हमारा असली नववर्ष

हमारा असली नववर्ष

दिसंबर की आधी रात से जो शुरू होता है, वह भारतीय नववर्ष न होकर एक अंग्रेजी उत्सव है, जो अंग्रेज हमें अपनी भाषा की गुलामी के साथ ‘बाई वन, गैट वन’ फ्री में दे गए हैं। मूल रूप से यह शहरों का त्योहार है, वहाँ के वासियों में से भी कुछ गिने-चुने लोगों का। सात-तारा होटलों से प्रेरित होकर हमारे नगर के ‘ढाबे’ भी इस अवसर पर विशेष रूप से सजते ही नहीं, स्पेशल ‘मैन्यू’ भी प्रस्तुत करते हैं। उन्हें एक ही दुःख है। उस दिन वह नाच-गाने का कार्यक्रम किसी प्रसिद्ध सिने तारिका के साथ आयोजित नहीं कर पाते हैं। न ठीक आधी रात को कुछ पलों के लाइट ऑफ करके ‘हैप्पी न्यू ईयर’ का बेसुरा कोरस दोहराने में सक्षम हैं। यों इस पराए नए का वर्ष बेसुरा स्वागत होना ही होना। मोटी प्रवेश शुल्क की राशि चुकाकर, और एवज में फ्री की दारू चढ़ाकर, वह सुर क्या, होश से भी बेसुध हैं। कुछ उलटी कर रहे हैं, कुछ करने के कगार पर हैं। बड़े अफसर, सियासत की हस्तियाँ मुफ्त में आमंत्रित हैं। उन्हें ‘पास’ की सुविधा है, जो उनके भक्तों अर्थात् उद्योगपतियों ने अपने निहित स्वार्थ के खातिर, मोटी राशि देकर खरीदी और उन्हें उपलब्ध कराई है।

कुछ इन ‘खासों’ में भी खासमखास हैं। उनके लिए ‘सुइट’ का प्रबंध है। चाहे तो वहीं रात बिताएँ। दुनिया की नजरों से छिपकर रँगरलियाँ करें और सुबह नहा-धोकर, तरो-ताजा होकर नए साल की आगवानी। यह ठाठ सीमित संख्या में भी, सीमित भाग्यशालियों के हैं, वरना अधिकांश बाबू-बड़े बाबू तो गिफ्ट-भेंट से ही संतुष्ट हैं। इनमें भी कुछ छँटे, स्कूटर नहीं, तो सस्ती छोटी कार भी हथिया लेते हैं, अपनी लंबी और बिना उफ की गई मालदार ठेकेदार की सरकारी सेवा के लिए। न ठेकेदार के बिल पर आपत्ति लगती है, न उसके ठेके की अनाप-शनाप राशि पर। यह भेंट-गिफ्ट की त्योहारी परंपरा अंग्रेजों की ही आयातित देन है। कंपनी काल से सामंती राजा-बादशाहों को वह अपने हित व स्वार्थ-साधन के लिए कुछ-न-कुछ ‘नजराना’ देते रहे। गोरों की इस छोटी सी भेंट में इन शासकों को ऐसा उल्लू बनाया कि कब वह शासक से शासित हो गए, उन्हें पता ही नहीं चला।

सरकार ऐसे अपने दो हाथ की मानसिकता वाले कर्मचारियों के प्रति खासी उदार है। वह एक हाथ से लेते और दूसरे हाथ से देते हैं। जो वह ऐसी दरियादिली से लुटाते हैं, वह हमारी-आपकी कमाई की खून-पसीने की रकम पर लगा आयकर है। जानकारों का मत है कि यह भ्रष्टाचार न होकर सदाचार का सामूहिक प्रयास है। इसकी ‘दर’ आम राय और बाजार के रुख से निर्धारित होती है। इसके पीछे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि सरकारी कर्मी और ठेकेदार दोनों में उसे किसी को भी यह दंड न लगकर कागज या फाइल का नॉर्मल भ्रमण या एक मेज से दूसरी तक जाने के सफर का व्यय है। कहने को भारतीय रेल जनता की संपत्ति है। पर उसमें भी सफर का शुल्क तो लगता ही है। बाबू-बड़े बाबू भी दिन-रात सरकार की सेवा में निस्स्वार्थ जुटे रहते हैं। यदि उनके भी रसद-राशन का प्रबंध इस तकनीक द्वारा हो जाए तो इस में किसे आपत्ति होगी?

