंतु सार्थक प्रयास कर रहा है। शरीर सबल हो और आत्मबल प्रबल हो, इसलिए वह शंखध्वनि और शंखनाद कर रहा है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अधिकारियों और अपने देश भारतवर्ष के औषधि-विशेषज्ञों से विचार और संवाद करके हमारे राष्ट्र-प्रमुख माननीय प्रधानमंत्री ने पूरे देश में तीन चरणों में तालाबंदी, नगरबंदी, गाँवबंदी, पूर्णबंदी का निवेदन और क्रियान्वयन कर बहुत हद तक महामारी के बीज-विषाणु से युद्ध कर उससे मानवता को बचाने का राजधर्म-सम्मत प्रयास किया है। जान है तो जहान है! यह बात भारतवर्ष के बहुसंख्यक समझदार लोगों को ठीक-ठीक समझ में आ गई है। सबने अभूतपूर्व सहयोग देकर भारत राष्ट्र की एकता का परिचय दिया है। अपने आत्मबल से साक्षात्कार किया है। घर में रहकर विषाणु को धमकाया है। लक्ष्मण रेखा खींचकर उसे फाटक के भीतर फटकने नहीं दिया है। शहरों से लेकर गाँवों तक, खेतों से लेकर वनों तक, सब इस महामारी की भयानकता को भाँप चुके हैं। पूरा देश इस मायावी विषाणु से लड़ाई की मुद्रा में खड़ा हो गया है।

विदेशियों की घुसपैठ, कुछ की नासमझी, कुछ कट्टरपंथियों की मृत्युकांक्षी गतिविधियों और कुछ आत्मघाती तथा परघाती सिरफिरों के कदाचरण से मानवता के उज्ज्वल माथे पर कलंक लगा है। इनके कारण और इनसे संक्रमित निर्दोष-निरपराध-भोले लोगों की प्राण-रक्षा में चिकित्सक, चिकित्सा सेविकाएँ, आशा कार्यकर्ता बहनें, पुलिसवाले बंधु-भगिनी, अधिकारी, सफाई कर्मचारी, जन प्रतिनिधि, समाज-सेवी, दूध, सब्जी, फल, भोजन सामग्री प्रदाताओं की अनमोल, प्रशंसनीय सेवाओं की वंदना में हमारे शब्दों के अर्थ ओछे पड़ रहे हैं। पर कुछ लोग हमारे प्राणरक्षकों और राष्ट्रसेवकों पर पत्थर बरसा रहे हैं। उन पर लाठियों से वार कर रहे हैं। उन पर थूक रहे हैं। उनके कपड़े फाड़ रहे हैं। बहनों से अभद्रता कर रहे हैं। यह जघन्य अपराध है। यह मानवता का अपमान है। यह कोरोना से भी तगड़ा विषाणु है, जो इस तरह से कृत्य करनेवालों को आज नहीं तो कल वैमनस्य के जहर से नष्ट कर देगा। भारतीय संस्कृति का अमर वाक्य है—‘दूसरे की हत्या करने के लिए, जिसके हाथ में तलवार होती है, एक दिन उसकी मृत्यु भी तलवार से ही होती है।’ विष मृत्यु चाहता है। सुधा अमरता चाहती है। नीचता यदि अपने किए पर पश्चात्ताप नहीं करती है, तो वह नीच को अंततः समाप्त कर देती है।

