काँच की जन्‍नत

काँच की जन्‍नत

पूस की दोपहर बिदा ले रही थी। चल रही थी ठंडी बयार। छोटी मौसी और मौसाजी आए हुए थे। पति-पत्नी दोनों उन्हीं के साथ बैठकर विदा लेती धूप की चादर को अपने ऊपर खींच रहे थे।

‘चाय कब बनेगी?’ धरणीधर ने अपने हाथ रगड़ते हुए पूछा, ‘क्यों मौसाजी, एक-एक कप गरम चाय मिल जाए तो खून को जमने से बचाया जा सकता है।’

मुग्धा मुसकराकर उठ खड़ी हुई, ‘मौसीजी से थोड़ी बात कर रही थी तो उसमें भी।’

‘सॉरी मैम, पर बड़े-बड़ों की बात क्या एक दफे में खत्‍म होती है? बातों का सिलसिला तो चलता ही रहता है। देखते नहीं, हिंदुस्तान-पाकिस्तान की वार्त्ता का दौर? चाय लेकर आइए, फिर बातचीत का सेकेंड एपिसोड शुरू करते हैं।’

मुग्धा किचन में गई कि टे‌बल पर धरणीधर का मोबाइल बजने लगा। मुग्धा ने आवाज लगाई, ‘देखिए, आपका फोन बज रहा है।’

‘इस समय किसका होगा?’ धरणीधर को कुरसी छोड़ उठना पड़ा। नाम से तो वह धरणीधर हैं, मगर मोबाइल का बोझ भी उनसे उठता नहीं। वह भी हर समय पत्नी को सौंपे रहते हैं।

‘हेल्लो?’ उधर से कुछ आवाज आई। मगर सड़क की चिल्ल-पों में सारे शब्द स्वाहा हो गए, ‘अजी कौन हैं?’

‘अरे धरणी, मैं शंभुदयाल बोल रहा हूँ। पहचाना?’

एक धुँधली आवाज यादों के सागर पार से हौले-हौले दस्तक दे रही थी।

‘अरे यार, क्या हाल है? इतने दिनों बाद?’

‘दिन नहीं, साल कह। बस अड़तीस साल की सर्विस के बाद अब रिटायर हो गया हूँ, तो बैठे-बैठे पुराने यार-दोस्तों को फोन लगा रहा हूँ।’

‘वाह! पर मेरा नंबर कहाँ से मिल गया?’

‘अरे मोहन से मुरली का, फिर मुरली से मोतीलाल का...इसी तरह।’

‘तो अपना सुना। रिटायरमेंट के बाद डेरा-डंडा कहाँ जमाया है?’

‘बस लौट आए बनारस। सब जगह से न्यारी, यह काशी हमारी। वहाँ जमुहरा बाजार में तो ढेर सारे लोगों ने मकान बना लिये। रिटायर्ड होते गए और वहीं फैक्टरी से दूर जमीन खरीदकर बसते गए। वहाँ जितने रुपए में लोग मजे से तीन-चार बिस्से की जमीन के बीच मकान भी बनवा लेते हैं, उतने में तो बनारस में कबूतर के दरबार में एक घोंसला भी न मिले।’

‘और बच्चे? वे क्या कर रहे हैं?’

थोड़ी देर के लिए मानो शंभुदयाल का स्वर खामोश हो गया। फिर...

‘मेरे तो दो लड़के हैं। दोनों सेटल्ड। बड़ा बेंगलुरु की सॉफ्ट वेयर कंपनी में इंजीनियर है। छोटा भोपाल के एक पॉलिक्लिनिक में एटैच्ड है।’

‘वाह बच्चू। तू ने तो शायद एक बार फोन पर बताया भी था। बड़ा बेटा इंजीनियर, छोटा डॉक्टर। यानी बीसों उँगलियाँ घी में।’

‘और तेरी बेटी की तो शादी हो गई? वह तो ऑस्ट्रेलिया में है न?’

‘हाँ।’

‘और तेरा बेटा तो टाटा साइंस इंस्टीट्यूट में पी-एच.डी. कर रहा है?’

