देशभक्तों का तीर्थ : अंडमान-निकोबार

देशभक्तों का तीर्थ : अंडमान-निकोबार

हम सभी की जिंदगी में कुछ ऐसे पल या दिन अवश्य आते हैं, जो कभी भुलाए नहीं भूलते। वे हमारी सबसे खूबसूरत यादें बनकर ताउम्र हमारे साथ रहते हैं। मेरे जीवन में यादगार दिन तब आया, जब मैं अपने ताऊजी-ताईजी के साथ दिल्ली से २४७१ किलोमीटर दूर देशाभिमानियों के पावन तीर्थ अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह की यात्रा पर गई।

मेरे ताऊजी श्री आनंद शर्मा अकसर धार्मिक स्थलों एवं देशभक्तों के तीर्थों के दर्शन के लिए जाते रहते हैं। मैं उस समय खुशी से उछल पड़ी, जब ताऊजी ने बताया कि इस बार वे और ताईजी हमारी आजादी के रणबाँकुरों के तीर्थ अंडमान-निकोबार की यात्रा पर जा रहे हैं और मैं भी उनके साथ जा रही हूँ। मैं बेहद खुश और अपने आपको खुशनसीब मान रही थी कि मैं पहली बार इतनी दूर वह तीर्थ देखने जा रही हूँ, जिसके बारे में अभी तक मैंने किताबों में पढ़ा था कि यहाँ अंग्रेज स्वतंत्रता सैनानियों को कठोर पाशविक यातनाएँ देते थे। यह स्थान उन दिनों कालापानी के नाम से कुख्यात था। मैं इसलिए भी अत्यधिक रोमांचित थी कि अंडमान-निकोबार समुद्र में स्थित है और मैं पहली बार हवाई यात्रा के साथ-साथ समुद्र यात्रा भी करूँगी। हवाई जहाज से दुनिया कैसी दिखती है, समुद्र कितना बड़ा होता है, इसकी कल्पना मात्र से मैं रोमांचित हो रही थी!

मैंने तुरंत बिना कोई देर किए पैकिंग शुरू कर दी। दिल्ली में नवंबर के महीने में ठंड होती है, पर मुझे पता चला कि इस समय अंडमान में गरमी का मौसम होता है, इसलिए मैंने सर्दी के साथ-साथ गरमी के कपड़े भी रख लिए। इस तरह पूरी तैयारी के साथ १८ नवंबर, २०१९ को हम रात को एक बजे इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के लिए घर से निकले। हवाई जहाज में पहली बार बैठने के उत्साह की गरमाहट दिल्ली की ठिठुरन भरी रात पर भारी पड़ रही थी।

हमारे हवाई जहाज को भोर में ३-५० बजे उड़ान भरनी थी। हम टर्मिनल तीन पर थे। लगेज जमा करने के बाद चैकिंग हुई। जिसके बाद हम जहाज पर चढ़े। जब मैं प्लेन में चढ़ी तो बहुत उत्साहित थी, क्योंकि इससे पहले यह सब फिल्मों में ही देखा था। एयर होस्टेस ने हमारा अभिवादन किया। मैं अपनी सीट पर जा बैठी। मेरी सीट खिड़की के पासवाली थी। मुझे थोड़ा सा डर भी लग रहा था, इसलिए मैंने भगवान् का नाम लिया और टेकऑफ के समय तो आँखें बंद करके बैठ गई। अब हम हवा में थे। मैं लगातार खिड़की से बाहर झाँक रही थी। ऊपर से अपनी दिल्ली बहुत खूबसूरत दिख रही थी। मैंने इस यादगार पल को हमेशा के लिए यादगार बनाने के लिए फटाफट अपने मोबाइल के कैमरे में कैद कर लिया। ताऊजी ने बताया कि हमारी टिकट में रिफ्रेशमेंट भी शामिल है। थोड़ी देर बाद एयर हॉस्टेस ट्रॉली लेकर आई, हमने अपनी पसंद का कुछ-न-कुछ लिया।