भलो भलाई पै लहहिं, लहहिं नीचहहिं नीच।

सुधा सराहिय अमरता, गरल सराहिय मीच॥

वर्तमान भविष्य का माली होता है। वर्तमान के हाथों भविष्य सुरक्षित रहता है। भारत अपने अंदर-बाहर अनेक संकटों का सामना करते हुए वर्तमान में हर मोरचे पर डटा हुआ है। उसने अपनी नीति नहीं छोड़ी है। अपनी मर्यादा का मान रख रहा है। अपने भीतर राष्ट्र-विरोधी और मानवता का अपमान करनेवाली ताकतों से भी वह नीति अनुसार धैर्यपूर्वक संवाद कर रहा है। सीमाओं पर शत्रु राष्ट्र बार-बार अशांति फैलाता है। मरियल कुत्ते की तरह बार-बार खींसें निपोरता हुआ लँगड़ाते-लँगड़ाते आतंकी हलचल पैदा करता है। भारत उससे भी अपना सुरक्षात्मक रवैया अपनाता हुआ आत्मरक्षा में सजग है। अपनी ओर से भारत कभी भी अनावश्यक आक्रामक नहीं होता है। उसकी अपनी विदेश नीति बहुत साफ-सुथरी और सर्वहितकारी है। वह राजधर्म, राष्ट्रधर्म और राजनीति अच्छी तरह जानता है। उसका शौर्य अपनी रक्षा के साथ-साथ सबकी रक्षा में ही चमकता है। कोरोना के संक्रमण के महादुष्काल में भारत अपने-पराए सबका उपचार करते हुए विश्व को भी दवाएँ और दुआएँ भेज रहा है। ऐसे समय में भी भारत द्वारा किए जा रहे अथक-अनथक-अचूक प्रयास भी भारत का ही अन्न-जल, खाने-पीनेवालों को रास नहीं आ रहे हैं। भारत पूरी मानवता के लिए वर्तमान परिस्थितियों में अच्छा कर रहा है, इससे भी कुछ के पेट में दर्द होता है। उनकी शल्य क्रिया जरूरी है।

आज २२ अप्रैल है। आज ‘पृथ्वी दिवस’ है। हम पृथ्वी के बेटे-बेटियाँ हैं। पृथ्वी पर पैदा होनेवाले सारे मनुष्य और जीव-जंतु पृथ्वी की संतानें हैं। वनस्पति उसके वस्त्र हैं। नदियाँ उसकी धमनियाँ और शिराएँ हैं। पर्वत उसके आभूषण हैं। समुद्र उसका विशाल हृदय है। मेघ छतरियाँ हैं। पृथ्वी को राजा प्रथु ने अपने कर्म के नवगीतों से उपजाऊ बनाया। पोषक बनाया। भरणी बनाया। हम सबको वह धारण करती है। वह धरणी है। धरित्री है। धरती है। अब बताइए उसके कुछ बेटियाँ-बेटे भक्ष-अभक्ष सब खा रहे हैं। उसने अपनी एक संतुलन व्यवस्था बना रखी है। मनुष्य सहित सारे-जीव-जंतुओं के भरण-पोषण की क्षमता उसने धारण कर रखी है। मनुष्य अपने बौद्धिक गुमान और धनलिप्सा तथा शक्तितृष्णा के औजारों से उसे ही नोंच रहा है। घायल कर रहा है। अपनी माँ का निर्मम दोहन कर रहा है। अपरिमित शोषण कर रहा है। माँ अपने दुःखों की गठरी कभी खोलती नहीं है। माता कभी कुमाता नहीं होती है, पर कपूतों को ठीक करने के लिए वह कुपित जरूर होती है। अनियंत्रित और रक्तलोलुप सत्यानाशियों के लिए वह कालिका का रूप भी धारण करती है। उसका एक रूप रणचंडी भी है। कोरोना जैसे झिलमिल खतरनाक विषाणु को अपनी बुद्धि की मृत्यु-प्रयोगशाला में पैदा करनेवालों के लिए वह परमाप्रकृति से महाप्रकृति बन जाती है। तब लाल सलाम, सफेद सलाम, हरा सलाम सब हेंकड़ी भूल जाते हैं। नमस्ते की मुद्रा पूज्य और महिमामयी धरती माँ के सामने नतमस्तक हो जाती है।

