RNI NO - 62112/95
ISSN - 2455-1171
E-mail: sahityaamritindia@gmail.com
कुरुक्षेत्रवह कौन रोता है वहाँ— इतिहास के अध्याय पर, जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहू का मोल है प्रत्यय किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्यवहार का; जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है; जो आप तो लड़ता नहीं, कटवा किशोरों को मगर, आश्वस्त होकर सोचता, शोणित बहा, लेकिन, गई बच लाज सारे देश की? और तब सम्मान से जाते गिने नाम उनके, देश-मुख की लालिमा है बची जिनके लुटे सिंदूर से; देश की इज्जत बचाने के लिए या चढ़ा जिसने दिए निज लाल हैं। ईश जानें, देश का लज्जा विषय तत्त्व है कोई कि केवल आवरण उस हलाहल-सी कुटिल द्रोहाग्नि का जो कि जलती आ रही चिरकाल से स्वार्थ-लोलुप सभ्यता के अग्रणी नायकों के पेट में जठराग्नि-सी। विश्व-मानव के हृदय निर्द्वेष में मूल हो सकता नहीं द्रोहाग्नि का; चाहता लड़ना नहीं समुदाय है, फैलतीं लपटें विषैली व्यक्तियों की साँस से। हर युद्ध के पहले द्विधा लड़ती उबलते क्रोध से, हर युद्ध के पहले मनुज है सोचता, क्या शस्त्र ही— उपचार एक अमोघ है अन्याय का, अपकर्ष का, विष का गरलमय द्रोह का! लड़ना उसे पड़ता मगर, औ' जीतने के बाद भी, रणभूमि में वह देखता है सत्य को रोता हुआ; वह सत्य है, जो रो रहा इतिहास के अध्याय में विजयी पुरुष के नाम पर कीचड़ नयन का डालता। उस सत्य के आघात से हैं झनझना उठती शिराएँ प्राण की असहाय सी, सहसा विपंचि लगे कोई अपरिचित हाथ ज्यों। वह तिलमिला उठता, मगर, है जानता इस चोट का उत्तर न उसके पास है। सहसा हृदय को तोड़कर कढती प्रतिध्वनि प्राणगत अनिवार सत्याघात की नर का बहाया रक्त, हे भगवान्! मैंने क्या किया लेकिन मनुज के प्राण, शायद पत्थरों के हैं बने। इस दंश के दुःख भूलकर होता समर-आरूढ़ फिर; फिर मारता, मरता विजय पाकर बहाता अश्रु है। यों ही, बहुत पहले कभी कुरुभूमि में नर-मेध की लीला हुई जब पूर्ण थी, पीकर लहू जब आदमी के वक्ष का वज्रांग पांडव भीम का मन हो चुका परिशांत था। और जब व्रत-मुक्त-केशी द्रौपदी, मानवी अथवा ज्वलित, जाग्रत् शिखा प्रतिशोध की दाँत अपने पीस अंतिम क्रोध से, रक्त-वेणी कर चुकी थी केश की, केश जो तेरह बरस से थे खुले। और जब पविकाय पांडव भीम ने द्रोण-सुत के शीश की मणि छीनकर हाथ में रख दी प्रिया के मग्न हो पाँच नन्हे बालकों के मूल्य-सी। कौरवों का श्राद्ध करने के लिए या कि रोने को चिता के सामने, शेष जब था रह गया कोई नहीं एक वृद्धा, एक अंधे के सिवा। और जब, तीव्र हर्ष-निनाद उठकर पांडवों के शिविर से घूमता-फिरता गहन कुरुक्षेत्र की मृतभूमि में, लड़खड़ाता-सा हवा पर एक स्वर निस्सार सा, लौट आता था भटककर पांडवों के पास ही, जीवितों के कान पर मरता हुआ, और उन पर व्यंग्य-सा करता हुआ ‘देख लो, बाहर महा सुनसान है सालता जिनका हृदय मैं, लोग वे सब जा चुके।’ हर्ष के स्वर में छिपा जो व्यंग्य है, कौन सुन समझे उसे? सब लोग तो अर्ध-मृत से हो रहे आनंद से; जय-सुरा की सनसनी से चेतना निस्पंद है। किंतु इस उल्लास-जड़ समुदाय में एक ऐसा भी पुरुष है, जो विकल बोलता कुछ भी नहीं, पर रो रहा मग्न चिंतालीन अपने आप में। सत्य ही तो, जा चुके सब लोग हैं दूर ईष्या-द्वेष, हाहाकार से! मर गए जो, वे नहीं सुनते इसे; हर्ष का स्वर जीवितों का व्यंग्य है।’ स्वप्न-सा देखा, सुयोधन कह रहा— ‘ओ युधिष्ठिर, सिंधु के हम पार हैं; तुम चिढ़ाने के लिए जो कुछ कहो, किंतु कोई बात हम सुनते नहीं। ‘हम वहाँ पर हैं, महाभारत जहाँ दीखता है स्वप्न अंतःशून्य-सा, जो घटित-सा तो कभी लगता, मगर अर्थ जिसका अब न कोई याद है। ‘आ गए हम पार, तुम उस पार हो; यह पराजय या कि जय किसकी हुई? व्यंग्य, पश्चात्ताप, अंतर्दाह का अब विजय-उपहार भोगो चैन से।’ हर्ष का स्वर घूमता निस्सार-सा लड़खड़ाता मर रहा कुरुक्षेत्र में, औ’ युधिष्ठिर सुन रहे अव्यक्त-सा एक रव मन का कि व्यापक शून्य का। रक्त से सिंचकर समर की मेदिनी हो गई है लाल नीचे कोस भर, और ऊपर रक्त की खर धार में तैरते हैं अंग रथ, गज, बाजि के। किंतु इस विध्वंस के उपरांत भी शेष क्या है? व्यंग्य ही तो भग्य का? चाहता था प्राप्त मैं करना जिसे तत्त्व वह करगत हुआ या उड़ गया? सत्य ही तो, मुष्टिगत करना जिसे चाहता था, शत्रुओं के साथ ही उड़ गए वे तत्त्व, मेरे हाथ में व्यंग्य, पश्चात्ताप केवल छोड़कर। यह महाभारत वृथा, निष्फल हुआ, उफ! ज्वलित कितना गरलमय व्यंग्य है? पाँच ही असहिष्णु नर के द्वेष से हो गया संहार पूरे देश का! द्रौपदी हो दिव्य-वस्त्रालंकृता, और हम भोगें अहम्मय राज्य यह, पुत्र-पति-हीना इसी से तो हुईं कोटि माताएँ, करोड़ों नारियाँ! रक्त से छाने हुए इस राज्य को वज्र हो कैसे सकूँगा भोग मैं? आदमी के खून में यह है सना, और इसमें है लहू अभिमन्यु का। वज्र-सा कुछ टूटकर स्मृति से गिरा, दब गए कौंतेय दुर्वह भार में दब गई वह बुद्धि जो अब तक रही खोजती कुछ तत्त्व रण के भस्म में। भर गया ऐसा हृदय दुख-दर्द से, फेन य बुदबुद नहीं उसमें उठा! खींचकर उच्छ्वास बोले सिर्फ वे ‘पार्थ, मैं जाता पितामह पास हूँ।’ और हर्ष-निनाद अंतःशून्य-सा लड़खड़ता मर रहा था वायु में। आई हुई मृत्यु से कहा अजेय भीष्म ने कि योग नहीं जाने का अभी है, इसे जानकर, रुकी रहो पास कहीं; और स्वयं लेट गए बाणों का शयन, बाण का ही उपधान कर! व्यास कहते हैं, रहे यों ही वे पड़े विमुक्त, काल के करों से छीन मुष्टिगत प्राण कर। और पंथ जोहती विनीत कहीं आसपास हाथ जोड़ मृत्यु रही खड़ी शास्ति मान कर। शृंग चढ़ जीवन के आर-पार हेरते से योगलीन लेटे थे पितामह गंभीर से। देखा धर्मराज ने, विभा प्रसन्न फैल रही श्वेत शिरोरुह, शर-ग्रथित शरीर से। करते प्रणाम, छूते सिर से पवित्र पद, उँगली को धोते हुए लोचनों के नीर से, ‘हाय पितामह, महाभारत विफल हुआ’ चीख उठे धर्मराज व्याकुल, अधीर से। वीरगति पाकर सुयोधन चला गया है, छोड़ मेरे सामने अशेष ध्वंस का प्रसार; छोड़ मेरे हाथ में शरीर निज प्राणहीन, व्योम में बजाता जय-दुंदुभि सी बार-बार; और यह मृतक शरीर जो बचा है शेष, चुप-चुप, मानो, पूछता है मुझसे पुकार विजय का एक उपहार मैं बचा हूँ, बोलो, जीत किसकी है और किसकी हुई है हार? हाय, पितामह, हार किसकी हुई है यह? ध्वंस-अवशेष पर सिर धुनता है कौन? कौन भस्मराशि में विफल सुख ढूँढ़ता है? लपटों से मुकुट का पट बुनता है कौन? और बैठ मानव की रक्त-सरिता के तीर नियति के व्यंग्य-भरे अर्थ गुनता है कौन? कौन देखता है शवदाह बंधु-बांधवों का? उत्तरा का करुण विलाप सुनता है कौन? जानता कहीं जो परिणाम महाभारत का, तन-बल छोड़ मैं मनोबल से लड़ता; तप से, सहिष्णुता से, त्याग से सुयोधन को जीत, नई नींव इतिहास कि मैं धरता। और कहीं वज्र गलता न मेरी आह से जो, मेरे तप से नहीं सुयोधन सुधरता; तो भी हाय, यह रक्त-पात नहीं करता मैं, भाइयों के संग कहीं भीख माँग मरता। किंतु हाय, जिस दिन बोया गया युद्ध-बीज, साथ दिया मेरा नहीं मेरे दिव्य ज्ञान ने; उलट दी मति मेरी भीम की गदा ने और पार्थ के शरासन ने, अपनी कृपाण ने; और जब अर्जुन को मोह हुआ रण-बीच, बुझती शिखा में दिया घृत भगवान् ने; सबकी सुबुद्धि पितामह, हाय, मारी गई, सबको विनष्ट किया एक अभिमान ने। —रामधारी सिंह ‘दिनकर’ |
अप्रैल 2024
हमारे संकलनFeatured |