फकीरचंदजी की मृत्यु

फकीरचंदजी की मृत्यु

कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। शीतलहर का भयंकर प्रकोप, सात दिन से मावठ के कारण बरसात अलग हो रही थी। ऐसे विकट समय में जब इस पृथ्वी का भार उतारने कृष्ण-कन्हैया ने कंस के तगड़े पहरे के बावजूद जन्म लिया था। यहाँ महँगे प्राइवेट अस्पताल में नौ माह से बिस्तर पर पड़े फकीरचंदजी ने देह त्याग दी। उनकी जीवात्मा ने अंग-उपांग में लगी कष्टप्रद नलियों को अँगूठा दिखा ही दिया। वेंट‌िलेटर के किस छेद से न जाने कब उनके प्राण-पखेरू उड़ गए। डॉक्टरों ने फकीरचंदजी को मृत घोषित कर दिया।

चूँकि फकीरचंदजी तो अपनी काया का कल्याण करते हुए मर गए तो राय देनेवाले तमाम रायचंद श्रेणी के लोग सक्रिय हो गए। लाश को रात भर अस्पताल में ही पड़ी रहने दो, रात को घर ले जाकर खुद की और पूरे मोहल्ले की नींद हराम करके क्या करोगे?

अस्पताल के बरामदों के बाहरी बाकड़ों पर बड़े-बड़े कंबल और गरम लबादे ओढे़ अनेक रायचंद अनेक तरह की कानाफूसी कर रहे थे। फकीरचंदजी एक भरा-पूरा परिवार, जो कश्मीर से कन्याकुमारी लाँघता हुआ न्यूयॉर्क, लंदन, ‌सिडनी तक अपनी संतानों के रूप में विजय पताकाएँ फहराते हुए पूरा वैश्वीकरण हो जाने के बाद मरे थे।

रायचंद की राय थी कि विदेश वाले पोते-पोतियों का तो अंत्येष्टि में आना संभव नहीं होगा, पर देश में रहनेवाले रिश्तेदारों को फोन करो, ताकि कल सुबह तक पहुँच जाएँ। अखबारों में फकीरचंदजी की बड़ी तसवीर के साथ अंतिम यात्रा की टाइम-टेबल दे दो।

महिला मंडल में जो रायचंदजी किस्म की महिलाएँ थीं, वे कह रही थी—“सबसे पहले तो फकीरचंदजी के शव को घर ले जाओ। इनको अच्छी तरह नहलाकर घर के फर्श पर लिटाओ और मुँह में गंगाजल डालो। इनकी काया ने तो बहुत कष्ट भोगा है, अब जीव की गति-मुक्ति का इंतजाम करो।”

उधर कोई लड़का फुसफुसा रहा था कि अभी तो गंगा को सीरियस ले लिया है। न जाने कितने फकीरचंद मरेंगे, तब ठीक होगी।

इन सबके बीच एक ऐसी घटना घट रही थी, जिससे सब अनभिज्ञ थे। फकीरचंदजी की जीवात्मा मध्यरात्रि को देह छोड़ चुकी थी, पर देह से उसका मोह नहीं छूटा था, जो लाश के आसपास चक्कर काटते हुए देह में पुनः प्रवेश करने की नाकाम चेष्टाएँ कर रही थी।

उनके शरीर को लग रहा था कि वे अभी मरे नहीं हैं, बल्क‌ि अधमरे हैं। बाबू देवकीनंदनजी खत्री के चंद्रकांता संतति उपन्यासों की तरह काल के ऐयारों ने उनकी मुश्कें बाँध दी हों, अतः उनका हिलना-डुलना-बोलना बंद था। उन्हें विश्वास था कि अभी डॉक्टर कोई जड़ी-बूटी खिला दें, जिससे उनके शरीर का कोई बंद द्वार खुल जाए और उनकी जीवात्मा फिर भीतर प्रवेश पा जाए। उनकी जीवात्मा को पहली आपत्ति तो यह है कि घर-परिवार के घनिष्ठ और आत्मीय बंधु-बांधव भी उनको मृत घोषित किए जाते ही आँखों पर रूमाल रखकर बाहरी बरामदों में खिसक गए हैं। गंभीर मंत्रणाएँ कर रहे हैं कि उनकी देह को शीघ्रातिशीघ्र पंचतत्त्व में कैसे विलीन कर दिया जाए, ताकि वे दुबारा सिर न उठा सकें। यदि इन निर्दयी रिश्तेदारों का बस चले तो स्ट्रेचर को घर न ले जाकर सीधे मोक्षधाम ही ले जाएँ, ताकि कल की छुट्टी भी बच जाए। जाति-समाजवाले अलग व्यथा बखान रहे थे—‘‘ये मरनेवाले बिना देखे ही पंचक में मर जाते हैं। अब तक एक ही माह में दस छुट्टियाँ  कौन देगा और चुनाव आचार-संहिता अलग, जो कलेक्टरों के पास जाकर इनके नाम का रोना लेकर गिड़गिड़ाओ।’’

