भारत की सांस्कृतिक अस्मिता और जातीय सभ्यता की संवाहिका संस्कृत

भारत की सांस्कृतिक अस्मिता और जातीय सभ्यता की संवाहिका संस्कृत

सदियों से संस्कृत भाषा भारत की राष्ट्रीय अस्मिता की आधारशिला व प्राणवायु रही है। प्रायः सभी राष्ट्र अपनी सांस्कृतिक ऊर्जा को अपने देश की शास्त्रीय भाषाओं से सक्षम बनाते हैं। संस्कृत भारत की एकमात्र शास्त्रीय भाषा है, जिसने भारतीय मनीषा को उदात्त और उदग्रीव बनाया और पूरा विश्व भारतीय मनीषा का ऋणी बना। वेद, आगम-निगम-पुराण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, गीता, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष, गणित, खगोल विज्ञान, अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र, न्यायशास्त्र, रसशास्त्र, कामशास्त्र, वास्तुशास्त्र सहित अनेक उत्कृष्ट महाग्रंथों का प्रणयन दुनिया की सबसे वैज्ञानिक और सक्षम देवभाषा संस्कृत में हुआ। ये ग्रंथ भारतीय मनीषा के अनवरत चिंतन और मनन के सुपरिणाम हैं। भारत द्वारा इन ग्रंथों के रूप में संपूर्ण विश्व जन-मन को दी जाने वाली अब तक की श्रेष्ठतम सौगात है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि हर कृति के मूल में राष्ट्र की हित चिंता रही है। समाज इतिहास, भाषा, संस्कृति, परंपरा और विचार के पंच नद से ही संस्कृत की रचनात्मक धारा का प्रवाह सदियों से प्रवाहित होता रहा है। इन धाराओं को हमेशा किसी न किसी भगीरथ की प्रतीक्षा रहती है, ताकि उन्हें सौंप कर अपने कर्तव्य व दायित्व के अनुपालन से मुक्त हो सकें। फिर आगे का दायित्व निर्वहन संस्कृत के भगीरथ को करना होगा, फिर भगीरथ उस धारा को अक्षुण्ण बनाते हुए संस्कृति और भारतीय सभ्यता के गंगा के प्रवाह को निरंतरता प्रदान करेंगे। माँ भारती का दुर्भाग्य रहा कि हम भगीरथों ने उस माँ की परवाह किए बगैर उसकी धारा को सूख जाने दिया।