चैत-बैसाख संवत् २०७७ मार्च-अप्रैल २०२० के साल में कोरोना वायरस से पूरी दुनिया में हाहाकार मचा हुआ है। संक्रमित लोगों की संख्या २६ लाख पहुँच गई है। यह दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। लगभग दो लाख लोग पूरे विश्व में मृत्यु के मुख में समा गए हैं। सात लाख के लगभग लोग मौत के चंगुल से छूटकर स्वस्थ भी हुए हैं। भारत में संक्रमितों की संख्या २० हजार पार कर रही है। लगभग 7 सौ काल कवलित हुए हैं। चार हजार स्वस्थ भी हुए हैं। यह आँकड़े स्थिर नहीं हैं, बढ़ रहे हैं। भगवान् ही रखवाला है। कोरोना विषाणु की कोई दवा नहीं है। मनुष्य के शरीर में रोग-प्रतिरोधक क्षमता का होना या बढ़ना ही इसका एकमात्र निदान है, इसलिए सबकुछ तालाबंद है। जो जहाँ है, वह वहीं रह गया है। ज्ञात मानव सभ्यता के विकास के हजारो-हजार वर्षों के पुराण-इतिहास में ऐसा न देखा गया है, न सुना गया है। दो पहिया वाहन बंद हैं। मोटर, कार, ट्रक, चारचके, छहचके, आठचके, बारहचके, सोलहचके वाले वाहनों के चके थमे हुए हैं। रेलें बंद हैं। पटरियाँ सुस्ता रही हैं। रेलें आराम कर रही हैं। हवाई जहाज हवाई अड्डों पर थमे, जमे, रुके, टुकुर-टुकुर ताक रहे हैं। शहरों में सन्नाटा है। सड़कें सूनी हैं। उद्यानों में कोई पदचाप नहीं है। वन निर्जन हैं। नदियों के घाटों पर पानी है। पर स्नानपर्व नहीं है। सत्तू अमावस के दिन ओंकारेश्वर के तीर्थकोटि घाट, नागर घाट, गौमुख घाट उदास तपती धूप में शांत हैं। वे पंचाग्नि में तप रहे हैं। साधु, संत, योगी, तपी, वैरागी, जोगी के आश्रम में अखंड शांति पसरी है। धूनी की आग निर्धूम जल रही है। केवल अलख निरंजन गूँज रहा है।

दादा-दादी से बचपन में ऐसी ही महामारियों के बारे में सुना है। गाँव के गाँव साफ हो गए थे। यह कोई सन् १९१८-२० की बात है। सौ साल बाद फिर महाविनाश हँस रहा है। काल का अकुंठ नृत्य हो रहा है। अति लघु विषाणु ने सबको अपनी नानी याद करा दी है। सबकी सिट्टी-पिट्टी गुम है। सबका गर्व भूलुंठित है। सबका मद चूर है। सबकी आँखें भयातुर हैं। सबके सपने सो गए हैं। अपनी भीड़ और अपनी भागमभाग से पूरी दुनिया को कच्च-मच्च करके बरबादी के सूखे कुएँ तक पहुँचाने वाले महामानव को कुछ भी नहीं सूझ रहा है। प्रकृति पर अत्याचार करनेवाला बलशाली अपने दोनों घुटनों के बीच मुंडी नीची कर सुबक रहा है। क्या प्रकृति बदला ले रही है? नहीं! प्रकृति संतुलन बना रही हैं, सफाई कर रही है। कामायनी की पंक्तियाँ याद आती हैं—‘प्रकृति रही दुर्जेय और हम सब थे निरुपाय।’

