RNI NO - 62112/95
ISSN - 2455-1171
E-mail: sahityaamritindia@gmail.com
कहना नहीं चाहते जोमूल मनमोहन अनुवाद योगेश्वर कौर और ही कुछ देखते हैं जब चित्र कोई तो देखते हैं वह जो चित्र में नहीं है देखते हैं वह जो गैरहाजिर कोई और ही चित्र रचता सा। सुनते हैं संगीत तो सुनते हैं वह जो सुनाई नहीं देता सुनते हैं वह जो है मौन गाया नहीं जा रहा कोई और ही सप्तक गाते हुए। कहते हैं जब कुछ तो वह कहती, हाँ कहना नहीं चाहते जो वह जो अर्थों की सीमा से पार एक और ही भाव बताते हुए हम जो देखते-सुनते रहते हैं दरअसल वह योग रहे होते हैं जो रह जाता अव्यक्त हमारे अंदर। संदेश चट्टान की दरार में से निकला एकाकी पुष्प घास के तिनकों संग हवा में झूलता महज अपने लिए ही नहीं घोषणा है वसंत की वह तो वाहक है उस आनंद का, जो खिलेगा जब बर्फ की शॉल उतार रही होगी वादी मीठी धूप के आने पर दरवाजा दरवाजे के अंदर या बाहर सुरक्षित है इनसान...मालूम नहीं डर लेकिन बाहर है अंदर भी दरवाजा दो डरों के बीच मरा शहर होता जिसमें इनसान और दरवाजा दोनों भटकते द्वार कृत मौसम के खँडहर जिनमें पेड़ जीवित प्रतिपल सोने के बाद द्वार, मनुष्य की छाती में खुलता सपनों को कर देता है अंदर बंद सेंध लगाता द्वार नींद को और मनुष्य के दिमाग में जंगल-सा निखर जाता, फूलकर सोया मनुष्य बुदबुदाता, द्वार विद्रूपता से हँसता चिटकनी नकल करती ताले दाँत चिढ़ाते दरवाजे में बैठा जंगल जाग उठे आधी रातों में गीदड़ की हाँक के साथ सोया मनुष्य निश्चिंत बाहर दरवाजा मुस्तैद डर का साथी दर रातभर बंद होकर भी खुला रहता है इनसान के अंदर
२३९ दशमेश एन्क्लेव दूरभाष ९३१६००१५४९ —मनमोहन अनुवाद योगेश्वर कौर |
अप्रैल 2024
हमारे संकलनFeatured |