संस्कृत भाषा शिक्षा की मजबूत बुनियाद रखती है और एक नए युग में प्रवेश कराती है। यह भाषा मात्र विचारों को आगे नहीं ले जाती, वरन् वह स्वयं संस्कृति के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है, जातीय सभ्यता का प्रतीक गढ़ती है और सामाजिक चेतना का विराट् सांस्कृतिक इतिहास भी लिखती है तथा शिक्षित कर मानव-मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है—‘सा विद्या या विमुक्तये’ का स्वर मुखरित कर राष्ट्र-निर्माण में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है व जातीय सभ्यता की सार्वभौमिक पहचान बनाने का मार्ग भी प्रशस्त करती है। संस्कृत की कड़ाही में पककर कुंदन बन भारतीय शिक्षा मृण्मय से चिन्मय की यात्रा कराती है। संस्कृत ऐसी ही भाषा है, जो मानव मात्र को चिन्मय बनाती है और हाँ, किसी भी भाषा का आधार केवल भाषाई संप्रेषण और उसकी रचना की समसामयिकता से नहीं बनता। भाषा के सांस्कृतिक आधार की गौरवशाली परंपरा की निर्मिति ऋषियों द्वारा अनवरत की गई तपश्चर्या व साधना की देन होती है और संस्कृति की संरचना के पीछे सांस्कृतिक परंपरा की सर्जनात्मक शक्ति पूरी सक्रियता के साथ खड़ी रहती है। भाषा की शक्ति, संप्रेषण व शिक्षा के व्यावहारिक विस्तार भाषा को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में सर्वोच्च स्थान प्रदान करते हैं। संस्कृत ने तमाम विघ्न-बाधाओं के बावजूद हजारों वर्षों की ऐतिहासिक यात्रा में संप्रेषण से शास्त्रीय भाषा तक की यात्रा में उपलब्धियों के कई महत्त्वपूर्ण मानकों का निर्माण तो किया ही है, साथ ही मजबूत बंधन का भी निर्माण किया है, जो अनंत काल तक राष्ट्र को बिखरने व टूटने के खतरे से बचाते हुए एक सूत्र में बाँधकर रखने की शक्ति से सुसंपन्न बनाया है। संस्कृत कवच बन समूची मानवता को वैचारिक पराधीनता से मुक्त भी कराने की शक्ति रखती है। हम यह जानते हैं कि सांस्कृतिक पराधीनता राष्ट्र को खंड-खंड कर देती है और खंडित राष्ट्रीयता भाषा और शिक्षा को नहीं बचा सकती है। भाषा से शिक्षा और शिक्षा से संस्कृति बचेगी, फिर संस्कृति की मदद से राष्ट्र को अचल और अटल बनाए रखने से कोई रोक नहीं सकता। अतः हर हाल में संस्कृत भाषा के संरक्षण व संवर्धन की दिशा में सार्थक पहल की जानी ही चाहिए और स्वभाव के स्तर पर, संस्कार के स्तर पर और चिंतन के स्तर पर संस्कृत शिक्षा को जीवन और जगत् के व्यवहार के अनुकूल बनाना भी अपरिहार्य है अन्यथा सांस्कृतिक स्वाधीनता को प्राप्त करना और उसे बचाए रखना दुष्कर हो जाएगा। इतिहास हमें कदम-कदम पर याद दिलाता है कि हम शस्त्र-ज्ञान के अभाव में नहीं बल्कि शास्त्र-ज्ञान के अभाव में अपनी राष्ट्रीयता को खोते चले गए। देश खंड-खंड होता चला गया। आर्यावर्त की सीमाएँ सिमटती चली गईं। शस्त्र के अभाव में मिली हार को फिर से जय में बदल सकते हैं, क्योंकि शास्त्र हमें अतीत के गौरव का अहसास और वर्तमान के संघर्ष को मजबूती और भविष्य के लिए अखंड राष्ट्र के सपने को साकार बनाए व बचाए रखने के लिए दिशानिर्देश भी देते हैं। पिछले ५-६ वर्षों में भारत का सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक परिवेश बदला है, भाषा और संस्कृति के बसंत की आहट भी सुनाई दे रही है, किंतु आवश्यकता प्रत्यक्ष दिखाई देने की है, परिवर्तन दिखना भी चाहिए। हम शास्त्र की ताकत को समझें और संस्कृत के संरक्षण और संवर्धन के लिए संघ-बद्ध प्रयत्न करें। हजारों वर्षों की दासता के बाद हम संकुचित होते गए और राष्ट्रीयता का स्थान क्षेत्रीयता ने ले लिया। विनम्रता का त्याग कर स्पष्ट रूप से कहना चाहूँगा कि पाश्चात्य के छद्म दृष्टिकोण के प्रभाव में गढ़ी गई मैकाले वाली शिक्षा व्यवस्था से साक्षरों के साथ-साथ मानसिक गुलामी से उपजे अंग्रेजीदाँ कुपढ़ों की संख्या भी खूब बढ़ी, जिन्हें सुधारकर समाज और देश के लिए उपयोगी बनाया न जा सका। तथाकथित मुट्ठी भर शिक्षित व पश्चिमी वैचारिकी का लबादा ओढ़े लोगों ने अवसरवादी सुविधाओं की लालसा में हमारा इतिहास और भूगोल बदलकर रख दिया। हमारी शास्त्रीय व सनातन चिंतन और शिक्षण की परंपरा को नकारते हुए पश्चिम के चश्मे से हमें जैसा दिखाया, हमने वैसा ही देखा। कर भी क्या सकते थे? आज भी हम उस मनोदशा से मुक्त कहाँ हो पाए हैं? किंतु सहनशीलता की कोई सीमा तो होनी ही चाहिए। कम-से-कम अब हमें तथाकथित धर्मनिरपेक्ष शिक्षा के नाम पर परोसने वालों को कठघरे में खड़ा करना होगा और विरोध के स्वर को ऊर्ध्वगामी बनाना होगा। काश! आजादी के बाद से ही इस तरह की प्रतिरोधी संस्कृति विकसित की गई होती, प्रतिवाद किए गए होते। खैर, अब पूर्व में जो कुछ घटा उसे भूलकर भविष्य की ओर—सतत अग्रसर होने का सही वक्त आ गया है।

