वसंत की उत्कंठा : जीवन की सौभाग्यश्री

वसंत की उत्कंठा :  जीवन की सौभाग्यश्री

जीवन एक उम्मीद है—संसार के साथ चलने की, संसार में रमे रहने की। आसक्ति का अपनेपन से उपजा बोध जब ऊर्जा का स्रोत बन जाता है, तब जीवन के अनेक अर्थ प्रकट होने लगते हैं। ऐसा अर्थवान जीवन समय के टेड़े-मेढ़े गलियारों में से गुजरते हुए न केवल अपना रास्ता बनाता है, बल्कि दूसरों के लिए भी उसे प्रशस्त करता है। सृ‌ष्टि-चक्र उम्मीद की धुरी पर घूमता है। कितना विनाश, कितना ध्वंस अहर्निश घटित हो रहा है! इन सबके बीच जीवन की ललक जागती रहती है। पतझड़ की विषण्‍ण वेला में जब संपूर्ण वन-प्रदेश वीतरागी बनकर उजाड़-सा हो जाता है, तब कोई एक कलिका चुपके-चुपके किसी शाखा में मुसकान बिखेरती हुई फूट पड़ती है—साधना की सिद्ध‌ि बनकर, जीवन की जय-यात्रा बनकर! उसके साथ ही समूचा जंगल खिलखिला उठता है। वसंत का राग-बोध चतुर्दिक् गूँजने लगता है। वसंत एक उत्कंठा है—ऋतुओं के भीतर से जागती, समय को सरस बनाती। उत्कंठा कहाँ नहीं है—सब में समाई है, सबको गतिशील किए हुए है! वसंत की उत्सुकता जीवन-सौभाग्य की उपलब्‍धता है।

वसंत को पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। त्याग के वैभव की संप्राप्ति का नाम ही वसंत है। सबके अपने-अपने वसंत हैं। सिद्धार्थ ने क्या नहीं छोड़ा? राजभवन से लेकर पत्नी-पुत्र तक को त्यागकर सिद्धार्थ ने बुद्धत्व का वसंत प्राप्‍त किया। इस वसंत की सुगंध युगों के अंतरालों को भेदकर आज भी अपना मादन-भाव बिखेर रही है। गांधी ने लँगोटी धारण करके जिस आत्म-ऐश्वर्यपूर्ण जीवन को अपनाया, वह आज के प्रतिहिंसक विश्व की धधकती मरुभूमि में शांति का सौरभ विकीर्ण करने की सामर्थ्य सँजोए है। कितने निदाघ, कितनी पावस, कितने शरद, हेमंत, शिशिर सहकर वसंत उगता है। रीतिकालीन कवि बिहारी ने वसंत की साधाना की ओर संकेत करते हुए लिखा है—“नाहिं पावसु ऋतुराज यह, तजि तरवर चित्त भूल। अपनु भये बिनु पाइहै, क्यों नव-दल फल-फूल।” हे तरुवर! तू अपने मन में यह मत भूल कि यह वर्षा ऋतु नहीं है। यह ऋतुराज वसंत है, इसे प्राप्‍त करने के लिए अपत्र होना ही पड़ता है, तभी तो नए पल्लव, फल और फूल प्राप्‍त किए जा सकते हैं। पतझड़ के बिना वसंत संभव नहीं होता है।

पतझड़ भले ही वन का विपत्ति काल लगता हो, किंतु मेरे लिए तो यह वन का आंतरिक समृद्धि काल है। वृक्ष का वैराग्य काल है। अपने राग-अनुभव को अपनी आत्मिक गहराइयों में परिपक्व करने का यह काल एक नई सामाजिकता का उद्गीथ रचता है। कोई एक अकेला वृक्ष नहीं, कोई एक अकेली नस्लवाला वृक्ष नहीं, सभी वृक्ष, पूरा जंगल एक साथ अपने पत्तों को त्याग देते हैं। बड़े-से-बड़ा वृक्ष और छोटे-से-छोटा गुल्म सब इस कठिन समय में एक से हैं, एक हैं। यह रस के परिपाक का समय है। पतझड़ में वृक्ष सूखता नहीं है, भीतर-ही-भीतर अपना रस संग्रह करता है; रंगों, रूपों, ध्वनियों, स्पर्शों, आस्वादों में बदलने की अद्‍भुत सृजन क्षमता का अनोखा विधान अपनी शाखाओं-प्रशाखाओं में आयोजित करता हुआ। ऊपर से रूखी दिखनेवाली डालें भीतर-ही-भीतर जीवन की गहन आसक्तियों से परिपूर्ण हैं। निराला यदि कहते हैं कि “रूखी री यह डाल वसन वासंती लेगी।” तो वे इसी ओर संकेत करते हैं कि डाल रूखी जरूर है, पर सूखी नहीं है। वे आशान्वित हैं कि इस डाल पर वासंती वस्‍त्रों की रंग-बिरंगी प्रदर्शनी खिल उठेगी। वसंत अपने संपूर्ण आभरणों से इसे शृंगारित कर देगा। वसंत की उत्कंठा इसे नूतन बना देगी।

