आँसुओं की त्रिधारा

आँसुओं की त्रिधारा

चिकित्सा विषय पर हिंदी में लिखनेवाले प्रतिनिधि लेखक। नई दिल्ली स्थित जामिया हमदर्द के ‘हमदर्द इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज एंड रिसर्च’ में फाउंडर डीन रहे। संप्रति नेशनल हर्ट इंस्टीट्यूट, दिल्ली में सीनियर कंसल्टेंट कार्डियोलोजिस्ट। ‘हृदयवाणी’ (काव्य-संग्रह), ‘तंबाकू चित्रावली’ प्रकाशित।

आँसू अधिकतर अपार दुःख, असीम कष्ट और गहरी वेदना के प्रतीक होते हैं, कभी-कभी हर्षाश्रु भी होते हैं—काल, परिस्थिति, पात्र और चोट की गंभीरता के अनुसार अश्रु का स्वरूप भी बदलता रहता है। जो बात एक पीढ़ी में आँखों में जलधारा बहा सकती है, वही बात दूसरी पीढ़ी में नेत्रों को केवल गीला कर सकती है और तीसरी पीढ़ी तक पहुँचते-पहुँचते व्यक्ति को अंदर से मथ तो सकती है, पर व्यक्ति रोता नहीं, क्योंकि वह अति आधुनिकता का मुखौटा ओढ़े हुए होता है—यदि उसी परिवार की तीसरी पीढ़ी का व्यक्ति रो रहा है तो बात अंतस्तल को छू गई है और व्यक्ति अत्यंत मर्माहत हो चुका होता है।

बात स्वतंत्रता पूर्व की है, आज से सत्तर साल पहले की बात होगी, अंग्रेज भारत पर मजबूती से कब्जा जमाए हुए थे—गांधी बाबा आजादी का बिगुल बजा चुके थे, गाँवों की दशा अत्यंत शोचनीय थी, लखनऊ से सटे सुलतानपुर में मिसिरपुर नाम का एक छोटा सा गाँव था—पुरानी बसी बस्ती थी, उस समय मुश्किल से पच्चीस-तीस लोगों के घर होंगे। अधिकांश घर कच्चे-खपरैल के थे। सबकी एक हल की खेती थी। ज्यादातर परिवार मिश्र ब्राह्मण लोगों के थे। एक-दो तिवारी, पांडेय, पाठक लोग भी नवासे पर आकर दूसरे जिलों से बस गए थे। सब खाते-पीते लोग थे। उस गाँव के बहुत लोग पास के लखनऊ शहर में रोजी-रोटी के फेर में चले गए थे। सभी लोग पंडिताई और कर्मकांड कर अपनी रोजी-रोटी चलाते थे। पंडित जयशंकर मिश्र भी अपने बड़े पुत्र त्रिवेणी प्रसाद के साथ पैसा कमाने और घर-गृहस्थी की आर्थिक स्थिति ठीक करने के उद्देश्य से लखनऊ चले गए। वहाँ पहले से जमे-बसे गाँववालों से मिले। अमीनाबाद की एक धर्मशाला में ठहर गए। आस-पास के क्षेत्र में पंडिताई-कर्मकांड का काम ढूँढ़ने लगे। लोगों ने बताया, थोड़ी दूर पर एक हनुमानजी का मंदिर है, उसके मालिक एक पंडित की खोज में हैं, जो मंदिर में नियमित शिवार्चन कर दिया करे, बदले में उसे मंदिर में ही मुफ्त निवास मिल जाएगा।

पंडित जयशंकर को तो मानो मुँहमाँगी मुराद मिल गई। पुत्र त्रिवेणी प्रसाद के साथ वहीं डेरा डाल दिया। त्रिवेणी प्रसाद की आयु उस समय मुश्किल से पंद्रह-सोलह की होगी। त्रिवेणी प्रसाद भी बाप की तरह गाँव से काम चलाऊ पूजा-पाठ भर का संस्कृत ज्ञान लेकर लखनऊ आ गया था। बुद्धि से प्रखर था। मन में आगे पढ़ने की प्रबल इच्छा थी। हनुमान मंदिर में रहते-रहते उसे अमीनाबाद के आगे सौभाग्य से स्टेशन रोड के पास वैद्य क्षमापति पांडेय का संरक्षण मिल गया। उसने उनके निर्देशन में आयुर्वेदाचार्य की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। वैद्य की उपाधि मिल गई। अब युवा त्रिवेणी प्रसाद धीरे-धीरे करके कर्मकांडी कम वैद्य अधिक बन गया। वहीं पास के यहियागंज में एक दुकान पर स्वतंत्र वैद्यकी शुरू कर दी। अब यह उसकी आजीविका का प्रमुख साधन बन गई। थोड़े दिनों बाद जब गाँव गया तो अपने साथ बड़े पुत्र राम प्रसाद को भी ले आया। धीरे-धीरे करके जब आर्थिक स्थिति सुधरने लगी और हाथ में कुछ पैसा आ गया तो वैद्य त्रिवेणी प्रसाद ने अमीनाबाद में हनुमान मंदिर के बगल में ही जमीन खरीदकर एक मकान बनवा लिया।

