दो प्रधानमंत्रियों की एक कथा

दो प्रधानमंत्रियों की एक कथा

राजनेता भी निर्वाचन वेला पर जिसे साष्टांग प्रणाम करता है उस साधनहीन, किंतु सिद्धिदायक मतदाता को नमस्कार है।

सत्ता सुंदरी के दृढ़ आलिंगन में बद्ध होने पर भी स्वयं प्रधानमंत्री तक जिससे काँपते हैं उस लटकंत संसद् की जय हो।

किसी समय पाटलीपुत्र नामक एक नगरी में पंचभोगी नामक एक वयोवृद्ध अनुभवी नेता रहा करता था। पंचभोगी पाँच अलग-अलग संयुक्त सरकारों में मंत्री रहा था और दो बार अलग-अलग और एक-दूसरे के घोर विरोधी दलों की सरकारों में उसने प्रधानमंत्री का पद पाया था। दुर्भाग्य कि सरकारी खर्चे पर पाँच बार विदेश में अपने रुग्ण हृदय और रुग्णतर गुरदे का उपचार करा लेने के बावजूद वह सक्रिय राजनीति के योग्य नहीं रहा। सच है कि भाग्य के समक्ष शक्तिशाली भी असहाय होता है।

उस पंचभोगी को इस प्रकार सक्रिय राजनीति से निर्वासित कर दिए जाने से जितनी पीड़ा हुई उससे भी अधिक पीड़ा इस बात से हुई कि जो छोटे-बड़े नेता जोड़-तोड़ की राजनीति के गुर सीखने और जानने के लिए पहले उससे वैसे ही चिपके रहते थे जैसे गुड़ से चींटियाँ, वे अब उससे वैसे ही दूर भागने लगे हैं जैसे डी.डी.टी. से मच्छर। अर्थात् उस पंचभोगी का उन कृतघ्नों ने सक्रिय के साथ-साथ निष्क्रिय राजनीति से भी निष्कासन कर दिया था। अर्थात् पंचभोगी की यह हार्दिक इच्छा पूरी नहीं हो पा रही थी कि सरकारी खर्च से मँगाई गई गुरदा मशीन से अपना रक्त शुद्ध कराते हुए मैं अपने अपार अनुभव से शिष्य मंडली को लाभान्वित करा सकूँ और सरकारों को बनाने और गिराने के काम में यथोचित योगदान कर सकूँ।

सरकार की दया से उस पंचभोगी के पास गुरदा मशीन से लेकर बुलेट-अभेध वाहन तक, भव्य कोठी से लेकर भयंकर कमांडो तक, लाखों रुपयों का बिल चढ़ जाने पर भी न कटनेवाले फोन से लेकर रेल और हवाई जहाज के पास तक—ऐसी अनेकानेक सुविधाएँ उपलब्ध थीं जो किसी सम्मानित राजनेता को उपलब्ध होनी चाहिए। इसी प्रकार भ्रष्टाचार की कृपा से उस रुग्ण वृद्ध की सात पीढि़याँ उसीकी तरह सदा लेटे अथवा पहियेदार कुरसी पर बैठे-बैठे ही संसार के समस्त सुख प्राप्त कर सकती थीं। किंतु राजनेता के लिए तो राजनीतिक जोड़-तोड़ के बिना जीवन वैसा ही होता है जैसा मीन के लिए जल के अभाव में। उस पंचभोगी की अगली दो पीढि़यों के अनेक सदस्य राजनीति में सक्रिय थे; किंतु वे भी उससे राजनीतिक चर्चा करने के लिए तैयार न होते। वे कुल कलंक यह कह देते कि डॉक्टर ने कहा है कि ज्यादा बोलना या सोचना-समझना आपके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है। पंचभोगी चिल्लाता कि अरे हृदयहीनो, बोलती बंद कर दिया जाना तो राजनेता के लिए साँस बंद कर दिए जाने से भी अधिक कष्टप्रद होता है। अरे मूर्खो! मेरे स्वास्थ्य की इस मिथ्या चिंता में तुम तो मेरे प्राण ही ले लोगे। जब वह पंचभोगी इस प्रकार क्रंदन करता है तब वे कुल कलंक सरकार की ओर से मुफ्त मिले हुए डॉक्टर को बुलवाकर मुफ्त मिली हुई नर्स से उसे निद्राकर सूई लगवा जाते।

