दिल्ली से हेग

दिल्ली से हेग

रामलाल आनंद कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) में बत्तीस वर्षों तक अध्यापन करने के पश्चात् रीडर (वर्तमान में एसोसिएट प्रोफेसर) के पद से अवकाश ग्रहण। एम.ए. कक्षाओं के अध्यापन और शोध-निर्देशन का भी अनुभव। अब तक आठ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कविताएँ, यात्रा-वृत्तांत आदि प्रकाशित।

रवरी शुरू ही हुई थी कि मैंने यूरोप जाने की योजना बना ली। अहमकाना हरकत थी, लेकिन इसके पीछे भी एक कहानी थी। नीदरलैंड्स में हमारे एक संबंधी रहते थे, जिन्होंने मुझे कई बार बुलाया था। २०१२ में कहा तो मैंने २०१३ के लिए टाल दिया; २०१३ में कहा तो मैंने २०१४ के लिए टाल दिया। आखिर उन्होंने चेतावनी दे दी कि भइया २०१५ के मार्च में मेरा सेवाकाल समाप्त हो जाएगा, फिर गिला मत करना। फलतः ५ फरवरी, २०१५ को मैंने अमसटर्डम की सीट बुक करवा ली। सच्चे पेंशनधारी भारतीय की तरह मैंने ऐसे फ्लोट (रशियन एअरलाइंस) की टिकट ली, क्योंकि उसमें किराया कुछ कम था। सुबह पाँच बजे की उड़ान थी। लिहाजा तीन घंटे पहले जाने के हिसाब से दो बजे एअरपोर्ट पहुँचना था। अतिरिक्त सावधानी के चलते मैं एक बजे ही पहुँच गया। वहाँ पता चला, फ्लाइट तीन घंटे लेट है। मैं उन पर थोड़ा गरम हुआ कि सूचना तो दे देते। टाल-मटोल के जवाब का मैं क्या जवाब देता? कहा, सामान बुक कर लो, ताकि मैं निश्चिंत हो जाऊँ, उन्होंने वह भी नहीं किया। इंतजार के सिवा चारा क्या था? पाँच बजे कार्रवाई शुरू हुई। सामान-बुकिंग के पश्चात् सोचा कि भीतर चाय-पानी की व्यवस्था होगी, जो नियमानुसार होनी चाहिए थी, लेकिन भीतर कोई सँभालने-बतानेवाला कर्मचारी नहीं था। तीन घंटे बिताने थे। जेब से जलपान कर लिया। साढ़े सात बजे जहाज में चढ़ने से कुछ पहले एक स्थल पर यात्रियों को रोक-रोककर एअर होस्टेस पूछ रही थी—आप मॉस्को के लिए हैं? और जवाब में एक फ्रूटी और सैंडविच का पैकेट थमा रहा थी। बड़े बेमन से मैंने वह लिया, यह सोचते हुए कि पिछले घंटों में जब जरूरत थी, तब आप कहाँ थीं। मैंने कहा, मुझे गरम कॉफी दीजिए। उसने कहा, फ्रूटी वापस करनी पड़ेगी। मैंने अंग्रेजी में कहा कि क्या रशियन एअरलाइंस इतनी कंगाल हो गई है?

जहाज के भीतर बैठकर राहत मिली। इंतजार करते-करते थक गए थे। फ्लाइट मॉस्को जा रही थी। होता यह है कि प्रायः सभी एअरलाइंस अपने देश की राजधानी से होकर जाती हैं, चाहे यात्री कहीं के भी हों। ऐसे फ्लोट मॉस्को जाएगी, एअरफ्रांस पेरिस, ब्रिटिश एअरवेज लंदन और बाकी भी उसी तरह ले जाएँगी। मॉस्को में जहाज उतर रहा था। चारों ओर का दृश्य देखकर ही ठंड लगने लगी। एअरपोर्ट में हर तरफ बर्फ गिर रही थी। लोगों ने भारी-भारी ओवरकोट पहन रखे थे। सिर पर हैट या जैकेट-हुड। जहाज से उतरने पर ऐरो-ब्रिज के दराजों में जबरन घुसती हवा शरीर को कँपा रही थी; मानो कह रही हो ६ फरवरी है और तुम मॉस्को में हो।

यहाँ फिर तीन-चार घंटे का इंतजार था। दिल्ली से आए सभी यात्रियों को यहाँ से भिन्न-भिन्न दिशाओं की फ्लाइट्स के लिए बाँट दिया जाएगा—रोम, कोपनहेगन, अमेरिका, एथेंस, लंदन, अमसटर्डम वगैरह-वगैरह।