त्रिवेणी प्रसाद ने कालांतर में छोटे पुत्र शिव प्रसाद और भतीजे राम किंकर को भी लखनऊ अपने पास बुला लिया। बड़े राम प्रसाद का नाम पास के मौलवीगंज के सरकारी स्कूल में लिखवा दिया। वहाँ ज्यादातर अंग्रेजी की पढ़ाई होती थी। राम प्रसाद की उम्र मात्र सात वर्ष की थी। गाँव के वातावरण से नया-नया आया था। अंग्रेजी कुछ भी नहीं समझ में आती थी। ऊपर से पूरे देश में गांधी बाबा के प्रभाव में लोग अंग्रेजी भाषा, अंग्रेजी वेश-भूषा और अंग्रेजी खान-पान के प्रति काफी नफरत रखते थे। लखनऊ में हजरतगंज, अमीनाबाद और चौक के अंदर जगह-जगह सड़कों पर नौजवानों की टोलियाँ अंग्रेज-अंग्रेजी के विरुद्ध नारे लगाती रहती थीं। बालक राम प्रसाद के कोमल मन पर इसका जबरदस्त प्रभाव पड़ा। वह स्कूल न जाकर दिनभर इधर-उधर घूमकर समय बिता देता और स्कूल की छुट्टी के समय घर वापस लौट आता। यह क्रम शुरू के एक सप्ताह तक चलता रहा। संयोग से उस स्कूल के हेड मास्टर साहेब की मुलाकात मौलवीगंज में ही वैद्य त्रिवेणी प्रसाद से हो गई। हेड मास्टर साहेब बोले, वैद्यजी आपका बेटा ठीक तो है? वह स्कूल नहीं आ रहा है। वैद्यजी के होश उड़ गए। अपने को संयत करके बोले, बिल्कुल ठीक है। घर से तो रोज स्कूल के लिए निकलता है। मास्टर साहेब, क्षमा कीजिए, आज उससे पूछूँगा, आखिर क्या बात है?

घर आकर पुत्र राम प्रसाद से बोले, का राम प्रसाद स्कूल जा रहे हो न? उत्तर मिला—हाँ, बाबू हाँ। वैद्यजी कुछ नहीं बोले, दूसरे दिन स्कूल लौटने के समय घर के बाहर चबूतरे पर बैठकर राम प्रसाद के वापस आने की प्रतीक्षा करने लगे। थोड़ी देर बाद जब राम प्रसाद स्कूल का झोला लटकाए लौटा तो वैद्य राम प्रसाद ने पूछा, का भैया स्कूल हो आए? उत्तर मिला—हाँ। पिता ने कहा, किताब-कॉपी दिखाओ, आज क्या पढ़ा-लिखा। इस पर राम प्रसाद ने चुप्पी साध ली और निरुत्तर खड़ा हो गया। वैद्यजी ने गुस्से में आव देखा न ताव उसके गाल पर दो चाँटे जड़ दिए। राम प्रसाद फूट-फूटकर रोने लगा। आँखों से जलधारा बहने लगी। यह पहला अवसर था, जब-जब राम प्रसाद के ऊपर वैद्यजी का हाथ उठा था। कठोर पिता पुत्र को रोते देखकर पसीज उठे। समझ गए, माँ के आँचल से दूर इस अनजान सफर में ये अश्रुबिंदु उसके मर्म हृदय से निकल रहे हैं। ये अश्रु बिंदु उसकी विवशता और विकलता के प्रतीक हैं। उनके नेत्र भी साश्रु हो उठे। बोले—क्या बात है? राम प्रसाद ने रूठे स्वरों में कहा—मुझे अंग्रेजी नहीं पढ़नी। स्कूल में मुझे अपमानित होना पड़ता है। मैं अपने घर की विद्या संस्कृत पढूँगा।