वर्तमान परिदृश्य में बदलते सांस्कृतिक मूल्यों का ह्रास परिलक्षित होता दिखाई दे रहा है। एक नए किस्म की अपसंस्कृति के भयावह चेहरे को हम देख पा रहे हैं। सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों से जन-मन को दूर किया जा रहा है तथा भोगवादी जीवन-दृष्टि की जकड़न को सहज ही महसूस किया जा रहा है। अनेक विकृतियाँ जन्म ले विस्तार पा रही हैं। तथाकथित आधुनिकता एवं झूठे विकास का बेसुरा ढोल पीट रही हैं और भ्रमित सुसभ्य और सुसंस्कृत समाज आज सामाजिक ताने-बाने को तोड़कर फेंक चुका है, मर्यादाएँ थक कर मौन हो गई हैं। भूमंडलीकृत पूँजीवादी अहंकारी चेहरा और अनैतिकता के घाल-मेल से एक नई अपसंस्कृति का जन्म हुआ है। इससे तब मुक्ति संभव होगी, जब सक्षम भाषा में मूल्यपरक शिक्षा सामाजिक व सांस्कृतिक सरोकारों को सामने रखकर अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज करेगी। फिर उसके लिए एकमात्र सक्षम भाषा संस्कृत ही हो सकती है, साथ में समृद्ध भारतीय भाषाओं का एक मजबूत समूह भी तो है, जिसका उत्स भी संस्कृत ही है। तब कहीं जाकर शायद अपसंस्कृति के मुखौटे को फेंक शिक्षा के नए मानक भारतीयता से संपृक्त जीवन-मूल्यों को केंद्र में रखकर तय किए जा सकेंगे। कहा गया है—

‘सबकुछ लुटा के होश में आए तो क्या हुआ?’

खैर, राष्ट्र नायकों की नींद तो टूटी और शिक्षा के नीति-नियंताओं ने कम-से-कम नई शिक्षा नीति की घोषणा तो की। प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति, जिसका माध्यम संस्कृत थी, संस्कृति के प्रति सजग और उदार रही है। जिसका परिणाम यह रहा कि शिक्षा और संस्कृति दोनों अपने-अपने अतीत, वर्तमान व भविष्य के साथ सजग और साक्षी भाव से खड़े दिखे। किंतु ध्यान रहे, जब-जब शिक्षा और संस्कृति अपनी सनातन परंपरा के साथ खड़ी दिखी, परंपरा श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर बनती चली गई। यद्यपि हम सभी जानते हैं कि हमारी सनातन परंपराएँ अतीत के प्रति विनम्रता और भविष्य के प्रति आदर का भाव रखती हैं। संस्कृति का संसार सदैव सकारात्मकता और नैतिकता के घेरे में रहता है। युगीन दबाव से ऊपर उठने की अनवरत चेष्टा और छटपटाहट संस्कृति की सत्ता का एक विशेष उद्देश्य होता है। मूल्यों की धारा टूटन, घुटन और विघटन के रास्ते बहती अवश्य है, किंतु इस बहाव में प्रतिसंस्कृतियों को भी स्थान मिलता है। सांस्कृतिक प्रवाह जब-जब अपने आवेग की तीव्रता को शांत करता है, अमृतमयी धारा बन बसुंधरा को रससिक्त बनाने का उपक्रम भी करता है।