प्रतीक्षा क्षेत्रों में लोग तो थे, लेकिन सब अजनबी हों तो आप अकेले ही होते हैं। इसी जहाज से उतरे कुछ भारतीय थे; कुछ पहले से भी मौजूद थे। ज्यादा-से-ज्यादा बातचीत होती है—अच्छा, आपको कहाँ या किस फ्लाइट से जाना है, दिल्ली में आप कहाँ रहते हैं और बस। मैंने सोचा ट्रांजिट वीजा ले लेता तो दो-चार दिन मॉस्को ही घूम लेता। घुमक्कड़ी मन, लेकिन फिर ठंड की बात सोचकर लगा, जो हुआ, अच्छा हुआ। बैग में एक पत्रिका थी। मैं उसे पढ़ने लग गया। आधे घंटे में उकता गया। उठकर दुकानों के शो-केस देखता रहा। मिनी बाजार-सा था, उसमें घूमता रहा। मानसिक स्तर पर ठंड का अहसास बना हुआ था। सोचा, कॉफी ही पी लें। हर जगह लोगों ने कहा—रूबल्स देने पड़ेंगे। अब दो-चार घंटे के लिए यूरो से रूबल्स बदल भी लेता तो बचे पैसे बेकार जाते। मन को समझाना पड़ा। पुनः मॉस्को-अमसटर्डम वाले जहाज में चढ़ गए तो राहत मिली। एक तो भीतर आप खाने-पीने की माँग रख सकते हैं। दूसरे, इंतजार खत्म हो जाता है और मानसिक तस्कीन रहती है कि मंजिल की दिशा में बढ़ रहे हैं।

अमसटर्डम में जहाज कुछ लेट उतरा था। शिफॉल हवाई-अड्डा बहुत बड़ा है। इमिग्रेशन में जाना था। मैं निश्चिंत था, मेरे पास सारे कागज पूरे थे। दूसरे, जिनके यहाँ जाना था, वे स्वयं दूतावास में थे। राजनयिकों के प्रति सम्मान हर देश दिखाता है। पासपोर्ट देखते हुए अधिकारी ने पूछा, किस उद्देश्य से आए हो (व्हाट किस यू हियर)? मैंने बता दिया—संबंधियों के बुलावे पर उनके साथ रहने के लिए आया हूँ। विधिवत् वीजा है। उसने कहा, वह पत्र कहाँ है, जिसमें तुम्हें बुलाया गया है। मैंने बताया कि वह दिल्ली में नीदरलैंड्स की एंबेसी को दे दिया था, जिसके आधार पर उन्होंने वीजा दिया। क्या आप अपने ही देश के दूतावास द्वारा दिए गए वीजा को पर्याप्त नहीं मानते? उसने फिर कहा, आप थोड़ा इंतजार करें और हॉल में पड़े बेंच पर बैठा दिया। वहाँ और कई व्यक्ति बैठे थे—अफ्रीकी देशों के, अरब देशों के, कुछ एशियंस। मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा। बेंच से सटा एक कमरा था, जिसमें और अधिकारी बैठे थे और जिसका दरवाजा बंद था। मैं ‘नॉक’ करके अंदर चला गया और कहा—मैं ऐरे-गैरे आदमियों में से नहीं हूँ; दिल्ली विश्वविद्यालय का रिटायर्ड प्रोफेसर हूँ और मैंने तत्संबंधी कई कागज दिखाए। पूछा, मुझे आपने क्यों रोका है? उन्होंने कागज गौर से देखे और कहा, आप बाहर बेंच पर न बैठें; ठंड है, भीतर आ जाइए; हीटर के पास बैठिए। आप इतमीनान से बैठें (मेक युअरसेल्फ कंफर्टेबल...)। पूछा, आप कॉफी पिएँगे? मैंने कहा, धन्यवाद। इतने में वे लोग आ ही गए और उन्होंने दूतावास का हवाला देकर परिचय-पत्र आदि दिखाया। चलते समय उन अधिकारियों ने कष्ट के लिए खेद व्यक्त किया और कहा, हम सीमा-पुलिस से हैं और हमें ध्यान रखना पड़ता है, वी आर फ्राम बॉर्डर पुलिस एंड वी हैव टू बी कॉन्शियस।

भारतीय घर के माहौल में अदरक वाली गरम-गरम चाय पीकर तसल्ली हुई। बातों का सिलसिला चल निकला।