वैद्यजी को सारी बात समझ में आ गई। उन्होंने दूसरे दिन राम प्रसाद का नाम एक संस्कृत पाठशाला में लिखवा दिया। वहाँ राम प्रसाद का मन लग गया। थोड़े समय में उसने प्रथम और मध्यमा की संस्कृत परीक्षाएँ पास कर लीं। शास्त्री की डिग्री के लिए उसे काशी के संस्कृत कॉलेज से परीक्षा देनी पड़ी। शास्त्री में भी अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुआ। शास्त्री होते-होते घरवालों ने उसे शादी के बंधन में बाँध दिया। दो बच्चे भी हो गए। पत्नी शहर आने के लिए अलग से जिद कर रही थी। शास्त्री करने के बाद आचार्य करने को मन था। संस्कृत में व्याकरण उसे अच्छी लगती थी। वह भी पाणिनीय व्याकरण। पिता का जोर था, बेटा कमा-धमाकर घर के विस्तार और निर्माण में हाथ बँटाए।

राम प्रसाद बड़े पसोपेश में था। कुछ बड़े सेठ प्रकार के घरों में नियमित पूजा-पाठ का काम मिल गया था। घर की गाड़ी चल पड़ी। लखनऊ विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के व्याकरण आचार्य कोर्स में प्रवेश मिल गया। फीस न के बराबर थी। अपने संकल्प, अध्यवसाय, कठोर परिश्रम और भगवतकृपा से व्याकरण आचार्य की परीक्षा भी पास कर ली। आचार्य उत्तीर्ण करने के बाद शुभचिंतकों ने सलाह दी कि केवल अंग्रेजी विषय से हाई स्कूल कर लो, नहीं तो भविष्य में उन्नति के अवसर नहीं मिलेंगे। देश स्वाधीन जरूर हो गया था, पर अंग्रेजी के बिना गाड़ी आगे नहीं बढ़नेवाली। इसलिए दिन-रात मेहनत करके अंग्रेजी से हाई स्कूल भी कर लिया। लखनऊ विश्वविद्यालय में उसे कई ऐसे सहपाठी मिले, जो संस्कृत में धाराप्रवाह बात करते। इसी में से एक राजेश्वर दत्त ने उसे नगर के प्रसिद्ध वैद्य तारा शंकर से परिचय करा दिया। वैद्य तारा शंकर युवा राम प्रसाद के शुद्ध पथ और संस्कृत ज्ञान से प्रभावित होकर अपने अंतेवासी के रूप में स्वीकार कर लिया। इसका फल यह हुआ कि राम प्रसाद व्याकरणाचार्य समाप्त होते-होते आयुर्वेद विशारद भी हो गया। ताराशंकर उसे अपने वैद्यकत्व में लेकर सफल वैद्य बनाना चाहते थे, परंतु राम प्रसाद के घर की परिस्थितियाँ ऐसी थीं कि उसे अमीनाबाद इंटर कॉलेज में संस्कृत अध्यापक का पद स्वीकार करना पड़ा। इस पद पर हर महीने नियमित वेतन मिलने की गारंटी थी, जो स्वतंत्र वैद्य के रूप में संदिग्ध थी। संस्कृत अध्यापन के अतिरिक्त वह आस-पास के कुछ प्रतिष्ठित घरों में नियमित पूजा-पाठ, कर्मकांड और बच्चों को संस्कृत शिक्षण का काम भी कर लेता था। तब तक उसके चार बच्चे—दो बेटे मनमोहन और कृष्णमोहन तथा दो बेटियाँ सरस्वती और विशालाक्षी भी हो चुके थे। बड़ी बेटी सरस्वती गाँव की मान्यता के हिसाब से विवाह के योग्य हो रही थी। पिता और गाँववाले मालिक चचा का दबाव था, बेटी के हाथ पीले करो और इस उत्तरदायित्व से मुक्ति पाओ। उसके लिए पैसा जुटाना था। अच्छा वर मिलते ही बेटी सरस्वती की शादी मिसिरपुर गाँव में कर दी।

