काहे प्रिंसिपल माथुर भए त्यागी

काहे प्रिंसिपल माथुर भए त्यागी

 

प्रख्यात व्यंग्यकार। अब तक छह व्यंग्य-संकलन, तीन आलोचनात्मक पुस्तकें, नौ संपादित ग्रंथ और बावन ग्रंथों में सहयोगी रचनाकार के रूप में रचनाएँ प्रकाशित। एक हजार से अधिक रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। ‘बागपत के खरबूजे’ पर युवा ज्ञानपीठ पुरस्कार तथा तेरह राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित। अनेक व्यंग्य अंग्रेजी, बल्गारियन, मराठी, उर्दू, बँगला, पंजाबी और गुजराती में भी अनूदित।

प्रिंसिपल माथुर ने अचानक त्याग-पत्र दे दिया, यह बात कॉलेज परिसर में उसी दिन और विश्वविद्यालय में रातोरात फैल गई। अभी उन्हें पद ग्रहण किए दो महीने भी नहीं बीते थे कि पद त्याग दिया, जबकि वे एक वर्ष का लियन लेकर आए थे कि यदि नहीं जँचेगा तो प्राचार्य पद छोड़कर पुनः अपने कॉलेज वापिस चले जाएँगे, अन्यथा एक वर्ष बाद लियन समाप्त होने पर नए कॉलेज में परमानेंट प्रिंसिपल हो सकते थे। वे दूसरे कॉलेज में तीस वर्ष प्रोफेसरी करने के बाद मेरे कॉलेज में प्राचार्य पद पर चयनित होकर आए थे। स्टाफ के लिए चूँकि वे नए थे, इसलिए अभी उन्हें पूरे तरह समझा नहीं जा सका था। अलबत्ता उनकी मारक हँसी सबके मन-मस्तिष्क में कौंधने लगी थी। वे बातें कम करते थे और हँसते ज्यादा थे। कॉलेज की कोई समस्या उनकी हँसी को दबा न पाई थी। स्टाफ की बैठक में भी वे जोर-जोर से हँसकर दूसरे की बात अनसुना करने में एक्सपर्ट घोषित किए गए थे।

मैं उनका पुराना मित्र रहा था, जब भी उनके पिछले कॉलेज में जाता, चाय-पान उन्हीं के साथ होता था। मुझे उनकी हँसी बर्दाश्त करने की गहन आदत थी, जब वे मेरे कॉलेज में प्रधानाचार्य के रूप में मेरे बॉस बने, बकौल उनके एक मैं ही बिना लिए-दिए (बतर्ज ‘ले दे के’) उनका मित्र था, इसलिए कुरसी सँभालते ही उन्होंने सबसे पहले मुझे ही प्रिंसिपल कक्ष में बुलाया था। और मेरी दोस्ती की दुहाई देते हुए मुझसे गुजारिश की थी कि मैं उनके कार्य में उनकी सहायता करूँ। उनके आदेश अथवा निर्देशानुसार जब भी मेरी कक्षा न हो रही हो, उनके साथ उनके कार्यालय में बैठकर प्रशासन में हाथ बँटाऊँ। वे कार्यालय में होते थे, मैं भीतर प्रवेश करता था, वे मृदुल हास्य से मेरा स्वागत करते थे और रौद्र-हास्य से चपरासी को चाय-समोसे लाने का ऑर्डर देते थे, समोसा भक्षण के साथ-साथ उनकी अट्टहासमयी हँसी से मैं कर्ण-रक्षण करता रहता था, मादक हास्य से वे मुझसे कार्यालयी मुद्दों पर चर्चा करते थे। इस संपूर्ण कार्यक्रम में मेरे आकर्षण का घोर केंद्र गरम समोसे और ताजी चाय होते थे। आखिरकार चाय-समोसे कॉलेज प्रधानाचार्य के कक्ष में भली-भाँति पदार्पित होने होते थे, उस दिन उनके त्यागी होने की खबर सुनकर मैत्री के नियमानुसार उनसे मिलने उनके कक्ष में गया, यह क्या मुझे देखने के बावजूद भी उनके होंठों और आस-पास के परिवेश में एक कण भी हँसी का नहीं छिटका। उन्होंने दोनों हाथों से अपना माथा पकड़ा हुआ था। मैंने पूछा, डॉ. साहब, क्या आपके सिर में दर्द है? और सुना आपने, त्याग-पत्र दे दिया आप तो यहाँ खुश थे, ऐसा क्या हुआ कि आपको यह करना पड़ा?