‘अबे, तू ने तो जैसे सी.आई.डी. की तरह सारे इन्फार्मेशन इकट्ठा करके रखे हैं।’

‘हाँ हाँ! अरे मेरा क्या, दिन भर बैठा रहता हूँ। प्राइमरी से लेकर कॉलेज तक के पुराने दोस्त, जिनके नंबर हैं मेरे पास, उनको फोन मिला रहा हूँ। किसी से तेरे बारे में पूछ लेता हूँ, फिर तुझसे किसी और के बारे में पता कर लूँगा। बस, इन्‍फार्मेशन कंप्लीट।’

बस, इसी तरह हाईस्कूल के दो दोस्तों के बीच बातें होती रहीं।

‘जगन्नाथ से तो तेरी पक्की दोस्ती थी, उसका हाल मालूम है तुझे?’ शंभुदयाल ने पूछा, ‘कई साल पहले कुछ माल की ड‌िलीवरी लेने आसनसोल गया था तो उससे भेंट हुई थी।’

‘अब क्या बताऊँ, वह तो बिल्कुल अकेला हो गया है।’ धरणी की आवाज में उदासी घुल गई, ‘बेटी चेन्नई में जॉब कर रही है और बेटा भुवनेश्‍वर में। अभी उसकी पढ़ाई भी शायद खत्म नहीं हुई है।’

‘सो तो अच्छा ही है। मगर अकेला क्यों?’

‘उसकी बीवी को कैंसर हो गया था। तो उसी समय बेचारा मुंबई टाटा सेंटर और कहाँ-कहाँ नहीं दौड़ता रहा। मगर कैंसर तो है ही ऐसा रोग कि यमराज से भी पंजा लड़ाना पड़ता है। तुझसे फिर कभी उसकी भेंट नहीं हुई?’

‘नहीं, मेरे मोबाइल में उसका नंबर नहीं है। कभी तेरे पास आऊँगा तो ले लूँगा। एक बार बात कर लूँगा।’

‘तो जरूर आना। इस बुढ़ौती में बचपन की बातें होंगी।’

‘हाँ, सही कहा है। क्या बताऊँ तिरसठ का होते-होते छह सौ तीस रोग लग गए हैं मुझे।’

‘अच्छा, फिर बात होगी। खूब गरियाऊँगा तुझे। सामने आ जा तो चाय भी पीएँगे और जी भरकर खाँटी बनारसी गालियों से तुझे नवाजेंगे। इस समय तो सामने मौसी-मौसा बैठे हुए हैं।’

‘ठीक है, कभी मिलते हैं।’

‘जरूर आना। अपॉइंटमेंट की जरूरत नहीं है। एक फोन कर देना, बस। कहीं ऐसा न हो कि तू आया और उसी समय दस मिनट के लिए हम दोनों कहीं बाहर निकलें। ओ.के.।’ धरणीधर ने फोन रखकर अपने मौसा-मौसी की ओर देखा।

‘क्लास वन का सहपाठी है। हाईस्कूल तक दोनों साथ रहे। फिर दोनों के सब्जेक्ट अलग-अलग हो गए। मैं ने तो दूसरे कॉलेज से इंटर किया।’

‘क्लास वन का दोस्त। वाह!’ मौसी का चेहरा खिल उठा।

‘हाँ, कह रहा था हजार-बारह सौ फोन नंबर हैं उसके पास। सबको फोन करता रहता है। राम जाने क्या बक रहा है। अरे, हमारे जमाने में क्लास में भेड़िया धसान जरूर होती थी, फिर भी सत्तर-अस्सी लड़कों से ज्यादा थोड़े न थे। और फिर हाईस्कूल पहुँचते-पहुँचते उन लोगों में से कुछ तो ऐसे ही रिसर्च स्कॉलर बन गए। तो टोटल नंबर बचा ही कितना? फिर उसके ऑफिस या आई.आई.टी. में भी कितने दोस्त रहे होंगे? वही सौ-पचास। पता नहीं क्यों, बात से चौका-छक्का हाँक रहा था।’