इस लॉकडाउन या तालाबंदी के लगभग ४० दिनों से आदमी अपने-अपने घर में बंद है। जो लोग गाँव छोड़कर शहरों में काम करने और नगरों में रहने के सपने सँजोकर गाँवों को उजाड़कर चले गए हैं; उन्हें अब अपने-अपने गाँव-घर याद आ रहे हैं। गाँव की गलियाँ याद आ रही हैं। गाँव के काका-काकी, भैया-भाभी, माँ-बाप, दाजी-माय, बहन-भानजी, घर-आँगन, गाय-ढोर याद आ रहे हैं। अपने गाँव की नदी याद आ रही है। अमराई याद आ रही है। मंदिर याद आ रहा है। खेड़ापति के ओटले के पीपल पर फहराती धजा याद आ रही है। खेत-बाड़ी याद आ रहे हैं। हँसी-ठिठोली याद आ रही है। गाँव बाहर नीम-बड़ के नीचे बैठे देवधामी याद आ रहे हैं। भजन-कीर्तन याद आ रहे हैं। रात के सन्नाटे में झाँस और मृदंग की आवाज याद आ रही है। जिन घर-आँगन को उदास और धुणीधार रोता छोड़ आए हैं, जिस घर के किवाड़ों को बिलखता अकेला छोड़कर उन पर तालाबंद कर आए हैं, तालाबंदी के इस दुशासनी समय में उन्हीं किवाड़ों के तालों के लिए हजारों पाँव-हाथ आतुर हो उठे हैं। हजारों पाँव सैकड़ों किलोमीटर की पदयात्रा करते हुए घर-गाँव की ओर चल पड़े हैं। कुछ भी कहो—गाँव माता के गरभ सरीखा होता है। वह पाल लेता है। वह भूखे नहीं मरने देता है। गाँव के पास बदलाव की बहार पहुँच गई है। फिर भी, फिर भी अभी गाँवों में बहुत कुछ भारत बचा हुआ है। सौभाग्य से अभी तक यह सत्यानाशी विषाणु गाँवों से दूर है। गाँव कर्मपूजक हैं। श्रमशील हैं। शरीरक्षम हैं। भौतिकतावादी शरीर से निबल है, पर आत्मा से सबल है। तालाबंदी और संगरोध या शारीरिक दूरी तो गाँव-जंगल में स्वाभाविक रूप से है। यह समय है गाँवों को आत्मनिर्भर बनाने का। लोग गाँवों में रहकर जीवन की सीमित आवश्यकताओं की वस्तुओं का अपने घर-गाँव में ही निर्माण करें। गाँवों में जीवन सुरक्षित रहेगा। वनों में जीवन बचा रहेगा। देखो! नदी के जल की सतह से सोनमछरिया ने उछाल भरी है।

भारतवर्ष के पुराण-इतिहास में नागर सभ्यता के प्रमाण भी मिलते हैं। हमारे यहाँ मालव, तक्षशिला, मगध, कपिलवस्तु, हस्तिनापुर, इंद्रप्रस्थ, अयोध्या, उज्जैनी, काशी, अमरावती जैसे नगर रहे हैं। इनके आसपास सैकड़ों-हजारों गाँव भी रहे हैं। ब्रजमंडल तो जगजाहिर है। भगवान् श्रीराम की वन-गमन यात्रा तो गाँवों से मिल-भेंट करते हुए ही संपन्न हुई है। जिस स्वच्छता, पवित्रता और शारीरिक दूरी की बात हम आज जरूरी मान रहे हैं, वह तो भारतवर्ष की संस्कृति और हिंदू-जीवनविधि में बरसोबरस से रही आ रही है। भारतीय संस्कृति में एक-दूसरे को चूमने-चाटने का संस्कार कभी नहीं रहा है। यहाँ तक कि शारीरिक संबंध का भी नियम और मर्यादा रही है। हाथ मिलाकर स्वागत करने की आदत हमारी नहीं है। हमारे पूर्वजों ने तो हाथ जोड़कर प्रणाम-नमस्ते कर अभिवादन करना सिखाया है। झुककर चरण-स्पर्श कर आशीर्वाद लेने के सुमन खिलाए हैं। संयुक्त परिवार तो स्वयं के आचरण, मर्यादा, अनुशासन और स्वच्छता-पावनता की पाठशाला रहा है।

भारतीय संस्कृति में एक-दूसरे को चूमने-चाटने का संस्कार कभी नहीं रहा है। यहाँ तक कि शारीरिक संबंध का भी नियम और मर्यादा रही है। हाथ मिलाकर स्वागत करने की आदत हमारी नहीं है। हमारे पूर्वजों ने तो हाथ जोड़कर प्रणाम-नमस्ते कर अभिवादन करना सिखाया है। झुककर चरण-स्पर्श कर आशीर्वाद लेने के सुमन खिलाए हैं। संयुक्त परिवार तो स्वयं के आचरण, मर्यादा, अनुशासन और स्वच्छता-पावनता की पाठशाला रहा है।