उस परिवार में एक अच्छी आदत थी। वे सब सुबह सैर के लिए जाते थे। मैंने भी इच्छा जाहिर की तो पहले तो सौजन्यवश उन्होंने टालते हुए कहा, नहीं-नहीं, इतनी सुबह आप कहाँ जाएँगे? आराम कीजिए, लेकिन आग्रह करने पर वे मान गए। क्लिंगनडेल—जहाँ मैं ठहरा था, उसके पीछे काफी बड़ा जंगल था। हेग दुनिया का सबसे हरा-भरा शहर माना जाता है। उसी जंगल में हम सब जाते थे। ठंड गजब की थी। प्रायः पारा ३-४ डिग्री रहता। कभी-कभी एक-दो तक भी आ जाता। जैकेट तो ठीक थी, किंतु दस्तानों के बावजूद हाथ ठंडे-ठंडे रहते। ऐसे ही पैर भी। नाक, मुँह और चेहरे का कोई एक भाग खुला रहता। सब ठंडे-ठार हो जाते, लेकिन जंगल बहुत सुहावना था। पतझर था। पत्ते सब झर चुके थे। बेतरतीब ढंग से फैली शाखाएँ-प्रशाखाएँ पत्रहीन वृक्षों को एक विशेष प्रकार का सौंदर्य प्रदान कर रही थीं। हल्के पीले और काले रंग के ऊँचे-ऊँचे वृक्षों को हम ठूँठ भी नहीं कह सकते। कई बार वृक्षों से बूँदें टप से गिर जातीं। कोई पेड़ छोटा नहीं था; सब ऊँचे, लंबे-चौड़े, ताकतवर, शानवाले। नीचे बारीक बजरीवाले छोटे, कच्चे रास्ते पर हिमांश रहते। बीच-बीच में पक्की अमुख्य सड़क भी आ जाती। आतिथेय ने बताया कि पक्की सड़क पर पारदर्शी बर्फ रहती है, जिसका पता नहीं चलता और लोग उस पर फिसल जाते हैं, अतः चलने में सावधानी अपेक्षित है। बर्फ की पतली परत थी। चारों ओर एकदम शांति, सिवाए बीच-बीच में आनेवाली पक्षियों की आवाजों के। जाने अपनी भाषा में क्या कह रहे थे? मार्ग में काफी जगह पर बच्चे-बूढ़े साइकिल चलाते मिल जाते। इस देश में साइकिल चलाने का बहुत रिवाज है। ये लोग स्वास्थ्य के प्रति सचेत हैं। दूर छोटी-बड़ी सड़क के साथ कम-से-कम ढाई-तीन मीटर चौड़ा साइकिल-ट्रैक है, जिस पर बाकायदा ट्रैफिक सिग्नल्स हैं। लोग रात में भी छोटी-छोटी बत्तियाँ जलाए उसी जोश से साइकिल चलाते दिख जाएँगे। साइकिल मार्ग में कोई बाधा या अतिक्रमण नहीं। नीदरलैंड्स के साइकिल-ट्रैक्स विश्व में सर्वश्रेष्ठ माने गए हैं। कहीं-कहीं शाम को भी लोग व्यायाम करते, रस्सी कूदते या इस प्रकार की कोई गतिविधि करते दिख जाते।

जंगल में छोटी सड़कों के नीचे साफ पानी की बहती नालियाँ बीच-बीच में हमारा स्वागत करने आ जातीं और अपनी भाषा में ‘नमस्कार’ कहकर निकल जाती हैं। जल पर तरह-तरह की आवाजें निकालती बतखें इधर-से-उधर तैरती रहतीं। कुछ जीव जल के नीचे भी हलचल करते रहते। बीच-बीच में बैठने, आराम करने के स्थल हैं। कुछ दिशा-निर्देशक थोड़ी-थोड़ी दूरी पर लगाए गए हैं। इसी जंगल में एक बड़ा भवन दिखाई दिया। निकट जाने पर कुछ अंतर से ही दिख गया कि इसके गेट बंद हैं। यह राजमहल है। जरूरी नहीं कि इसमें राज-परिवार के सदस्य इस समय रह रहे हों, लेकिन यह महल है उन्हीं का। उनके पास ऐसे कई महल हैं। एक महल हेग के बाजार में भी है। नीदरलैंड्स में रानी है, जिसका नाम बिआट्रिक्स है। उसने राजगद्दी अब अपने बेटे को दे दी है। कई देशों में राजा-रानी आज भी हैं, जैसे स्पेन में रानी है, इंग्लैंड की क्वीन एलिजाबेथ तो जग-प्रसिद्ध है, जो बकिंघम पैलेस में रहती है। कुछ समय पहले तक नेपाल में राजा था। भूटान के राजा हैं। जापान में आज भी सम्राट् हैं, लेकिन यह भी सच है कि मात्र परंपरा पालन वश चले आ रहे ये राजा-रानी देश की शान के प्रतीक भर हैं। वास्तविक शक्ति जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों से बनी पार्लियामेंट के पास है। एक दूसरी स्थिति भी है। एशिया, अरब और अफ्रीकी देशों के राजाओं और प्रजा के प्रतिनिधियों के बीच टकराव से कितने देश आज बरबादी के कगार पर हैं।...इस जंगल में एक पेड़ पर कुछ पट्टियाँ जैसी बँधी हुई थीं। पता चला, इस पेड़ का इलाज चल रहा है। यह सूखने लगा था। डॉक्टरों ने इसमें कई इंजेक्शन लगाए, दवाई लगाई और पट्टियाँ बाँध दीं। ये किसी पेड़ को जल्दी से मरने नहीं देते। खयाल आता है कि एक ये लोग हैं और एक हमारे यहाँ स्थिति है कि बच्चे, बूढ़े, औरतें समुचित इलाज और दवाइयों के अभाव में दम तोड़ देते हैं।