चाय आ गई थी। चुस्की लेते हुए धरणीधर का स्मृतिमंथन चलता रहा, ‘वैसे बचपन में भी हाँकने की आदत थी उसे। मुझे याद है उन दिनों सबको शायरी का शौक चर्राया था। तो एक दिन उसने भी सुनाई, बदल जाए अगर माली चमन होता नहीं खाली। बहारें फिर भी आती हैं, बहारे फिर आएँगी।’

‘अरे यह तो वही ‘बहारें फिर भी आती है’ फिल्म का गाना है।’

‘इसके पहले उससे कभी बात हुई है?’ मौसा भी मजा ले रहे थे।

‘हाँ, दो-तीन बार उसी ने फोन किया था। पहली बार शायद बीस-पच्चीस साल पहले। आखिरी बार तीन-चार साल पहले। कह रहा था, ‘अब रिटायर कर जाएँगे, तो बनारस आकर पुराने दोस्तों से मिलेंगे।’

‘पुराने दोस्तों से तेरी बातचीत होती है?’ मौसी ने मुसकराकर पूछ लिया।

‘किसकी हो पाती है? हाँ, यह जरूर है कि दो-तीन जने जिनसे बाजार वगैरह में भेंट-मुलाकात हो जाती है, उनसे बातचीत भी हो जाती है। वरना अब तो किसी को हार्ट प्राब्लम, तो किसी को डायबिटीज। किसी किसी को तो दोनों वरदान एक साथ। कह तो दिया है, पर देखिए शंभु कभी आता है भी है या नहीं।’

बस वही हुआ। महीनों बीत गए। न शंभुदयाल धरणीधर के घर आया, न उसने फिर फोन ही किया। धरणी ने भी उसका नंबर सेव नहीं किया था। सो कॉल बैक भी न हो सका। दिन-रात होते गए। दुनिया अपनी चाल से अपने सफर में चक्कर काटती रही।

विश्‍वविद्यालय के सामने लंका के यूनिवर्सल बुक डिपो में आदिवासियों पर एक किताब आई थी। धरणी कुछ लिख-विख लेता है, तो उसी ने फोन पर उनसे पूछ लिया था। आज दोपहर बाद वह उसी को लेकर लौट रहा था। मगर रेवड़ी तालाब के आगे राजपुरा में ऐसा जाम लगा था कि झुँझलाकर उसे रिक्‍शे से उतर जाना पड़ा। तभी उसे ध्यान आया कि वह तो कुँवरजी की हवेली के पास खड़ा है। अरे! वह सोच रहा था। शंभुआ बता रहा था कि यहीं उसने एक मकान खरीदा है। तो आज जब हाथ में वक्त है तो क्यों न उससे एक बार मुलाकात कर ली जाए।

मगर केवल नाम से कैसे पता-ठिकाना मालूम किया जाए? इस मायने में काशी के चायवाले, पानवाले बहुत ही सफल सूचना केंद्र का काम करते हैं।

‘क्यों भैया, शंभुदयालजी का घर कहाँ है, बता सकते हो?’

‘कौन शंभुदयालजी, जो जमुहरा में काम करते थे? दो-तीन साल पहले यहाँ वर्माजी का मकान खरीदा था।’

‘हाँ-हाँ वही।’

बस दिशा निर्देशन शुरू हो गया। बगल के रास्ते से जाइए। आगे खंभे के पास जो गली अंदर गई है, उसमें हल जाइए। तीन-चार मकान बाद बाएँ उन्हीं का मकान है। सामने हरी खिड़की है...वगैरह। किसी से पूछ लीजिएगा तो बता देगा।

पूछने की तो खास जरूरत नहीं पड़ी। धरणी ने डोर बेल बजाया। एक महिला ने बगल की खिड़की का एक पल्ला खोलकर पूछा, ‘कौन है?’

