वह मेरा पिता...

वह मेरा पिता...

यह पिता दुर्धर्ष ऊर्जा का धनी था। यह बाँसुरी पर अल्हैया विलावल और हारमोनियम पर राग पीलू की बंदिशें निकालता था। अछूत कन्या, चंडीदास जैसी फिल्मों और जद्दन बाई जैसी उस जमाने की गायिकाओं की गाई बंदिशें भी निकालता था। पुरानी फिल्मों और शास्त्रीय गीतों के बीसों रिकॉर्ड भोंपूवाले ग्रामोफोन पर बजाता था। उसकी बच्‍चियाँ बड़े चाव से चारों तरफ बैठकर सुनती थीं। यह पिता हमारे साथ कैरम, बैगाडेल और साँप-सीढ़ी खेलता था। खेलते हुए माँ को भी आकर शामिल होने की आवाज लगाना कभी नहीं भूलता था।

दीवाली के हफ्ते भर पहले से गली में ‘ले...दीया दीयली’ की आवाज लगाकर मिट्टी के दीये बेचनेवालियों के टोकरे उझलवाकर सारे दीयों को पहले नादों में धुलवाता, फिर सूखने के लिए रखवाता था, जिससे दीवाली की रात हमारे कटावदार मेहराबों वाले तिमंजिले मकान की चारों तरफ की मुँड़ेरों पर सैकड़ों दीयों की कतारे जगमगा उठें।

अगली सुबह हम बच्‍चियाँ उन जल चुके दीयों को बटोरकर टिकुरी से तीन-तीन छेद करके मोटे धागे डालकर तराजू के पलड़े बनातीं, मोटी सीक की डंडी...और दीवाली पर आए खील, बताशों की दुकानें लगा, तौल-तौलकर बेचतीं। महीनों तक चलता यह खेल।

यही पिता दीवाली से तीन-चार दिन पहले रात में अपनी पलंग पर ताँबे के पैसों की ढेरी लगा, हम बच्‍चियों में बराबर-बराबर बाँटकर हमें तीन पत्ती, फ्लश सिखाता कि ‘पेयर’ से बड़ा ‘फ्लश’ और फ्लश से बड़ा ‘रन’...और सबसे बड़ा, तीन इक्कोंवाला ट्रायो...

ऐसा नरम, ऐसा सख्त और ऐसा ममतालु कि हर रोज सुबह अपनी बेटियों को जगाने का एक नया तरीका ढूँढ़ता। बेतुकी ही सही, तुकबंदियाँ जोड़ता और गा-गाकर अपनी बुलंद आवाज में जगाता...

जागो मीनोल (मिन्नी...यानी मैं),

(अब तो) आँखें दे खोल...

कुएँ में ढोल,...ढमाढम बोल

और मैं आँखें मुलमुलाती, मगनमन मुसकराती उठ जाती।

स्त्रीवाद और कन्याभ्रूण हत्या के आतंकित कर देनेवाले इस समय में ऐसी सलोनी सच्‍चाइयाँ किसी अतींद्रिय करव सी ही लगती हैं, जबकि है यह एक अति सामान्य मध्यवर्गीय परिवार के पिता का सच।

वह समय या यह समय, दोनों हमारे ही तो बनाए हुए हैं...पता नहीं क्या, कैसे, शायद हम ही समय के हाथों अवश, अशक्त होते चले गए।

हाँ, बहुत सीधी, संतिनी-सी बड़ीवाली लाड़ली बेटी को जगाने के लिए कोमल छुई-मुई सी पंक्तियाँ बनाते, तो मँझली तेज-तर्रार जाँबाज मँझली बहन के लिए हंटर वाली नुमा एक पूरी मसखरी स्क्रिप्ट...कि—

‘जानती हो तुम लोग? जब हमारी झाँसी की रानी जैसी सुलक्षणा, सविता, ससुराल जाएगी और अपनी आदरणीया सासूजी की किसी गलती पर धाड़ से बेलन चला देगी न!...तो कराहते-कराहते बेचारी औरत जो खत मुझे लिखेगी, उसका मजमून कुछ इस तरह का होगा कि—