एक दिन वे मुझे घुमाने ले गए। बाजार, हाट, दुकानें देखीं। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय देखा, जिसके लिए हेग विख्यात है। मैं अपनी तसल्ली के लिए वहाँ पुनः गया, क्योंकि मुझे कुछ नोट्स और चित्र लेने थे। अतः न्यायालय का ब्योरा आगे मिलेगा। धीरे-धीरे मैंने अकेले निकलना शुरू किया। मकान की लोकेशन देख ली। फ्लैट नंबर, फोन आदि नोट कर लिये। यहाँ से १३ नंबर बस जाती थी बस-अड्डा। बस अड्डे के साथ ही रेलवे स्टेशन था। दो-तीन मुख्य पैदल आने-जाने के मार्ग पहचान लिये। हेग कोई इतना बड़ा शहर भी नहीं, जैसा मान लीजिए, अमसटर्डम है। एक मित्र बन गया, जो भारतीय था, लेकिन वर्षों से यहाँ रह रहा था। अब यहीं का नागरिक है। वैद्यक की अच्छी जानकारी है। उनका अपना इंडिश्का नाम का एक स्टोर है, जिसमें भारत से जुड़ी लगभग सभी चीजें हैं। हिंदी और अंग्रेजी में धार्मिक पुस्तकें, पूजा संबंधी सामान, आसन, मूर्तियाँ, मालाएँ, हस्तशिल्प की वस्तुएँ, ‘एथेनिक’ वस्त्र, गहने, संगीत संबंधी सामग्री, कुरसियाँ मूढ-पीड़ यानी भारत से जुड़ी लगभग हर चीज। मैत्री विकसित करने में कोई बाधा नहीं हुई। वे बड़ी आत्मीयता से बात करते थे। थोड़ी-बहुत सहायता और मार्ग-दर्शन भी कर देते थे। यहाँ मैं उनके प्रति आभार प्रकट करना चाहता हूँ।

एक दिन मुझे बस का एक ड्राइवर ऐसा लगा कि भारतीय होगा लेकिन पता चला कि सूरिनामी है। हॉलैंड में बहुत सूरिनामी हैं, जो भारतीय मूल के ही हैं। बरसों तक डच सूरीनाम के शासक थे, जैसे अपने यहाँ अंग्रेज। आजादी मिलने के बाद उन्हें हॉलैंड में आने-रहने की सुविधा मिल गई। (हॉलैंड और नीदरलैंड्स एक ही देश के दो नाम हैं। हॉलैंड नाम पुराना है। आजकल इसे नीदरलैंड्स कहते हैं।)

एक और अवसर पर ऐसे ही सूरीनामी चालक था। बस में घुसते ही मैंने टिकट माँगा। उसने कहा, बैठ जाओ। थोड़ी देर मैं उठकर फिर उसके पास गया तो उसने फिर मना कर दिया। मैं बैठ तो गया, पर मन में खटका लगा रहा कि बिना टिकट यात्रा कर रहा हूँ। शर्मिंदगी तो उठानी पड़ेगी ही, देश का नाम भी बदनाम होता है। मन में बेचैनी थी। मैं फिर उठकर गया और गंभीरता से कहा कि कृपया टिकट दे दें, मैं बिना टिकट चल रहा हूँ। उसने उतनी ही गंभीरता से जवाब दिया, ‘आई एम द लॉर्ड ऑफ दिस बस...डोंट वरी सिट डाउन।’ अंत तक मैं ऐसे ही गया। मैं समझ नहीं सका, ऐसे क्यों, कैसे हुआ? या तो चालक को कुछ अधिकार प्राप्त होगा अथवा भारतीय होने के नाते वह कुछ विशेष स्नेह प्रकट करना चाहता था। यह भी संभव है, वह दिन विशेष हो, जैसे किसी दिन यहाँ वरिष्ठ नागरिकों या बच्चों को मुफ्त सफर (फ्री राइड) की सुविधा रहती है। नीदरलैंड्स आवास के इतने दिनों में यह एकमात्र अपवाद था।