वेतन तो दहेज, मंदिर के प्रसाद, पान-सिगरेट, हारी-बीमारी जैसे फुटकर और अनिवार्य खर्चों के लिए सुरक्षित रहे, वरना सरकार में काम करने का लाभ ही क्या है? ज्ञानी-विज्ञानी सभी कहते हैं कि वर्तमान सदी तकनीक का युग है। लाजमी है कि सरकारी कर्मी भी इसका पालन करें। इस तकनीक में से किसी को शिकायत क्यों हो? इसके पीछे मिल बाँट के खाने, पूरे दफ्तर के सहअस्तित्व और ‘सर्वजन सुखाय’ की शक्ति निहित है। यह प्रबंधन का अनुकरणीय भारतीय उसूल है। धीरे-धीरे इसका व्यापक अनुकरण लाजमी है और प्रसार होना ही होना। अनिवार्य है कि ऐसा होकर रहे। कोई आश्चर्य नहीं जबकि विश्व भारत को ज्ञान का ही नहीं, प्रबंधन का भी गुरु मानने लगे। भारतीय व्यवस्था कोरोना जैसी संक्रमणीय है। एक बार किसी को लगे तो उसका कोई निदान नहीं है, न उसके उन्मूलन की कोई वैक्सीन है। वक्त के साथ विश्व को स्वीकार करना पड़ेगा कि जैसे हमने सूझ-बूझ के साथ कोरोना का प्रबंधन किया है, वैसे ही हम दफ्तर प्रशासन की कार्यकुशलता में भी सक्षम हैं। कोर्ट-कचहरी कितना भी प्रयास करें। करते-करते इस व्यवस्था में ढलें भले ही, परिवर्तन लाने में असमर्थ हैं। भ्रष्टाचार आज सरकारी कर्मियों की साँसों में दौड़ रहा है, इसकी ‘डायलिसिस’ कैसे हो?

नया वर्ष धूमधाम से मनाएँ पर भेंट-गिफ्ट की लूट तो न हो? हमें विश्वास है कि ऐसा न अब इंग्लैंड तक में नहीं होता है। वह हमें डाली-प्रणाली सिखा गए और इस लूट से खुद बच निकले? कौन कहे, उनका इरादा यही हो कि ऐसी विषबेल बोकर जाओ कि भविष्य की पीढ़‌ियाँ भ्रष्ट हो जाएँ? हर त्योहार में अंदर का उत्सव न हो बस बाहर की लूट का आकर्षण बचे? कँपकँपाती हुई ठंड में नए वर्ष का स्वागत अपनी जान पर खेलकर कौन करेगा? मौसम का प्रभाव है कि रात को पूरी-की-पूरी सड़क खाली है, बस सजावट की रंग-बिरंगी लाइट की लड़‌ियाँ अपनी किस्मत को जैसे कोस रही हैं।

दरअसल, परिवर्तन लचीलेपन का द्योतक है। इसके दर परिविर्तनशील है। इसके दर हैं कि लगातार ऊपर बढ़ते हैं। जब कभी बाजार नीचे आता है तो उनका भी नीचे आने में यकीन है जैसे हालिया कोरोना काल में हुआ वरना फाइल की यात्रा के स्टील फ्रेम में इसके शुल्क में नीचे आने की काल्पनिक गुंजाइश भी नहीं होती है। अनुभवी ज्ञान देते हैं कि नीचे आना एक अकल्पनीय अपवाद है, नहीं तो सरकार है कि ठप्प पड़ जाए। फाइल पर बिना किसी लालच चिड़‌िया कौन ब‌िठाए? कई बुजुर्गों की मान्यता है कि वेतन तो संघर्ष करके दफ्तर पहुँचने का खर्च है, जैसे हर मौसम में तय समय पर बिस्तर तजकर तैयार होना, बच्चों को स्कूल छोड़ना, इस बीच चाय पीना, सुबह-सुबह दूध लाना, सिटी बस पर हर बाधा पारकर बैठना, दफ्तर के पास उतारना रोजाना का युद्ध नहीं तो और क्या है? काम एक अलहदा मसला है। या तो यह ‘ऊपर-टाइम’ से संपन्न होता है या फाइल के सफर के शुल्क से। कइयों का आरोप है कि सरकार और भ्रष्टाचार दो ऐसे शब्द हैं, जो एक-दूसरे के पर्याय हैं। इनकी अक्ल में यह नहीं आता है कि प्राइवेट कंपनी के ‘कार्यालयों की भी वैसी ही दुर्दशा है। नहीं तो त्योहार, उत्सव, नए वर्ष के अवसर पर भेंट-गिफ्ट का प्रबंध कैसे होता? यह तो त्योहार की भेंट है। रस्म है। उत्सव को मनाने का अंदाज है। पुरानी परंपरा के अनुरूप है। अंग्रेजों के शासन में नए साल के उत्सव की डाली-भेंट अब तो दशकों से चली आ रही है। इसे भ्रष्टाचार या करप्शन कहना नाइनसाफी के अलावा और क्या है? गोरे साहब तो कबके विदा हो गए, उनके काले साहबों की मानसिकता का कोई क्या करे जिन पर उनका प्रभाव है। सूट-बूट-टाई से किसे परहेज होगा, पर जनसेवक कहलाना और जनता के लिए वास्तविक सेवा-भाव का अभाव दर्दनाक और आलोचना के मुद्दे हैं। दुखद है कि पुलिस भी यही करे और जिले का प्रशासनिक हाकिम भी। यह प्रजातंत्र के मखौल का विषय है।