मैं जब खिड़की से बाहर देख रही थी तो ऐसा लगा जैसे किसी ने प्लेन को उठाकर बादलों के ऊपर रख दिया हो। मेरे कानों में दर्द भी महसूस हुआ, जो कि टेक ऑफ करते समय हवा के दबाव के कारण होता है। वैसे भी मैं तो पहली बार प्लेन में बैठी थी। खैर, इतनी बड़ी खुशी के आगे यह दर्द कुछ भी नहीं था। अब हम कोलकाता पहुँच चुके थे। हमने अपना प्लेन बदला और पोर्ट ब्लेयर वाले प्लेन में बैठ गए। अब सिर्फ दो घंटे की बात थी। मैं कौतूहल से खिड़की से बाहर देखती रही। मैंने उगते हुए सूरज को देखा, जैसे बादलों के पीछे से झाँककर हमारा स्वागत कर रहा हो। यह बहुत ही अविस्मरणीय पल था। अब हमारा हवाई जहाज समंदर के ऊपर उड़ रहा था। नीचे सब ओर मैं पानी को देख रही थी। कुछ हरे-भरे द्वीप भी नजर आ रहे थे। नीचे का नजारा इतना सुंदर था कि मैं आश्चर्यचकित थी।

आख‌िरकार अब हम अपनी मंजिल तक आ पहुँचे। एयरपोर्ट से बाहर निकले तो एक टूरिस्ट बस हमारा इंतजार कर रही थी। ताऊजी ने बताया कि बस, होटल सबकुछ बुक है। हम होटल एम.के. इंटरनेशनल पहुँचे और अपने कमरे में सामान रखा, फिर स्नान करके खुद को तरोताजा किया, तत्पश्चात् सबने नाश्ता किया। मैं तो बाहर घूमने के लिए बड़ी बेचैन थी। होटल के सामने बाँस व नारियल के बहुत लंबे-लंबे पेड़ झूम रहे थे। मुझे पेड़-पौधों से बहुत लगाव है, इसलिए मैं जाकर उनके गले लग गई। थोड़ी देर बाद हम घूमने निकले। होटल से थोड़ा ही आगे समुंदर है। अब हम लोग फुटपाथ पर टहल रहे थे। समंदर के तट पर बड़े-बड़े जहाज भी खड़े थे। मैंने देखा कि यहाँ पर बड़े पैमाने पर मछली उत्पादन होता है, जिसकी वजह से दुर्गंध भी बहुत थी। मैंने वहाँ पर मछली पकड़ने के जाल को बनते हुए भी देखा। कुछ देर बाद हम होटल लौट आए। खाना खाकर थोड़ी देर विश्राम किया। अच्छा, हमारे इस यात्री दल में कुल चौदह लोग थे।

सायं चार बजे हम सेल्यूलर जेल देखने गए। मैंने सबसे पहले जेल को नमन किया और नमन किया उन महान् देशभक्तों को, जिन्हें अंग्रेजों ने अमानुषिक यातनाएँ दीं और आजादी के उन परवानों ने इन यातनाओं को हँसते-हँसते झेलकर हमें आजादी दिलाई। अब हम आगे बढ़े, भीतर बने एक संग्रहालय में प्रवेश किया, वहाँ से हमें बहुत सी विशेष जानकारियाँ मिलीं। वहाँ पर हमारे महान् स्वतंत्रता सेनानियों की याद में एक अखंड ज्योति प्रज्वलित है। प्रतीत हो रहा था, मानो ज्योति की लाल ज्वाला में हमारे शहीदों का रक्त प्रवाहित हो रहा हो। हमने पूरी जेल का दौरा किया। जेल में जो कोठरियाँ बनी थीं, वे बहुत ही छोटी थीं और इस प्रकार निर्मित थीं कि कैदी को हरदम यातना ही महसूस हो, इसीलिए तो इन्हें काल कोठरी कहा जाता था। अब हम उस काल कोठरी के सामने थे, जिसको देखने की मुझे सबसे अधिक जिज्ञासा थी। जिसमें महान् क्रांतिकारी स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर को बंदी बनाकर रखा गया था। हम सबने उनकी पावन स्मृति को नमन किया। यह कोठरी सबसे अलग-थलग एक कोने में है। इसके ठीक सामने फाँसीघर तथा साथ में है यातनाघर, ऐसे दर्दनाक और खौफवाले माहौल में मजबूत से मजबूत कैदी भी कितने दिन टिका रह सकता था। कैदियों को खाना भी एक छोटी सी खिड़की से सिसकाया जाता था।