धीरे-धीरे वह सामुदायिक जीवन पद्धति का अंग भी बनता है। धारा का वह प्रवाह, मात्र संस्कारों, व्यवहारों तक सीमित नहीं रहता, बल्कि उसमें सांस्कृतिक संभावनाओं के श्रेष्ठ तत्त्व भी विद्यमान रहते हैं। आदर्श की संकल्पना संभावनाओं को चिहिन्त करती है, परिणामस्वरूप सांस्कृतिक संपन्नता शिक्षा को भी संपन्न बनाती है और फिर उसके सहारे हमारी वैचारिकी युग धर्म के अनुसार अपनी यात्रा को पूरी करती है। यह सर्वविदित है कि सदियों से मानव-मन प्रतीकों और मिथकों में ही जीता रहा है। प्रतीकों और मिथकों से हमारे संस्कृत के ग्रंथ भरे पड़े हैं। शिक्षा उन प्रतीकों और मिथकों के सहारे सृजन का माध्यम बन लोक-मानस की संवेदना को आकर देती है। क्योंकि लोक-मानस ही संस्कृति पर वैचारिकी की मुहर लगाता है तथा संस्कृति को परिभाषित करने की क्षमता केवल शिक्षा से ही प्राप्त की जा सकती है। जब समुन्नत संस्कृति होगी, तब शिक्षा प्रांजल व समृद्ध और राष्ट्र सचेतन और उद्बुद्ध होगा और भाषा, शिक्षा और संस्कृति तीनों के अन्योनाश्रित संबंध को मजबूती भी मिलेगी, किंतु जैसे ही संस्कृति में उपभोक्तावादी मूल्यों की मिलावट हुई, शिक्षा उसके हाथ की कठपुतली बन जाएगी। फिर तथाकथित विकास के औपनिवेशिक चरित्र के साथ भाषाई अस्मिता को बचाए रखना कठिन हो जाएगा, साथ ही साथ सांस्कृतिक वैविध्य को भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था से क्षत-विक्षत होने का खतरा भी और बढ़ जाएगा और तब असंवेदनशील और अर्थ के इर्द-गिर्द घूमती दुनिया के कई हिस्से के रूप में तब्दील होने की आशंका भी बढ़ेगी ही। इस प्रकार हठपूर्वक सृजित नए परिवेश में जीने की अनिवार्यता एक विवशता भी बन जाएगी, फिर सांस्कृतिक गुलामी की पृष्ठभूमि तैयार होने में देर नहीं लगेगी और स्वाधीन देश की स्वाधीन चेतना के दूषित होने का खतरा कई गुना बढ़ जाएगा। तब नए सिरे से उक्त बंधनों से मुक्ति के लिए पुनः आंदोलन धर्मी सोच को उठ खड़ा होना होगा, तभी भाषा, शिक्षा और संस्कृति के महत्त्वपूर्ण घटकों के सहारे राष्ट्र की बुनियाद को मजबूती प्रदान की जा सकेगी।

विगत कई सदियाँ संस्कृत की रचनाधर्मिता की गौरवशाली व उत्कृष्ट परंपरा की संवाहिका रही हैं और इसके साहित्य ने सर्वदा भौगोलिक सीमाओं को अतिक्रमित कर बंधन से मुक्ति की महायात्रा को सातत्य प्रदान करने में सफलता भी पाई है। श्रेष्ठ साहित्य ही संस्कृति को अधिष्ठाता बनाता है। जो समाज अथवा समूह अपनी भाषिक संपदा से सुसंपन्न शिक्षा और साहित्यिक समृद्धि पर गर्व और गौरव का अनुभव करता है, वह अपनी संस्कृति और सभ्यता के प्रति हीनता-बोध का शिकार होने से बचाता है और जातीय छवि को प्रतिबिंबित न होते देख पाने की पीड़ा का शमन भी करता है।