मरता राजनेता राजनीतिक चर्चा के लिए क्या नहीं करता। तो उस पंचभोगी ने संकल्प किया कि अपने एकमात्र कमांडो को ही राजनीति की दीक्षा दूँगा और इसे क्रमशः विधायक, मंत्री और मुख्यमंत्री बनाकर सबको दिखा दूँगा कि भले ही मेरा हृदय और मेरे गुरदे जवाब दे चुके हों, मेरी अद्भुत राजनीतिक खोपड़ी को खरोंच तक नहीं आई।

इसपर पार्वतीजी ने शिवजी से जिज्ञासा की, ‘‘इतने बड़े राजनेता के लिए अंगरक्षक के रूप में केवल एक कमांडो ही कैसे नियुक्त था? हे स्वामिन्! बड़े नेताओं के साथ तो कमांडो नामधारी सशक्त अंगरक्षकों की पूरी बारात ही रहती है। इसीलिए वधू पक्षवाले वर पक्ष से पूछ लेते हैं कि बारात में कितने मंत्री आएँगे? और मंत्रियों की जो भी संख्या हो उसमें एक जोड़कर जो अंक आए उसके बराबर की बारातों के लिए भोजन की व्यवस्था कराते हैं।’’

यह सुनकर शिवजी ने कहा, ‘‘प्रिये! यह तब की बात है जब प्रतिवर्ष आम चुनाव कराने की नौबत आ गई और हर चुनाव के बाद लटकंत संसद् बनी। वर्तमान, भूतपूर्व और अभूतपूर्व प्रधानमंत्रियों और नेताओं की संख्या अनगिनत हो चली, जिन्हें भले ही विधि-विधान, लोकनिंदा आदि के भय से पूर्ण मुक्ति मिल गई हो, मृत्यु भय से मुक्ति नहीं मिल पाई थी। तो अंगरक्षकों की संख्या में उत्तरोतर कटौती करनी पड़ी। उस पंचभोगी जैसे शारीरिक ही नहीं, राजनीतिक दृष्टि से भी मृतप्राय राजनेता को कुल एक कमांडो देने का सर्वदल सम्मत निर्णय संसद् में लिया गया।’’

जिज्ञासा का इस प्रकार समाधान कर दिए जाने पर पार्वती बोलीं, ‘‘हे स्वामिन्! उस पंचभोगी ने उस कमांडो को क्या राजनीतिक दीक्षा दी, यह जानने के लिए मैं बहुत उत्कंठित हूँ।’’

शिवजी बोले, ‘‘हे प्रिये! तुम जितनी उत्कंठा दिखा रही हो उस कमांडो ने उस पंचभोगी से राजनीतिक दीक्षा लेने के विषय में उतनी ही उदासीनता प्रदर्शित की। इसपर पंचभोगी ने क्रुद्ध होकर कहा कि मूढ़मते! मैं तुझे पते की बातें बताना चाहता हूँ और तू जम्हाइयाँ ले-लेकर इस बात का प्रमाण दे रहा है कि किसी सशक्त मुखदुर्गंध नाशक के अभाव में तू किसी काम का न रह पाएगा।’’

कमांडो ने पंचभोगी को पीठ दिखाते हुए कहा, ‘‘स्वामिन्! इस दुर्गंध की कृपा से ही मैं दंतमंजन और मुखदुर्गंध नाशकों के विज्ञापन बनानेवालों और हत्या के भय से काँपते रहनेवालों के बहुत काम का सिद्ध हुआ हूँ।’’

इस प्रकार कहे जाने पर पंचभोगी ने आश्चर्यपूर्वक जिज्ञासा की, ‘‘सो कैसे?’’

कमांडो बोला, ‘‘सो ऐसे राजन्! कि किसी कस्बे के सार्वजनिक बस अड्डे के शौचालय की दुर्गंध को लजाती मेरी श्वास के भय से संभावित हत्यारे निकट नहीं आते और विज्ञापनों की शूटिंग के लिए बुलाई गई सुंदरियों की घ्राणेंद्रिय को मेरी श्वास का पहला स्पर्श मिलते ही उनके चेहरे का पोर-पोर घिना उठता है तथा दिग्दर्शक महोदय को वांछित क्लोजअप मिल जाता है। हे राजनेताओं में श्रेष्ठ! आपसे राजनीतिक शिक्षा-दीक्षा लेने में मैंने उदासीनता प्रदर्शित की है तो इसलिए कि आप ग्रेट होते हुए भी आउट ऑफ डेट हैं। आप आदेश दें तो मैं इस संबंध में आपको टल बिहारी और अटल बिहारी कथा सुनाऊँ।’’

ऐसा सुनकर वह पंचभोगी पिनपिनाकर बोला, ‘‘मुझे किसी टल या अटल की कथा नहीं सुननी है। पहले यह बता कि मैं आउट ऑफ डेट कैसे हूँ?’’