जेल का निर्माण एक बड़े से टावर के चारों ओर किया गया था, जिससे अंग्रेज अधिकारी सभी बंदियों पर नजर रखते थे। इस सेल्यूलर जेल का निर्माण भी कैदियों से करवाया गया था। पहले यहाँ पर खूँखार कैदी लाए जाते थे, पर १८५७ के बाद यहाँ क्रांतिकारियों को रखा जाने लगा। सावरकरजी जैसे राजनीतिक बंदियों एवं क्रांतिकारियों को खाने के बरतनों के रूप में जंग लगे कटोरे व छोटी थाली दी जाती थी। भोजन के नाम पर बहुत ही खराब खाना दिया जाता था, जिसमें थोड़ा-सा उबला चावल, रोटी और सब्जी परोसी जाती थी। रसोईघर के पास ही फाँसीघर था। जिसमें एक साथ तीन कैदियों को फाँसी दी जाती थी। इसके बाद हमने लाइट ऐंड साउंड शो देखा, जिसमें उन घटनाओं का सजीव चित्रण इस प्रकार किया गया है, जैसे सब हमारी आँखों के सामने घटित हो रहा हो। अंग्रेज जेलर की बर्बरता देख मुझे सिहरन हो रही थी।

इस जेल में स्वतंत्रता सैनानियों से कठोर-से-कठोर काम कराए जाते थे, जैसे—नारियल की गिरी निकालना, उसकी जटा से रस्सी बनाना तथा कोल्हू से नारियल व सरसों का तेल निकालने का काम दिया जाता था। जो आमतौर पर किसी आम मनुष्य की शारीरिक क्षमता से परे था। तेल निकालने के लिए देशभक्तों को बैल की तरह कोल्हू खींचना पड़ता था और जब तक दस पाउंड तेल न निकले, तब तक बैठने की इजाजत नहीं थी। बंदी निश्चित समय-सीमा के भीतर यह कार्य पूरा नहीं कर पाता था, तो उसे सजा के रूप में कोड़े मारना या लोहे के तिकोने फ्रेम पर लटकाकर बेंत लगाए जाते। इतना ही नहीं, एक सप्ताह की हथकड़ी से लेकर छह महीनों तक की कालकोठरी की सजा दी जाती थी। मैं यह सब देख-सुनकर स्तब्ध थी, अंग्रेजों के प्रति क्रोधित थी, लेकिन गौरवान्वित भी महसूस कर रही थी कि हम उन महान् पूर्वजों की संतति हैं, जिन्होंने घोर अमानवीय यातनाओं को हँसते-हँसते झेलकर हमें आजाद देश में साँस लेने का सुअवसर प्रदान किया। मैं कल्पना कर पा रही थी कि भारत माता की गुलामी की बेड़ियों को काटने के लिए किस प्रकार उन वीरों ने कालकोठरी में असहनीय कष्टों को झेलते हुए, अंग्रेजों के अत्याचारों का सामना करते हुए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया।