पंडितजी या राम प्रसाद के शुद्ध पाठ और सुकंठ की हर जगह प्रशंसा होती। लखनऊ में खासकर अमीनाबाद के आस-पास के कई रईस उन्हें अपने यहाँ होनेवाले मांगलिक कार्यों में अवश्य बुलाते और सम्मानित करते। इन कार्यों से होनेवाली आमदनी उनके स्कूल में होनेवाली नियमित आय को अच्छा-खासा संपूरित करती थी। उन्होंने अपने मन में दोनों बेटों को उच्च शिक्षा देने का दृढ-संकल्प कर रखा था। जहाँ ऊपर से होनेवाली यह आमदनी काम आएगी। वे बड़े पुत्र को इंजीनियर और छोटे चिरंजीव को डॉक्टर बनाना चाहते थे। उन्हें अपने दिल में कहीं-न-कहीं यह बात जरूर कचोटती रहती थी कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी संस्कृत को उतना सम्मान नहीं मिला, जितने की वह अधिकारिणी थी। उसे लोग पूजा-पाठ की भाषा समझते थे। उनके अनुसार संस्कृत में ज्ञान-विज्ञान-दर्शन के अध्ययन-अध्यापन की क्षमता थी। इस विषय पर उनके अपने कॉलेज के सहयोगियों से अकसर बहस होती थी। यद्यपि कॉलेज के सभी अध्यापक निजी तौर पर उन्हें बड़े सम्मान की दृष्टि से देखते थे। प्रणाम-नमस्कार करते, पंडितजी या राम प्रसादजी कहकर संबोधित करते, पर संस्कृत विषय के प्रति उन सबके अपने अलग-अलग विचार थे। गाँव में संस्कृत के प्रति अभी भी आदर था, सम्मान था। लोग उन्हें ही शास्त्री कहकर संबोधित करते। उनकी दृष्टि में काशी से शास्त्री की डिग्री अंतिम और सबसे बड़ी डिग्री थी। उन्हें लखनऊ से आचार्यत्व से क्या लेना-देना? उनके ससुरालवाले भी बहुत वर्षों तक उनके संस्कृत ज्ञान से प्रभावित होकर हर शादी-विवाह में होनेवाले शास्त्रार्थ में उन्हें आगे कर देते और प्रतिद्वंद्वी पंडित के तर्कों को बिना समझे-बूझे हूँ-हाँ करने लगते। सारा शास्त्रार्थ शोर-शराबे में डूब जाता। शास्त्रार्थ की रस्म समाप्त होने के बाद दोनों पंडितद्वय आपस में मिल-बैठ स्नेह और सौहार्दपूर्ण वातावरण में परस्पर विचार-विमर्श करते रहते।

ज्येष्ठ पुत्री के विवाह के बाद लौटकर जब लखनऊ आए तो दोनों पुत्रों की पढ़ाई पर ध्यान देना शुरू किया। बड़ा मनमोहन बहुत कुशाग्र और होनहार था। कॉलेज के सभी अध्यापक किशोर मनमोहन की गणित और विज्ञान की पकड़ पर पंडितजी से प्रशंसा करते न थकते। उसे इंजीनियर बनाने का आग्रह करते। वह जमाना ऐसा था, जब मनमोहन के बहुत से हमउम्र आर.एस.एस. नामक सामाजिक संस्था से प्रभावित थे। वह भी अमीनाबाद की आर.एस.एस. शाखा में नियमित जाने लगा। आर.एस.एस. के साहित्य और प्रवचन में रुचि लेने लगा। फल यह हुआ कि कॉलेज की नियमित पढ़ाई से उसका ध्यान हट गया। विद्यालय के अध्यापक उसके विषय में अरुचि की पंडित राम प्रसाद से शिकायत करने लगे। पंडित राम प्रसाद को अपने बाल्यकाल का स्मरण हो आया, कैसे शुरुआती दिनों में अंग्रेजी स्कूल नहीं गए। पिता की डाँट सही। संस्कृत की शिक्षा स्वीकार की। उसे मनोयोग से पढ़ा। उसकी सर्वोच्च डिग्री ली। पर आज के दिन संस्कृत पढ़कर क्या मिला? एक स्कूल की मास्टरी, जिसके अकेले बल पर गृहस्थी चलाना मुश्किल। बिना ज्ञान-विज्ञान की विधिवत् पढ़ाई के आगे कुछ नहीं होने का। अपने होनहार पुत्र को, जिससे उन्हें बड़ी आशाएँ थीं, विपथगामी होता देखकर वे अंदर-ही-अंदर बहुत उद्विग्न थे। घर में राय बनी कि विवाह-सूत्र में बाँध दो। चंद्रमुखी मिल जाएगी, शाखा-वाखा सब भूल जाएगा। शादी कर दी, पर शाखा का चस्का ऐसा, जो सहज छूटनेवाला नहीं था।

