मेरा समाज

मेरा समाज

बालेंदुजी का दूसरी बार निमंत्रण आया था, फोन पर। इस निमंत्रण ने मुझे आश्चर्य में डाल दिया।

उन्होंने कहा कि राँची के संत जेवियर कॉलेज का वार्षिकोत्सव है, दीक्षांत समारोह भी। उसी में सफल छात्रों को उनकी उपाधियाँ दी जाएँगी। वे चाहते थे कि मैं उसमें दीक्षांत भाषण करूँ।

मैं चकित था। एक तो अपने देश में कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में दीक्षांत भाषणों के लिए राजनीति के धुरंधर बुलाए जाते थे, कोई राजपाल, कोई मंत्री, कोई उद्योगपति, कोई सरकारी अधिकारी, किसी विश्वविद्यालय के कुलपति, कभी-कभी फिल्म जगत् का कोई अभिनेता। किसी लेखक को बुलाने की घटना मैंने कभी नहीं सुनी। दूसरी बात, संत जेवियर्स ईसाई मिशनरियों का कॉलेज था, जिनकी प्रत्येक गतिविधि ईसाई धर्म के प्रचार के लिए होती थी। वे मुझे, हिंदी के एक लेखक को, जो अपनी पौराणिक कृतियों से ही जाना जाता था, जो हिंदू था और इस देश की संस्‍कृति का गुणगान करने में किसी मिशनरी से कम नहीं था, वे मुझे निमंत्रित कर रहे थे। विश्वास नहीं हुआ। कहीं कोई भ्रम अवश्य है।

मैंने अपने संशय तिवारीजी के सामने रख दिए। वे चिंतित नहीं हुए। शुद्ध बिहारी शैली में बोले, “अरे, वहाँ एक लड़का हिंदी पढ़ाता है, कमल बोस। अपना ही चेला है। उसी ने निवेदन किया है कि उस समारोह के लिए आपको बुला दूँ।”

“वह मेरे विषय में जानता है?”

“अच्‍छी तरह। तभी तो बुला रहा है।”

“बाद में उसे कोई परेशानी न हो।”

“नहीं होगी। और होगी, तो वही समझेगा। आपको क्‍या करना है?”

“तो ठीक है, उसे कहिए कि टिकट भिजवा दे।”

जब तक टिकट आ न जाए, मैं उस निमंत्रण को गंभीर नहीं मानता, किंतु कमल बोस ने टिकट भिजवा दिया। अब निश्चित था ही कि मुझे राँची जाना है। वस्‍तुत: हिंदी साहित्य के विद्यार्थी के लिए संत जेवियर्स महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि कामिल बुल्‍के वहाँ पढ़ाते थे। मेरे कई मित्र उनसे पढ़कर ही आगे बढ़े थे। मैं उनसे दो-एक बार मिला तो था; किंतु मैं कभी उनका छात्र नहीं रहा। मैंने भी उनकी रामकथा पर पुस्तक बहुत ध्‍यान से पढ़ी थी; और दूसरे उनका अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश आज भी मेरी मेज पर रहता है। हमारे घर में जब कभी किसी शब्द के अर्थ को लेकर मतभेद होता है, तो कहा जाता है, “फादर से पूछो।”

मेरे मन में कामिल बुल्‍के के लिए सम्‍मान तो था; किंतु मैं उनके प्रति श्रद्धा से भरा हुआ नहीं था। रामकथा संबंधी उनका शोध महत्त्वपूर्ण था; किंतु उसके पीछे एक शरारत भी थी, जो बाद में बहुत प्रचारित हुई।

वे तो केवल यह बता रहे थे कि रामकथा किस-किस ने लिखी और उन कृतियों में क्‍या भेद अथवा भिन्नता थी। किंतु उनके चेलों ने उसमें से जो अर्थ निकाला, और जिसका प्रचार किया गया, वह यह था कि संसार में अनेक रामायणें हैं और वे एक-दूसरे से भिन्न हैं। यदि राम कोई ऐतिहासिक पात्र होते, तो उनके विषय में अनेक प्रकार की परंपराएँ विभिन्न कल्पनाएँ नहीं करतीं। चूँकि सारी रामायणें एकरूप नहीं हैं, इसलिए वे इतिहास नहीं हैं, कल्पना के आधार पर लिखे गए काव्य हैं। यही कारण है कि जब हमारे उच्‍चतम न्‍यायालय में राम-सेतु संबंधी सुनवाई चल रही थी, तो हमारी हिंदू विरोधी ईसाई सरकार ने वहाँ यह कहा था कि राम एक काल्पनिक पात्र हैं। इस संसार में न उनका जन्म हुआ, न उन्होंने कोई सेतु बनाया, इसलिए रामसेतु तोड़ने में किसी की भी आपत्ति कोई अर्थ नहीं रखती।

तो राम को काल्पनिक पात्र बनाने का अभियान संभवत: कामिल बुल्‍के से आरंभ हुआ था। वे उसी के लिए अपने देश से आकर यहाँ बस गए थे; और इस काम को उन्होंने बहुत अच्‍छी तरह किया।...जो भी हो, किंतु उनका संबंध इसी कॉलेज से था। उन्होंने यहाँ पढ़ाया था, तो ऐसा कैसे हो सकता है कि उस कॉलेज में जाकर उनको स्मरण न किया जाए। लंका में जाकर रावण को स्मरण न करें, ऐसा हमारे लिए संभव नहीं है।

भास्कर और सूर्या भी राँची में रहकर पढ़ने के कारण, कामिल बुल्‍के से बहुत प्रभावित थे। उन्हें भी सूचित करना होगा कि मैं कामिल बुल्‍के के कॉलेज में व्‍याख्‍यान देने के लिए राँची आ रहा हूँ। संभव है कि वे लोग मुझसे मिलने के लिए राँची आ जाएँ।...