मुझे अच्छी तरह याद है, माँ सूर्योदय के बहुत पहले उठकर घर-आँगन का झाड़ू बुहारा करती थीं। फिर वह दही बिलोती थीं। फिर वह गीत गाते हुए आज के भोजन का अनाज दलती थीं। घट्टी की घरर-घरर के साथ उसके गीत की लय भी प्रभाती में मंगल और शुभम् को आमंत्रित करती थी। फिर गोबर-पूजा करने के तुरंत बाद नहाती थीं। तब चौके में जाती थीं। चौके में चूल्हा मिट्टी का होता था। चूल्हे पर और चौके में वह तुक्कस में पानी में गोबर घोलकर चौका लगाती थीं। तब भमूघर में दबे अंगारे को जाग्रत् कर चूल्हा जलाती थीं। चूल्हे पर सबसे पहले अभी दूहकर लाया गया गाय-भैंस का दूध तपाया जाता था। तब दूध, दही, मही का घर के सदस्यों द्वारा पान होता था। उसके बाद चूल्हे पर भोजन बनता था। घर, आँगन, चौगान, सुबह-शाम बुहारा जाता था। सुबह के बरतन भोजन के तुरंत बाद और रात्रि के भोजन के बरतन तुरंत बाद राख से माँजे जाते थे। रात में चौके में जूठे बासण नहीं रखे जाते थे। उन्हें माँजकर ही और चौके को बुहारकर ही माँ रात का दूध तपाकर, फिर उसे ठंडा कर, उसे जमाकर वह नींद मैया की गोद में जाती थीं।

यह एक घर का नहीं, भारत के घर-घर का नियत कर्म था। विज्ञापन में विज्ञान तो आज कह रहा है कि जूठे बरतनों में कीटाणु एक मिनट में सैकड़ों गुणा बढ़ जाते हैं। घर में कोई अतिथि आता था तो सबसे पहले उसके पाँव और हाथ-मुँह धुलवाया जाया था। घर के लोग बाहर से काम पर से या गाँव में से आते थे, घर के भीतर अनिवार्य रूप से पाँव धोकर ही घुसने दिया जाता था। पिताजी जब भी बीड़ या हरसूद का बाजार जाते, वहाँ से आकर नहाते थे। बाजार में भी पानी कुएँ का ही पीते थे। जीवन भर उन्होंने होटल का मुँह नहीं देखा। माता-बहनों की चार दिन की अवधि में उनको भोजन नहीं बनाने दिया जाता था। भारी काम नहीं करवाया जाता था। उन्हें अधिक विश्राम करने दिया जाता था। उस अवधि में उनके भोजन के बासण अलग रहते थे। उनके सोने-बिछाने के कपड़े अलग रहते थे। चार दिन बाद उन्हें धो लिया जाता था। बच्चे के जन्म के समय से सवा महीने तक जज्जा-बच्चा दोनों को लाग-बिलाग से बचाए रखा जाता था। उनका अलग कमरा या अलग जगह होती थी। तीन दिन का सूतक, सात दिन की जलवाय और सवा महीने बाद सूरजपूजा, जलपूजा माँ-बच्चे को पवित्र वातावरण और परिवेश में रखने के वैज्ञानिक स्वच्छता अनुष्ठान हैं। श्मशान से लौटने के बाद आज भी मेरी पत्नी किसी वस्तु को हाथ नहीं लगाने देती है। पहले पीछे जाओ। खुले में स्नान करो। फिर घर में आओ। मृत्यु के बाद घर में तीन दिन का सूतक और फिर घर के सारे उपयोग में रात-दिन आनेवाले कपड़ों को धोना, आज भी गाँव में तीन दिन बाद पूरे घर-आँगन को लीपना हमारे पुरखों द्वारा विरासत में दी हुई विज्ञान सम्मत स्वच्छ-स्वस्थ परंपराएँ हैं। स्वास्थ्य रक्षक, सर्वहितकारी, कर्मण्य आचरणशीलता को वर्तमान में अपनाने हेतु हमें गंभीरता से सोचना है। इस महामारी से उबरने के बाद पूरी दुनिया में सांस्कृतिक बदलाव आएगा। आना चाहिए। भारतीय सनातन धर्म की रीति-नीति पर पूरी दुनिया का ध्यान जाएगा। विश्व जीवन का नया सवेरा सनातन जीवन-पद्धति से ही होगा। हमारा ‘नमस्ते’ विश्व को प्राथमिक और प्रारंभिक संकेत तो दे ही रहा है।