अंडमान की सेल्यूलर जेल को कालापानी भी कहा जाता था। क्योंकि यह जेल पानी यानी चारों ओर समुद्र से घिरी है और काला इसलिए, क्योंकि यहाँ इतनी यातनाएँ दी जाती थीं कि बंदियों को हर समय काल नजर आए और इससे टूटकर वे आजादी के आंदोलन में भाग न लेकर अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार कर लें। जेल में क्रूर जेलर का ऐसा आतंक और खौफ था, जो किसी भी साहसी व्यक्ति का मनोबल तोड़ देने के लिए काफी था। हम कितने अभागे हैं, जो नहीं जानते हैं कि आजादी हमें कितने बलिदानों के बाद मिली है। कितने देशवीरों ने हमारे भविष्य के लिए अपना वर्तमान देश पर न्योछावर कर दिया।

भीगे मन से हम जेल से बाहर आ गए। जेल के ही सामने एक सुंदर सा पार्क था, जिसके पास खाने-पीने के ठेले लगे थे। हमने वहाँ नारियल पानी पिया। थोड़ी देर बाद ही ठीक उसी प्रकार सूर्य अस्त हो गया, जिस प्रकार हमारे स्वतंत्रता सैनानियों ने अंग्रेजी राज का सूर्य अस्त किया था। हमने जेल के ऊपर रोशनी देखी, जो तिरंगे के प्रेरणादायक रंगों से जगमगा रही थी। यह नजारा बेहद खूबसूरत व मन को प्रफुल्लित करनेवाला था।

इसके बाद हम लोग वापस होटल पहुँचे और भोजन के बाद रात्रि विश्राम किया। अगली सुबह सात बजे ही हम स्वराज द्वीप के लिए निकले। होटल स्टाफ ने हमारा नाश्ता पैक कर दिया था, हम सभी होटल स्टाफ का धन्यवाद कर बस में बैठ स्वराज द्वीप की यात्रा पर निकल पड़े। यहाँ हम पानी के जहाज में पहुँचे, जोकि बहुत बड़ा व सुंदर था। जहाज पर हमने पूरे ग्रुप की फोटो खींची। यह जहाज ऊपर व नीचे दो भागों में बँटा हुआ था। हमारी सीट ऊपरवाले भाग में थी। हम सीटों पर बैठे ही थे कि जहाज अपने गंतव्य की ओर बहने लगा। जहाज में एक बड़ी-सी टीवी स्क्रीन लगी थी, जिस पर हिंदी व तमिल भाषा के गाने बज रहे थे। थोड़ी ही देर में हम स्वराज द्वीप पहुँच गए। ताऊजी ने सबसे पूछा कि स्कूबा डाइविंग किस-किसको करनी है? मुझे समंदर के अंदर जाने से डर लग रहा था, इसलिए मैंने मना किया, पर ताऊजी ने समझाया कि हमें कुछ नया करने से कभी घबराना नहीं चाहिए। ऐसा मौका बार-बार नहीं मिलता। तब मैं मान गई।

हमारे ग्रुप में से मैं, इंद्रजीत भैया, नेहा दीदी और ताऊ-ताईजी स्कूबा डाइविंग के लिए गए। बाकी सदस्य रिसोर्ट में चले गए। हम स्कूबा डाइविंग सेंटर आ पहुँचे, उन्होंने हमारे स्वास्थ्य के बारे में पूछाताछ की कि किसी को कोई गंभीर समस्या तो नहीं या ऑपरेशन तो नहीं हुआ। हमसे एक फॉर्म भरवाया गया। इसके बाद उन्होंने मुझे और इंद्रजीत भैया को सलेक्ट कर लिया। नेहा दीदी को कुछ समस्या होने के कारण ट्रेनर ने मना कर दिया और ताईजी का हाल ही में ऑपरेशन हुआ था, इसलिए वे भी अनफिट हो गईं। नेहा दीदी तो बहुत निराश हो गई। हमें पहनने के लिए विशेष पोशाक, ऑक्सीजन सिलेंडर और चश्मे दिए गए। ट्रेनर ने कुछ साइन (चिह्न‍) दिखाकर हमें समझाया, ताकि हम पानी के अंदर बात कर सकें। ट्रेनर ने हमें इस प्रकार पकड़ा, जैसे बचपन में बच्चे को चलना सिखाने के लिए बडे़ लोग पकड़ते हैं। पलभर में हम समुद्र की गहराई में उतरते चले गए। पता ही नहीं चला कि कब हम समंदर के ६५ फीट नीचे पहुँच गए। पानी के नीचे की दुनिया अद्भुत थी। हमें कुछ भी छूने को मना किया गया था। हमने बहुत सारी मछलियाँ देखीं, जिनमें ‘नीमो’ नामक मछली भी थी, जिसके ऊपर एक फिल्म भी बनी है।