मैंने जब भास्कर को फोन किया तो बहुत उत्‍कंठित हो उठा।

“कहाँ ठहरोगे?”

“जहाँ वे ठहराएँगे।”

“फंक्शन कॉलेज में ही होगा?”

“भाई, मैं क्‍या जानूँ? मुझे उन्होंने बुलाया है, मैं जा रहा हूँ। जहाँ ठहराएँगे, वहाँ ठहर जाऊँगा। वहाँ से आयोजन स्‍थल तक ले जाना उनका दायित्व है। ऐसा तो नहीं है कि वे मुझे कह दें कि आप बस पकड़कर होटल से आयोजन स्‍थल पर आ जाएँ।”

“नहीं, ऐसा तो नहीं होगा।” वह बोला, “मैं तो इसलिए कह रहा हूँ कि यदि यह दो बातें मालूम हो जातीं, तो मुझे राँची में अपने रुकने के लिए होटल चुनने में सुविधा रहती।”

“तो तुम तिवारीजी को फोन कर लो। वे जानते होंगे कि कहाँ-क्‍या होना है।”

मुझे तिवारीजी और कमल बोस के फोन कम आए, भास्कर के ही अधिक आए। उसे बहुत कुछ जानना था। क्यों, कब और कहाँ के अनेक प्रश्न थे। वह राँची आ रहा था और सूर्या के साथ आ रहा था, इसलिए अधिक सुविधाएँ चाहिए थीं।

“वे मुझे जहाँ ठहराएँगे, तुम भी उसी होटल में ठहर जाना।”

“वह होटल महँगा होगा।” वह बोला, “मुझे अपने बजट के अनुसार होटल चाहिए। यदि वह मेरा कोई परिचित होटल होगा तो और भी सुविधा होगी। सूर्या सीढ़ियाँ नहीं चढ़ सकती। या तो भूमि तल पर ही कमरा मिले या वहाँ लिफ्ट हो। अटैच्ड बाथ हो। और भी कुछ सुविधाएँ...।”

“समझ गया।” मैंने कहा, “मैं तो राँची नगर के विषय में कुछ नहीं जानता। तुम मुझसे कहीं अधिक जानते हो या फिर तिवारीजी से पूछ लो, अशोक प्रियदर्शी से पूछ लो, ऋता शुक्ल से पूछ लो। तुम सबको ही जानते तो हो।”

“देखता हूँ।” वह बोला, “वैसे किसी भी नगर के निवासी उस नगर के होटलों के विषय में कुछ नहीं जानते; क्योंकि वे लोग वहाँ होटल में नहीं ठहरते।”

ठीक कह रहा था वह। किंतु एक बात जिसकी ओर उसका ध्‍यान नहीं गया था, यह थी कि विभिन्न नगरों में मेरे ठहरने के लिए प्रबंध मेरे आतिथेय करते हैं। मैं तो जिस कमरे में ठहरता हूँ, उसके किराए के विषय में भी नहीं जानता। यदि कभी उनके कुछ कागजों पर दृष्टि पड़ जाए, तो यह भी पता नहीं होता कि छपे हुए और भुगतान किए गए किराए में कितना अंतर है!

इसलिए उसके प्रश्नों के उत्तर मेरे पास नहीं थे।

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राँची विमानपत्तन से बाहर आया तो संध्‍या प्राय: ढल चुकी थी। बाहर निकलकर देखा, डॉ. बालेंदुशेखर तिवारी एक व्यक्ति के साथ सामने ही खड़े थे। वह कमल बोस ही होगा, मैंने अनुमान लगाया। ... तो आज उनके पास ड्राइवर नहीं था।

परिचय हुआ। वह व्यक्ति कमल बोस ही था : डॉ. कमल बोस। वे लोग कमल बोस की गाड़ी से ही आए थे और वह स्वयं ही उसे चला रहा था।

हम दोनों को पीछे की सीट पर बैठाकर वह स्वयं स्‍टीयरिंग पर जा बैठा।

“यात्रा ठीक रही?” कमल बोस ने मुझसे पूछा।

वह अधिक बातें करनेवाला व्यक्ति नहीं लगता था, इसलिए उसे तिवारीजी की आवश्यकता हर क्षण ही थी, ताकि वे मुझे उलझाए रखें।

“ठीक थी।” मैंने कहा, “राँची अथवा इंदौर जैसे नगरों के जो नए विमानपत्तन बने हैं, वे सुंदर और साफ-सुथरे हैं। अच्‍छे लगते हैं। भीड़ भी अधिक नहीं होती। फिर भी राँची में जितने यात्री हैं, वे भी मुझे चकित करते हैं। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि राँची से इतनी उड़ानें आएँ-जाएँगी और यहाँ इतने यात्री होंगे! मैं तो राँची को बस अड्डे वाला नगर ही मानता रहा।”

“झारखंड की राजधानी हो जाने के कारण।” बोस ने कहा।

उसका फोन बजा। वह बात करने लगा। मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ। गाड़ी चलाते हुए फोन पर बात करना...उसने फोन बंद कर दिया, “यह डॉ. भास्कर राव का तीसरा फोन था। वह तब से पूछ रहे हैं कि आपको किस होटल में ठहराया जा रहा है और आप होटल में कितनी देर में पहुँचेंगे?”