यहाँ दुकानें सामान से भरी रहती हैं—कपड़े हों, ज्वैलरी हो, घरेलू सामान या कुछ और। साफ-सुथरी, चमचम करती दुकानें। प्रत्येक आइटम पर प्राइस-टैग लगा है। आपकी प्रश्नवाचक दृष्टि उठते ही सहायिकाएँ लपककर आ जाती हैं और आपकी समस्या का समाधान कर देती हैं। बहुमंजिले स्टोर हैं—एक ही वस्तु या अलग-अलग वस्तुओं के। सभी में विभाग हैं। एक ही वस्तु, मान लीजिए वस्त्रों के हैं तो बच्चों, स्त्रियों, पुरुषों, बुजुर्गों, सूती, ऊनी, चमड़े के कपड़े विशेषीकृत विभागों में बँटे हैं। आजकल भारत के महानगरों में भी इसी प्रकार के स्टोर हैं। कई स्टोरों में ग्राहकों के आराम करने, बतियाने के स्थान बने हुए हैं, जहाँ चाय-कॉफी की मशीनें लगी हुई हैं—बनाएँ, पिएँ और पिलाएँ। खरीदी हुई चीज सरलता से वापस की जा सकती है, बशर्ते कि रसीद हो। हफ्ता भी हो गया हो तो भी वापस ले लेंगे। झिक-झिक नहीं। ‘चैंज’ पर भी बहस नहीं होती। रेस्त्राँ, होटल भी भरे रहते हैं। छुट्टीवाले दिन भीड़ ज्यादा रहती है।

नीदरलैंड्स का काफी हिस्सा प्राकृतिक शोभा युक्त है। हेग तो पूरे यूरोप का सबसे हरा-भरा नगर माना जाता है, जिसके १,११,५०० हेक्टेयर में पार्क, जंगल, टीले, रेत के ढूह, समुद्र तट आदि हैं। यहाँ की गुलाब वाटिका में २०,००० पौधे हैं, जो जून से अक्तूबर में खिलते हैं। ट्यूलिप्स के लिए तो नीदरलैंड्स पूरे विश्व में जाना जाता है। ये दूसरे देशों में निर्यात भी किए जाते हैं। ये भी मई-जून से खिलने शुरू होते हैं। यहाँ का इतिहास बहुत पुराना है। इस देश का पुराना नाम हॉलैंड है, जो किसी समय जीलैंड की तरह मात्र एक प्रांत था। तब देश की सीमाएँ इस प्रकार नहीं थीं, जैसी आज हैं। यहाँ दूसरी जातियाँ भी रहती थीं। १७वीं शताब्दी में हेग में यहूदियों की बस्ती थी। नगर में स्पेनी और पुर्तगाली भी रहते थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान नीदरलैंड्स को बहुत से अत्याचारों और जुल्मों का शिकार होना पड़ा। वह यहाँ के इतिहास का सबसे काला अध्याय है। ऐतिहासिक संग्रहालय में उस समय के भयानक और करुणोत्पादक चित्रात्मक ब्योरे उपलब्ध हैं। साइकिल चालकों के लिए यहाँ सबसे सुरक्षित मार्ग बनाए गए हैं।

नीदरलैंड्स में हवा के बड़े-बड़े पंखे, जैसे अपने यहाँ गुजरात-तट पर हैं, बहुत जगह पर घूमते दिख जाएँगे। इन पंखों से वाटर-पंप चलते हैं, जो खेतों का फालतू पानी नदियों-नहरों में वापस डालते हैं। यहाँ नदियों, समुद्र भी, ऊँची सतह पर है और जमीन-खेत नीचे हैं। इसी समस्या से निबटने के लिए डच लोगों ने हजार साल पहले ‘डाइकेस’ यानी तट-दीवार बनाई, ताकि समुद्र-नदियों का पानी भीतर न आए। बाँध-निर्माण की तकनीक में आज भी कोई देश नीदरलैंड्स का मुकाबला नहीं कर सकता।

नीदरलैंड्स के कई घरों में मैंने लकड़ी के जूतों की जोड़ी सजावटी वस्तु के रूप में देखी। मेरे मेजबान के घर में भी थी; पीले रंग की छोटी सी जोड़ी। मैंने जानना चाहा कि सज्जा-सूची में जूतों की विशिष्टता क्यों है? उन्होंने कहा—बस, यहाँ सजावटी खिलौनों के तौर पर लोग रखते ही हैं। मेरी जिज्ञासा इधर-उधर घूमती रही। पता चला कि कुछ पुराने लोग अभी भी लकड़ी के जूते पहनते हैं। एक जमाना था, जब लकड़ी के जूते पहनना बहुत बड़ा फैशन माना जाता था। देखिए, इतिहास किस तरह समय में अटक जाता है। परंपराएँ या रिवाज बहुत समय तक किसी-न-किसी रूप में जीवित रहते हैं। आज उसी यादगार के तहत देशवासी इन्हें अपने घरों में रखते हैं और पर्यटक खरीदकर ले जाते हैं।