उन्होंने धीरे से अपना माथा अपनी हथेलियों से अलग किया और हाथ मलते हुए कातर भाव से मेरी ओर ताक, मेरे चेहरे पर उभरे सवालिया निशान उन्हें नजर आ गए। उन्होंने नॉर्मल होने की फीकी सी कोशिश की। उठे, दरवाजा बंद किया, अपनी कुरसी पर न बैठे मेरे साथवाली कुरसी पर बैठ गए।

मेरा हाथ हाथोहाथ लेकर करुण स्वर में पूछने लगे, ‘क्या तुम पर्मानेंट हो?’ बड़ा विचित्र सा सवाल उन्होंने किया था। मैंने उत्तर दिया, ‘बाईस साल से पढ़ा रहा हूँ, तब भी आप यह सवाल कर रहे हैं?’

मेरे जिज्ञासा और आश्चर्य के वशीभूत चेहरे की ओर देखकर वे बोले, ‘तब तो ठीक है।’ मैंने कहा, ‘डॉ. साहब, कुछ खुलकर तो बताइए, मेरा सवाल कुछ और था आपका जवाब कुछ और?’

एक गहरी और ठंडी साँस लेकर वे बोले, ‘अरे भई, सुबह लगभग नौ बजे की बात है, जब मैं कॉलेज आया और अपनी गाड़ी पार्क करके मुख्य लॉन से गुजरता हुआ ऑफिस की ओर जा रहा था। मैंने देखा, एक पेड़ के नीचे एक बिल्ली की लाश पड़ी है, वहाँ पानी दे रहे एक कर्मचारी से मैंने कहा, ‘देखो, इस बिल्ली को यहाँ से हटवा दो।’ उसने हाथ जोड़ते हुए बताया कि वह दिहाड़ी मजदूर है, इसलिए मैं बड़े माली से बात करूँ। मैं ऑफिस में आया और मैंने हेड माली को बुलाने का आदेश दिया। हेड माली हाथ जोड़ता हुआ आया और मुझसे आदेश माँगा। मैंने अपने स्टाइल में हँसते-मुसकराते उसे लॉन में आम के वृक्ष के नीचे पड़े बिल्ली के शव को तुरंत हटा देने के लिए कहा। उसने दोनों कानों से मेरी बात सुनी और मुख से संयत स्वर में कहा, ‘सर, अभी चेक करता हूँ।’ मैंने कहा कि चेक क्या करना, बिल्ली का शव हटाओ, वह एक कंधे से अपना अँगोछा हटाकर दूसरे पर रखते हुए बाहर निकल गया।’

दस-बारह मिनट बाद वह आया और बोला, ‘सर, चेक कर लिया हूँ, यह मेरी ड्यूटी में नहीं है। सर्विस बुक में कहीं नहीं लिखा।’ और इसके पहले मैं उसे कुछ कह पाता, वह तीर हो गया। मुझे झुँझलाहट हुई, अपमान महसूस हुआ, मैंने एस.ओ. को बुलाया, वे आए, मैंने उनके सामने समस्या रखी, उन्होंने उसे अपने पास धरा और प्रश्न फेंका—सर, इसमें मैं क्या कर सकता हूँ? मैं और झल्ला गया और उन्हें याद दिलाया कि वे सेक्सन ऑफिसर हैं, माली को वे धमकाएँ और बिल्ली उठवाएँ। एस.ओ. ने हाथ जोड़ते हुए शालीनता से उत्तर दिया, ‘सर, मेरे ऊपर ए.ओ. साहब हैं, हम सब पर उन्हीं का प्रशासन है, आप कहें तो मैं उन्हें आपके पास भेज देता हूँ। घंटेभर बाद एडमिनिस्टे्रटिव ऑफिसर आए, मैंने उन्हें सारा किस्सा बताया और मरी हुई बिल्ली को उठवाने की बात पुनः दुहराई, यह भी बताया कि माली इसे अपनी ड्यूटी नहीं मान रहा।

ए.ओ. साहब ने आत्मविश्वास संचित दीर्घ स्वर में बताया कि सच में यह माली की ड्यूटी नहीं है यह सफाई कर्मचारी की ड्यूटी है, जब भी कोई ऐसी घटना होती है, सफाई कर्मचारी ही करते हैं।

सफाई कर्मचारी के मेरे कक्ष में पहुँचने से पहले ही मैंने पाया कि मेरा तापमान काफी बढ़ चुका है। सफाई कर्मचारी ने समस्या का श्रवण किया और उसी माली की भाँति अपनी ड्यूटी सर्विस बुक देखने की बात कही, अब पारा आसमान पर था। मैंने उसे बताया कि प्रशासनिक अधिकारी बता गए हैं कि ऐसी घटना घटने पर तुम्हीं कार्य करते हो, सर्विस बुक में क्या देखना है?