‘श्रीमान बाबू डिप्टी साहेब बहादुरजी के चरणों में सादर दंडवत्...प्रणाम...आगे समाचार यह है कि मेरे बेटे ‘झगड़ू की दुलहिन ने’ मुझ बेकसूर को दो बेलन मारा है—हल्दी-चूना लगाकर पड़ी दर्द से कराह रही हूँ।

अब आपसे करबद्ध विनती है कि मुझ पर रहम करिए। खत को ‘तार’ समझिए, जल्दी-से-जल्दी आइए और अपनी बेटी को ले जाइए, गलत मत समझिए। मैं वादा करती हूँ कि जरा ठीक हो जाऊँगी तो बल्कि वापस पहुँचा जाइएगा...’

हा-हा ही-ही की किलकारियों से सारा घर नहा उठता और दबंग मँझली ताबड़-तोड़ बाबूजी की पीठ पर छोटे-छोटे मुक्के मारने लगती...हाँ, मुक्त-विनोद के उन प्रहसनी क्षणों में यह सबकुछ माफ, सबकुछ की मंजूरी हुआ करती थी।

आँखों में आँसू और जुबान पर पैरोड‌ियाँ

यह पिता मेरी माँ से जी भरकर नोक-झोंक किया करता। मखौल उड़ाता नहीं, मखौल करता। कभी उनकी मिर्जापुरी कजलियों की पंक्तियाँ सुनाकर खिजलाता, तो कभी माँ की किसी पुरानी सखी को लेकर चिढ़ाता...जिसके बादामी पोस्टकार्ड में माँ के लिए ‘सखीजी’, तो पिता के लिए ‘सखाजी’ लिखा होता। सारा कुछ इस तरह कि चौंतीस की माँ से लेकर हम चार, छह, आठ बरस की बच्‍चियाँ तक उसमें शामिल हो लेते।

गंभीर शेरो-शायरी से लेकर रामचरित मानस की चौपाइयों तक की जाने कितनी द्विअर्थी पैरोड‌ियाँ उनकी जबान पर होतीं। एकाध तो मुझे अभी तक याद हैं, जैसे—

‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी।

सो नृप अवश नरक अधिकारी॥’

को-जा, ‘सुराज’। प्रिय प्रजा दुखारी...

‘हेसुराज!’ वापस जाओ...)

कहकर इस तरह बुलंद आवाज में तरन्नुम से सुनाते कि सुननेवाले लहालोट...

यह पिता जितनी वाक्पटुता से छतफोड़ ठहाके लगवाता, उतनी ही मृदुता से नरोत्तम दास का सुदामा-चरित पढ़कर अपनी आँखें डभाडभ कर लेता...जहाँ कृष्ण परात के पानी से नहीं, अपने आँसुओं से सुदामा के काँटों बिंधे पैर धो रहे होते हैं—

देखि सुदामा की दीन दसा,

करुना करि कै करुणा निधि रोये।

पानी परात को हाथ छुयो नहीं,

नैनन के जलसों पग धोये।

उर्दू के किसी कवि का एक ऐसा ‘सुदामा-चरित’ हमारे घर में था, जिसमें द्वारपाल द्वारा सुदामा के आने की सूचना पाकर कृष्ण का सुध-बुध भूल, विह्व‍ल हो दौड़ पड़ना उनका सबसे प्रिय प्रसंग था। जब-तब गा उठते—

श्रीकृष्ण से प्रथम सुदामा,

या श्रीकृष्ण सुदामा से पहले-

लेखनी नहीं बतला सकती,

दोनों में कौन मिले पहले...