“बता दो।” तिवारीजी बोले, “पहुँचने ही वाले हैं। वे आ जाएँ।”

“डॉ. कोहली को विश्राम की आवश्यकता नहीं होगी? अभी से लोग आने लगे तो...”

“कोई बात नहीं है। बुला लो।” मैंने कहा।

“वे इनके पुराने मित्र हैं।” तिवारीजी ने कहा, “डॉ. सूर्या राव भी इनकी सहपाठिनी रही हैं। बी.ए. में साथ ही पढ़ते थे। वे लोग जमशेदपुर से आए हैं इनका भाषण सुनने।”

मैंने मुसकराकर उनका समर्थन कर दिया।

हम भीड़ भरे बाजार में से निकल रहे थे। मैं नहीं चाहता था कि बोस का ध्‍यान कहीं और बहके। अच्‍छा था कि कोई बात न हो। वह ध्‍यान से गाड़ी चलाए।

होटल ‘लै लार्क’ में पहुँचे। रिसेप्‍शन से चाबी लेकर बोस हमें ऊपर ले आया। कमरे में पहुँच, मैं पलंग पर बैठ गया। तिवारीजी सोफे पर विराजमान हुए। बोस देखता रहा कि कमरे और बाथरूम में आवश्यकता की सारी चीजें ठीक से लगा दी गई हैं न।

तभी कमरे के फोन की घंटी बजी। फोन बोस ने ही उठाया।

मैं उसकी ओर देखता रहा। वह सुनता रहा। कोई विशेष बात नहीं की। फिर बोला, “आने दीजिए।”

फोन रखकर वह हमारी ओर मुड़ा, “डॉ. सी. भास्कर राव आ गए हैं।”

कमरे का दरवाजा उनके लिए खुला ही छोड़ दिया था। द्वार पर घंटी थी, किंतु भास्कर ने हलके से कपाट थपथपाए और उन्हें धकेलकर भीतर आ गया। उसके पीछे ही सूर्या भी थी।

मैं पलंग पर विश्राम की मुद्रा में पैर फैलाकर बैठा था। सोफे पर डॉ. बालेंदु तिवारी थे। एक कुरसी पर बोस बैठा था। भास्कर और सूर्या को देखकर वे दोनों उठकर खड़े हो गए।

औपचारिक अभिवादन के बाद हम तीनों...मैं, भास्कर और सूर्या...बारी-बारी गले मिले।

जिन जगहों पर वे दोनों बैठे थे, वहाँ भास्कर और सूर्या को बैठा दिया। वे दोनों खड़े ही रहे।

“आप दोनों भी विराजिए।” मैंने कहा।

“नहीं, हम अब निकलेंगे। हम इनकी प्रतीक्षा ही कर रहे थे।” बालेंदु बोले।

“अब हम सर को आपके जिम्मे सौंपकर जा रहे हैं।” कमल ने हँसकर कहा।

मुझे आश्चर्य हुआ। यह व्यक्ति हँसता भी था!

वे दोनों हमसे विदा होकर दरवाजे की ओर आगे बढ़ने को हुए।

“कल का क्या कार्यक्रम होगा?” भास्कर गतिरोधक बन गया।

“आप लोग कहाँ ठहरे हुए हैं?” कमल ने पूछा।

“लालपुर चौक में, न्यू राजस्थान होटल में।”

“क्या ऐसा हो सकता है कि पहले कोहलीजी को लेकर, फिर लालपुर से इन्हें लेकर कॉलेज पहुँचा जाए?” बालेंदु बोले।

“ऐसा भी हो सकता है।”

“मैं चाहता हूँ कि नरेंद्र के साथ ही हम वहाँ पहुँचें, ताकि वहाँ प्रवेश संबंधी कोई झमेला न हो। आखिर इतना बड़ा आयोजन है।” भास्कर ने कहा।

“अच्छा होगा कि आप लोग सुबह आठ-साढ़े आठ तक यहीं आ जाएँ। नौ बजे तक सर को लेने जो गाड़ी आएगी, उसी से आप भी आ जाएँ।” कमल ने मार्ग सुझाया।

“यह भी ठीक है।” सूर्या ने कहा, “पर प्रवेश। कन्वोकेशन में हमारे लिए बैठने की क्या व्यवस्था होगी?”

कमल बोस और तिवारीजी चले गए थे।

अब वहाँ हम तीनों ही बचे थे। वह हमारा अपना समय था। कोई अन्य विघ्न-बाधा भी नहीं थी। मैं पुन: अपने पलंग पर पुरानी मुद्रा में आ गया था।

“हाँ भाई, अब सुनाओ, क्या समाचार हैं?”

“सब ठीक है।” भास्कर ने कहा।

मेरा मन कह रहा था, “यही उत्तर होना चाहिए था।”

“राँची में कब तक हो?” सूर्या ने पूछा।

“अभी आज तो पहुँचा ही हूँ, कल मुख्य कार्यक्रम है। उसमें पता नहीं कितना समय लगेगा। परसों प्रात: विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में एक व्याख्यान है और शाम की फ्लाइट से पटना निकलना है।”

“अब हम लोग भी चलें।” सहसा भास्कर व्‍याकुल हो गया, “नरेंद्र भोजन करके विश्राम करेंगे।”

“हाँ, चलो।” सूर्या सहमत हो गई।

“अरे, भोजन तो करके जाओ।” मैंने उन्हें रोका।

“नहीं, बहुत देर हो जाएगी।” सूर्या बोली, “हमारा होटल यहाँ से दूर है। अँधेरा हो रहा है। हमें जल्‍दी चलना चाहिए।”