हेग के पास ही लाइडन नगर है। वहाँ के विश्वविद्यालय के हिंदी के प्राध्यापक मोहन के. गौतम मुझे दिल्ली में एक बार मिले थे। सोचा, विश्वविद्यालय घूम आएँगे और उनसे मिल भी लेंगे। वहाँ गया, लाइडन विश्वविद्यालय बहुत बड़ा है और मुख्यतः तकनीकी शिक्षा केंद्रित है। काफी कठिनाई अनुभव की। एक तो वहाँ विभाग इस तरह से बँटे हुए नहीं हैं, जैसे अपने यहाँ हैं। कहीं एशियन भाषाएँ और संस्कृति विभाग हैं या क्षेत्रीय अध्ययन अथवा विशेषीकृत अध्ययन केंद्र हैं। सीधा हिंदी विभाग उस तरह से नहीं है। यहाँ सभी केंद्रों के भवन दूर-दूर तक फैले हुए थे। प्रो. गौतम शायद अब रिटायर भी हो गए होंगे। उनके विषय में कोई अन्य सूत्र—घर का पता या टेलीफोन नंबर मेरे पास नहीं था। फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी। खोज-बीन से पता चला कि लाइडन इंस्टिट्यूट फॉर एरिया स्टडीज (भारत और तिब्बत) में अभिषेक अवतंस नामक एक हिंदी अध्यापक हैं। बताया गया कि शॉर्ट में लाइपस पूछ लेना। वहाँ गया। अभिषेक का कमरा था, नेमप्लेट थी, लेकिन वे नहीं थे और यह पता लगाना भी मुश्किल था कि वे कब आएँगे या मिलेंगे। बस इंस्टिट्यूट के दर्शन करके आ गया।

हेग नगर

नीदरलैंड्स की राजधानी बेशक अमसटर्डम कही जाती है, किंतु वास्तविक राजधानी हेग है, जहाँ सारे महत्त्वपूर्ण कार्यालय, दूतावास आदि हैं। देश की संसद् भी हेग में है। हेग के लिए अमसटर्डम हवाई-अड्डे पर उतरना पड़ता है, जहाँ से आप आधा घंटा, बीस मिनट में हेग पहुँच सकते हैं। एक बात और व्यक्तिवाचक संज्ञा होने से संसार के किसी नगर के पहले डेफिनेट आर्टिकल ‘द’ नहीं लगता, लेकिन हेग के लिए द हेग का प्रयोग होता है। अपनी भाषा (डच) में वे इसे डेन हाग बोलते-लिखते हैं। हो सकता है, इसमें ध्वनि इसे विशिष्ट नगर मानने की हो।

वर्तमान में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय तथा स्थायी मध्यस्थता पंचाट हेग में हैं। यह सदा से न्याय और शांति का नगर माना जाता रहा है। नीदरलैंड्स के संविधान के आर्टिकल ९० में दर्ज है कि अंतरराष्ट्रीय कानूनी व्यवस्था को बढ़ावा देना देश की जिम्मेदारी है। यह न्यायालय जिस भवन में है, उसे शांति-महल कहते हैं, जिसका इतिहास बहुत पुराना है। बहुत छोटे से रूप में इस न्यायालय की स्थापना २८ अगस्त, १९१३ को डच महारानी विल्हेल्मिना की उपस्थिति में हुई थी। इससे पूर्व सन् १८९९ में विश्व के २६देशों के लोगों ने सम्मेलन किया था, जिसमें निशस्त्रीकरण तथा शांति-स्थापना पर विचार किया गया था। मजे की बात यह है कि इसकी मूल प्रेरणा रूस के सम्राट् निकोल्स द्वितीय की ओर से आई। रूस युद्ध के परिणामों से अवगत था। उसका विचार था कि बातचीत और शांति-प्रयासों से युद्ध रोके जा सकते हैं। निकोल्स ने परामर्शवार्त्ता के लिए हेग को ही क्यों चुना? कई कारण थे। हेग की डच महारानी निकोल्स की दूर की संबंधी थी। दूसरे, नीदरलैंड्स पक्षपात-रहित देश माना जाता है। हेग यूरोप के लगभग मध्य में है, जहाँ पहुँचना सबके लिए सुगम था। इस सम्मेलन ने अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता पंचाट की नींव रखी, जिसके लिए स्कॉटिश-अमेरिकी एंड्रयू कारनेजी ने उस समय १५ लाख डॉलर दिए। बाद में इसी कारनेजी ने शांति-प्रासाद का उद्घाटन भी किया। शांति-प्रासाद में पीड़ा और कष्टों केत्राता-रूप में जीसस क्राइस्ट की कांस्य-मूर्ति स्थापित की गई, जो उन दो देशों के हथियारों को गलाकर बनाई गई थी, जो उस समय युद्धरत थे। ये देश थे—चिली और अर्जेंटीना। हेग की प्रशंसा में तत्कालीन ब्रिटिश पत्रकार जी.एच. पेरिस ने १५ जुलाई, १८९९ को अपनी डायरी में लिखा—‘‘(यह नगर) चिंतन, सद्भाव और धैर्य का है। यहाँ शांति की संसद् बुलाना एक उत्तम विचार है। हेग को इसका पुरस्कार मिल चुका है, क्योंकि यह अब विश्व के विधि-अध्ययन केंद्र के रूप में विकसित हो रहा है।...किसी नगर को इससे बड़ी और कौन सी प्रतिष्ठा मिल सकती है?’’