नया वर्ष धूमधाम से मनाएँ पर भेंट-गिफ्ट की लूट तो न हो? हमें विश्वास है कि ऐसा न अब इंग्लैंड तक में नहीं होता है। वह हमें डाली-प्रणाली सिखा गए और इस लूट से खुद बच निकले? कौन कहे, उनका इरादा यही हो कि ऐसी विषबेल बोकर जाओ कि भविष्य की पीढ़‌ियाँ भ्रष्ट हो जाएँ? हर त्योहार में अंदर का उत्सव न हो बस बाहर की लूट का आकर्षण बचे? कँपकँपाती हुई ठंड में नए वर्ष का स्वागत अपनी जान पर खेलकर कौन करेगा? मौसम का प्रभाव है कि रात को पूरी-की-पूरी सड़क खाली है, बस सजावट की रंग-बिरंगी लाइट की लड़‌ियाँ अपनी किस्मत को जैसे कोस रही हैं। यही हाल ढाबे वाले का है। लोग घरों में रहकर अपनी जान की खैर मनाएँ कि बाहर आकर ढाबे को कृतार्थ करें? उसने अनुमान लगाया था कि आज ग्राहक अधिक पधारेंगे, उसकी विशेष ‘डिश’ ‘पनीर दो प्याजा’ को चखने के लिए। कुछ तो उसे घर भी ले जाते हैं नान-पराँठे के साथ।

त्योहार के दिन रसोई को आराम देकर सब उत्सव की दावत उड़ाएँ। पर यहाँ तो उलटा आलम है। नियमित ग्राहक तक नहीं पधारे हैं, पौवा चढ़ाकर, मिलावटी पनीर और मैदे के बने पराँठे के जहरीले मिश्रण का स्वाद लेने। अधिकतर इन में तीन पहियों के स्कूटर चालक और कभी-कभार मजबूर दिहाड़ी के मजदूर होते हैं, जो पैसे लुटाकर अपना निजी दारू का उत्सव मना लेते हैं। फिर घर जाकर बीबी-बच्चों पर हाथ उठाकर नशा उतारते हैं।

इनसे भी उदास आज ढाबे का मालिक है। उसका जी कर रहा है कि रोशनी की लड़‌ियाँ नोचकर फेंक दे। ऐसा निराशायुक्त नववर्ष! जहाँ शुरुआत ही इतनी त्रासद और नुकासनदेह है, वहाँ भविष्य का क्या होगा? इतना माल और पैसा लगाकर लजीज पकवान बनाए हैं, उन्हें क्या फेंकना पड़ेगा? रोटी-पराँठे तो भविष्य में काम आ जाएँगे पर मिलावटी माल तो टिकेगा भी नहीं? ‘पनीर दी प्याजा’ कल तक ऐसा सड़ेगा कि दूर-दूर तक गँधाएगा। इनसान तो उस गंध से दूर रहकर बिदकेंगे, सड़क पर टहलते ढोर-मवेशरी शायद खा लें। ऐसे समय के साथ जानवरों के नखरे भी कुछ ज्यादा हो गए हैं। बासी तक तो वह खा लेते हैं, पर इस सड़ाँध से गँधाते पनीर और अन्य सब्जी सामग्री से शायद उनको भी एतराज हो? क्या कहें? उनके दिमाग भी सातवें आसमान पर हैं। दरअसल ढाबों की पूरी कतार है। सब उदार हैं, उन्हें बासी खिलाने में। वह इसे धर्म-परोपकार समझते हैं। पैसे ग्राहक को ‘चीट’ कर कमाए तो कुछ पुण्य भी कमा लें, भूखे पशु-ढोरों का पेट भरकर। इस पुण्य की साध में बड़ा प्रतियोगी वातावरण बन गया है। ग्राहकों के पास भी चयन की सुविधा है, ढोरों के पास भी। दोनों उसका उपयोग करने को स्वतंत्र हैं। बहरहाल इस बार का अंग्रेजी नववर्ष ढाबों को भारी पड़ा है और सात-पाँच तारा होटलों को भी। ऐसा कम ही होता है पर इस बार कोरोना का टिका प्रदूषण और नए साल का दुर्भाग्यपूर्ण आगमन साथ-साथ होकर, सबके लिए वैसे ही निराशाजनक और हानिकारक है, जैसे किसी गंभीर मरीज से उसके जन्मदिन पर पार्टी की अपेक्षा।