वे अद्भुत दृश्य मेरे दिमाग में छप से गए। थोड़ी देर बाद हम पानी से ऊपर आ गए। यह सब एक सपने जैसा था। अब पानी को लेकर मेरा डर भी लगभग समाप्त हो चुका था। मैंने समुद्री दुनिया को करीब से जाना और अनुभव किया। हमने कपड़े बदले और रिसोर्ट की ओर चल दिए। रास्ते में मैं सभी को अपने अनुभव बताती रही। हम लोगों ने खाना खाया और थोड़ी देर बाद ही एलीफेंट आइलैंड के लिए निकल गए। हमने बीच पर खूब मस्ती की और वहाँ विभिन्न प्रकार के व्यंजनों का जायका लिया। उसके बाद मैंने जेट स्की भी की, जिसका अनुभव भी बहुत शानदार रहा। ग्रुप के बाकी सदस्यों ने शीशे वाली नाव से समुद्री जीवन के दर्शन किए। इसके बाद हम सभी ‘राधा द्वीप’ पहुँचे। यहाँ पर सैलानियों की काफी भीड़ थी, जिसमें काफी विदेशी भी थे। हमने काफी देर तक समुद्र-स्नान किया और शाम के समय ऊँची उठती लहरों के साथ खूब कबड्डी खेली। समंदर में ढलते सूरज को देखना मन को बड़ा ही सुकून देनेवाला था। इस अद्भुत नजारे से एक अलग ही शांति का अनुभव हुआ। थोड़ी देर बाद हम रिसोर्ट की ओर लौट पड़े। आज का दिन काफी व्यस्त व थका देनेवाला था, सो सभी ने भोजन किया और नींद के आगोश में चले गए।

अगली सुबह हमें पोर्टब्लेयर के लिए निकलना था। हम सभी बस में बैठ शिप पोर्ट के लिए निकल गए। हम सभी जाकर पंक्ति में लगे ही थे कि अचानक हमारे ग्रुप की निशा आंटी को याद आया कि उनके कान्हाजी तो रिसोर्ट में ही रह गए। सभी चिंतित हो गए और आंटी तो जोर-जोर से रोने लगीं। उस समय मैंने देखा कि भक्त अपने भगवान के वियोग में किस प्रकार तड़पता है। उनके आँसू थम ही नहीं रहे थे। निशा आंटी की हालत देखकर सभी की आँखें सजल हो गईं। इंद्रजीत भैया तुरंत गाड़ी पकड़कर रिसोर्ट गए और कान्हाजी को लेकर आए। अपने कान्हाजी को पाकर निशा आंटी की खुशी बेहिसाब थी। आंटी कान्हाजी को अपनी गोद में लेकर जी-भरकर प्यार-दुलार कर रही थीं और अपनी भूल के लिए प्रभु से बारंबार माफी भी माँग रही थीं।

