चार लघुकथाएँ

चार लघुकथाएँ

पंचर वाला

“जब से ट‍्यूबलैस टायर चले हैं न साब,” पहिए के नट खोलते हुए पंचरवाले ने बात चलाई, “धंधा एकदम आधा रह गया है। पहियों में हवा भरने के सहारे ही चल रही है रोटी।”

“सो तो है!” जनाधार बोला, “नाम क्या है आपका?”

“इस्कूल-मदरसा तो कभी गए नहीं।” वह बोला, “इसलिए, जैसा आप पूछ रहे हैं, वैसा तो कोई नाम नहीं है।”

“वोटिंग कार्ड पर क्या नाम लिखा है?”

“वोट डालने लायक हई कब ये देस!” वह बोला, “ज्यादातर तो बूथ पर हमारे पहुँचने से पहले ही डल चुका होता है!”

“राशनकार्ड, आधार कार्ड पर...?” उसकी शिकायत को नजरअंदाज कर जनाधार ने पूछा।

“कच्छू नईं बनवाए।” पहिए को खोलकर गोल-गोल घुमाते हुए टायर की सतह पर कील-काँटा महसूस करने की कोशिश करता वह लापरवाही से बोला।

“राशनकार्ड नहीं! आधारकार्ड नहीं! वोटरकार्ड नहीं!...कभी अगर जरूरत पड़ गई तो कैसे प्रूव करोगे कि...?”

“प्रूव करने को अड़ोस-पड़ोस है न साब! नए थोड़े न हैं सहर में, कदीमी हैं...”

“सो तो ठीक है, लेकिन कुछ तो होना चाहिए न दिखाने के लिए।”

“दिखाने को दो चीजें हैं साब,” पीठ से चिपके अपने पेट को हथेली से थपकता वह बोला, “पालने को चार अदद पेट, कमाने को दो अदद हाथ और यह हुनर!”

पंचर लगाने के बाद पहिए को वापस उसकी जगह कसते हुए उसने कहा, “दो चीजें—वफादारी और ईमानदारी भी हैं, लेकिन उन्हें देखता कौन है!”

जनाधार सिर्फ मुसकराकर रह गया। पंचर लगाने की मजदूरी उसे पकड़ाई और आगे बढ़ गया।

 

फसाद के बाद

“नौजवान साथियो! दंगों के दौरान मोहल्ले की म‌सजिद को बचाने के एवज आपको जितना धन्यवाद दिया जाए, कम है।” भीड़ के बीच खड़े, इलाके का मुआयना करने आए प्रमुख राजनीतिक दल के वरिष्ठ नेता ने लगभग चीखते हुए कहा।

“हम लोगों ने अपनी जान पर खेलकर इसकी हिफाजत की सर!...” भीड़ के बीच खड़े एक नौजवान ने गर्व से सीना ठोंकते हुए कहा।

“पहले कुछ लोग मंदिर की ओर बढ़े थे। हम इधर आए तो दंगाइयों की दूसरी टीम मसजिद को नेस्तनाबूद करने के लिए बढ़ गई!” भीड़ के बीच से कोई दूसरा बोला।

“दूसरी टीम मतलब?” नेता ने आश्चर्य से पूछा।

“एक ही ग्रुप था साहब,” किसी तीसरे ने कहा, “ध्यान भटकाने को शोर मचाते हुए पहले कुछ लोग मंदिर की तरफ गए...”

“मुहल्ला उधर इकट्ठा हो गया तो बाकी लोग मसजिद ढाने को...” बीच में ही चौथे आदमी ने बात कही।

“ओह!”

“लेकिन हम लोग भी कम चालाक नहीं थे सर!” भीड़ के भीतर से एक अन्य बोला, “हमने पहले से ही चार टीमें तैयार करके रखी हुई थीं।”

“चार क्यों?” नेता ने चौंककर कहा, “दो ही काफी थीं।”

“घर भी बचाने थे न साहब!” कोई एक बोला।

इस पर नेताजी बरबस मुसकरा उठे। कहा, “अरे हाँ, वह तो मैंने सोचा ही नहीं! लेकिन चौथी टीम किसलिए?”

“आप लोगों से बात करने के लिए, सर!” इस सवाल पर लाठी टेकता हुआ एक बुजुर्ग सामने आकर बोला, “मालूम था कि फसाद के बाद नेता लोग तशरीफ लाएँगे जरूर! फर्ज कीजिए, बदमाश लोग आपकी शक्ल में आ जाएँ! बस्ती के रहवासी हम सारे लोग आपसे बातों में मशगूल हों और आपकी दूसरी टीम अपना काम कर जाए!...फिर जाता न मेहनत पर पानी!”

नेताजी ने यहाँ ज्यादा रुकना अब उचित न समझा। भीड़ को चीरते हुए तुरंत जीप में जा बैठे। ड्राइवर से बोले, “चलो!”