उस कमांडो ने करबद्ध निवेदन किया, ‘‘पहले आप मुझे कोई पते की बात बताएँ तो मैं आपको बताऊँ कि आप क्यों राजनीतिक परदे से लापता कर दिए गए हैं।’’

पंचभोगी ने गुरु मंत्र देते हुए कहा, ‘‘एक पते की बात तो यही है कि जब लटकंत संसद् बने तो सबको साथ लेकर चलना चाहिए।’’

कमांडो बोला, ‘‘हे ग्रेट किंतु आउट ऑफ डेट! आपको ज्ञात होना चाहिए कि सबको साथ लेकर चलने का मंत्र कई वर्ष पहले प्रभावहीन हो चुका है। सबको साथ लेकर चलना चलने के सतत टलने का पर्याय बन चुका है। सबको साथ लेकर तो सत्ता पर बैठा ही जा सकता है, सो भी बड़ी मुश्किल से। इस संदर्भ में संयुक्त मोरचा की पाँचवीं सरकार के तीसरे प्रधानमंत्री की कथा सुनाता हूँ, सुनिए।’’

‘‘संयुक्त मोरचा की पाँचवीं सरकार के गठन के समय वही संकल्प लिये गए जो पिछली चार सरकारों के गठन के समय लिये गए थे। सच है कि इतिहास अपने को दोहराता है, क्योंकि इतिहास से कोई कुछ नहीं ले पाता है। तो पुराने संकल्पों को दोहराते हुए यह निर्णय हुआ कि मंत्रिमंडल में साझा सरकार में सम्मिलित सभी दलों को समुचित प्रतिनिधित्व दिया जाएगा और संयुक्त मोरचे में सम्मिलित तीनों दलों के नेता बारी-बारी से छह-छह महीने के लिए प्रधानमंत्री बनते रहेंगे। सभी घटकों में सौहार्द बनाए रखने के लिए एक समन्वय समिति बनाई जाएगी। पहले दो घटकों के नेता जो मित्र ही नहीं, समधी भी थे, बारी-बारी से प्रधानमंत्री बन गए और उन दोनों की संयुक्त शक्ति का लोहा मान उनके प्रधानमंत्रित्व काल में तीसरे घटक के नेता ने किसी प्रकार की कोई अड़चन न डाली। किंतु जिस दिन तीसरे नेता के प्रधानमंत्री बनने की बारी आई उसी दिन प्रथम दोनों घटकों के नेताओं ने बगावत का बिगुल बजा दिया और प्रतिपक्ष के नेता ने पहले दो घटकों के नेताओं के साथ मिलकर सरकार बनाने की पहल शुरू कर दी।

‘‘तब तीसरे घटक के नेता ने सबको साथ लेकर चलने की नीति अपनाई। उसने दोनों घटकों के सभी सदस्यों को और प्रतिपक्ष के कुछ सदस्यों को प्रलोभन दिया कि मेरा साथ दो और मंत्री पद लो। इस प्रकार वह सरकार बनाने में सफल हुआ। इस सरकार के कार्यकाल के शुरू के तीन महीने मंत्री पदों का समुचित वितरण करने और हर मंत्री को सचिवालय तथा संसद् में बैठने का उपयुक्त स्थान दिलाने और राजधानी में रहने के लिए कोठी दिलवाने में चला गया। सबको साथ लेकर चलनेवाले उस नेता की वह सरकार सचिवालय और संसद् में बैठ तो गई, किंतु आपसी मतभेदों के कारण न शासन चला सकी, न कोई नया विधेयक ला सकी और न अपनी कोई नीति निर्धारित अथवा कार्यान्वित करवा सकी। सबको संतोष देने के उपक्रम में वह सरकार किसीको भी संतोष नहीं दे पाई थी; अस्तु असंतुष्टों की संख्या घटने की बजाय बढ़ती चली गई। उन अपने-पराए असंतुष्टों ने कुरसी खिसकाकर उस मिलकर बैठी हुई सरकार को मिलकर गिरा दिया।’’