वसंत के आगमन की ‌आशा एक अवलंब है। एक ऐसी जगह पर, जहाँ सबकुछ छूट जाने के बाद अनंत रिक्तियों का सामना करना पड़ता हो। जहाँ अकेले पड़ते आदमी का साहस चुक रहा हो। स्मृतियों में आबद्ध सुख के झिलमिलाते से क्षण जहाँ आँसुओं की टपकती-ढुलकती आभा में झलक रहे हों। जहाँ पत्रहीन कंटकित गुलाब के पेड़ में एक भी फूल न बचा हो, फूलों की गंध का झोंका जहाँ कभी-कभी चक्कर लगा जाता हो। भला ऐसे भंडाफोड़ परिवेश में रस-लुब्‍धक भ्रमर क्या करेगा? उसे भाग जाना चाहिए, उड़ जाना चाहिए कहीं और जग‌ह! कविवर बिहारी कहते हैं, “जिन दिन देखे वे कुसुम गई सु बीत बहार। अब अलि रही गुलाब की अपत कँटीली डार।” भ्रमर! जा भाग जा। बहार बीत गई है। अब इन काँटों में तू क्या करेगा? कवि ही यदि जीवन से पलायन का विषम राग अलापने लगे तो फिर वसंत की उत्कंठा को जगाएगा कौन? कवि इस संसार का वसंत है। उसे लगता है कि पलायनवाद उसका इष्ट नहीं है। वह एक सुखद और प्रफुल्लित परिवेश लौटाना चाहता है। वह भ्रमर के भीतर गहन आस्‍था का जीवन के प्रति एक चरम आसक्ति का भाव सुरक्षित करना चाहता है। “इहीं आस अटक्यो रहलु अलि गुलाब के मूल। लै हैं फेरि वसंत ऋतु इन डारन वे फूल।” गुलाब के पौधे की जड़ में भ्रमर इसी आशा से अटक जाता है कि फिर वसंत आएगा और रूखी डालों में फूल खिल जाएँगे। जड़ की रस-स्राविनी शक्ति से जैसे भ्रमर परिचित है। पौधे के भीतर जो जीवनी-शक्ति है, वह भविष्य की उज्ज्वल संभावना की ओर ही संकेत करती है। वसंत अनंत संभावनाएँ लेकर आता है। रस, रूप, गंध, स्पर्श और ध्वनि का मेला लगानेवाला वसंत जीवन के अनेक लुभावने दृश्य रचता है। पतझड़ के प्रहारों का प्रतिकार करनेवाली जड़ों में जीवन-रस का संचित मधु कोष सुरक्षित रखना ही वसंत की उत्कंठा का आधार है।

जड़ों का रस सूख रहा है और वसंत की उत्कंठा की कलिका में कोई कीड़ा प्रविष्‍ट हो गया है। मुझे निराला फिर याद आ रहे हैं—‘पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा-बुझा है।’ यह कथन उन्हीं निराला का है, जो कहते थे, “अभी-अभी ही तो आया है मेरे वन में मृदुल वसंत! अभी न होगा मेरा अंत।” आशा दुराशा में बदल गई। कोपल आने-आने को थी कि उसी समय उसके उद्‍भवन बिंदु पर जहर की बूँद टपक पड़ी। वसंत की उत्कंठा को दग्‍ध किया जा रहा है। जड़ पर विषबुझा बाण चला दिया गया है। मेरा वसंत ठिठक गया है। गाँव के भीतर सूनापन है। जंगल का वसंत जब गाँव तक आता था, तब वसंत जीवन की जागृति का जरिया बनता था। तभी वह चारुतर वसंत होता था। कालिदास ने इसी वसंत को याद किया था, “द्रुमाः सपुष्पाः सलिलं सपद्मं स्त्रियं सकामा पवनः सुगन्‍धिः। सुखाः प्रदेषाः दिवसश्च रम्याः सर्वं प्रिये चारुतरं वसन्‍ते।” यह वसत चारुतर तभी है, जब इसमें रमनेवाला मनुष्य अपने भीतर के वसंत से भरापूरा हो, अन्यथा फूले बबूल और अनफूले कचनारों से उसे क्या मतलब? जो पुष्पित वे, और जो अपुष्पित वे भी उस मनुष्य के किस काम के, जो मशीनों के जंजाल में खट रहा है, जो बीस मंजिल भवन-निर्माण के लिए मटेरियल बना सीढ़ियाँ नाप रहा है। जो ट्रेन के तीसरे दर्जे में गठरी-पुटरी बना धक्कम-मुक्की में पिचक रहा है, पिस रहा है। उस आदमी के लिए मंजरित आम, सुगंधित पवन, खिले कमल दल, रमणीय दिवस और सुखी रात्रियाँ किस प्रयोजन कीं?