साथी अध्यापक उलाहना देते, पंडितजी आपका बेटा पढ़ाई पर उतना ध्यान नहीं दे रहा, जितना देना चाहिए। पंडित राम प्रसाद ने घर आकर पत्नी के सामने बड़े पुत्र की शाखावाले कार्य-कलाप और उसके फलस्वरूप अध्ययन पर दुष्प्रभाव का जिक्र किया। अपने सपने को टूटते हुए देखकर उनकी आँखों में आँसू उतर आए। फफक-फफककर एकांत में रोने लगे। पत्नी बहुत समझदार थी। बोली, ईश्वर पर भरोसा रखिए, सबकुछ ठीक हो जाएगा। पर पंडितजी के आँसू थे कि रुकने का नाम न लेते थे। यह उस परिवार के दूसरी पीढ़ी का अश्रु-प्रपात था। इसी बीच बड़ा चिरंजीव मनमोहन भी आ गया। पिता को साश्रु देखकर वह भी भाव-विह्वल हो गया, रोने लगा। पिता को वचन दिया, पढ़ाई में कोई कोर-कसर नहीं रखूँगा। हुआ भी यही, इंटर बोर्ड की परीक्षा में मनमोहन प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ। पंडित राम प्रसाद की बाँछें खिल गईं। उनके किसी शुभेच्क्षु ने सलाह दी, पंडितजी टेलीफोन विभाग में डिप्लोमा अप्रेंटिसशिप का आवेदन-पत्र माँगा जा रहा है। प्रार्थना-पत्र भरवा दीजिए। आगे चलकर फोन-इंजीनियर हो जाएगा। हाई स्कूल और इंटर प्राप्तांक के बल पर मनमोहन का अप्रेंटिसशिप में चयन हो गया। अब वह जब नियमित सरकारी नौकरी और प्रणय-सूत्र के दो बंधनों में बँध गया तो थोड़े दिनों के लिए ही अन्य सभी बातें भूल जाएगा। सरकारी कार्य और वैवाहिक उत्तरदायित्व के दो पाटों के बीच जीवन नौका चल पड़ी।

बड़े चिरंजीव के लाइन पर हो जाने के बाद अब पंडित राम प्रसाद का ध्यान अपने छोटे पुत्र पर गया। पंडितजी के ज्योतिषी मित्र कहते थे, लड़का डॉक्टर बनेगा। पंडितजी यह सुनकर अत्यंत पुलकित होते। पर छोटे बेटे की अभिरुचि विज्ञान की अपेक्षा हिंदी, अंग्रेजी जैसे विषयों पर अधिक थी। बोर्ड की परीक्षा में उसे हिंदी-अंग्रेजी में काफी अच्छे अंक मिले। विज्ञान में उतने अच्छे अंक नहीं मिले, फिर भी पंडितजी बेटे को डॉक्टर बनाने का अपना सपना नहीं छोड़ा। आखिर उनके विश्वस्त ज्योतिषी मित्र की भविष्यवाणी जो थी। इंटर पास करते ही उसकी शादी अपने पैतृक घर कादीपुर गाँव जाकर कर दी। बड़े-बूढ़ों और धर्मपत्नी का आग्रह जो था। शादी से लौटकर आने के बाद उसे प्री-मेडिकल टेस्ट में बैठाया। संयोग से एम.बी.बी.एस. में उसका चयन पास के इलाहाबाद मेडिकल कॉलेज में हो गया। पंडितजी बड़े खुश थे। इलाहाबाद कोई दूर नहीं। सरकारी कॉलेज है। फीस भी अधिक नहीं होगी। कृष्णमोहन का एम.बी.बी.एस. में विधिवत् एडमिशन होने के बाद बड़े धूमधाम से घर पर गणेश पूजन कराया। शुद्ध वैदिक मंत्रोच्चार और सस्वर पाठ के बीच पूजा संपन्न हुई। उनके समस्त आत्मीय मित्र और पंडितगण खुशी के इस अवसर पर सम्मिलित हुए। समय बीतता गया। कृष्णमोहन की एम.बी.बी.एस. की पढ़ाई यथासमय पूरी हुई। मनोनुकूल विषय था। एक दिन भी बिना नष्ट किए उसने अपनी पढ़ाई पूरी की। फिर एम.डी. भी की। संयोग से वहीं काम भी मिल गया। इलाहाबाद रहकर कृष्णमोहन का संपर्क अपने जन्मस्थान कादीपुर और ननिहाल दोनों स्थानों से बना रहा इस बीच बड़े पुत्र को भी अपने विभाग में उच्च पद पर पदोन्नति मिल चुकी थी। वह दिल्ली में कार्यरत था।