अंतरराष्ट्रीय विवादों और युद्ध-अपराधों के विचारार्थ बाकी संस्थाएँ भी धीरे-धीरे यहाँ स्थापित होती चली गईं। १९९३ में यूगोस्लाविया विषयक अपराध निर्णायक पंचाट यहाँ खोला गया था। ईरान-यू.एस.ए. के दावों का निपटारा भी यहीं किया गया था। युद्ध-रत देशों की शांति-वार्त्ताओं के लिए हेग आदर्श स्थान माना जाता है। अंतरराष्ट्रीय कानून अध्ययन का यह सर्वश्रेष्ठ केंद्र है। २०११ में विश्व न्याय संस्थान खोला गया, जहाँ न्याय, शांति, सुरक्षा विषयक शोध होता है। एक अंतरराष्ट्रीय विधि अकादमी तथा पुस्तकालय है, जहाँ कई देशों के न्यायाधीश प्रशिक्षण ग्रहण करने आते हैं। न्याय और कानूनी व्यवस्था को सर्वोपरि माननेवाले इस भवन के बारे में लिखा गया है कि यह क्षेत्र सैन्य-शक्ति और पशु-बल के लिए अलंघ्य और अदूषणीय है।

अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का मुख्य द्वार बंद रहता है। सामान्य जन का प्रवेश निषिद्ध है। सप्ताह में केवल एक दिन, शायद बुधवार को आम पब्लिक के लिए इसका बाग-बगीचे वाला केवल एक भाग खोला जाता है। बड़े गेट से सटी एक गैलरी है, जहाँ दर्शक बहुत सी वस्तुएँ, चित्र, इतिहास के पन्ने आदि देख सकते हैं। फिल्म के द्वारा भी काफी देख, सुन सकते हैं। छोटा सा संग्रहालय है, जहाँ जजों के पुराने चोगे, पदक, ऑर्डर-ऑर्डर कहते हुए मारे जानेवाले टुल्ले, कानून की खुली पुस्तक आदि वस्तुएँ हैं। कुछ उद्धरण और लिखावट है। And the work of righteousness shall be peace; and the effect of righteousness quietness and assurance for ever. अर्थात् नेकी और न्यायपरायणता का लक्ष्य शांति है...तथा न्यायपरायणता, शांति और आश्वासन सदा बने रहें...। एक और अंश २८ अगस्त, १९१३ का है, जो जर्मन/डच भाषा में होने से मैं समझ नहीं सका।

गैलरी के एकदम बाहर की दीवार पर धातुअक्षरों में संसार की कई भाषाएँ लिखी हैं। इनमें देवनागरी में ‘स्वागतम्’ तथा ‘अतिथि देवो भव’ देखकर मैं अति आनंदित हुआ। थोड़ा गर्व भी हुआ। शायद तमिल लिपि में भी कुछ लिखा हुआ था। बाहर एक विश्व शांति-पथ बना हुआ है, जिसमें ९६ देशों ने शिरकत की थी। उन देशों से पत्थर मँगवाए गए थे। उन्हीं को जोड़कर इस पथ का निर्माण किया गया। कुछ देशों के पत्थर नहीं भी पहुँचे। वे तारांकित हैं। ‘आई’ वाले वर्णक्रम में इंडिया, यानी भारत का पत्थर साफ दिखाई पड़ता है। शांति के किसी भी उपक्रम में भारत का योगदान सदा ही रहा है। इसका उद्घाटन २७ अप्रैल, २००४ को हुआ। यह प्रार्थना भी की गई है—“Please add your prayer for peace as you walk around.” (प्रदक्षिणा करते हुए शांति के लिए अपनी ओर से भी प्रार्थना कीजिए।)