मनुष्य जब इस सृ‌ष्टि में संभव नहीं हुआ होगा, तब भी प्रकृति अपने इसी रूप में विहँसती होगी, तब भी वह चारुतर वसंत की मल्लिका बनती होगी; किंतु मनुष्य के बिना यह सब एक प्राकृतिक घटनामात्र थी। प्रकृति तो मनुष्य की सापेक्षता में ही अपनी संवेदनात्मक सार्थकता का विस्तार करती है। प्रकृति और मनुष्य की साझेदारी की वसंत को सकाम बनाती है। मनुष्य के अभाव में वसंत का अभिन्न सहचर कंदर्प किस पर अपने पंच प्रसून बाण छोड़ेगा? ऐंद्रियक उत्तेजनाओं को उद‍्दीप्त करनेवाला वसंत जिन कला-संवेदनाओं में उपस्थित होता रहा है, वे कला प्रतिमान तो मनुष्य ने गढ़े हैं। राग-मालाएँ, चित्र-बीथिकाएँ, नृत्य-नाटिकाएँ, नर्म क्रीड़ाएँ और इन्हें आस्वादित करनेवाली रस-धारणाएँ अपनी प्रस्तुति में मनुष्य और प्रकृति के समन्वित आचरण की ही आरण्यकाएँ हैं। मनुष्य के भीतर खिलते वसंत ‌और प्रकृति के अंतराल में लीलारत वसंत जब एकमेक होते हैं, तभी वसंत की कविता रची जाती है।

जंगलों, बाग-बगीचों में जितने रंग के फूल खिलते थे, वे सभी रंग मेरे गाँव के परिधानों पर नमूदार हो उठते थे—वासंतिक त्योहार होली पर। तब केमिकल से बने रंग प्रचलन में नहीं थे। रंग गाँवों में ही बनाए जाते थे। टेशू के फूल से केसरिया रंग बनता था। कनेर, गुड़हल, कचनार जैसे फूलों के रंग उतारने के लिए आसवन प्रक्रिया अपनाई जाती ‌थी। हरा रंग पत्तों से उतारा जाता था, ‌जिसे जंगलिया नाम दिया गया था। जैसे रंगपात्र में जंगल की रंगदारी ही उड़ेली गई हो। ये रंग पिचकारियों में भरकर जब डाले जाते थे, तब इनकी तेज बौछार से अच्छे-अच्छों के छक्के छूट जाते थे, इसलिए इस रंग-प्रहार को पिचकारी मारना कहा था। शिकायत होती कि “न मारो प‌िचकारी, मोरी भीगी रंग सारी।” ऐसी पिचकारी मत चलाओ, मेरी पूरी साड़ी भींज गई है। साड़ी ही नहीं भींजती थी, मन भी भींज जाते थे। रंगों की बौछार के पहले रंग की गंध से सराबोर होनेवाली कहती ‌थी, “मो पे रंगा न डारो, मैं तो ऊसई अतर में भींजी!” मैं तो वैसे खस-मोंगरा, बेला जैसे फूलों के इत्र में भीगी हुई हूँ, अब मेरे ऊपर रंग डालने की जरूरत नहीं है। मेरे भीतर मेरे अपने मन में तो तुम्हारे प्रेम का इत्र खुशबू बिखेर रहा है, मुझे उसी में डूबी रहने दो। तब तन भींजते थे और मन गीले हो जाते थे। गीले मन ही गाँव में प्रेम का पारावार रचते थे। प्रत्येक व्यक्ति के मन में यह ललक रहती थी कि वह होली में रंग-बिरंगा हो उठे, ऐसी होली खेले क‌ि उसका अहं गल जाए। वह पहचानहीन हो जाए। वह हुरिहारों की भीड़ बन जाए।