पंडित राम प्रसाद की सेवानृवित्ति का समय अब नजदीक आ रहा था। उन्हें शीघ्र ही तय करना था कि कादीपुर अपनी जन्मभूमि लौट चलें या लखनऊ में रम जाएँ। बड़े अंतर्द्वंद्व में थे। उनकी अंतरात्मा जन्मभूमि के पक्ष में थी। इसी उधेड़बुन के बीच एक दिन वह लखनऊ से कादीपुर पहुँच गए। रिटायर होने के बाद गाँव लौटने के विचार से कादीपुर जाकर वहाँ की स्थिति का आकलन करने के लिए गए थे। करीब पंद्रह वर्ष के लंबे अंतराल के पश्चात् वह गाँव पहुँचे थे। सोचा था, अब जीवन के शेष दिन यहीं व्यतीत करूँगा। बहुत दिन शहर में काट लिये। शुरू के दिन तो ठीक-ठाक बीते, परंतु जैसे ही वहाँ जमे स्वजनों को पंडित रामप्रसाद के कादीपुर स्थायी रूप से लौट आने का और शेष जीवन वहीं व्यतीत करने का पता चला तो उन सबके हाव-भाव ही बदल गए। उन्हीं के अपने आत्मीय बंधु-बांधव कहने लगे—यहाँ आपका रखा क्या है? पंडित राम प्रसाद अपने मन में सोचने लगे, क्या यह वही कादीपुर है, जिसे मैं छोड़कर लखनऊ गया था? मेरे बचपन का कादीपुर कितना अलबेला था? अत्यंत उदार और सहिष्णु, यहाँ सभी तो थे—मास्टर, प्रोफेसर, कंपाउंडर, डॉक्टर, होमगार्ड, मेजर, मदनमोहन मालवीय के नाम से पुकारे जानेवाले लोग। कोई नंबरदार तो कोई डिप्टी। कोई शास्त्री, कोई कलेक्टर, मुफ्त में अधिकारी कहलानेवाले साहिब लोग। यह बात दीगर थी की इनमें से अधिकांश ने कॉलेज या यूनिवर्सिटी का मुँह भी नहीं देखा था।

पर आज उन्हें उस सदाशयता में विकट परिवर्तन दिखा रहा था। अब लोग बात-बात में झगड़ा कर रहे थे। तेरी नाँद यहाँ कैसे? मेरा खूँटा यहीं गड़ेगा? मेरे सेहन के आगे तेरा परनाला कैसे? मेरी नीम के नीचे तेरी चारपाई बिछी कैसे? ये मेरी मेंड़ है, मेरा खेत है। आजी की बगिया का असली वारिस मैं हूँ। वास्तविक नवासे पर मैं हूँ। आम तुमने कैसे बीने? बात तू-तू, मैं-मैं से होकर फौजदारी में बदल जाती है। झूठे मुकदमे गढ़े जाते हैं। गाँव के कई लोग छोटी-छोटी बातों पर कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगा रहे थे। इस चक्कर में एक घर की पूरी पीढ़ी खप गई थी। तबाह हो गई थी, पर कोर्ट का सिलसिला समाप्त होता दिखाई नहीं दिख रहा था। एक परिवार में बाप लड़के से भाई-भाई से मुकदमा लड़ रहा था। डॉक्टर, मुंसिफ, इंजीनियर होकर भी लोग मुकदमा लड़ना नहीं छोड़ना चाहते। उन्होंने अपनी आँखों से देखा कोर्ट का ऐसा चस्का है, जो छुड़ाए नहीं छूटता। पुश्तैनी मकान ढह गया था। खेत बटैया पर चले गए थे। कई जमीनें इस चक्कर में बंजर हो गई थीं। किसी-किसी के घर में दीवाली बिना दीया जलाए घोर अँधेरे में बीत गई थी। पर लोग हैं कि मुकदमा लड़ना नहीं छोड़ना चाहते। कोर्ट-कचहरी का चक्कर लगाना उनकी दिनचर्या का अभिन्न अंग बन गया था। इसके बिना उनका खाना हजम नहीं होता था। निपटान साफ नहीं होती थी। ऐसे ही मुकदमेबाज परिवार के मुखिया को संयोग से विधाता ने अपने पास बुला लिया था। पर उनके योग्य वंशज मुकदमेबाजी की परंपरा को जारी रखे हुए थे। आखिर पिता की आत्मा को शांति मिलेगी कैसे? मुकदमेबाजी के नशे में जो मजा है, वह कहीं और कहाँ मिलेगा? अपने आत्मीयों का बेरुखापन और गाँव की ऐसी स्थिति देखकर पंडित रामप्रसाद की आँखों में आँसू आ गए। लखनऊ में रुकूँ या कादीपुर अपनी जन्मस्थली में रहूँ, इस अनिश्चय और अंतर्द्वंद्व के बीच पंडित रामप्रसाद लखनऊ वापस लौट आए।