इसपर उस पंचभोगी ने कहा, ‘‘मूढ़मते! तू यह क्यों नहीं सोचता कि यदि वह नेता उस समय अपने उन सब मित्रों-शत्रुओं को साथ लेकर न चलता तो उसकी सरकार बैठ तक न पाती।’’

उस पंचभोगी का यह वचन सुनकर उस कमांडो ने इस प्रकार कहा, ‘‘हे ग्रेट आउट ऑफ डेट नेताओं में श्रेष्ठ! अब तो सबको साथ लेकर चलने में सरकार का बैठ सकना भी संदिग्ध हो चला है। इस प्रसंग में मुझे प्रधानमंत्री चतुर्मुख की कथा याद आ रही है, ध्यानपूर्वक सुनें। किसी समय देश के समस्त राजनीतिक दल तीन संयुक्त मोरचों में विभाजित हो चुके थे। एक वाममुखी मोरचा, दूसरा दक्षिणमुखी मोरचा और तीसरा ऐसा मध्यमुखी मोरचा जो ग्रीवा वाममुख की ओर मोड़े हुए था। इन तीन संयुक्त मोरचों के आपस में संयुक्त और विभक्त होते रहने से सरकारें जल्दी-जल्दी बनती रहीं और उतनी ही जल्दी-जल्दी गिरती भी रहीं। सारी परिस्थिति को देखते हुए चतुर्मुख नामक एक उभरते हुए नेता ने चौथा संयुक्त मोरचा बना दिया, जो मध्यमुखी तो था किंतु जिसकी ग्रीवा दक्षिण की ओर मुड़ी हुई थी। आम चुनाव के पश्चात् फिर लटकंत संसद् का गठन हुआ, तब चतुर चतुर्मुख ने शेष तीनों मोरचों के नेताओं को आपस में लड़वाकर प्रधानमंत्री पद के लिए दावा कर दिया; यद्यपि उसका संयुक्त मोरचा संसद् में अल्पसंख्यक था। सबको साथ लेने की नीति अपनाते हुए उसने राष्ट्रीय सरकार बनाई और अन्य तीनों संयुक्त मोरचे के नेताओं को उप प्रधानमंत्री का पद दिया।

‘‘जब उन तीनों में महत्त्वपूर्ण विभाग पाने के लिए खींचातानी होने लगी तब उस चतुर चतुर्मुख ने समाचार पत्रों और दूरदर्शन में मुखारविंद दिखाते रहने और स्विस बैंकों में खाते खुलवाते रहने की दृष्टि से सर्वाधिक छह विभागों के नामों की परचियाँ बनाकर अपनी टोपी में डालीं और उन्हें अच्छी तरह मिलाकर उन तीन संयुक्त मोरचाओं के नेताओं से कहा कि इनमें से दो-दो पर्चियाँ आप उठा लें। प्रभु की दया से इस पद्धति से विभागों का वितरण कुछ ऐसे हुआ कि कोई भी बहुत अधिक असंतोष व्यक्त नहीं कर पाया। जो थोड़ा-बहुत असंतोष था भी वह चतुर चतुर्मुख के इस तर्क के आगे नतमस्तक हो गया कि मैंने एक भी महत्त्वपूर्ण विभाग स्वयं नहीं लिया है और विभागों का आप लोगों में वितरण स्वयं न करके भाग्य देवता से करवाया है। इस प्रकार उनका असंतोष दूर करने के पश्चात् स्वयं चतुर्मुख ने विदेश विभाग सँभाला और विदेश मंत्री की हैसियत से ‘भ्रष्टाचार और विकासशील अर्थव्यवस्थाएँ’ विषय पर आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय गोष्ठी में हिस्सा लेने अपने प्रिय कुटुंबीजनों, प्रिय सरकारी अधिकारियों और प्रिय पत्रकारों तथा मित्रों के साथ स्विट्जरलैंड नामक सुरम्य देश के लिए निकल पड़ा।