सस्वर गाई इन पंक्तियों पर पति-पत्नी दोनों की बावड़ी, पोखर सी आँखें आज तक मेरे अंदर जस-की-तस फ्रीज हैं।

अपना नाम रखनेवाला बच्‍चा-पिता

इस पिता के जन्म की कहानी और भी दिलचस्प है। अपने माता-पिता का एकमात्र ‘जी गया’ बच्‍चा था यह। जिया भी कैसे कि पैदा होते ही मालिश वाली नाइन को एक छेदवाले ताँबे के पैसे में बेच दिया गया। अपना न सही, नाइन का बच्‍चा होकर ही जी जाए। नाइन से ही नाम रखवाया गया, तो उसी छेदवाले पैसे की तर्ज पर उसने रखा—छेदी लाल।

लेकिन जब स्कूल में दाखिला कराया गया और मास्टर द्वारा नाम पूछने की बारी आनेवाली थी तो अचानक दिमाग में कौंधा—बाकी लड़कों के एक-से-एक शानदार नामों के आगे अपना भी कोई गँवारू-सा नाम हुआ। इसलिए चट्ट से बोल दिया, ‘वीर प्रताप सिंह’, यानी नेम के साथ ‘सरनेम’ भी...

खुद को दिए इस नाम के अनुरूप अपने हौसले भी इतने बुलंद रखे कि विधवा माँ के साथ बेमरम्मत होते जा रहे खँडहरनुमा घर में रहते हुए भी अपनी वकृतत्वता और जिंदादिली की वजह से शहर के नामचीनों के जोड़ीदार हो लिये। काशी के रइसों में राय साहब टोडरमल के छोटे भाई बीरबल बनाम बीरू और हिंदी हास्य-व्यंग्य के शिखर पुरुष कृष्णदेव प्रसाद गौड़, (बेढभ बनारसी) उर्फ ‘किसुन देव’ का नाम भी उनके दोस्तों में शुमार था। एक जैसी गोल कत्थई टोपियों और हाथों में मूँठदार छड़ी लेकर बाकायदे स्टूडियो में खिंचवाया दोनों का चित्र बहुत दिनों तक हमारे घर की अलमारियों में सजा रहता।

बताती तो माँ यह भी थीं कि एक बार अपने दोस्त ‘किसुन देव’ की तंगी में अपनी माँ (दादी) का एक हाथ का सोने का ‘बेरवा’ (कड़ा) बेच आए थे या गिरवी रख आए थे। पर यह ‘सदियों’ पुरानी बातों के सिलसिलों के झूठ-सच का परिवारों से फायदा? उलटे ‘वंशजों’ के रोष का भय...इस घनिष्ठता में चुनार रियासत के पास का मानसिंह परिवार भी शामिल था, जिनके साथ शिकार के यादगारियों के रूप में दर्जनों बारहसिंगे की सींगें और चीते की खाल हम बड़ी शान से अपनी बैठक में सजाए रहते थे।

मध्यवित्तीय दुर्धर्ष योद्धा सजीला पति...

सुंदर कलात्मक वस्तुओं के संग्रह का शौक इतना कि परिचितों में, जो भी जिस शहर जा रहा होता, वहाँ की मशहूर वस्तुओं के लिए बाबूजी का ‘ऑर्डर’ पहले से उसके पास बुक होता। पता चलता कि किसी जमाने में माँ के लिए जूड़े के काँटे और जाली भी कलकत्ते से मँगवाई जाती थी। कश्मीरी कढ़ाईवाली ‘ऊनी’ साड़ी और हम बहनों की ‘सर्ज’ की ऊनी फ्रॉकें श्रीनगर से। सिर्फ मँगवाई नहीं जातीं, बल्कि बड़ी सावधानी से ठंड बीतने के बाद धूप दिखाकर नेफ्थलीन की गोलियों के साथ सुरक्षित रखी भी जाती थीं। इसलिए भी कि बड़ी बहन की छोटी हुई फ्रॉकें छोटी ‘बहनें’ पहन सकें। जूते, सैंडिलें और चप्पलें तक। बहुत मेहनत की जाती, जुटाई हुई चीजों की साज-सँभाल की। आखिर थी तो यह एक मध्यवित्तीय गृहस्‍थ की ही चादर, जिसके बाहर पैर फैलाने का हश्र वह बखूबी जानता था। इसीलिए सपने देखने और उन्हें पूरे करने की तरकीबें निकालना उसने सीख लिया था। पहनने की पोशाकों तक में चुन्नटदार बाँहों वाले कुरते, अचकन, शेरवानी से लेकर तरह-तरह के डिजाइन के सूट, हैट और टोपियों तक कोई ऐसा शौक और फैशन न था, जो उन्होंने न आजमाया हो, लेकिन घर फूँक तमाशा देखने की हिमाकत कभी नहीं की। पता नहीं कितनी बरक्कत थी उनकी हाथ की रेखाओं में!