अब न वे रंग-गुलाल में सननेवाले गाँव बचे, न वे फगुवारे, जिनके बोल अमराइयों में गूँजते थे तो मुकुलित आम से पिंग पराग ऐसे झड़ने लगता था, जैसे अमराई भी पीला गुलाल उड़ा रही हो। गाँव खाली हो गया है। पता नहीं, कहाँ-कहाँ मेरा गाँव मारा-मारा फिर रहा है! पेट के खातिर खटने के लिए चक्करघिन्नी हुआ मेरा गाँव अब भारतीय कहाँ रहा! पर वह प्रांतीय होकर कभी किसी प्रांत से खदेड़ा जा रहा है, कभी किसी प्रांत से। अपनी जड़ों से बेदखल होकर लोगों को पाँव जमाने की जगह नहीं मिल रही है। जडें सूख रही हैं। वे जडें, जो गाँव को रससिक्त बनाए रखती थीं। आल्हा, कजरी, दिवारी, होली, फाग से लेकर व्रत-त्योहार, नाच-माच जैसे कला आयोजनों से गाँव में वसंत बगरा रहता था। अब छातीजार अकाल-दुकाल गाँव को घेरे हुए हैं। खेती ठेका पर यंत्रों और रासायनिक उर्वरकों के भरोसे! बोया बीज नहीं मिल पाता। बैंकों का कर्ज और मुफ्तखोरी की सरकारी आदतों ने गाँव को निकम्मा ‌बना दिया। नई पीढ़ी गाँजा, सट्टा, जुआ और शराब में डूबी है। समाज की नीरंध्र इकरसता दरारों से पीड़ित है। ताना बाना से लड़ रहा है। एक रंग दूसरे रंग के विरुद्ध तनकर खड़ा है। रंग-बिरंगा मेरा देश कितना बदरंग हो गया है! स्वतंत्रता के मुकुलित वसंत पर निरंतर तुषारापात हो रहा है। अब न तो गाँव का चैन लौटाया जा सकता है, न हल बक्‍खर लौटाए जा सकते हैं, न वे लोकगीत, जिनके आसरे आड़े समयों को लोक काट लेते थे। फिर भी मेरा देश बदल रहा है। मोबाइल पर पूरी ‌दुनिया मुट्ठी में लेकर चलनेवाला मेरा गाँव बदल रहा है। किसी में बल-बूता नहीं, जो इस बदलाव को रोक सके; इसलिए बीते हुए समय पर सियापा करने की बजाय परिवर्तनों को जड़ों से जोड़ने की हिकमतें तलाशना जरूरी हैं, चाहे वे हिकमतें महात्मा गांधी में मिले, चाहे आदिगुरु शंकराचार्य में मिलें, चाहे विवेकानंद में मिलें, इन हिकमतों में ही मेरे देश की जड़ों का जीवनी-रस समाया हुआ है। इस रस से आपूरित जड़ें ही इस देश में वसंत की प्रतिमूर्ति हैं।

कालिदास के ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ में एक दृश्य आता है। राजा दुष्यंत को वह अँगूठी प्राप्‍त होती है, जो उन्होंने शकुंतला को भेंट की थी। अँगूठी प्राप्त होते ही दुष्यंत शकुंतला की याद से पीड़ित हो उठते हैं। यह आसन्न वसंत का समय था। वे वि‌कट व्यथित होकर आदेश देते हैं कि वसंत से कह दो कि वह मेरे राज्य में न आए। आम्र-बौरों को मुकुलित होने से रोका जाए। वसंत को स्‍थगित करने का यह आदेश कितना परिपालित हुआ? मैं यह तो नहीं जानता, किंतु इतना जरूर जानता हूँ कि वसंत का रुतबा चक्रवर्ती नरेश से भी ज्यादा है; इसलिए वह आया होगा, जरूर आया होगा! मनुष्य के भीतर जो अदम्य ज‌िजीविषा है, वह उसे प्रत्येक विपरीत के मध्य खड़े होने का साहस देती रहेगी। यह जिजीविषा ही उम्मीदों का पर्याय है। वसंत उम्मीदों के जागरण की अकुलाहट देता है। उम्मीदों को पल्लवित ‌और पुष्पित तथा फलभरित भी करता है। वसंत की उत्कंठा केवल ऋतु की ही उत्कंठा नहीं है, वह मनुष्य के भीतर का सौभाग्य है। मनुष्य के भीतर उमड़ती-घुमड़ती उत्सवचारुता की कविता है। यह कविता कभी मरती नहीं है, कभी जीर्ण-शीर्ण नहीं पड़ती। “पश्य देवस्य काव्यं न जीर्णयति न ममारयति।”

श्यामसुंदर दुबे
श्री चंडीजी वार्ड

हटा, दमोह-४७०७७५

दूरभाष : ०९९७७४२१६२९

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