“अरे बैठो। अभी तो ढंग से तुम्‍हारा चेहरा भी नहीं देखा।”

“धत्त!” वह बोली, “अपने होटल जाने से पहले खाने के लिए कोई ढाबा भी तो खोजना पड़ेगा।”

“खाना यहीं खाकर जाओ। अच्‍छा होटल लग रहा है। खाना भी ठीक-ठाक ही होगा। अपने होटल जाकर भी डिनर तो करोगे ही। वह काम यहीं निपटाते जाओ। फिर तो सोना ही रह जाएगा।” मैंने कहा।

“सही है। पता नहीं हमारे होटल में डिनर की क्‍या व्यवस्‍था है; या कोई रेस्‍त्राँ ढूँढ़ना पडे़गा।” भास्कर ने कहा।

भास्कर ने बताया था कि सूर्या को जल्दी किसी होटल का खाना पसंद नहीं आता था। होटल का खाना वैसे भी महँगा होता है। ब्रेकफास्ट कॉम्‍प्लिमेंट्री हुआ तो ले लिया, नहीं तो बाहर कोई अच्‍छा स्‍थान खोजना पड़ता था।

“लै लार्क अच्‍छा होटल है।” भास्कर ने सहमति जताई, “भोजन भी अच्छा होना चाहिए।”

सूर्या ने हठ नहीं पकड़ी।

“आपके यहाँ सूखी चपाती मिलेगी न?” सूर्या ने बैठते ही बैरे से पूछा।

सूखी रोटी खाना भी एक नजाकत है। कोई भी अच्‍छा वैद्य बता देगा कि घी में कोई बुराई नहीं है, किंतु यह भी आधुनिकता का एक शाप है।

रेस्‍त्राँ में लोग बहुत कम थे और हमने सादे खाने का ही ऑर्डर किया था, फिर भी उन्हें परोसने में काफी समय लग गया। बड़े होटलों में ऐसा होता ही है। खाकर उठे तो दस बज रहे थे। और मैं सोच रहा था कि सूर्या ठीक ही कह रही थी। देर तो हो ही गई थी।

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प्रात: मैं नाश्‍ता कर डायनिंग हॉल से लौटा ही था कि भास्कर और सूर्या आ गए।

मैं समझ रहा था कि भास्कर के मन में आज के कार्यक्रम को लेकर कुछ घबराहट थी। वे लोग जमशेदपुर से आए थे। चाहते थे कि कार्यक्रम में सम्मिलित हों। पर उसके मन में एक कीड़ा यह था कि कार्यक्रम में प्रवेश निमंत्रण से ही होगा और वे लोग औपचारिक रूप से आमंत्रित नहीं थे। कहीं ऐसा न हो कि उन्हें प्रवेश द्वार से ही वापस लौटना पड़े! यदि प्रवेश मिल ही गया और उन्हें छात्रों की भीड़ के साथ किसी ऐसे स्‍थान पर बैठा दिया गया, जहाँ से मंच भली प्रकार से दिखाई भी न पड़ता हो, तो? स्‍थान सुविधाजनक न हो, तो सबकुछ बदमजा हो जाता है।...

मैं उसकी इच्‍छा को समझ रहा था कि वह सम्‍मान और सुविधाजनक स्‍थान दोनों चाहता था। इतना कुछ वह शब्दों में कह नहीं सकता था, इसलिए यह मार्ग खोज निकाला था कि वे मेरे साथ जाएँगे तो उनकी सारी शर्तें पूरी हो जाएँगी।...वह जितना चिंतित रहता था, उतना ही अच्‍छा प्रबंध या जुगाड़ भी कर लेता था। वह उसने कर लिया था। और उसके लिए माध्यम चाहे मैं रहा होऊँ; किंतु मुझे कुछ करना नहीं पड़ा था। सब उसका अपना ही किया-कराया था।

गाड़ी उनके आने के लगभग आधा घंटा बाद आई थी। उस आधे घंटे में वह वहाँ की व्यवस्‍था और अपनी सीट इत्यादि की चर्चा करता रहा; किंतु मैं तो उस संदर्भ में कुछ जानता ही नहीं था। निश्चिंत था कि हमारे आतिथेय अच्‍छा प्रबंध कर देंगे।

कॉलेज होटल से अधिक दूर नहीं था। शायद उसकी निकटता देखकर ही मुझे वहाँ ठहराया गया था।...कॉलेज के प्रांगण में गाड़ी रुकी और हम उतरे तो स्‍वागत समिति के लोग हमारी ओर लपके। जब तक हम अपने आप को समेटते, सँभलते, कॉलेज के प्राचार्य और कमल बोस भी आ गए। आज तिवारीजी कहीं नहीं थे।

वे हमें एक छोटे हॉल में ले गए।

बाहर भीड़-भाड़ थी। कई छात्र अपने गाऊन में दिखाई पड़ रहे थे और प्रसन्न थे। उत्सव का माहौल था; कॉलेज के लिए तो वसंत ही था।। क्यों न होता? छात्रों के लिए यह कॉलेज का ही नहीं, उनके अपने जीवन का भी उत्सव था। उनका सारा भावी जीवन, आज मिलनेवाली डिग्री की नींव पर ही तो खड़ा होनेवाला था। उनमें से जो प्रसन्न दिखाई नहीं दिए, मैंने मान लिया कि वे आज अपने प्रिय अथवा प्रिया से बिछुड़ने वाले हैं। कॉलेज का अंतिम दिन बहुत सारे लोगों को जीवन भर के लिए घाव दे जाता है।