पूरी महामारी के महाभारत में भारतवर्ष की भूमिका श्रीकृष्ण की है। उसे सत्य के लिए लड़ना है। मानव धर्म को बचाना है। हिंसा को हतोत्साहित करना है। दुष्प्रवृत्ति को कुचलना है। षड्यंत्र को उसी के द्वारा खोदे गए गड्ढे में दफन करना है। चीरहरण करनेवालों के हाथों को शिथिल करना है। मौत के हरकारों को अँधेरी कंदराओं से हाँकना है। गटर का पानी मिले विष से सींचे जानेवाले वृक्षों में कभी अमृत फल नहीं लगते हैं। अधर्म पर चलनेवालों के पाँवों की फटी बिवाइयों से हमेशा खून रिसता रहता है। उस दर्द को विधर्मी कह भी नहीं पाते और पी भी नहीं पाते हैं। दगा किसी का सगा नहीं होता है। ईर्ष्या की आग सबसे पहले ईर्ष्यालु का ही चुपके-चुपके खून पीती रहती है। संख्या और शक्ति का अहंकार हस्तिनापुर का अंततः नाश कर देता है। चाहे चीन हो, चाहे अमेरिका, चाहे खड्डूस अन्य देश कोई भी हमेशा-हमेशा प्रबल, महाशक्ति और अमर बनने का दावा नहीं कर सकता है। हमारे देखते-देखते ही महाशक्ति बना रूस बिलखकर किरच-किरच हो गया है। मिस‍्र, यूनान, बेबीलोन, ग्रीस, मेसोपोटामिया सब मिट गए। जब वो नहीं रहे, तो ये भी चिरमहाशक्ति बने रहने का प्रमाण-पत्र नहीं पा सकते हैं। बचेगा वही, जो धर्मनीति का सृष्टिहित में पालन और अनुसरण करता रहेगा। भारत की संस्कृति सनातन है। उसका प्राण धर्म है। अहंकार और अधर्म नाश का निश्चित कारण हैं—

अहंकार में तीनों गए, धन, वैभव और वंश।

ना मानो तो देख लो, रावण, कौरव, कंस॥

अनेक विद्वान् कह रहे हैं कि भारतीय ज्योतिषशास्त्र में इस तरह की महामारी की भविष्यवाणी होती रही है। अनेक वैज्ञानिक भी यह प्रमाणित करने पर तुले हैं कि यह विषाणु चमगादड़ों से नहीं फैला है, बल्कि यह चीन की बीमार महत्त्वाकांक्षी मृत्यु-प्रयोगशाला में बनाया गया है। जो भी हो, यह जो कुछ भी हुआ है, अच्छा नहीं हुआ है। हमारे ऋषि मुनि भी त्रिकालदर्शी थे। हमारे यहाँ भी एक से बढ़कर एक चौदह महाविद्याएँ रही हैं। चौंसठ कलाएँ रही हैं। उन सबका शोधन, साधना और उपयोग लोकमंगल और लोकउत्कर्ष के लिए ही होता आया है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी रामचरितमानस के उत्तरकांड में मानस रोगों की चर्चा की है। भविष्य या कलिकाल में उनके होने की बात भी कही है—

एक व्याधि बस नर मरहिं, ए असाधि बहु व्याधि।

पीड़हिं संतत जीव कहुँ, सो किमि लहै समाधि॥ (दोहा १२१)

