सोमनाथ मंदिर : दिव्यता कण-कण में व्याप्त है

गुजरात एक ऐसा राज्य है, जहाँ एक बार जाकर मन नहीं भरता। इसीलिए कई बार वहाँ जा चुकी हूँ। 2019 के दिसंबर के महीने में जब गिर नेशनल पार्क जाने का प्रोग्राम बना तो सोमनाथ मंदिर तो जाना ही था, जो वहाँ से केवल दो घंटे की दूरी पर ही है। ‘बहुत बार लूटा गया और बहुत बार बना’, इस मंदिर के बारे में जब भी कोई बात करता है तो यही कहता है। इसकी संपदा को आक्रमणकारियों ने लूटा, इसे बार-बार ध्वस्त किया और आज भी यह शान से खड़ा है। कहा जाता है 17 बार इसे लूटा गया था।

इसकी भव्यता और महिमा का एहसास मंदिर में प्रवेश करने से पहले ही हो गया था। भारत के पश्चिमी तट पर सौराष्ट्र के वेरावल के पास प्रभास पाटन में स्थित हिंदू धर्म के उत्थान-पतन के इतिहास का प्रतीक सोमनाथ मंदिर भगवान् शिव के १२ ज्योतिर्लिंगों में से पहला ज्योतिर्लिंग है। मंदिर नगर के दस किलोमीटर में फैला है और इसमें ४२ मंदिर हैं। माना जाता है इसका निर्माण स्वयं चंद्रदेव ने किया था, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में भी मिलता है। साथ ही यह भी का जाता है कि श्रीकृष्ण ने यहीं देह त्याग की थी। भालुका तीर्थ पर श्रीकृष्ण विश्राम कर रहे थे कि तभी एक शिकारी ने उनके पैर के तलुए में पद्मचिह्न को हिरण की आँख समझकर तीर मार दिया। बस इसी तीर से घायल होकर श्रीकृष्ण ने देह त्यागकर बैकुंठ की ओर गमन किया। मंदिर बार-बार ध्वस्त और इसका जीर्णोद्धार होता रहा, पर शिवलिंग यथावत् रहा।

साँसों में घुलने लगती है दिव्यता

शिल्प, भव्यता और विस्तार...वहाँ पहुँचने पर मन में पहला खयाल यही आया। एक तरफ जहाँ आस्था का बहाव आंदोलित कर रहा था, वहीं दूसरी ओर उसकी बनावट, उसके पत्थरों और दीवारों पर उकेरी गई आकृतियाँ और पूरे मंदिर का वास्तुशिल्प प्रभावित कर रहा था।

अंदर प्रवेश करने से पहले सुरक्षा जाँच के बाद भी एक लंबा रास्ता पार करना पड़ता है और जहाँ स्वर्ण के शिव विराजमान हैं, वहाँ भी जाने के लिए कतार में खड़ा होना पड़ता है। इसलिए बिना धक्का-मुक्की के सब एक-एक कर दर्शन कर सकते हैं। उस विराट् शिव के सौंदर्य को निहार सकते हैं, जिनकी प्रार्थना करने के लिए यह विशाल मंदिर गर्व से खड़ा है। चाँदी की दीवारें सी जड़ी हैं आसपास। फूलों का श्रृंगार शिव के रूप को और आलोकित कर रहा था।

मंदिर में सबसे पहले शिव के वाहन नंदी के दर्शन होते हैं, मानो नंदी भगवान् के हर भक्त का स्वागत कर रहे हों। मंदिर के अंदर पहुँच कर एक अलग ही दुनिया में होने का एहसास होता है, जिस तरफ भी नजर पड़ती है भगवान के चमत्कार का कोई-न-कोई रूप नजर आता है। शिव का अद्भुत रूप और अनुपम श्रृंगार-वहाँ से हटने का मन कर ही नहीं रहा था।