‘जी नमस्ते, मैं धरणीधर हूँ। शंभुदयाल का बचपन का दोस्त। उसे बता दीजिए कि मैं भेंट करने आया हूँ।’

अंदर कुछ गुफ्तगू होती रही। फिर दरवाजा खुला, ‘आइए।’

हावभाव एवं बातचीत से अनुमान लगाना कठिन नहीं था कि वे शंभुदयाल की पत्नी हैं। धरणी को एक कुरसी पर बिठाकर वह अंदर चली गई एवं थोड़ी ही देर में पति को सहारा देते हुए यहाँ तक ले आई।

धरणीधर उठ खड़ा हुआ, ‘अरे शंभु, बच्चू अपना यह क्या हाल बना रखा है?’

दोनों साठ पार के दोस्त एक-दूसरे को देख रहे थे। शायद मन-ही-मन सोच रहे थे पंद्रह-सोलह की उम्र में जब आखिरी बार एक-दूसरे को देखा था तो अगला देखने में कैसा था? शंभु कह उठा, ‘अब इतनी सारी बीमारियाँ मैंने उस रोज तुझसे कहा था न?’

‘अरे भाभी से तो परिचय करवा दे।’

‘हाँ-हाँ, बिल्कुल। बैठ। यह धरणीधर है। हम दोनों प्राइमरी से एक साथ पढ़ते थे। अब क्या बताऊँ? तीन साल पहले मेरी बाईं तरफ पैरालिसिस हो गया था। तीन महीने बिस्तर पर पड़ा रहा। धीरे-धीरे सब ठीक हुआ। अभी भी एक्सरसाइज करना पड़ता है। यही करवाती है।’

‘तो बेटे के पास चला क्यों नहीं जाता? वह तो डॉक्टर है। हम लोग आपस में बतियाते हैं कि तेरे दोनों बेटे कितने लायक हैं।’

‘क्या कह रहे हैं, भाई साहब?’ उस महिला की तेज आवाज से धरणी ने आँखें उठाकर सीधे उनकी ओर देखा। ‘कौन डॉक्टर है? हमारा बेटा?’

‘अरे कमला, इतने दिनों बाद दोस्त घर आया है। जरा चाय-वाय नहीं पिलाओगी?’ शंभुदयाल मानो कुछ असमंजस में पड़ गया। मानो उसकी किसी गोपनीय बात से परदा उठ गया। वह किसी तरह उठ खड़ा हुआ अपने से। मगर बवंडर में खड़े पेड़ की तरह उसका शरीर हिलने लगा। उसका बायाँ पैर एवं हाथ तो कमजोर थे ही। वह उस पैर पर ठीक से खड़ा हो नहीं पा रहा था। उसका दायाँ हाथ हवा को काट रहा था। मुँह भी एक ओर कुछ भींच गया था, ‘अरे बैठ यार! इतने दिनों बाद मिले हैं।’

कमला कुछ बड़बड़ाती हुई अंदर चली गई, ‘हूँ, बेटे। इनसे तो पराए अच्छे।’

‘बात क्या है?’ धरणीधर भी संकोच करने लगा। समझ नहीं पा रहा था कि बात की डोर को किस छोर से पकड़े, ‘तू ने ही तो कहा था तेरा बड़ा बेटा इंजीनियर है और छोटा डॉक्टर। सच पूछो तो हमारे मन में कुछ-कुछ ईष्‍‍‍‍र्या होने लगी थी। देखो ससुरे की तकदीर कितनी बुलंद है।’

‘अरे भगवान् ने जैसा चाहा सब वैसा ही हो गया। वे लोग अपना अपना परिवार देख रहे हैं। हम दोनों मुरगा-मुरगी यहाँ बैठे कुकड़ूँ-कूँ कर रहे हैं, बस। देख यही मकान लिया था। जिंदगी भर की जमा-पूँजी का आधा इसी में चला गया।’

ठक्...। पता नहीं कब कमला वापस कमरे में आ गई थी। चाय की प्याली टेबल पर रखते हुए कहने लगी, ‘और अब वही बेटे कह रहे हैं—इस मकान को बेचकर उनको आधा-आधा हिस्सा दे दें।’

‘मतलब?’ धरणीधर हैरान है।

‘अजी छोड़ो। अपनी औलाद ने कुछ माँग ही लिया तो क्या हो गया?’