जब ऐसी असाध्य बीमारी से लोग मरने लगेंगे, और ऐसी अनेक बीमारियाँ आनेवाली हैं, ऐसे समय में वैद्यकीय या चिकित्सकीय उपचार के साथ-साथ आत्मबल बढ़ाने तथा शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता पैदा करने के लिए तुलसीदास लिखते हैं—नियम, धरम, आचरण, तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान भी धर्म औषधियाँ हैं। वैद्यों और चिकित्सकों द्वारा दी जानेवाली औषधियों के सेवन से संभव है, रोगी ठीक भी हो जाए। जैसा कि कोरोना विषाणु से लड़कर लोग स्वस्थ भी हो रह हैं। पर इसके साथ ही वे समस्त मानव जाति और प्रकृति के हित में महत्त्वपूर्ण संदेश भी देते हैं—

राम कृपा नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा॥

सदगुरु वैद वचन विश्वासा। संजम यह न विषय कै आसा॥

रघुपति भगति संजीवनी मूरि। अनुपायनि श्रद्धा मति पूरी॥

एहि विधि भलेहिं सो रोग नसाहिं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहिं॥

कठिनाइयों का अर्थ यह है कि हम आगे बढ़ें। यह नहीं कि हतोत्साहित हों। कोरोना को डराना है। कोरोना को हराना है। विश्वास वह शक्ति है, जिससे उजड़ी हुई दुनिया को बसाया जा सकता है। आत्मविश्वास वह तत्त्व है, जिससे अँधेरी रातों को सुबह के आलोक से स्वर्णिम किया जा सकता है। ध्यान रहे कि जीवन नियमों से बँधा होना चाहिए। बिना नीति-नियम का जीवन पशु समान है। यद्यपि पशुओं का जीवन भी प्राकृतिक नियमों से परिचलित होता है। यह संकट का समय है। यह समय प्रभु से कुछ माँगने का नहीं, बल्कि जो उसने हमें दिया है, उसका आभार प्रकट करने का है। महामारी आती है, चली जाएगी। डरना नहीं। घबराना नहीं। सतर्क रहना है। चौकस रहना है। हमारे वैज्ञानिक, चिकित्सक इसकी दवाई बनाने में रात-दिन एक कर रहें। जल्दी ही आशाजनक परिणाम निश्चित ही आएँगे। पिछले तीन-चार वर्षों में भारत के संवेदनशील और धर्मज्ञ राष्ट्रभक्त राष्ट्रप्रमुख ने ‘स्वच्छ भारत अभियान’ से भारत के कोने-कोने को स्वच्छ-स्वस्थ भाव से महान् बनाया है। उससे भी यह दुष्ट विषाणु अपने पाँव नहीं पसार पाएगा। यदि यह कोरोना वास्तव में जीवयोनि में है, तो पुनर्जन्म और कर्मफल सिद्धांत के आधार पर इसे भी अगले जन्मों में घोर यातना एवं रौरव नरक भोगना पड़ेगा। इसलिए हे तुच्छ प्रबल विषाणु-कोरोना! ऐसा मत करो ना। हम मात्र जीव नहीं, मनुष्य हैं। यह धरती मानवता से जगमग होती रहे। प्रेम की नर्मदा बहती रहे। हम हार नहीं मानेंगे। पता नहीं, हमारी हर अगली कोशिश सफलता का द्वार खोल दे। शुद्ध विचारों से ही शुद्ध और सत्य कार्य संपन्न होते हैं। शुद्ध जीवन मिलता है। जीवन सुंदर है। जीवन सौभाग्य है। प्राची में अरुणोदय हो रहा है। आम्रतरु पर कोयल कूकने लगी है। एक चिड़िया चोंच में तिनका लेकर नीड़ बनाने में जुट गई है। इति शुभम्।

—श्रीराम परिहार

आजाद नगर

खंडवा-४५०००१

दूरभाष : ०९४२५३४२७४८

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