भाषिक संपदा से सुसंपन्न साहित्य सत्य की साधना-भूमि पर शिवत्व की वैश्विक कामना करते हुए सौंदर्य की व्यापक दृष्टि विकसित करता है। साहित्य समय सापेक्ष होता है और समय विमर्श के सहारे साहित्य को निरंतर संघर्ष के पथ पर आगे बढाता है, ताकि वह अपने भीतर प्रतिरोध की क्षमता विकसित कर ज्ञान, सत्य एवं प्रतिभा के सहारे श्रेष्ठतम कृतियाँ रच सके। इतना ही नहीं, यह एक और आश्वस्ति के भाव से अतीत की श्रेष्ठता को वर्तमान की झोली में डाल ‘हित’ और ‘सहित’ भाव का उद्घोष करते हुए अपने कर्तव्य-बोध की अनुभूति कराते हुए समाज को पारंपरिक आचरण के अनुपालन की सीख देता भी है। साहित्य और समाज के इस मजबूत संबंध को सर्जक विश्व जन-मन की आशाओं और आकांक्षाओं से परिपूर्ण करता है तथा भाषा, रंग और नस्ल की संकीर्णताओं से काफी दूर ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ की सनातन भाव-भूमि का दर्शन कराता है, फिर एक नए सांस्कृतिक वैश्विक मंच की स्थापना का मार्ग भी प्रशस्त होता है, संसार के सारे भेद तिरोहित हो जाते हैं। प्रेम, सौहार्द व भाई-चारे से ओत-प्रोत लोकतांत्रिक मूल्यों और मानव अधिकारों की गूँज पूरी वसुधा में सुनाई देने लगती है। साहित्यिक ऊर्जा के अभाव में प्रायः स्मृति के घने वन में खो जाने तथा उसके नष्ट होने का भय बना रहता है। संस्कृति और साहित्य की वैचारिकी एक ही धरातल पर स्थित होती है, अपनी भाषा में रचा गया साहित्य व्यक्ति और समाज दोनों को स्वाधीनतापूर्वक जीने की उर्वर जमीन तैयार करता है। जातीय एकता, समरसता, समानता और सौहार्द का वातावरण जिन कारणों से सृजित हो पाता है, उनमें से महत्त्वपूर्ण है—आध्यात्मिक चिंतन। आध्यात्मिकता की भावभूमि पर रचा गया साहित्य शाश्वत व कालजयी होता है और वह अपनी प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति के माध्यम से समाज को दिशा-निर्देश देता है। साहित्य सुषुप्त ज्वालामुखी भी होता है, जो अपने भीतर क्रांति के बीज छिपाए रहता है। समय पाकर वही विशाल वटवृक्ष बन सार्वभौम स्वीकृति प्राप्त करता है। वैदिक साहित्य से लेकर लौकिक साहित्य की सहस्रों वर्षों की अनवरत यात्रा, वाल्मीकि से शुरू होकर महर्षि व्यास, बुद्ध व शंकराचार्य तक अनवरत जारी रही। अनगिनत कालजयी ग्रंथों के रूप में समूचे विश्व को ज्ञान, कर्म, भक्ति, वैराग्य और राज-धर्म की सर्वोत्तम कृतियाँ प्राप्त हुईं, जिनके वास्तविक प्रकाश से सुसंस्कृत समाज के निर्माण की महत्त्वपूर्ण पीठिका तैयार हुई और एक सुसभ्य और मजबूत लोकतंत्र वाला राष्ट्र बना और भारतीय जनमानस को भारतीयता से ओतप्रोत किया। ध्यान रहे, भारतीयता मात्र संकल्पना नहीं बल्कि आध्यात्मिकता से ओतप्रोत एक विशेष जीवन शैली है। यह कोई पोटली में रखी हुई वस्तु नहीं, बल्कि वह रस से परिपूर्ण घट है, जिसमें बूँद-बूँद संचित वैचारिकता तथा वह भारतीय लोक-मानस है, जिसमे प्राकृत जन की शाश्वत उपस्थिति है, सनातन की कालातीत भावना से ओत-प्रोत स्वीकार की भावना है। भारत के कई संस्कृति कर्मियों ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की जो धारा बहाई, उसकी याद में पूरा भारत एकात्म हो पुन: जाग्रत् हो गया। भारत के खोए हुए गौरव व आत्मसम्मान को पुनर्स्थापित करने में सफलता भी प्राप्त की। यह तब हो सका, जब संस्कृत भाषा एक सशक्त आधार बनी।

आज फिर एक बार वक्त ने दस्तक दी है। अब हमें गढ़ों-मठों को तोड़, इतिहास की धारा को मोड़ पुनः उस प्राचीन ऋषि-परंपरा की ओर मोड़ना होगा, जहाँ हमारी देव भाषा संस्कृत गद्गद हो मुक्त हस्त से हमें साहित्य संस्कृति और कला से परिपूर्ण हमारा गौरवपूर्ण अतीत वर्तमान की झोली में डाल भविष्य के लिए दिशा-निर्देश दे हमारा मार्ग प्रशस्त करती हुई अपने सर्वोच्च सिंहासन पर आरूढ़ हो एक बार फिर विश्व-जन-मन की संवाहिका बनने के लिए प्रस्थान करे।

 

महासचिव

विश्व हिंदी सचिवालय,
मॉरीशस

e-mail : sg@vishwahindi.com

 

 

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