‘‘उस बारात को अपने साथ ले जाने के लिए उस चतुर्मुख ने देश की विमान सेवा के छह में से तीन जहाज ले लिये और चौथा किसी भी आपात् स्थिति का सामना करने के लिए अलग रखवा दिया। अर्थव्यवस्था पर भ्रष्टाचार के अनिष्टकारी प्रभाव पर अपने प्रिय उच्चाधिकारी द्वारा भ्रष्ट अंग्रेजी में लिखे गए एक भाषण को अटक-अटककर अटपटे उच्चारण के साथ उस चतुर चतुर्मुख ने उस नीरस अंतरराष्ट्रीय गोष्ठी में किसी तरह पूरा पढ़ डाला। उस औपचारिक करतल ध्वनि को हार्दिक साधुवाद का पर्याय मानते हुए वह चतुर चतुर्मुख प्रसन्नचित्त उस पाँच सितारा होटल को लौटा जिसकी पूरी एक मंजिल उसके और उसके कुटुंबीजनों के ठहरने के लिए ले ली गई थी। वहाँ उस चतुर चतुर्मुख को वह स्वदेशी उद्यमी प्रतीक्षारत मिला जिसने उस चतुर चतुर्मुख के कुटुंबीजनों के होटल प्रवास, सैर-सपाटे और खरीदारी का सारा व्ययभार अपने सशक्त कंधों पर सहर्ष ले लिया था।

‘‘उस समय वह उदार उद्यमी चतुर चतुर्मुख के लिए यह शुभ समाचार लाया था कि आपने पिछली पाँच सरकारों में मंत्री पद पर आसीन होकर जनता की निःस्वार्र्थ और निःशुल्क सेवा करते हुए जो मेवा कमाकर मुझसे स्विट्जरलैंड के बैंकों में रखवाया था उसका एक अंश अंतरराष्ट्रीय बैंक व्यवस्था की आड़ी-तिरछी गलियों से आपकी राजधानी तक पहुँचा देने की व्यवस्था मैंने कर दी है। यह समाचार पाकर उस चतुर चतुर्मुख की प्रसन्नता चौगुनी हो गई; क्योंकि सरकार के स्थायित्व के लिए सांसदों की भक्ति खरीदते रहना आवश्यक था और भक्ति खरीदने के लिए दो नंबर के नोटों की पेटियों का भंडार आवश्यक था।

‘‘दुर्भाग्य कि तभी उसका निजी सचिव भरोसेलाल नामक व्यक्ति सेल्यूलर फोन नामक उपकरण को अपने कान से लगाए हुए और चेहरे पर चिंता की रेखाएँ खींचे हुए प्रकट हुआ। चतुर चतुर्मुख के मुख पर दमकते आनंद-सूर्य की कांति उस चिंतामग्न भरोसेलाल को देखकर निस्तेज होने लगी और तब तो विलुप्त ही हो गई जब फोन कान से लगाने पर उसे पता चला कि दिल्ली में उसकी दुकान उखड़ चली है। अर्थात् उसकी सरकार सबको साथ लेकर चलने के बावजूद बैठने से पहले ही गिरने वाली है।’’

इसपर उस पंचभोगी ने शंका की, ‘‘जब सभी सरकार में शामिल कर लिये गए थे तब उसके गिरने का प्रश्न ही नहीं उठता था?’’

इस प्रकार कहे जाने पर उस कमांडो ने चिढ़कर कहा, ‘‘कृपया बीच में न टोकें और ध्यान से सुनें। आपके ज्ञानचक्षु खुल जाएँगे और आपकी शंकाओं का समाधान स्वतः हो जाएगा। बात यह थी कि चतुर चतुर्मुख के दाहिने हाथ दक्षिणाशापति ने, जिसके प्रभाव में आकर वह दक्षिणमुखी संयुक्त मोरचे की ओर झुका था और जो उप प्रधानमंत्री न बनाए जाने से थोड़ा निराश लग रहा था, अपने ही नेता के प्रति विद्रोह करा दिया था। इसके लिए उसने बहुत ही सरल युक्ति अपनाई। सचिवालय में उप प्रधानमंत्री के नाम का एक ही बड़ा दफ्तर था, जिसमें वामोन्मुख मध्यमुख का नेता मध्यमक इस नाते बैठा हुआ था कि पिछली संयुक्त सरकार में भी वह उप प्रधानमंत्री था और उसे वही कमरा मिला हुआ था। चतुर चतुर्मुख ने स्विट्जरलैंड रवाना होते ही उप प्रधानमंत्री न बनाए जाने से रुष्ट दक्षिणाशापति ने दक्षिणमुखी संयुक्त मोरचे के नेता और अपने नए गुरु दक्षिणाचारी से इस प्रकार नम्र निवेदन किया—‘हे मेरे नव गुरु! मेरे पूर्व गुरु स्विट्जरलैंड के लिए प्रस्थान करते समय आदेश कर गए हैं कि उप प्रधानमंत्री का कार्यालय और कुरसी आपको दी जाए; क्योंकि आप अन्य दो उप प्रधानमंत्रियों से वयोवृद्ध हैं। मध्यमक मेरे अनुरोध करने पर भी कार्यालय खाली नहीं कर रहा है, अतः आप अपने स्वयंसेवकों की सहायता से रातोरात उस कार्यालय से उस अधम का ताला तुड़वाकर, उसका सारा सामान गलियारे में फेंकवा कर वहाँ स्वयं विराजमान हो जाने की महती कृपा करें। ऐसा सुनकर उस दक्षिणाचारी ने वैसा ही किया। अगले दिन उस कमरे को लेकर दक्षिणाचारी के स्वयंसेवकों और मध्यमक के चमचों में जमकर युद्ध हुआ। दक्षिणाशापति इस युद्धाग्नि को अपनी दोमुखी उक्तियों से भड़काने का काम करता रहा। उप प्रधानमंत्री कार्यालय के लिए इस प्रथम युद्ध में दक्षिणाचारी के स्वयंसेवकों की विजय हुई।