हम जहाज में बैठे और थोड़ी देर में पोर्टब्लेयर पहुँच गए। हम सभी होटल पहुँचे और रिसेप्शन पर से अपनी चाबी लेकर अपने कमरे की तरफ चल पड़े। हम सभी के कमरे दूसरी मंजिल पर थे। इसी दौरान एक दिलचस्प घटना हुई। हम सभी अपने-अपने कमरे में पहुँचे ही थे कि हल्ला मचने लगा हमारे ग्रुप की एक सदस्या विमला आंटी अपने कमरे में नहीं पहुँचीं थी। हम सभी उनको होटल के कमरों में ढूँढ़ने लगे। दूसरी मंजिल के सभी कमरे चैक कर लिये, पर आंटी नहीं मिलीं, तब हमने पहली मंजिल के कमरों को चैक करना शुरू किया तो पाया, एक कमरे में विमला आंटी तो घोड़े बेचकर सोई हुई थीं। हमने उन्हें उठाया और बताया कि यह उनका कमरा नहीं है। इस घटना पर हम सभी खूब हँसे। उनके इस भोलेपन ने सबका खूब मनोरंजन किया। यकीन नहीं होता कि आज भी दुनिया में इतने भोले व सीधे लोग हैं। हमने दोपहर का खाना खाया और एशिया की सबसे बड़ी आरा मिल देखने के लिए चल पड़े।

मैंने वहाँ देखा कि लकड़ियों को किस प्रकार काटा जाता है और कैसे उन्हें स्टोर करते हैं। पूरी मिल लकड़ी से ही बनी है और एक बड़े क्षेत्र में फैली है। अब हम उस स्थान पर पहुँचे, जहाँ विगत वर्ष ही प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदीजी द्वारा १५० फुट ऊँचा तिरंगा फहराया गया था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की स्मृति में डाक टिकट जारी करके एक स्मारक भी बनवाया गया है। तिरंगे को ऊँचा लहराता देख हमेशा ही सुखद लगता है और देश की आन-बान-शान के गौरव का अनुभव होता है। अब हम वहाँ बने एक सुंदर से पार्क में पहुँचे।

शाम को हम सभी बाजार में खरीददारी करने एक हैंडलूम दुकान पर पहुँचे। सभी ने कुछ-न-कुछ खरीदा। अब कुछ खाने का मन हो रहा था। वहाँ के विशेष व्यंजनों में इडली-साँभर, डोसा, वड़ा के अलावा अनेक तरह के मांसाहारी व्यंजन थे। हम सब ठहरे शाकाहारी, सो सभी ने अपनी-अपनी रुचिनुसार खाया। वहाँ पर गोलगप्पे का ठेला देखते ही हम दिल्लीवालों के मुँह में पानी आ गया। गोलगप्पे हम सभी के पसंदीदा हैं तो भला हम उन्हें खाने से कैसे चूक जाते; हालाँकि हम सब भोजन कर चुके थे, फिर भी सभी ने गोलगप्पों का स्वाद लिया। तदुपरांत हम सभी होटल पहुँचे, भोजन के बाद रात्रि विश्राम किया। यहीं से अगली सुबह हमें कोलकाता के लिए निकलना था। हमारी फ्लाइट सुबह नौ बजे की थी। प्रातः हम एयरपोर्ट पहुँचे, जहाँ से कोलकाता के लिए उड़ान भरी। रास्ते भर मैं अंडमान-निकोबार की सुखद यादों में खोई रही। सच में तो मेरा वहाँ से आने का मन ही नहीं था। वहाँ की जलवायु, वहाँ का वातावरण और सबसे बढ़कर स्वतंत्रता सैनानियों की गौरवान्वित करनेवाली स्मृतियाँ, काफी कुछ ऐसा है, जो किसी का भी मन मोह ले।