मस्तक पर चंद्रमा को धारण किए देवों के देव महादेव का सबसे पंचामृत स्नान कराया जाता है। स्नान के बाद उनका अलौकिक श्रृंगार किया जाता है। शिवलिंग पर चदंन से ॐ अंकित किया जाता है और फिर बेलपत्र अर्पित किया जाता है। भगवान सोमनाथ की पूजा के बाद मंदिर के पुजारी भगवान् के हर रूप की आराधना करते हैं। अंत में उस महासागर की आरती उतारी जाती है, जो सुबह सबसे पहले उठकर अपनी लहरों से भगवान के चरणों का अभिषेक करता है। जाते-जाते नंदीजी की कान में अपनी मनोकामना कहने से मैं भी स्वयं को रोक न पाई। मंदिर के पृष्ठ भाग में स्थित प्राचीन मंदिर के विषय में मान्यता है कि यह पार्वतीजी का मंदिर है।

बाहर निकलते ही हरियाली का विस्तार मन को छू लेता है। एकदम स्वच्छ वातावरण घेर लेता है और साँसों में दिव्यता घुलने लगती है। सामने समुद्र का फैलाव बाँहें पसारे स्वागत कर रहा होता है और सूर्यास्त देखने के लिए मैं भी जाकर खड़ी हो गई। डूबते सूरज की एक-एक किरण मंदिर के हर कोण पर कुछ इस तरह पड़ रही थी कि लगता था कि वास्तव में यह अब भी स्वर्णजड़ित है। आभा ही वह तिलिस्म है, जो निर्जीव चीजों में भी प्राण डाल देती है। मंदिर का उज्ज्वल स्वरूप मुझे अभिभूत कर रहा था और थकान, जो सफर के दौरान हावी हो गई थी, वह छिटककर मुझसे दूर जा चुकी थी।

कथा और आख्यान

मंदिर के अलग-अलग भाग हैं। शिखर, गर्भगृह, सभा मंडप व नृत्य मंडप। पूरे मंदिर का चक्कर लगा अरब सागर को निहारती हुई मैं मंदिर के परिसर में लगे बैंच पर आकर बैठ गई। मंदिर पर लगा त्रिकोणीय ध्वज हवा में उड़ रहा था, जो २७ फीट ऊँचा है। मंदिर के शिखर पर स्थित जो कलश है, उसका वजन १० टन है। कुछ सफेद हंस नीले पानी के ऊपर उड़ रहे थे। लोगों का आना जारी था और अपनी-अपनी तरह से वे आस्था को व्यक्त कर रहे थे। सूरज धीरे-धीरे मंदिर के पीछे अस्त हो रहा था, उसकी किरणें समुद्र की उठती-गिरती लहरों पर इंद्रधनुषीय आकृतियाँ बना रही थीं। लग रहा था कि सोमनाथ मंदिर शांति के आवरण से ढक गया है। यहाँ समुद्र अपनी गूँज और ऊँची-ऊँची लहरों से साथ सदैव शिव के चरण वंदन करता प्रतीत होता है। यहाँ तीन नदियों हिरण,कपिला और सरस्वती का महासंगम होता है। इस त्रिवेणी स्नान का विशेष महत्त्व है।