हमने हॉल में कॉफी पी।

“चलिए।” कमल बोस ने कहा।

हम तीनों उठ गए। कमल के पीछे कुछ कदम आगे बढ़े भी।

तब कमल ने मेरी ओर देखा, “सर, आप अभी अंदर ही रहें। आपको तो गाऊन पहनाया जाएगा। मैं भास्कर सर और मैडम को सभा-स्थल पर बैठाकर आता हूँ।”

“अच्‍छी जगह बैठाना,” मैंने कहा, “जहाँ से ये मुझे और मैं इनको देख सकूँ।”

“तुम बाज नहीं आओगे।” सूर्या मुसकराई, एक गर्वीली मुसकान। प्राचार्य मुझे लेकर चले, हम भीतर जाने के लिए मुड़े।

तभी प्राचार्य महोदय ने मंद स्वर में शालीनता से कहा, “यदि आपको वाश रूम...”

“ओह हाँ।” मैंने कहा, “एक बार बैठ गए तो...।”

“आपको जो गाऊन पहनाया जाएगा, वह काफी भारी है।” प्रिंसिपल ने कहा।

मैं समझ गया कि उनका संकेत उसकी गरिमा नहीं, उसकी असुविधा की ओर था। खैर...

छात्रों के वसंत को देखकर और डिग्री देनेवाला गाऊन पहनकर मैं अपने वसंत में चला गया था।...मैं न तो बी.ए. और न पी-एच.डी. के दीक्षांत समारोह में सम्मिलित हुआ था। बस, दिल्‍ली में एम.ए. की डिग्री दीक्षांत समारोह में ली थी। आज भी यह झमेला ही लग रहा था।

बी.ए. के दीक्षांत के समय मैं दिल्‍ली में था और दीक्षांत राँची में था। मुझे ध्‍यान भी नहीं है कि वह कब हुआ। मेरी उसमें कोई रुचि नहीं थी। एम.ए. के दीक्षांत में मेरे अनेक सहपाठी डिग्री लेने आ रहे थे। वह एक सामूहिक उत्सव था। डिग्री मिलने से पहले, गाऊन पहनकर टहलना और स्वयं को हीरो समझना। लड़कियों के विषय में तो सुना था कि वे पहले ब्‍यूटी पार्लर गई थीं। मेकअप के बाद, गाऊन पहनकर फोटो स्‍टूडियो। वहाँ हाथ में एक कैलेंडर पकड़कर चित्र खिंचवाया था। तब वे यूनिवर्सिटी लॉन में आई थीं।

चित्र तो मैंने भी खिंचवाया था, किंतु डिग्री मिल जाने के बाद। उस दिन लड़के और लड़कियों में दूरियाँ कुछ बढ़ गई थीं। दोनों अपने-अपने समूहों में थे। फिर भी जीवन का वसंत तो वह था ही।

पी-एच.डी. की डिग्री लेने मैं नहीं गया था, दिल्‍ली में रहते हुए भी। प्रो. सावित्री सिन्‍हा ने पूछा था कि मैं क्यों नहीं आया? कह दिया कि डिग्री तो डाक से भी आ जाएगी। यह नहीं कहा कि उस दीक्षांत में मेरा एक भी सहपाठी वहाँ नहीं था...न कोई लड़का, न कोई लड़की। किसको देखने के लिए जाता और किसको दिखाने के लिए डिग्री लेता? दीक्षांत तो था, किंतु वह मेरे लिए वसंत नहीं था, निदाघ था।

आज मेरा वसंत न सही, किंतु इतने सारे युवा मनों का वसंत तो था और उनके चहकने से स्पष्ट था कि वह उनके लिए कितना महत्त्वपूर्ण था। मैं वहाँ था, किंतु चाहकर भी मैं उस परिवेश का अंग नहीं बन सकता था। बच्‍चन ने कहा है न—‘मधुप नहीं अब मधुवन तेरा।’

गाउन पहन, गुरु गंभीर मुद्रा बनाकर शोभायात्रा के रूप में हम मंच की ओर चले। दो-तीन क्षणों का मार्ग तय कर हम मंडप में आ गए। मंडप विशाल भी था और भव्य भी। एक खुले मैदान को इस आयोजन के लिए मंडप बनाया गया था। मंडप दो भागों में बँटा था और बीच में से होकर एक गलियारा जा रहा था। दोनों ओर अनुशासित छात्र बँधे खड़े थे। छात्र भी और उनके अभिभावक भी। भास्कर और सूर्या दूसरी या तीसरी पंक्ति में बैठे थे। उनके साथ ही कमल बोस की पत्‍नी बैठी हुई थी। बोस ने बताया था कि उसकी बेटी ने भी किसी विषय में स्वर्ण पदक प्राप्त किया था।

शोभायात्रा मुझसे ही आरंभ होती थी। शेष सब लोग मेरे पीछे थे। उनमें राँची विश्वविद्यालय के कुलपति भी थे। पिछली बार जब मैं राँची आया और उन्होंने मुझे स्‍मृतिचिह्न‍ दिया था, वे कुलपति कोई और थे। वर्तमान कुलपति नए थे और इसी कॉलेज के पढ़े हुए थे, इसलिए विश्वविद्यालय के कुलपति होते हुए भी कॉलेज के प्रिंसिपल को ‘फादर’ कहकर संबोधित कर रहे थे।