हम डेढ़ घंटे में कोलकाता आ पहुँचे। यहाँ से दिल्ली के लिए चार घंटे के बाद की फ्लाइट थी, इसलिए मैंने ताऊजी से कहा कि जितना हो सके, हमें कोलकाता ही घुमा दें। मुझे पता था कि ताऊजी अकसर कोलकाता आते रहते हैं और उनका यहाँ अच्छा संपर्क है। ताऊजी अपनी लाड़ली बिटिया की बात कहाँ टालनेवाले थे, सो उन्होंने तुरंत कोलकाता में अपने मित्र डॉ. समरजीत जैनाजी से संपर्क किया। उन्होंने भी आनन-फानन में हमारे लिए हवाई अड्डे पर ही दो गाड़ियाँ भिजवा दीं, जिनमें बैठकर हम कोलकाता की सैर करने निकल पड़े। सबसे पहले विश्वविख्यात काली मंदिर (दक्षिणेश्वर) पहुँचे, परंतु दुर्भाग्यवश मंदिर बंद हो चुका था। हमने हुगली नदी के दर्शन किए और ताऊजी ने एक कुशल गाइड की भूमिका निभाते हुए हमें मंदिर के इतिहास एवं महत्त्व के बारे में बताया। स्वामी विवेकानंद की तपस्थली बेलूर मठ के दर्शन कराए, जो कि नदी के दूसरे छोर पर स्थित है।

अब हम कोलकाता की एक प्रसिद्ध मिठाई की दुकान पर आ पहुँचे। जहाँ हमने बंगाल के मशहूर रसगुल्ला, जिसे बंगालवाले ‘रसोगुल्ला’ कहते हैं और संदेस जैसी मिठाइयाँ खाईं तथा रसगुल्ले घर के लिए पैक करा लिए। अब हमारा एयरपोर्ट जाने का समय भी हो गया तो हम एयरपोर्ट की ओर चल दिए। दिल्ली पहुँचने से पहले यह हमारी यात्रा का अंतिम पड़ाव था, सो मैंने बंगाल की वीरभूमि को नमन कर हवाई जहाज में प्रवेश किया। हम रात बारह बजे दिल्ली एयरपोर्ट पर उतर गए। यहाँ से सभी अपने-अपने घर के लिए निकले। मैं पहले सभी से अनजान थी, पर अब यह भी एक परिवार सा बन गया था, तो बिछुड़ने पर दुःख हो रहा था। कहते हैं न कि मिलना और बिछुड़ना संसार का नियम है, सो सभी अपने-अपने घरों की ओर चल दिए। हमने भी टैक्सी ली और अपने घर आ गए। यह यात्रा मेरे लिए इस कारण भी अनोखी थी, क्योंकि इसमें मैंने एक साथ जल-थल और नभ, तीनों यात्राओं का लुत्फ उठाया।

इस यात्रा के दौरान मैंने महसूस किया कि यदि हम प्रकृति को माँ मानकर उसके करीब जाएँ तो वह न सिर्फ हमें अपनाती है, अपितु एक माँ की तरह बहुत स्नेह देती है। वैसे तो मैं पहले से ही स्वयं को प्रकृति के निकट महसूस करती थी, पर यात्रा से लौटकर मेरा और प्रकृति माँ का रिश्ता और भी गहरा हो गया है। मेरा मानना है कि जैसे हम अपनी जननी और जन्मभूमि का कर्ज नहीं चुका सकते, वैसे ही प्रकृति माँ का कर्ज भी नहीं चुका सकते। क्योंकि उनकी हम पर कृपा अनमोल और अनंत है। प्रकृति पूजा हम भारतीयों की संस्कृति और संस्कारों में है।

 मैं निवेदन करना चाहती हूँ, समय और सुविधा हो तो जीवन में एक बार अंडमान-निकोबार जरूर जाएँ और प्रकृति के अद्भुत चमत्कारों का आनंद लें एवं उन क्रांतिकारियों की स्मृतियों का साक्षात् अनुभव करें, जिनके बलिदानों के कारण हम सब हिंदुस्तानी आज आजादी की खुली हवा में श्वास ले रहे हैं।

२७९, पॉकेट-९, सेक्टर-२१, रोहिणी

दिल्ली-११००८६

दूरभाष : ९६२५६४५२४९
नंदिनी कौशिक

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