सवाल का जवाब

सवाल का जवाब

तिस दिन रविवार था। मैं कॉलोनी के मार्केट में जाने के लिए तैयार हुआ तो तन्मय भी साथ चलने की जिद करने लगा। उसकी दादी बोलीं, ‘‘ले जाइए न! आजकल दीवाली आने की खुशी में बाजार खूब सज रहे हैं। बच्चा है, देखकर खुश होगा।’’

‘‘हाँ, लेकिन इससे ये वादा ले लो कि किसी चीज की जिद नहीं करेगा।’’ मैंने कहा।

‘‘आप भी कैसे दादा हैं। अरे, पोता अपने दादा से जिद न करेगा तो किससे करेगा? ले जाइए और जो कहे वो खरीद दीजिए।’’

दादी की इस फटकार पर मेरी क्या हिम्मत थी जो पोते तन्मय को बाजार साथ न ले जाता।

कुछ रविवार की छुट्टी के कारण और कुछ पास आ रही दीवाली के कारण बाजार में कुछ ज्यादा ही गहमागहमी थी। मैंने तन्मय को सावधान कर दिया था कि मेरा हाथ छुड़ाकर न जाना। मुझे एक दुकान से कुछ सामान लेना था। मेरे हाथ में लंबी लिस्ट थी और दुकान में भीड़ भी कुछ ज्यादा ही थी। सो इंतजार करना ही था। उस दुकान के सामने सड़क के किनारे पटाखों की दुकान लगी थी। उसके सामने बच्चों और बड़ों की भीड़ थी। कुछ लोग बड़े-बड़े बंडलों में पटाखे बँधवाकर ले जा रहे थे। कुछ बच्चे हाथ में सीमित पैसे लिये, महँगे सामान को देखकर यह तय नहीं कर पा रहे थे कि बम लें या अनार लें या बड़ी फुलझड़ी लें। जितनी बार विचार बदलता उतनी बार वे किसी-न-किसी आइटम का दाम पूछते और हाथ के पैसों से जब वो मेल न खाता तो चुप होकर दुकान के दूसरे आइटम देखने लगते और सोचते कि क्या लें, क्या न लें! ऐसे बच्चों की भीड़ भी कुछ ज्यादा थी, तभी तो दुकानदार झुँझलाकर चीजों के दाम उन्हें कुछ ज्यादा ही बता देता था। एक-दो बार तो वह झुँझला भी गया कि ‘लेना-वेना कुछ है नहीं, बस दाम पूछ रहे हैं। जाओ, घर से ढेर से पैसे ले आओ, तब खरीदना पटाखे। हुँह! आ जाते हैं टाइम बरबाद करने।’ दुकानदार की यह बात मुट्ठी में अपनी इच्छाओं को बंद किए बच्चों को चुभी तो जरूर होगी, लेकिन उनकी मजबूरी ने इस चुभन को बरदाश्त कर लेने के सिवा कुछ न कहने दिया। वे बस चुप होकर दुकान में रखे तरह-तरह के पटाखों को देखकर ऐसा भाव प्रकट करते रहे जैसे कुछ नहीं हुआ है। बच्चों की इस भीड़ में कुछ ऐसे बच्चे भी थे जो गरीब थे, मैले-कुचैले कपड़े पहने थे और उनके हाथ में एक रुपया तक न था। दुकानदार बीच-बीच में ऐसे बच्चों को भी फटकारकर भगा रहा था। पर वे तो बस ‘विंडो शॉपिंग’ करने आए थे सो हर दुकान पर खड़े होकर एक-से-एक अच्छे पटाखों को देख रहे थे और ग्राहक से उसका गुणगान और खास बातें बतानेवाले दुकानदार को सुनकर खुश हो रहे थे। कम-से-कम इस जानकारी को लेकर वे अपने दोस्तों के बीच बैठकर इस चर्चा का आनंद तो ले ही सकेंगे कि इस बार दीवाली पर किस-किस तरह के कमालवाले पटाखे आए हैं।