दोनों ओर लोग खड़े थे और हम उनके मध्य के गलियारे से मंच की ओर जा रहे थे। इस प्रकार की शोभायात्रा का नेतृत्व करने का मुझे कोई अभ्‍यास नहीं था। इसलिए मैं कितना सहज दिख रहा था, नहीं जानता।...हम मंच पर बैठे। प्रत्येक व्यक्ति के सामने एक फाइल थी, जैसे कि प्रत्येक बैठक में रखी जाती है। सबसे ऊपर जो कागज था, उस पर कार्यक्रम अंकित था। प्रत्येक वक्‍ता के नाम के सामने उसके वक्तव्य का समय लिखा हुआ था। मैंने अपने नाम के सामने देखा...दस मिनट। मुझे एक झटका लगा...दस मिनट! मैं दस मिनट बोलने के लिए दिल्‍ली से यहाँ आया था? मेरे तीन दिन इसमें निकल जाएँगे। और बोलना था...दस मिनट! देखा, बहुत सारे वक्‍ता थे और कोई भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं था। फिर सैकड़ों विद्यार्थियों को प्रमाण-पत्र और मेडल देने थे। सहस‍्रों विद्यार्थियों का परीक्षाफल घोषित होना था। निश्चय ही वे इससे अधिक समय नहीं दे सकते थे।

संचालक महोदय, अर्थात् डॉ. कमल बोस माइक पर मेरा परिचय दे रहे थे, “आज कॉलेज के इतिहास का एक अविस्मरणीय और स्वर्णिम दिन है कि हमारे बीच हिंदी के महान् साहित्यकार पद्मश्री डॉ. नरेंद्र कोहली उपस्थित हैं।”

मेरा मन हँसने को हुआ, किंतु जहाँ मैं बैठा था, वहाँ हँसा नहीं जा सकता था। करतल ध्वनि से पूरा पंडाल गूँज उठा।

मेरा ध्‍यान इस ओर गया कि भारत सरकार के द्वारा पद्मश्री अलंकार की घोषणा के बाद सार्वजनिक मंच पर यह पहला ही अवसर था। इस पद्मश्री के चक्कर में ही तो इन्होंने मुझे नहीं बुलाया? यह भी संभव था। अपने देश में इन सब चीजों का बहुत महत्त्व है। मेरे साहित्य का किसी को पता हो-न-हो, पद्मश्री का पता सबको होगा। उसको जानने के लिए कुछ पढ़ना नहीं पड़ता न।

दीप प्रज्वलन हुआ। माल्यार्पण भी हुआ। एक सुंदर और आकर्षक बुके भी दिया गया। मैं सोचता ही रह गया कि दिल्‍ली में ऐसा बुके मिला होता तो उसे घर ले जाकर सजा देता। सप्‍ताह भर तो उसका नयनसुख प्राप्त होता। यहाँ क्‍या करूँगा उसका? होटल का कमरा सुगंधित करूँ? हर बार ऐसा ही होता था। मधुरिमा साथ होतीं, तो कहतीं कि जैसे भी हो, इसे दिल्‍ली ले चलो और मैं हूँ कि उसे किसी ड्राइवर या बैरे को देकर संतुष्ट हो जाता हूँ।

कार्यक्रम की रूपरेखा...स्वागत भाषण...यह स्‍वागत भाषण भी विचित्र होता है, जिसमें अपनी ही प्रशंसा होती है।

मुझे अर्थात् पद्मश्री नरेंद्र कोहली को बोलने के लिए आमंत्रित किया गया। उसमें नरेंद्र कम था, पद्मश्री अधिक था, या शायद केवल वही था। तालियाँ बजीं। पता नहीं लोग तालियाँ किस बात पर बजाते हैं...अभ्‍यासवश, शिष्‍टाचार में अथवा अतिथि का मन रखने के लिए अथवा अपने आयोजन को अधिक कोलाहलमय बनाने के लिए!

मैं माइक के सामने खड़ा था। मेरे सामने अपरिचित बच्‍चे और उनके अभिभावक बैठे थे।...पर वे तो अपनी डिग्री, अपने मेडल के लिए बैठे थे। मेरा व्‍याख्‍यान उनके लिए क्‍या महत्त्व रखता था? मैं तो उनके और उनकी डिग्री, उनके मेडल के बीच की बाधा था। वे मुझे सुनना चाहेंगे? अरे दस मिनट ही तो बोलना था। नहीं सुनना चाहेंगे, न सुनें। दस मिनट तो बीत ही जाएँगे। पर क्‍या कहूँ इन अपरिचित बालक-बालिकाओं से?

वे कॉलेज की पढ़ाई के निकास द्वार पर खड़े थे। उन्हें अपने भावी जीवन के लिए चुनाव करना था। क्‍या पढ़ें? पढ़ें न पढ़ें, नौकरी खोजें।...तो चलो, उन्हें कुछ भड़काने का काम करते हैं। उन्हें अपने बड़ों के समकक्ष, बराबरी के धरातल पर खड़ा करते हैं। वे बाजार की माँग का मुँह न देखें, नहीं तो बी.कॉम. ही पढ़ेंगे। उनसे कहता हूँ कि वे अपने मन के भीतर झाँकें। चलो, उपदेश देते हैं।

मैंने कहा, “आगे की पढ़ाई और अपने भावी कॅरियर के लिए आप अपने विवेक से काम लें, अपने अभिभावकों की सनक से नहीं। आपके अभिभावकों का विवेक पुराना हो गया है, पच्‍चीस से पचास वर्ष। वे आपके समान नहीं सोच सकते। आपके सपनों को वे नहीं जी सकते। आप किसी के बहकावे और दबाव में न आएँ। जिस क्षेत्र में आपकी रुचि है, उसी का चयन करें। कोई कोर्स सिर्फ इसलिए न करें कि उसमें सफलता और नौकरी की संभावानाएँ अधिक हैं। अपने मन की आवाज को सुनें और उसे ही प्राथमिकता दें। सफलता तभी मिलेगी। आगे जो कुछ भी पढ़ें, सिर्फ डिग्री पाने के लिए नहीं, वरन् अपने विकास के लिए पढ़ें, अपने स्व को जानने के लिए पढ़ें।”