इस सुदर्शन, दुर्धर्ष और संजीदे व्यक्ति ने लड़ाइयाँ भी कुछ कम नहीं लड़ीं, अपनी कुल पचास-बावन साल की जिंदगी में।

विभागीय साजिशों से लेकर सड़कछाप गुंडों तक से अपनी तरह से निपटे। मुकदमों की तारीखों-पर-तारीखें पड़ती रहतीं। दफ्तर के बाद पसीना पोंछते, इक्के रिक्शे पर दौड़-भाग होती रहती, लेकिन डटे रहे हर मोरचे पर। कभी कहीं से हारकर नहीं लौटा यह योद्धा।

अम्माँ को नाज था, अपने इस अनुशासनप्रिय, शालीन और दबंग बेशक गुस्सैल भी पति पर...जो जवानी में मुद्गर भाँजता रहा था और पचास की पकी उम्र में चिढ़ाने के लिए ही सही, ठुमके लगा सकने के संकेत भी दे दिया करता था। घर या बाहर मर्दानों में बैठे हैं, लेकिन ध्यान अंदर जनाने में हो रहे गीतों और ढोलक की थाप पर...किसी स्त्री ने जरा बेताली ढोलक बजाई नहीं कि बाहर से फरमाइश आ जाती कि ढोलक फलानी (माँ) के हाथ में दे दी जाए। बेसुरा, बेताल संगीत किसी हालत में बरदाश्त नहीं।

बाकी जीवन के सुर-ताल भी साधकर ही चले। उसूलों से नहीं डिगे कभी, चाहे अंग्रेजी शासन के जमाने में अपनी मध्यवित्तीय आजीविका पर मुअत्तली की गाज तक गिरने की नौबत क्यों न आ जाए।

तभी तो गरमी में दौरे पर आए कमिश्नर साहब को बर्फ का ठंडा पानी न पिला पाने पर ‘सस्पेंडेड’ का ऑर्डर बेधड़क स्वीकार लिया था...क्योंकि इस उसूल के पक्के जाँबाज डिप्टी इंस्पेक्टर ने महकमे की गाड़ी सिर्फ बर्फ लाने के लिए दूसरे शहर भेजने से इनकार कर दिया था। यह नियम विरुद्ध जो था।

बहुत बड़ा करिश्मा घटा था यह उन वर्षों के सरकारी नौकरियों के इतिहास में...कि ‘सस्पेंशन’ का आदेश वापस ले लिया जाए...कारण? इस पिता के समर्थन में उनके विभाग के आधे से ज्यादा कर्मचारियों ने विभाग को अपने ‘इस्तीफे’ सौंप दिए थे। और स्‍थानीय अखबारों ने एक ईमानदार तथा बेदाग कॅरियरवाले शिक्षाधिकारी के सस्पेंशन की भर्त्सना खुली टिप्पणियों के साथ प्रकाशित की थी।

यह प्रसंग हमें माँ ने बताया था और बचपन के तीस वर्ष बाद अनायास लिख गई मेरी कहानी ‘होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन!’ के शीर्षक से ‘सारिका’ के विजयदशमी विशेषांक (वर्ष?) में प्रकाशित हुई थी। पाठकों ने बहुत सराहा था इस कहानी को।

 

 

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