‘‘तब पराजित मध्यमक को दक्षिणाशापति ने वाममुखी संयुक्त मोरचे के नेता वामशील की कोठी के द्वार पर खड़े होकर सेल्यूलर फोन से यह सलाह दी कि अपना कार्यालय पुनः प्राप्त करने के लिए वामशील से सहायता की प्रार्थना करे। वामशील के पास कर्मठ काडर है, जबकि आपके पास केवल कायर चमचे हैं। इस प्रकार मध्यमक को प्रेरित करके दक्षिणाशापति तुरंत वामशील की बैठक में घुसा और उसने उस वामशील को अलग ले जाकर उसके कान में यह बात डाली कि दक्षिणाचारी ने मध्यमक से उप प्रधानमंत्री का कार्यालय छीन लिया है और मध्यमक आपके पास सहायता के लिए आ रहा है। मेरा परामर्श यह है कि आप अपनी काडर को भेजकर उस कार्यालय से दक्षिणाचारी को खदेड़ें अवश्य, किंतु अनंतर वहाँ स्वयं विराजमान हों, मध्यमक को न बैठने दें। उप प्रधानमंत्री का वह कार्यालय आपने पूर्व शासन के प्रधानमंत्री की हैसियत से उस मध्यमक को प्रदान किया था। अस्तु, वह उसका नहीं, आपका ही कहा जाएगा।

‘‘वामशील को दक्षिणाशापति की बात नीतिसम्मत लगी और उस प्रकार परामर्श पाए हुए उस वामशील ने सहायता की प्रार्थना करने के लिए आए हुए मध्यमक को युद्ध के लिए अपनी काडर तो दिलवाई, किंतु युद्ध से पुनः प्राप्त हुआ कार्यालय उससे छीन लिया। इस प्रकार तीनों ही संयुक्त मोरचों में आपस में घमासान युद्ध छिड़ गया। इस स्थिति का लाभ उठाते हुए दक्षिणाशापति ने दोनों मध्यमार्गीय संयुक्त मोरचों को मिलाकर मध्यमक और चतुर्मुख, दोनों से नेतृत्व छीन लिया और दक्षिणाचारी के सहयोग से एक नई सरकार का गठन किया, जिसमें दक्षिणाचारी प्रधानमंत्री और वह स्वयं उप प्रधानमंत्री बना। चतुर चतुर्मुख द्वारा स्विट्जरलैंड के बैंकों से लाया हुआ धन भी निष्फल सिद्ध हुआ। सांसदों ने उसे ग्रहण तो किया किंतु मत चतुर्मुख के विरुद्ध दिया; क्योंकि उन्होंने जान लिया था कि इस मूर्ख की सबको साथ लेकर चलनेवाली सरकार चलने वाली नहीं है।’’

कुछ इस कथा के प्रभाव से, कुछ गुरदा मशीन में कुछ गड़बड़ हो जाने से पंचभोगी के प्राण छूट गए। प्राणरक्षक कमांडो ने परिचारिका को बुला लिया। परिचारिका ने कहा कि मरणासन्न राजनेता को राजनीतिक कथाएँ नहीं सुनानी चाहिए। क्या तुमने निन्यानबे के फेर में आए प्रधानमंत्री की कथा नहीं सुनी है? कमांडो यह कहते हुए कमरे से बाहर चला गया कि ‘न मैंने सुनी है और न सुनने की स्थिति में हूँ। मेरे स्वस्थ गुरदे मुझे लघुशंका के लिए जाने को बाध्य कर रहे हैं।

—मनोहर श्याम जोशी

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