पटाखे की दुकान का यह सारा दृश्य देखने के लिए तन्मय कब मेरे पास से चला गया, यह अहसास मुझे तब हुआ जब मैं सामान की लिस्ट देकर वहाँ रखे एक स्टूल पर बैठ गया। तन्मय का खयाल आते ही मैंने घबराकर इधर-उधर नजर घुमाई तो देखा कि वह सामने की ही दुकान पर खड़ा है और पटाखे देख रहा है। मुझे तसल्ली हुई कि वह कहीं दूर नहीं गया है। वह जिस तन्मयता से दुकान का दृश्य देख रहा था उसे मैंने भंग करना उचित नहीं समझा। बाजार में शोर भी बहुत था। उधर मेरा सामान पैक हो रहा था, सो मेरा उस ओर कुछ ज्यादा ही ध्यान था। फिर दस-ग्यारह साल का तन्मय समझदार बच्चा जो है।

अचानक तन्मय ने जोर से मुझे पुकारा, ‘‘दादाजी!’’

और मैंने मुड़कर देखा तो हैरान रह गया। तन्मय ने दुकानदार का हाथ पकड़ रखा था और दुकानदार घबराकर हाथ छुड़ाना चाहता था। मैं लपककर वहाँ पहुँचा तो तन्मय गुस्से से चीखा, ‘‘ये झूठा दुकानदार है! इसने गरीब बच्चों को चोर कहकर उन्हें थप्पड़ मारे हैं। गरीब बच्चों पर हाथ उठाने का इसे क्या हक है? मैं इसे थाने ले जाऊँगा और इसके खिलाफ रिपोर्ट लिखवाऊँगा।’’

उधर दुकानदार ने मुझे देखा तो और घबरा गया। वह जानता है कि इस कॉलोनी में मेरी कितनी इज्जत है और फिर मैं ठहरा पुराना अफसर।

‘‘लेकिन इसने उन बच्चों को क्यों मारा?’’ मैंने पूछा और देखा कि चार गरीब बच्चे एक ओर खड़े रो रहे हैं। अब तो भीड़ भी तमाशा देखने लगी थी।

मेरे प्रश्न के उत्तर में तन्मय ने कहा, ‘‘दादा जी! ये गरीब बच्चे अगर पटाखे नहीं खरीद सकते तो क्या इन्हें देख भी नहीं सकते? बस इनका यही जुर्म है। इस दुकानदार ने बस आव देखा न ताव, दुकान से बड़बड़ाता हुआ उतरा कि ‘ये साले चोर, बार-बार दुकान पर आकर खड़े हो जाते हैं और कुछ चुराने का मौका देख रहे हैं।’ और तड़ातड़ इन बच्चों पर थप्पड़ बरसाने लगा। मैंने देखा तो दौड़कर इसका हाथ पकड़ लिया और कहा, ‘कौन कहता है, ये चोर हैं? कहाँ हैं इनके पास चोरी के पटाखे? खबरदार, अगर इन्हें अब एक थप्पड़ भी मारा।’ बताइए दादाजी! क्या पटाखे की दुकान पर खड़े होकर उन्हें देखना जुर्म है? और अगर ऐसा है तो मैं भी तो पटाखे देख ही रहा था। लो, मुझे भी मारो—मुझे भी चोर कहो।’’

तन्मय जिस साहस और सच्चाई के साथ अपनी बात कह रहा था, उसे सुनने के लिए वहाँ इकट्ठा हुई भीड़ जैसे मौन हो गई थी। तन्मय के तर्क के सामने दुकानदार भी शर्मिंदा हो रहा था। शायद उसे यही ठीक लगा और उसने तत्काल कहा, ‘‘अच्छा भाई! मुझसे भूल हुई। मैं माफी माँगता हूँ।’’ दुकानदार ने उनकी तरफ जुड़े हुए हाथ उठाकर कहा, ‘‘आओ! तुम लोगों को मैं कुछ पटाखे-फुलझड़ी मुफ्त देता हूँ।’’ और उसने चारों बच्चों को एक-एक पैकेट फुलझड़ी और थोड़े-थोड़े पटाखे दिए।