एक युवक कह रहा था, ‘‘जब नाइट में क्रिकेट मैच हो सकते हैं, लंबी दूरी की बसें चल सकती हैं तो अंतयेष्टि क्यों नहीं हो सकती? ये उस जमाने की बातें हैं, जिस जमाने में बिजली नहीं थी।’’

फकीरचंदजी की जीवात्मा को गुस्सा आ रहा था कि ये नालायक मुझे जलाने की इतनी जल्दी मचा रहे हैं। वे तो लाचार हैं, क्योंकि जीवात्मा देह के बाहर है, वरना खींचकर एक लप्पड़ इसको लगाते। भाई की मझली छोकरी का छोकरा दिख रहा है, बचपन में कितने प्रेम से कंधे पर झुलाया था, आज इसका यह एहसान चुका रहा है।

उनकी लाश लावारिस लाश की तरह पड़ी है। पूरे शरीर पर सफेद चद्दर ढकी है! जीवात्मा भीतर पुनः प्रवेश करे तो कहाँ से करे। जीवन में हर जगह पतली गली खोजकर अपना काम निकाल लिया, पर हाय री विवशता कितनी निरुपाय है जीवात्मा! बाहर खड़े लोग आगे की व्यवस्था कर रहे थे। कुछ लोग और आगे की व्यवस्थाएँ देखने घर जा चुक थे।

इधर पूरा जीवन रील की तरह घूम रहा था। बाहर कोई कह रहा था कि अच्छा ही हुआ, जो फकीरचंदजी को ऊपरवाले ने बुला लिया। वो तो डोकरे ने शुद्ध घी खूब खाया था। बासमती के चावल के सिवा खाने को हाथ भी नहीं लगाता था। वह तो दाढ़ का सच्चा था, जो अठासी रन की पारी खेल गया। हमारी पीढ़ी तो साठ में ही टाँय-टाँय-फिस्‍स है।

उनकी पार्थिव देह गृह-प्रवेश कर रही थी। उनकी जीवात्मा लगातार देह-प्रवेश की नाकारा चेष्टा कर रही थी। आँसुओं की इस धारा में उनकी पत्नी प्यारी की लंबी चीत्कारें सबसे आगे थीं। विलाप के भीतर इतना गुणगान था कि जीवात्मा की हँसी छूट गई। इतने महान् गुणों का खजाना थे, वे स्वयं अनभिज्ञ थे। जिस राम प्यारी के प्यार को वे जीवन भर समझ नहीं पाए, आज जब वे स्वयं रामजी को प्यारे हो गए, तब वह रुदाली रुदन में प्यार का अर्थ खोज रही है! उनके जीवात्मा ने उनकी ही देह को धिक्कारा कि जिसने रामप्यारीजी के सहयोग से आठ-दस बच्चे उत्पन्न किए इसी उत्पादकता को वे प्यार समझते रहे।

उधर लाश पर भन्नाती जीवात्मा फिर भड़क उठी—ये नादान लोग इतना भी नहीं जानते कि शास्त्रों ने हमारी आयु सौ वर्ष निर्धारित की थी, उस हिसाब से अभी 12-14 वर्ष बाकी हैं। यह कोई मामूली अवध‌ि नहीं है। इतने समय में तो रामजी और पांडव, दोनों का वनवास पूरा हो जाए। ज्यादा-से-ज्यादा फाउल मानें तो यही है कि उनकी शादी 20 वर्ष में करा दी थी, सो पाँच वर्ष पूर्व ही उनके गृहस्थ धर्म ने ब्रचर्य भंग कर दिया। उस हिसाब से तो उन्हें सैकड़े पर 5 वर्ष के बोनस अंक मिलने चाहिए। काली-कमोद खाई, प्योर घी पिया तो किसी के बाप का तो नहीं खाया, गाँठ की पसीने की कमाई खर्च कर खाया है।