लखनऊ आकर गाँव में रहने केविषय पर विचार कर ही रहे थे कि एक दिन अचानक उनका पेशाब रुक गया। संयोग से उस दिन बड़े पुत्र मनमोहन भी किसी आधिकारिक कार्य से लखनऊ आए हुए थे। उन्हें मेडिकल कॉलेज के इमरजेंसी में ले गए। मूत्राशय में कैथीटर डालकर पेशाब निकाल दिया गया। उपस्थित डॉक्टरों ने बताया, पंडितजी का प्रोस्टेट बढ़ा हुआ है। ऑपरेशन की जरूरत है। इमरजेंसी में थोड़ी देर रखकर उन्हें छुट्टी दे दी गई। घर पहुँचकर बड़े पुत्र ने कहा, मेरे साथ दिल्ली चलिए। वहीं पर प्रोस्टेट का ऑपरेशन करा देंगे। परंतु पंडित राम प्रसाद इलाहाबाद स्थित अपने डॉक्टर पुत्र के यहाँ जाने के पक्ष में थे। इसलिए उन्हें उसी रात ट्रेन से इलाहाबाद ले जाया गया। भोर होते ही कृष्णमोहन के सरकारी आवास पर पहुँच गए। अचानक बिना किसी पूर्व सूचना के पिता को बीमार पाकर डॉक्टर कृष्णमोहन थोड़ी देर के लिए स्तब्ध हो गए। बड़े भाई मनमोहन ने बताया कि पिताजी को पेट में भयंकर दर्द है। पेशाब रुक गया है। कृष्णमोहन बिना एक क्षण गँवाए पिता को अस्पताल की एमरजेंसी में ले गए। मूत्र विशेषज्ञ आए। उन्होंने कहा, प्रोस्टेट बढ़ा हुआ है। कैथीटर डालते हैं। खून, पेशाब, एक्स-रे करते हैं। सुबह ऑपरेशन का निर्णय लेंगे।

अर्धरात्रि में पंडित राम प्रसाद को एक उल्टी हुई। उल्टी करने का ढंग और उसकी तीव्रता ऐसी थी कि चिकित्सक पुत्र को यह भाँपने में देर न लगी कि यह उल्टी प्रोस्टेट के कारण न होकर आँत के अंदर किसी अन्य जटिलता के कारण हुई है। सबेरा होते-होते उस विद्यालय के सबसे कुशल और सुप्रसिद्ध सर्जन डॉक्टर सेठ को दिखाया। उन्होंने पंडित रामप्रसाद को विधिवत् देखा और हो न हो, यह एपेंडिसाइटिस हो, जिसके फलस्वरूप खून में इन्फेक्शन फैल गया है और धीरे-धीरे गुर्दे विफल हो रहे हैं। तुरंत ऑपरेशन जरूरी है। इधर ऑपरेशन अपरिहार्य था, उधर पंडित राम प्रसाद की हालत क्षण-प्रतिक्षण बिगड़ती जा रही थी। ब्लड प्रेशर गिर रहा था। बड़े भाई मनमोहन पिता को भरती कराकर दिल्ली जा चुके थे। घर पर पत्नी तीन छोटे-छोटे बच्चों को लेकर अकेले सारी घर-गृहस्थी सँभाल रही थी। मुश्किल से तीन महीने की एक बच्ची गोद में थी। कृष्णमोहन बड़ी दुविधा में थे। ऐसे में ऑपरेशन कराएँ, न कराएँ? एक-एक क्षण कीमती था। कृष्णमोहन के अपने आचार्य, जिनके अंदर उसने अपनी एम.डी. की थी, से बात की, उन्होंने कहा कृष्णमोहन, ऑपरेशन नहीं कराने पर तुम्हारे पिता बचेंगे नहीं। रक्तपूयता इतनी बढ़ जाएगी कि गुर्दे काम करना बिल्कुल बंद कर देंगे, ऐसी दशा में मृत्यु सुनिश्चित है। उस समय पूरे इलाहाबाद में कहीं भी कृत्रिम गुर्दे की सुविधा उपलब्ध नहीं थी। भगवान् पर भरोसा रखो और ऑपरेशन करा डालो।