 

मुल्क और हम

संपूर्ण लॉकडाउन का वह ग्यारहवाँ दिन था।

गत दस दिनों के दौरान भी फल-सब्जी बेचनेवाले दो-तीन लोगों को गली में आने दिया जाता रहा था। पूरा मोहल्ला वर्षों से इन्हें जानता था और ये मोहल्लेवालों को। इन सबके आने से न किसी को एतराज रहा, न डर।

आज लेकिन अजीब बात हुई। पहला सब्जीवाला गली में दाखिल हुआ। उसकी पुकार सुन मनोहर बाबू दरवाजा खोलकर बाहर आए। ठेली पर नजर पड़ी तो चौंक गए। सब्जियों के साथ-साथ उस पर मिट्टी के दीये और मोमबत्तियाँ भी थीं!

“अरे आबिद, यह क्या! सब्जी के साथ आज...?”  उन्होंने पूछा।

“उस दिन-रात के लिए पिरधानमंतरी की कॉल है न बाबूजी।” आबिद ने मुसकराते हुए कहा, “मैंने सोचा कि...”

“अच्छा किया, अच्छा किया!” मनोहर बाबू ने शाबाशी देने के अंदाज में कहा, “कई बार मौजूद होने के बावजूद ये छोटी-छोटी चीजें घर में मिल नहीं पाती हैं।”

इतने में पड़ोसवाले घर की बालकनी में प्रो. असगर आ खड़े हुए। ठेली पर सब्जी से इतर सामान देखते ही गुर्रा उठे, “सब्जियों के साथ टोटके का सामान भी बेचने लगे, मुल्लाजी?”

उनके सवाल का आबिद ने कोई जवाब नहीं दिया; अलबत्ता मनोहर बाबू ने सिर उठाकर तंज कसा, “सिर्फ पाँच रुपए का आइटम है प्रोफेसर साहब, ले लो। अँधेरे में काम आएँगे।”

“मुफ्त में मिलें, मैं तब भी यह टोटका नहीं करूँगा मनोहर बाबू! जमीन पर दे मारूँगा।” प्रोफेसर पूर्ववत् चिल्लाए, “और सुनिए, घर के सारे बल्ब जलाए रखूँगा। अँधेरा करने को कह रहा नामुराद! अजीब अहमक है!”

“नाराज मत होइए बाबूजी।” इस बार आबिद बोल पड़ा, “मुल्क को एकजुट देखने के लिए ऐसा कहा है।” फिर मनोहर बाबू से कहा, “हमने सोच रखा है बाबूजी, शाम को जितने भी दीवे और मोमबत्तियाँ बच जाएँगे, सब-के-सब हम अपनी खोली के आगे रोशन कर देंगे। दिखा देंगे कि पूरा मुल्क एकजुट है।”

असगर साहब ने सामान्य स्वर में कही उसकी यह बात भी सुन ली। श्राप देते हुए से चीखे, “एक भी नहीं बिकेगा। सारे के सारे बचेंगे, लिख ले!”

“मुल्क से हम और हम से मुल्क है बाबूजी। इसका बहुत कर्ज हमारे सिरों पर है। सारे बचेंगे तो हम सारों को ही कुर्बान कर देंगे। बचाकर नहीं रखेंगे एक भी।” आबिद ने उनकी ओर हाथ जोड़कर गर्वीले अंदाज में कहा, “हम लोग गरीब हैं बाबूजी, कंगाल नहीं हैं।”

 

कोरोना-महानायक संवाद

“आपका नाम क्या है भाईसाहब?” साक्षात् मृत्यु बनकर सामने आ खड़े हुए उस अदृश्य राक्षस से सदी के महानायक ने पूछा।

“कोरोना!”

“कोरोना भाईसाहब, आप किसकी प्रसन्नता के लिए इस महामारी  का कारण बने हुए हो?”

“अपने जनक की प्रसन्नता के लिए।”

“कौन है आपका जनक?”

“आपको इससे क्या?”

“मत बताइए; पर एक काम जरूर कीजिए।”

“क्या?”

“जिनकी खुशी के लिए इतनी भाग-दौड़ कर रहे हैं, एक बार उनसे पूछकर आओ कि सारी दुनिया को मारने के बाद जब वापस पहुँचोगे, तो क्या वह आपको अपना लेगा?”

इस सवाल पर कोरोना चुप रह गया। वाल्मीकि-सप्तर्षि प्रसंग उसने सुन रखा था। अपने जिस जनक की खुशी के लिए वह मारामारी कर रहा है, लौटने पर वह उसे नहीं अपनाएगा, जानता था। हारा हुआ सा महानायक के पास से तो लौट चला; लेकिन...वह रत्नाकर नहीं था, राक्षस-पिता की पैदाइश था। चरित्र को बदल नहीं पाया, जुटा रहा।

 

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बलराम अग्रवाल, 

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