प्राचीन हिंदू ग्रंथों के अनुसार सोम अर्थात् चंद्र ने, दक्ष प्रजापति राजा की २७ कन्याओं से विवाह किया था। लेकिन वह अपनी पत्नी रोहिणी से अधिक प्यार करते थे। इस कारण अन्य २६ दक्ष कन्याएँ बहुत उदास रहती थीं। उन्होंने जब इस बात की शिकायत अपने पिता से की तो दक्षराज ने चंद्रमा को समझाया, लेकिन उन्होंने जब इस पर ध्यान नहीं दिया तो दक्ष ने चंद्रमा को ‘क्षयी’ होने का शाप दे दिया। अब से हर दिन तुम्हारा तेज क्षीण होता रहेगा। शाप से विचलित और दुखी सोम ने भगवान् शिव की आराधना शुरू कर दी। भगवान् शिव ने उन्हें आश्वस्त किया कि शाप के फलस्वरूप कृष्ण पक्ष में प्रतिदिन तुम्हारी एक-एक कला क्षीण होती जाएगी, लेकिन शुक्ल पक्ष में उसी क्रम से एक-एक कला बढ़ती जाएगी और प्रत्येक पूर्णिमा को तुम पूर्णचंद्र हो जाओगे। चंद्रमा शिव के वचनों से गदगद हो गए और शिव से हमेशा के लिए वहीं बसने का आग्रह किया। चंद्र देव एवं अन्य देवताओं की प्रार्थना स्वीकार कर भगवान् शंकर भवानी सहित यहाँ ज्योतिर्लिंग के रूप में निवास करने लगे। इसीलिए यह जगह कहलाई सोमनाथ, यानी सोम के ईश्वर का स्थान।

पुराणों में लिखा है कि चंद्रमा ने एक स्वर्ण मंदिर का निर्माण किया था और मंदिर की पूजा और रख-रखाव का काम सोमपुरा ब्राह्मणों को सौंपा था। आज भी सोमनाथ में सोमपुरा ब्राह्मणों का एक समुदाय रहता है, जो स्वयं को चंद्रमा का वंशज मानता है। जब स्वतंत्रता के बाद सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण किया गया था, तो इसे आकार देने वाले राजमिस्त्री और कलाकार सोमपुरा सलत समुदाय से थे, जो सोमपुरा ब्राह्मण समुदाय की एक शाखा है और अपने स्थापत्य और कलात्मक कौशल के लिए जाना जाता है।

किंवदंती है कि चंद्रमा भगवान् द्वारा मंदिर बनाए जाने के बाद, रावण ने चाँदी में मंदिर बनाया था, और बाद में द्वापर युग में श्रीकृष्ण ने सोमनाथ में लकड़ी का मंदिर बनवाया था।

बहुत सारे पड़ाव देखे हैं

१०२४ में भीम प्रथम के शासनकाल के दौरान अरब यात्री अल-बरुनी ने अपने यात्रा वृत्तांत में इसका विवरण लिखा, जिससे प्रभावित हो महमूद गजनवी ने सन् १०२६ में कुछ ५००० साथियों के साथ सोमनाथ मंदिर पर हमला किया, मंदिर की संपत्ति लूटी और उसे तोड़ दिया। कहते हैं कि महमूद गजनवी के लूट के समय ५०,००० लोग मंदिर में पूजा कर रहे थे। महमूद गजनवी ने जब मंदिर का विध्वंस किया तो उससे शिवलिंग नहीं टूटा। तब उसके पास भीषण अग्नि प्रज्वलित की गई। मंदिर के अमूल्य हीरे-जवाहरात लूट लिये गए। उसके बाद राजा भीमदेव ने सिद्धराज जय सिंह की मदद से मंदिर का निर्माण किया। उसके बाद पुनः अलाउद्दीन खिलजी और औरंगजेब ने मंदिर को तहस-नहस कर डाला। यह नया मंदिर पुराने मंदिर के भग्नावशेष को हटाकर बनाया गया था। स्वाधीनता मिलने के बाद सरदार पटेल ने इस मंदिर का निर्माण करवाया।

आजादी से पहले, वेरावल जूनागढ़ राज्य का हिस्सा था। जिसका शासक १९४७ में पाकिस्तान चला गया था। १९४८ में प्रभासतीर्थ, ‘प्रभास पाटण’ के नाम से जाना जाता था। इसी नाम से इसकी तहसील और नगर पालिका थी। यह जूनागढ़ रियासत का मुख्य नगर था। लेकिन १९४८ के बाद इसकी तहसील, नगर पालिका और तहसील कचहरी का वेरावल में विलय कर इसे भारत में मिला दिया गया था। तत्कालीन उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल ने १२ जुलाई, १९४७ को जूनागढ़ में ही सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण का आदेश दिया था। यह चालुक्य वास्तु शैली में बना है, जिसमें गुजरात के राजमिस्त्रियों की कड़ी मेहनत व शिल्प कौशल स्पष्ट दिखाई देता है।