अब उन्हें दो बातों का बहुत पछतावा है—पहला यह कि ईश्वर ने भारत के बजाय मिस‍्र में जन्म क्यों नहीं दिया? वहाँ कम-से-कम रसायन लेपकर जीवात्मा के लौटने की प्रतीक्षा तो करते हैं। इस तरह घर फूँककर तमाशा तो नहीं करते। दूसरा दुःख, उन्होंने समय रहते अपने आप को साधु-संत घोषित क्यों नहीं कर दिया, जिससे वे कह सकते थे कि जीवात्मा समाधि में है, देह को हाथ लगाने की जुर्रत न करना। पर इन भूलों के अब पछतावे ही शेष हैं।

मध्यरात्रि के तत्काल बाद उनके शव को एंबुलेंस में रख दिया गया। रात के उस भयावह अँधेरे में भी उनकी देह पर मँडराती जीवात्मा आत्मीय लोगों के नाटकीय चेहरे साफ-साफ देख रही थी। अधिकांश लोग तो चाहते भी नहीं थे कि लाश को रात में घर ले जाकर और लोगों की रात खराब की जाए।

जीवन में पहली बार और संभवतः अंतिम बार उनका ही घर उनके गृह-प्रवेश पर दहाडे़ं मारकर उनके नाम का रोना रो रहा था।

उनकी पार्थिव देह गृह-प्रवेश कर रही थी। उनकी जीवात्मा लगातार देह-प्रवेश की नाकाम चेष्टा कर रही थी। आँसुओं की इस धारा में उनकी पत्नी प्यारी की लंबी चीत्कारें सबसे आगे थीं। विलाप के भीतर इतना गुणगान था कि जीवात्मा की हँसी छूट गई। इतने महान् गुणों का खजाना थे, वे स्वयं अनभिज्ञ थे। जिस राम प्यारी के प्यार को वे जीवन भर समझ नहीं पाए, आज जब वे स्वयं रामजी को प्यारे हो गए, तब वह रुदाली रुदन में प्यार का अर्थ खोज रही है। उनके जीवात्मा ने उनकी ही देह को धिक्कारा कि जिसने राम प्यारीजी के सहयोग से आठ-दस बच्चे उत्पन्न किए, इसी उत्पादकता को वे प्यार समझते रहे।

जिस मकान को बडे़ प्रेम से बनवाया था, उसकी संगमरमरी टाइलों पर बिना कुछ बिछाए निर्दयतापूर्वक उन्हीं के आत्मीय स्वजनों ने भीषण ठंडी रात में नंगे बदन लिटा दिया। जीवात्मा भौरे की तरह उनकी देह के आसपास मँडरा रही थी। लड़के-लड़कियाँ दहाडें मारकर रोते हुए बार-बार उनके शव पर गिर रहे थे, जीवनकाल में कभी ऐसे आत्मीय आलिंगन नहीं देखे गए।

अड़ोसी-पड़ोसी बच्चों को घेरकर बाहर ले गए, फिर किसी रायचंद ने मूल्यवान राय दी। रुदन बंद करो, नहीं तो फकीरचंदजी की जीवात्मा घेरे में पड़ जाएगी, फिर उनकी गति-मुक्ति नहीं होगी। तुम लोग अच्छी सेवा कर अपना कर्तव्य पूरा कर चुके हो, अब आगे का काम हमको करने दो।

अब रात्रि को शेष समय में गीतावाचन करो। इधर गीतावाचन शुरू हुआ, उधर जीवात्मा की बैचेनी बढ़ गई।

‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु।’ अर्थात‍् आत्मा कभी नहीं मरती है। पुराने वस्त्रों की तरह आत्मा देह त्याग करती है।