कर्मचारी ने भौंहें उठाते हुए कहा—सर, मैंने कब मना किया, मैं या मेरे विभाग का कोई साथी इसे हटाएगा, पर डयूटी बुक में मुझे यह देखना है कि इसके हटाने का रेट क्या है? मैं अभी देखकर आता हूँ। मैंने उसका रास्ता रोकते हुए पूछा, इस काम के लिए क्या अलग पैसे देने होते हैं, ऐसा तो कोई नियम नहीं होता, तुम्हें तो पूरा वेतन मिलता ही होगा? उसने कॉलर ऊपर किया और कहा—सर, जब प्रोफेसर लोग वेतन मिलने के बावजूद पेपर चेक करने के पैसे लेते हैं, अतिरिक्त इनजवजिलेशन ड्यूटी के पैसे उन्हें मिलते हैं और सर, माफ कीजिए, आप गवर्निंग बॉडी की मीटिंग से बाहर जाते हैं, आपको टी.ए., डी.ए. मिलता है तो क्या हमें एक्स्ट्रा काम करने पर एक्स्ट्रा पैसा नहीं मिलेगा। मैं रूल-बुक लाता हूँ, देख लीजिएगा।

अब मैं भौंचक्का सा रूल-बुक के इंतजार में जुट गया। एस.ओ. और ए.ओ. दोनों रूल-बुक उठाए हुए सफाई कर्मचारी के साथ आए। रूल-बुक में साफ-साफ लिखा था कि किसी पक्षी या जानवर या अन्य प्रकार के जीव के शव को कॉलेज परिसर से हटाने के अतिरिक्त चार्ज देने होते हैं।

अब मैं किंकर्तव्यविमूढ़त्व को प्राप्त था। मैंने स्वर में आदेशात्मकता भरने का प्रयास करते हुए कहा, ‘ठीक है तो चार्ज दे दो, लेकिन इससे पहले कि दुर्गंध उठे, उसे उठवा दो।’

वे तीनों चले गए और पाँच मिनट बाद ही सफाई कर्मचारी रूल बुक लेकर हाजिर हो गया, उसने रूल बुक में वह पृष्ठ दिखाया, जिस पर रेट लिखे हुए थे, मुझे वह पृष्ठ दिखाते हुए कर्मचारी बोला—सर, इसमें एक पेंच है। मैं चौंककर बोला, कैसा पेंच? उसने कहा, ‘सर, देखिए, इसमें कुत्ते के शव के रेट हैं, कौवे के हैं, कबूतर के हैं, छोटी चिड़िया के हैं, मैना के भी हैं, लेकिन सर, कहीं भी बिल्ली के रेट नहीं लिखे, इसलिए यह काम हो न सकेगा। यह रूल के विरुद्ध है।’ मैंने खीझ जमा असमंजस भरे स्वर में तनिक तल्खी से कहा, अरे भाई, पैसे दे देंगे, तुम बिल्ली हटाओ, जितने बनते हैं, उतने ले लेना। वह कुटिल सी मुसकराहट के साथ बोला, ‘सर, बिल्ली का रेट क्या रहेगा, यह आप या मैं नहीं बता सकते, न एस.ओ., वे तो हमारे कॉलेज की सफाई कर्मचारी यूनियन विश्वविद्यालय की सफाई कर्मचारी यूनियन से मीटिंग करके ही बता पाएगी।’

मुझे अपने कॉलेज प्राचार्य पद का गौरव टूक-टूक होता धराशायी नजर आने लगा। रुका हुआ पारा आसमान से कूदा, मैंने क्रुद्ध साँड़ की तरह भभकते हुए कहा, ‘जानते हो, तुम प्रिंसिपल के सामने बोल रहे हो, जो यहाँ सबसे बड़ा ऑफिसर है। मैं तुम्हें नौकरी से निकाल सकता हूँ।’

मेरा स्वर सुनते ही वह अदना सा कर्मचारी मानो मुझपर चढ़ बैठा, अपनी वाणी में पर्याप्त बदतमीजी भरकर बोला, ‘प्रिंसिपल साहब, आप क्या निकालोगे मुझे, मैं यहाँ परमानेंट हूँ और आप अभी टेंपरेरी। एक टेंपरेरी आदमी परमानेंट को निकाल ही नहीं सकता, अलबत्ता परमानेंट टेंपरेरी को बाहर कर सकता है।’ कहकर वह जोर से दरवाजा उँड़ेलता हुआ मेरे कमरे से बाहर हो गया। मुझे पछतावा हुआ कि मैं अपने कॉलेज में प्रोफेसर ही ठीक था, यहाँ क्यों आया। अभी तो शुरुआत ही थी, आगे जाने क्या होता, यह तो कर्मचारी था, फिर कभी विद्यार्थी अड़ जाते और फिर लैक्चरर भी तो। सो मैंने त्याग-पत्र दे दिया। ऐसा लगा, सिर पर का अत्यधिक बोझ कम हो गया।’ उन्होंने अपनी दुखभरी दास्तान बंद की और मेरी ओर अर्थपूर्ण ढंग से निहारा।

मैं अवाक् था, क्या बोल पाता, बस मौन बैठा का बैठा रह गया।

संप्रति माथुर साहब अपने पुराने कॉलेज में फिर से कक्षाएँ लेने लगे हैं, बस उनकी हँसी अब पहले जैसी नहीं रही है।

 

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—हरीश नवल

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