इतनी संपत्ति लुटने के बाद भी हर बार सोमनाथ का शिवालय उसी वैभव के साथ खड़ा रहा, लेकिन केवल इस वैभव के कारण ही सोमनाथ का महत्त्व नहीं है। सोमनाथ का मंदिर भारत के पश्चिम समुद्र तट पर है और विशाल अरब सागर प्रतिदिन भगवान् सोमनाथ के चरण पखारता है और गत हजारों वर्षों के ज्ञात इतिहास में इस अरब सागर ने कभी भी अपनी मर्यादा नहीं लाँघी है! न जाने कितने आँधी, तूफान आए, लेकिन किसी भी तूफान से मंदिर की कोई हानि नहीं हुई। इस मंदिर के प्रांगण में एक स्तंभ (खंभा) है, इसे ‘बाणस्तंभ’ कहा जाता है! यह स्तंभ कब से वहाँ पर है, बता पाना कठिन है, लगभग छठी शताब्दी से इस बाणस्तंभ का इतिहास में नाम आता है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं की बाणस्तंभ का निर्माण छठवें शतक में हुआ होगा, उसके सैकड़ों वर्ष पहले इसका निर्माण हुआ होगा! यह एक दिशादर्शक स्तंभ है, जिस पर समुद्र की ओर इंगित करता एक बाण है इस बाणस्तंभ पर लिखा है—‘आसमुद्रांत दक्षिण ध्रुव पर्यंत अबाधित ज्योर्तिमार्ग’—यानी ‘इस बिंदु से दक्षिण ध्रुव तक सीधी रेखा में एक भी अवरोध या बाधा नहीं है।’ अर्थात् इस समूची दूरी में जमीन का एक भी टुकड़ा नहीं है! सोचकर अचरज हुआ कि यह ज्ञान इतने वर्षों पहले हम भारतीयों को था।

इस पंक्ति का सरल अर्थ यह है, कि ‘सोमनाथ मंदिर के इस बिंदु से लेकर दक्षिण ध्रुव तक (अर्थात् अंटार्टिका तक) एक सीधी रेखा खिंची जाए, तो बीच में एक भी भूखंड नहीं आता है!

मान लें कि सन् ६०० ई. में इस बाण स्तंभ का निर्माण हुआ था, तो भी उस जमाने में पृथ्वी का दक्षिणी ध्रुव है, यह ज्ञान हमारे पुरखों के पास कहाँ से आया? दक्षिण ध्रुव ज्ञात था, यह मान भी लिया तो भी सोमनाथ मंदिर से दक्षिण ध्रुव तक सीधी रेखा में एक भी भूखंड नहीं आता है, यह ‘मैपिंग’ किसने की? इसका अर्थ यह है कि ‘बाण स्तंभ’ के निर्माण काल में भारतीयों को पृथ्वी गोल है, इसका ज्ञान था! इतना ही नहीं, पृथ्वी का दक्षिण ध्रुव है (अर्थात् उत्तर ध्रुव भी है) यह भी ज्ञान था!

मन में बहुत सारे सवाल और विश्वास व आस्था सी भरी ऊर्जा के साथ मैं जब बाहर निकलने लगी तो जगमगाती रोशनी में दिपदिपाता मंदिर मुझे और भव्य लगा। यहाँ बार-बार लौटकर आना है, बस यही खयाल मुझे वापसी की अपनी यात्रा में घेरे रहा।

 

१२, एकलव्य विहार, सेक्टर-१३,
रोहिणी, दिल्ली-११००८५

दूरभाष : ९८१०७९५७०५

—सुमन बाजपेयी

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