फकीरचंदजी की जीवात्मा प्रतिवाद कर रही है कि मेरी देह का वस्त्र फट गया है और यह फटा वस्त्र पहनने में भी मुझे कोई शर्म नहीं है। मेरे फटे वस्त्र को भस्मीभूत करने का अधिकार इन लोगों को किसने दिया? जिस देश में कई लोग गरीबी के कारण अधनंगे घूमते हैं, उससे तो मेरा फटा वस्त्र लाख दर्जे अच्छा है।

ऊपर से झाँसा और दे रहे हैं कि फकीरचंदजी वैकुंठवासी हो गए, स्वर्गवासी हो गए। जीवात्मा सोच रही है—क्या पता, आगे ले जाकर कहाँ पटकेगा? मनुष्यों की आबादी तो पहले ही बहुत है। वहाँ तो सरकारी नौकरी की तरह कोई वैकेंसी दिखती नहीं है। कोई खास सत्कर्म भी उनके हृदयागार में दिखाई नहीं देते हैं। क्या पता, किस कुंभीपाक में ले जाकर पकाएगा? इससे तो अच्छा है कि किसी गधे की पोस्ट खाली हो और वह मिल जाए तो भी अहो भाग्य!

घर के लोगों को यह रात लंबी लग रही थी, जीवात्मा को बहुत छोटी लग रही थी। सूर्योदय होते ही ये समस्त षड‍्यंत्रकारी दुष्टात्माएँ मेरी देह का तीया-पाँचा कर देंगे। जीवात्मा के देह पुनःप्रवेश का अंतिम विकल्प भी समाप्त हो जाएगा।

काश, यह चुनाव की आचार-संहिता अंत्‍येष्टि पर भी लागू होती। जिस तरह सरकारी काम रुके पडे़ हैं, ऐसे ही उनकी लाश भी पड़ी रहती। फकीरचंदजी की कतई इच्छा नहीं थी कि यह जमा-जमाया घर, यह भरा-पूरा परिवार छोड़कर कहीं जाएँ।

फकीरचंदजी को सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह हो रहा था कि मृत्यु-सूचक संकेत भी नहीं हुए। वे मर कैसे गए? यह यमराज के दफ्तर की कोई गलती लगती है। किस-किस को रोए, यमराज के दफ्तर में भी इतना चोरवाड़ा। छह महीने से न तो उनकी गली में कोई साँड़-ताडूका और न आधी रात को काला कुत्ता रोया, फिर वे मर कैसे गए!

जैसे-जैसे ब्रा-मुहूर्त का सूर्योदय निकट आ रहा है, जीवात्मा की बेचैनी बढ़ती जा रही है। किसी शायर ने ठीक कहा है—‘‘जमाने के गम कम न होंगे, मगर अफसोस, कल तेरी दुनिया में हम न होंगे!’’

सवेरा हो गया। जाति-समाज, इष्ट-मित्र इकट‍्ठे होने लगे। पंडितजी को बुला लाया गया। क्रियाविधि हेतु नाई भी पत्थर पर उस्तरा चमकाने लगा। बाहर खडे़ लोग अलग-अलग जत्थों में बतिया रहे थे—‘‘फकीरचंद आज क्या मरा है, कई लोगों को मार गया है! भीषण सर्दी में दाँत किटकिटा रहे हैं। मावठ की बरसात में शव जलने में भी जाने कितना समय लगेगा!’’

भीतर पंडितजी उनके लड़कों को लाश के पास बिठाकर क्रियाविधि करा रहे थे। जीवात्मा नर्वस होती जा रही थी। ये लोग फकीरचंद के पुनर्जीवित होने की समस्त संभावनाओं को नकार रहे थे। पंडितजी ने फुटबॉल के आकार के पाँच पिंड लड्डू बनवाए, एक तो फकीरचंद की छाती पर और चार पार्श्व में रख दिए। फकीरचंद को जोरों की भूख लग रही थी, उनका बस चलता तो उठकर पाँचों लड्डू अभी ही खा जाते। पर उनकी तो मुश्कें बँधी हुई थीं। भूख लगने का कारण भी जायज था, तीन माह से तो उनको नारियल का पानी नाक की नली से डाला जा रहा था, जो पेशाब की नली से त्वरित गति से निकल जाता था। पिछले 15 घंटों से, जब से मृत घोषित किया है, उल्लू के पट‍्ठों ने वह भी बंद कर दिया। अब पंडित कह रहा है कि आगे का रास्ता लंबा है, अतः ये पंथ के लड्डू कलेवा हैं।