गनीमत है कि यह दुर्दशा शहरों तक सीमित है। गाँव अब भी तुलानात्मक रूप से इस कोरोना-प्रदूषण से मुक्त हैं। वैसे वहाँ नए वर्ष की खबर तो है पर उसके उत्सव मनाने का न कोई आयोजन है, न प्रबंध। यों फार्महाउसों के नकली गाँववालों ने नए वर्ष के उत्सव मनाने का दृढ़ निश्चय किया है। मास्क लगाए लोग अँगीठी तापते दारू चढ़ाए शीतयुद्ध से संघर्षरत हैं। उन्हें एक ही पीड़ा है। सामाजिक दूरी के प्रचलित चलन ने उन्हें सुंदर सजी-धजी महिलाओं के शारीरिक ताप से विवशाता में दूर रखा है। पर वह मन को समझाते हैं कि ‘जान है तो जहान है।’ इस बार नहीं तो न सही, अगले वर्ष तो नए शरीर की नावेल्टी मुमकिन होगी। वह अब इसी के लिए लालायित हैं। फिर भी शहरों के फार्म हाउस में कुछ नए वर्ष की रौनक तो है। शहरों के महत्त्वपूर्ण व्यक्ति, नेता, अफसर, उद्योगपति, संपादक आदि सब ही इन पार्टियों का आनंद उठाते हैं। होटलों का आकर्षण अब उतार पर है। अब जोर ऐसे नकली किसानों के शानदार आयोजनों पर है। इनमें महत्त्वपूर्ण सौदे तय होते हैं। यह महत्त्वपूर्ण व्यक्ति सोचते हैं कि वह देश का भविष्य बना-बिगाड़ रहे हैं।

दीगर है कि यह ऐसे व्यक्तियों का मात्र मुगालता है। भारत ऐसे किसी भी देष की किस्मत का फैसला चंद व्यक्तियों के फैसलों पर न निर्भर है न प्रभावित। ऐसी खामखयाली केवल इनके अहम की तुष्टि के साधन हैं। वरना यह केवल इनके अपने मुनाफे का सौदा है। एक दो करोड़ अंटी में आए। नेता की नियमित निजी आमदनी में इजाफा भी हो। ऐसी विशेष पार्टियों का आयोजन भी आसान है। हजारों रुपयों में कोई-न-कोई पेशेवर ‘इवैंट-मैनेजर’ इनका प्रबंध कर देता है। प्रशंसा फार्महाउस वाले आयोजक की सुरुचि की होती है। जबकि सब जानते हैं कि इसमें उसका कोई हाथ नहीं है, सिवाय इवैंट-मैनेजर का बिल चुकाने के। पर ‘होस्ट’ की तारीफ सभ्य समाज का तकाजा है। यों करने में हर्ज ही क्या है? ऐसे झूठ तो दिनभर बोले जाते हैं, एक-दूसरे के सामने। असली आकलन पीठ पीछे हो ही जाएगा, उसकी घटिया पार्टी के स्तर की आलोचना करके।

असली गाँववाले को प्रतीक्षा है गेहूँ के ऊँचा होने और उसमें बाली पड़ने की। यही वह वक्त है, जब आम में बौर भी आते हैं। समय के इस सुनहले मोड़ पर देसी नववर्ष चैत में चैती गाकर मनाया जाता है। यही वह समय है, जब इनसान न ठंड में ठिठुरते हैं, न गरमी के अतिरेक में पसीने-पसीने होते हैं। फूली सरसों इसमें प्राकृतिक रंग भरकर इसे और मादक तथा आकर्षक बनाती है। किसान करोड़ों का पेट भरते हैं। यदि कुदरत की इस क्रांति से करोड़ों का कल्याण होता है तो यह अपने आप में उत्सव का प्रेरक है। स्वाभाविक है कि अपनी सूझबूझ से ग्रामवासी इसे अपना नया वर्ष मानें, जो वास्तव में नया है, बजाय थोपे गए ठिठुरते नए साल को, जो केवल कुछ की गुलाम मानसिकता में बसता है। यह शुभ दिन बहुधा होली के बाद आता है।

 —गोपाल चतुर्वेदी

९/५, राणा प्रताप मार्ग, लखनऊ-२२६००१

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