‘इंजीनियर और डॉक्टर तो खुद ही इतना कमा लेते हैं कि...।’ खुद धरणी जैसे तुतलाने लगा।

‘कौन इंजीनियर...कौन डॉक्टर?’ कमला जैसे तिलमिला उठी, ‘बड़े को इन्होंने टेंपो खरीद दिया था। वह उसे चला न सका। बेच-बाच के नशा करता रहा। छोटा जाने किस प्रॉपर्टी डीलर के यहाँ काम करता है। पता नहीं जमीन की खरीद-फरोख्त में क्या घपला किया कि दूसरे शहर में भागना पड़ा। अब दोनों बाप की नटई दाब रहे हैं कि मकान बेचकर उन्हें आधा-आधा दे दें।’

‘अरे!’ धरणी बस इतना ही कह पाया। वह अपने बचपन के दोस्त की ओर चुपचाप देखने लगा। उसे भयंकर गुस्सा आ रहा था। इतना बड़ा झूठ! इतना बड़ा धोखा? आखिर क्यों? खुद को लोगों के सामने जाहिर करने के लिए, बस?

शंभुदयाल के चेहरे पर एक अजीब उदासी तैर रही थी। आँखों में आँसू न थे। मगर उसके लहू से एक आत्मग्लानि चेहरे पर टपक रही थी। वह मुसकराने की कोशिश करने लगा, ‘धरणी, पता नहीं मेरे दिमाग में यह पागलपन क्यों सवार हो गया! मेरे बच्चे जैसे-जैसे उद्दंड बनते गए, मैं पुराने दोस्तों को फोन कर-करके उनके बारे में ख्वाबों की बहार सजाता रहा। कितनों के बेटे यहाँ तक कि बेटियाँ भी कोई एम.बी.ए. करके अच्छी नौकरी में लग गया तो किसी को बैंक की नौकरी मिल गई। मगर मेरी औलाद?’

शंभुदयाल चुप हो गया। कमरे की खामोशी में मानो कोई जहर तैर रहा था, जो वह धीरे-धीरे निगल रहा था, ‘जब मैं सुनता कि किसी का बेटा कहीं कंपीट कर गया, किसी की बेटी की नौकरी लग गई, अब शादी की तैयारी चल रही है, तो सीने में एक अजीब जलन होने लगती। दिमाग में आग धधकने लगती। भगवान्, मैंने कौन सा पाप किया था, जो मेरी किसमत में ऐसे ही बेटे मिले?’

शंभुदयाल हाँफने लगा। दोस्त को देखकर धरणीधर की जुबान को मानो फालिस मार गई। वह दोस्त से क्या कहता? कौन सी सांत्वना देता? एक बाप ने अनजाने में अपने अरमानों का, एक शीशे का महल खड़ा कर लिया था और वही आज टूटकर बिखर गया। वह धीरे-धीरे कहने लगा, ‘फिर तो पैरालिसिस हो गया। जब सँभला तो हर रोज किसी न किसी को फोन करके यही सब बताता रहा कि मेरा बड़ा बेटा इंजीनियर है और छोटा डॉक्टर। पता नहीं मुझे एक अजीब सुकून मिलता था। मुझे मालूम है, सभी सोचते थे, इस साले ने तो बाजी मार ली।’

धरणीधर मुँह बाकर अपने दोस्त को देख रहा था। ख्वाब और हकीकत का यह कौन सा साँप-सीढ़ी का खेल इनसान खेलने लगता है? उसने हाथ बढ़ाकर चाय की प्याली उठानी चाही। मगर उसके हाथ मानो पत्थर के हो गए थे। वह उठ खड़ा हुआ, ‘आज चलता हूँ, यार। फिर कभी आऊँगा।’

पीछे से शंभु की आवाज आई, ‘अरे, कम-से-कम चाय तो पीता जा।’

कमला ने कुछ भी नहीं कहा। वह चुपचाप खड़ी रही। दरवाजे के पास दीवार से सटकर।

 

सी, २६/३५-४० रामकटोरा

वाराणसी-२२१००१

दूरभाष : ९४५५१६८३५९
—अमिताभ शंकर राय चौधरी

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