फकीरचंदजी की जीवात्मा रुआँसी हो गई। अपने ही घर में, अपनी ही छाती पर लड्डू होने के बावजूद भूखे ही अंतिम यात्रा पर निकल रहे हैं।

बाहर मोक्षवाहिनी देखकर कुछ लोगों के चेहरों पर प्रसन्नता खिल उठी। बुड‍्ढा वैसे ही भारी था, मरकर और भारी-भरकम हो गया होगा। अच्छा है, जो यह मोक्षवाहिनी आ गई, वरना कंधे ही टूट जाते।

लुगाइयों को लगभग बाहर निकालते हुए अंत्येष्टि निष्णात आठ-दस मुस्टंडे ‘रामनाम सत्य’ की टेर लगाकर अरथी को लेकर भीतर प्रवेश कर गए। त्वरित गति से उनके शरीर को अरथी पर बाँधने लगे, जैसे कोई कैदी कहीं भाग न जाए। ‘रामनाम सत्य’ की टेर लगाते हुए अरथी कंधों पर उठा ली। जीवात्मा रुआँसी होकर चीत्‍कार कर उठी—‘फकीरचंद असत्य है, रामनाम सत्य है।’

जैसे बरात की गाड़ी में दूल्हे की सीट रिजर्व होती है, वैसे ही मोक्षवाहिनी में बर्थ रिजर्वेशन में ही उनका स्लीपर रिजर्व था। बैंड बाजा बज रहा है, पर कोई नाच नहीं रहा है। कौन नाचे, वे तो बँधे हुए हैं और जीवात्मा रो रही है। बैंडवाले भी गांधीजी के गाए भजन बजा रहे हैं। श्मशान घाट पर अनेक रायचंद सक्रिय हुए। कौन सा लकड़ा कहाँ रखना है, छाती पर कौन सा बोंगड़ा रखना है, साइड में कौन से भडे़ रखें, ताकि फकीरचंदजी की लाश बिना अनुशासनहीनता दिखाए जल जाए।

फकीरचंदजी कभी-कभी फ्रेंच बॉथ लेते थे। आज उनके कुल-गोत्र के लोग उनको लगभग अनावृत करते हुए फ्रेंच बॉथ करवा रहे थे। उनके शरीर के अंग-उपांग में रखा मैल पूरी तरह साफ कर रहे थे।

जीवन में ज‌ितने हार उन्होंने कभी नहीं पहने, उतने उनकी अरथी पर पड़े थे। फूल उदास थे, उनको उठाकर एक तरफ फेंक दिया गया। उनकी जीवात्मा समझ चुकी थी कि वह जीवन की लड़ाई हार चुकी है।

उनके पूरे शरीर पर इतना घी मला गया, ज‌ितना पूरे जीवन में उन्होंने नहीं खाया था। आँखों में मोती तथा मुँह में मूँगा डाला गया, जिससे उनको अत्यधिक मात्रा में अंतिम-यात्रा हेतु बाइफोकल चश्मा तथा गले में मोबाइल मिल जाए। जीवात्मा छाती कूटती ही रह गई और फकीरचंजी की देह को आग के हवाले कर फूँक दिया गया।

तभी किसी ने उन्हें झिंझोड़ा, ‘‘उठो, आज उठना नहीं है क्या? आज तो हमारी वेडिंग एन‌िवर्सरी है।’’ फकीरचंदजी को लगा, जैसे अँधेरे कुएँ में उनकी रामप्यारी-प्राणप्यारी का हाथ उनकी ओर बढ़ रहा है।

उन्होंने उसे कसकर पकड़ लिया। इतना कसकर तो पाणिग्रहण में भी नहीं पकड़ा था। घबराए हुए बोले, ‘‘अभी-अभी मैंने अपनी मृत्यु देखी है।’’

पत्नी ने कहा, ‘‘घबराओ नहीं, आपकी तो उमर बढ़ गई। हाँ, कोई दूसरा मरेगा जरूर।’’ फकीरचंदजी किंकर्तव्यविमूढ़ थे—

‘स्वप्न क्या है, सत्य क्या है?’

भरतचंद्र शर्मा
बाँसवाड़ा (राजस्थान)

दूरभाष : ९४१३३९८०३७

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