उन्हें अपना उदाहरण देते हुए कहा, “मैं भी पहले सबके समान विज्ञान का छात्र था। अच्‍छे छात्र विज्ञान ही पढ़ते हैं। मान्यता यही है न कि अयोग्य छात्र ही साहित्य या कला की ओर जाते हैं। मैं अच्‍छा छात्र था, प्रथम आनेवाला। अच्‍छे अंक लानेवाला। किंतु मैं लेखक बनना चाहता था। आज कह सकता हूँ कि मैं तो लेखक था। पैदा ही लेखक हुआ था, इसलिए विज्ञान छोड़कर साहित्य में आ गया। आप क्‍या समझते हैं, मेरे इस निर्णय को परिवार के बड़ों ने सुविधा से मान लिया होगा? कोई नहीं मानता तो वे ही क्यों मानते? मुझे मूर्ख, पागल, नासमझ...जाने क्‍या-क्‍या कहा गया। युग विज्ञान का था और मैं साहित्य पढ़ने जा रहा था! साहित्य तो कम बुद्धि के लोग पढ़ते हैं न!

“वे जो चाहें, सोचें। मैं अपने आसपास के लोगों को प्रसन्न करने के लिए अपने सपनों की बलि नहीं दे सकता था। मेरा लक्ष्य आरंभ से ही स्पष्ट था। मुझे साहित्य पढ़ना था और साहित्यकार बनना था। मैं बाजार के किसी प्रलोभन, किसी बड़ी नौकरी, किसी बड़े वेतन के सामने झुका नहीं। यह पागल किसी समझदार की बातों या दबाव में नहीं आया। अपनी बात पर अडिग रहा। परिणाम? मैंने अपने भीतर के साहित्यकार का विकास किया। समाज ने उसको पहचान दी और आज मैं आपके सामने हूँ।

“लोगों की बात मानकर टाटा कंपनी का एक इंजीनियर बन गया होता तो जमशेदपुर में एक बड़ा बँगला चाहे मिल गया होता, किंतु दीक्षांत भाषण के लिए आमंत्रित नहीं किया जाता। दिल्ली विश्वविद्यालय के इस अध्‍यापक को जब लगा कि अध्‍यापन भी मेरे लेखन में बाधा है तो स्‍वैच्छिक सेवानिवृत्ति का निर्णय लिया। दस वर्षों की नौकरी अभी शेष थी। छोड़ दी। लिखने के घंटे बढ़ा दिए। पूरी तरह लेखन में जुट गया। सहयोगियों ने समझाया, गुरुओं ने चेताया, प्रिंसिपल ने पुनर्विचार के लिए कहा। बस एक मैं था और एक मेरी पत्‍नी, हम दोनों इस निर्णय पर टिके रहे। सोचकर देखो मित्रो, आर्थिक लाभ कोई बड़ा लाभ नहीं होता। अपना विकास और अपनी प्रतिभा का प्रसाद समाज को समर्पित करना वास्तविक कर्म है, सफल जीवन का लक्ष्‍य है। अपनी अंतरात्‍मा की सुनो। वह निरंतर सत्य का गुंजार कर रही है।

“मेरी कामना है कि आप परीक्षाफल, डिग्री, नौकरी, वेतन के मोरचे पर सफल हों-न-हों, आपका जीवन एक सफल जीवन हो। सफलता वेतन में नहीं, अपने विकास में है। अपने आप को पहचानिए और उसे संसार के सामने प्रस्‍तुत कीजिए। मैं आपको भ्रामक नहीं, वास्तविक सफलता का आशीर्वाद दे रहा हूँ।”

तालियाँ बजीं और कुछ ज्‍यादा ही बजीं।

पता नहीं, वक्तव्य अच्‍छा लगा या फिर समझ में न आनेवाला भाषण समाप्त होने की प्रसन्नता में सभागार तालियों से गूँजा।

जानता था कि भाषण संक्षिप्त था, किंतु क्‍या करता! उन्होंने दस मिनट लिखकर परची मेरे सामने रखी थी। और यह दीक्षांत का अवसर था, मेरा एकल भाषण तो था नहीं कि मैं बोलता ही चला जाता। संक्षेप में, कम समय में, सार्थक, सारगर्भित और सीधी बात कह दी। वैसे मुझे पसंद भी यही है कि श्रोताओं की आँखों में देखते हुए, सीधी और सच्‍ची बात बिना किसी पाखंड के उनके गले से उतार दो। छात्रों से सीधा संवाद करो। विद्वत्ता मत झाड़ो। इतनी बड़ी संख्या में उपस्थित लोगों को बाँधने का और क्‍या उपाय हो सकता है?