भीड़ में किसी ने कहा, ‘‘देखा राजू! उस लड़के ने किस सच्चाई और साहस से इस दुकानदार को सबक सिखा दिया।’’ और कोई कह रहा था, ‘‘बनिया बड़ा चालाक है। सोचा, माफी माँग लो और दस-पाँच रुपए के पटाखे देकर इस मुसीबत से छुटकारा पा लो, वरना उलझ गए तो त्योहार की सारी दुकानदारी धरी रह जाएगी।’’

मैं तन्मय को लेकर अपना सामान लेने पीछेवाली दुकान पर आया। सारा सामान चेक करके रखवाया और चलने लगा तो तन्मय उन चारों लड़कों से बातें कर रहा था। मुझे नजदीक आते देखकर वे सब तन्मय के पास से मुसकराते हुए चले गए। मैं तन्मय के साथ घर लौट आया।

शाम को लगभग चार बजे मैं बैठा चाय पी रहा था कि तन्मय मेरे पास आया। बोला, ‘‘दादाजी! एक सौ पचास रुपयों में कितने रुपए मिलाने चाहिए कि वे दो सौ हो जाएँ?’’

मैंने बनावटी गुस्से से कहा, ‘‘तन्मय! तुम ये सवाल मुझसे पूछ रहे हो?’’

‘‘हाँ! क्योंकि इसका सही उत्तर आपको मालूम है, मुझे नहीं।’’

‘‘क्या मतलब?’’ मैंने आश्चर्य से कहा।

‘‘वही जो मैंने कहा। बताइए, बताइए, मेरे सवाल का जवाब जल्दी बताइए।’’ तन्मय मेरी परीक्षा ले रहा था।

‘‘अरे भाई! उसमें पचास रुपए मिलाने होंगे।’’ मैंने कहा।

तन्मय ने मुझे डेढ़ सौ रुपए देते हुए कहा, ‘‘तो इन रुपयों में पचास रुपए मिलाकर इन्हें दो सौ रुपए बनाने का जादू आप ही दिखाइए।’’

‘‘लेकिन क्यों?’’

‘‘दादाजी! इस समय कोई सवाल नहीं। केवल उत्तर दीजिए।’’

और मैंने तन्मय को पचास रुपए दे दिए। तन्मय रुपए लेकर चला गया। उत्सुकतावश मैं भी पीछे-पीछे दबे पाँव गया। फिर दरवाजे पर ठिठक गया। मैंने छिपकर देखा—तन्मय बाहर गया। वे चारों गरीब बच्चे गेट के बाहर खड़े थे। तन्मय ने उन्हें पचास-पचास रुपए दिए। एक बच्चा जोर से बोला, ‘‘अरे तनी भैया! पचास रुपए में तो ढेर सारे पटाखे आएँगे।’’

‘‘शी!’’ तन्मय ने उसे चुप कराया और उन सबको इशारे से जाने के लिए कहा।

तन्मय लौटा तो मैं जल्दी से अपने कमरे की तरफ लपका। तभी मैंने देखा कि एक कोने में तन्मय का मिट्टी का गुल्लक टूटा पड़ा है। तन्मय मेरे कमरे में आया। बोला, ‘‘हाँ, दादाजी! अब पूछिए कि मैंने पचास रुपए क्यों माँगे थे? आपके सवाल का जवाब...’’

मैंने तन्मय के मुँह पर हाथ रखकर कहा, ‘‘सवाल का जवाब मुझे मिल गया है।’’ और मैंने तन्मय को सीने से लगा लिया।

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