निकट ही एक शांति-ज्योति प्रज्वलित है, जो सदा प्रकाशित रहती है। यह ज्योति १९९९ में स्थापित की गई थी, जब पहली बार पाँचों महाद्वीपों से सात शांति ज्योतियाँ सागर, पर्वत, जंगल लाँघकर यहाँ पहुँची थीं और मानव-शांति तथा कल्याण के लिए एक-दूसरे में मिल गई थीं। कामना है कि सर्वजन हिताय यह ज्योति अखंड रहे। यह तथ्य भी गर्व करने लायक है कि भारत के दो विधिवेत्ता डॉ. नागेंद्र सिंह और दलवीर भंडारी अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के न्यायाधीश रहे हैं।

ट्यूलिप्स का रंगीन संसार

क्लिंगनडेल से लगभग २० मिनट की ड्राइव पर क्योकेन हॉफ में खेत हैं, जहाँ ट्यूलिप्स की बड़े पैमाने पर खेती होती है। हेक्टेयर पे हेक्टेयर तक यह जमीन फैली पड़ी है, जहाँ मौसम आने पर पूरी दुनिया बदल जाती है। हॉलैंड के ट्यूलिप्स विश्व-प्रसिद्ध हैं। ये कई दिनों तक, बिना किसी विशेष देखभाल के तरो-ताजा रह सकते हैं। इनके निर्यात से नीदरलैंड्स को अच्छी-खासी आदमनी होती है। इनके खिलने का मौसम है लगभग मई-जून महीना, जिसे यहाँ की वसंत ऋतु कह सकते हैं, जब लाखों ट्यूलिप्स खिलते हैं, जो शोभा का दस्तरखाना बिछाकर हर आम-खास को आमंत्रित करते हैं। अच्छा, ट्यूलिप्स को हिंदी में क्या कहें? मोटे रूप से नलिनी कह सकते हैं। वस्तुतः यह कंद जाति का पुष्प है—बल्व-फ्लावर।

दुर्भाग्य से जब मैं गया तो वह फरवरी मास था—भारत के हिसाब से बहुत-बहुत ठंडा। यूरोप तो तब और भी ठंडा होगा। नीदरलैंड्स में इन दिनों बारिश और बर्फ भी पड़ सकती है। सर्दी तो हाड़ कँपानेवाली होती ही है। अतः जब मैं गया तो पाया कि ट्यूलिप्स अभी उगे ही थे। छोटी-छोटी कोपलें सर उठाकर चकित नेत्रों से नए संसार को आँकने का प्रयास कर रही थीं। मन-ही-मन गणना कर रही होंगी कि फलने-फूलने के दिन अभी दूर हैं। शिशु से बालिका, फिर कैशोर्य और तब नवयुवती का मदमाता यौवन, जिसकी हिलोरें कभी इधर हिलाएगी कभी उधर। चित्रों और फिल्मों के माध्यम से मैंने देखा है कि उस ऋतु में लाल, पीले और गुलाबी ट्यूलिप्स मीलों तक मस्ती में झूमते हैं, खुशी के गीत गाते हैं और सौंदर्य तथा सुगंध से पूरे प्रांतर को मालामाल कर देते हैं। जमीन तो दिखती नहीं, उसके ऊपर लाल-पीली आभावाली एक नई जमीन उठकर दूर तक बिछ जाती है, उतनी दूर तक, जहाँ तक आँखें देख सकती हैं। तब हजारों पर्यटक इस दृश्य॒ को देखने के लिए व्यग्र हो उठते हैं। ट्यूलिप्स के अतिरिक्त डेफोडिल्स, हाइसिंथस आदि दूसरे पुष्प भी इस उल्लास के मेले में अपना योगदान करते हैं। कितने कैमरों की आँखें पलभर झपककर इन्हें प्रशंसकों की दुनिया के लिए बाँध ले जाती हैं। भारत की और दूसरे देशों की भी, कितनी ही फिल्मों की शूटिंग यहाँ हुई है। कई गाने भी फिल्माए गए हैं। किसी क्षेत्र के लिए सुंदर पुष्पों का वरदान भी देवी प्रसाद से कम नहीं।

कितना अच्छा होता, यदि मैं इस मौसम की जगह मई में आया होता!

 

सी-४, बी/११०, पॉकेट-१३

जनकपुरी, दिल्ली-११००५८

दूरभाष : ९८७०१०३४३३

—ओम प्रकाश शर्मा ‘प्रकाश’

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