उपाधियाँ बाँटने का कार्य आरंभ हुआ। सबसे पहले प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान। उन्हें मुख्य अतिथि अर्थात् मेरे हाथों से प्रमाण-पत्र दिए जाने थे। फिर स्नातक प्रतिष्ठा में प्रथम स्थान।...मुझे लगा कि लंबा काम है। कमल को संकेत किया।

“मैं अधिक समय तक खड़ा नहीं रह पाऊँगा। डायबिटिक हूँ। आराम के लिए होटल लौटना चाहता हूँ।”

उसने तत्‍काल माइक पर घोषणा कर दी कि मुख्य अतिथि जाना चाहते हैं।

विदा करने के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण लोग मेरे साथ मंच से नीचे उतरे। दोनों ओर बैठे लोगों के बीच से होकर हम बाहर निकले। अनायास ही लोग खड़े हो गए थे। छात्र तालियाँ बजाने लगे। लगा कि अनुशासित बच्‍चे हैं, तौर-तरीका जानते हैं।

मैंने देखा कि भास्कर ओर सूर्या भी बाहर निकलने वाली भीड़ का अंग थे। वे मेरे साथ आए थे। अब शायद लौटना भी मेरे साथ ही चाहेंगे।

“आप इतना संक्षिप्त क्यों बोले? आपको सुनने के लिए ही तो यह सारे लोग आए थे।” कमल बोस ने कार का दरवाजा खोला।

मैंने उसकी ओर देखा, “तुमने शायद वह कागज नहीं देखा, जो हमारे सामने रखा गया था। उसमें मेरे लिए दस ही मिनट थे।”

“अरे, वह किसी क्लर्क ने लिख दिया होगा।”

“मैं क्‍या जानूँ कि किसने लिखा! मेरे लिए तो वह आदेश था।” मैंने कहा, “फिर भी मैं उससे पाँच-सात मिनट अधिक ही बोला होऊँगा।”

“ठीक है। भूल हुई। हम आपको कम-से-कम आधा घंटा सुनना चाहते थे।”

“चलो। बाकी फिर कभी।”

मैं गाड़ी में बैठ गया। भास्कर और सूर्या भी बैठ गए थे।

गाड़ी के चारों ओर भीड़ थी। मैंने कमल बोस की ओर देखा।

“ये स्‍थानीय समाचार-पत्रों और टी.वी. चैनलों के प्रतिनिधि हैं। आपसे बात करना चाहते हैं।”

“हम बड़ी देर से प्रतीक्षा कर रहे हैं सर।” एक पत्रकार ने कहा।

“अर्थात् मुझे विश्राम नहीं करने दोगे।” मैंने कहा, “अच्‍छा, ऐसा करो कि होटल में आ जाओ। वहीं होटल की लॉबी में बातचीत कर लेंगे।”

ड्राइवर को संकेत किया कि निकलो। उस भीड़ को सँभालने का दायित्व कमल बोस का था। एक-दो पत्रकार होते तो मेरे मन में भी उनसे चर्चा करने का लोभ होता; किंतु इस भीड़ का क्‍या करूँ?

“बाप रे।” सूर्या ने कहा, “ये पत्रकार हैं या मधुमक्‍खी का छत्ता! ऐसे घिर आए हैं।”

“नरेंद्र से बात करने का मोह।” भास्कर ने कहा।

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भोजन कर कुछ देर विश्राम किया था कि कमल बोस के साथ तिवारीजी आ गए।

कमल जानना चाहता था कि मुझे कोई असुविधा तो नहीं हुई।

“नहीं हुई। बस अब कल मध्‍याह्न‍ में विमानपत्तन पहुँचा देना।”

“वह हो जाएगा। मैं स्वयं आऊँगा।” उसने कहा, “आपके भाषण को लोगों ने खूब पसंद किया है; किंतु अतृप्त ही रहे। आपको और बोलना चाहिए था।”

“मैंने बताया न कि मेरे सामने रखे कागज ने मुझे दस मिनट का समय दिया था।”

“हाँ।” उसने अपनी मुद्रा बदली, “किसी क्लर्क की मूर्खता को भुगत रहे हैं हम।”

“अगली बार से अतिथि को वह कागज सौंपने से पहले स्वयं भी देख लेना। क्लर्क पर अधिक निर्भर नहीं रहना चाहिए। भगवान् की कृपा रही कि तुम्‍हारे क्लर्क ने मेरा नाम भी लिख दिया था और दस मिनट भी। वह मेरा नाम ही न लिखता तो मैं क्‍या कर लेता?”

थोड़ी ही देर में अशोक प्रियदर्शी भी आ गए।

“कुछ और मित्र भी आ रहे हैं।” उन्होंने बताया, “भास्करजी भी आएँगे क्‍या?”

“नहीं। वे लोग मुझसे विदा लेकर जा चुके हैं।”

“अभी राँची में ही हैं न?”

“जी। हैं तो राँची में ही।”

“तो फोन कीजिए। उनके बिना शोभा नहीं होगी।”

मैंने फोन मिलाया, “भास्कर, राँची के कई साहित्यकार इस समय मेरे कमरे में जमा हैं और कह रहे हैं कि भास्कर वहाँ क्या कर रहे हैं, उन्हें भी बुला लीजिए।”

“मुझे अनुमान था कि ये लोग आपके पास जुटेंगे, लेकिन हमें अपनी पुरानी अंतरंग मित्र मीरा बुधिया से मिलने जाना है। वे लालपुर में ही रहती हैं। उनकी बड़ी बेटी इन दिनों काफी अस्वस्थ है। मैं इस साहित्यिक गोष्ठी को मिस करूँगा, लेकिन मीरा से मिलना भी जरूरी है, जो कल नहीं हो पाएगा।”

“ठीक है। जब बात पुरानी मित्रता और बीमार बेटी की है तो वहीं चले जाओ।”

“धन्यवाद। वैसे राँची के सारे ही पुराने साहित्यकार मीरा बुधिया को जानते हैं और उनके साथ हमारी वर्षों पुरानी मित्रता को भी।”

“हरि इच्‍छा!” मैंने कहा।

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नरेंद्र कोहली

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