कृष्णमोहन ने तत्काल ऑपरेशन में मृत्यु की संभावना का खतरा मोल लेकर शल्य क्रिया के लिए अपनी सहमति दे दी। अपने विश्वस्त मित्रों और संबंधियों को काम बाँटकर खुद ऑपरेशन थिएटर से सटे एक कक्ष में अपने इष्ट देव की ध्यान-प्रार्थना में लग गए। ऑपरेशन करीब आधे घंटे तक चला। सर्जन सेठ ने ऑपरेशन के बाद बताया, एपेंडिक्स पेट के अंदर फट गया था। मवाद उसके चारों ओर फोड़े की भाँति फैल गया था। आँतें विषमय और लाल थीं। पंडितजी की नाजुक अवस्था को देखते हुए वहाँ के मवाद को बाहर निकलने का साधन बना पेट बंद कर दिया गया था। पेट से मवाद खून के रास्ते गुर्दे को प्रभावित कर रहा था। उन्हें पिछले छह घंटे से बहुत कम पेशाब हुई थी। यह सब देखते हुए आगे के चौबीस घंटे बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्ध होंगे। अब सबकुछ विधि के हाथों में है। ऑपरेशन वाली रात कृष्णमोहन पिता के बिस्तर के किनारे बेंच पर बैठकर अपलक मूत्राशय में पड़ी रबर नलिका को निहारता रहा। कब उसमें से मूत्र की बूँदें टप-टप कर गिरें और गुर्दे के सक्रिय होने का प्रमाण मिले।

ऑपरेशन के चार घंटे बीत चुके थे। मूत्र गिरने का कोई नामोनिशान न था। कृष्णमोहन को एक-एक पल भारी हो रहा था। तब तक लखनऊ अमीनाबाद और दिल्ली ट्रंकाल द्वारा सूचना दी जा चुकी थी। सब लोग धड़ाधड़ ट्रेन से इलाहाबाद सीधे अस्पताल में पहुँच रहे थे। सबसे पहले माँ पहुँची। आते ही उन्होंने पंडित रामप्रसाद की नाड़ी पर हाथ रखा। हथेली छुई, पैरों के दोनों तलुए छुए। फिर एक अनुभवी वैद्य की तरह पुत्र को आश्वस्त करती हुई बोली, भैया हाथ-पैर गरम हैं। नाड़ी ठीक चल रही है। सब ठीक हो जाएगा। फिक्र मत करो। यह कहने के पूर्व वह अपने श्वसुर वैद्य सरयू प्रसाद के चित्र के सम्मुख हाथ जोड़कर प्रार्थना करके आई थीं—‘बाबू, अपने यहाँ सब सुहागिन होकर गई हैं, फिर मैं ही ऐसी क्या अभागिन हूँ? आशीर्वाद दीजिए, आपका पुत्र जल्दी ठीक हो जाए।’ इस प्रार्थना के पीछे बहुत बल था, यही संबल उन्हें पुत्र को ढाढ़स बँधाने का काम कर रह था। तब तक कृष्णमोहन को मूत्राशय से जुड़ी पारदर्शी रबर नलिका में मूत्र की बूँदें टपकती दिखाई दीं। ये बूँदें उसे अमृततुल्य लगीं। वह हर्षोन्मत्त हो उठा। माँ से बोला देखो, पेशाब बनना शुरू हो गया। माँ यह सुनकर साश्रु हो उठीं। पुत्र भी भावुक होकर अश्रुवत् हो गया। माँ के अंक से लिपट गया। युग्म आँसुओं की जलधारा बहने लगी। अत्यंत अद्भुत दृश्य था। मिश्र परिवार की तीसरी पीढ़ी अश्रुमय थी। माँ के करुणाश्रु, पुत्र के हर्षाश्रु और रुग्ण पिता के सुप्ताश्रु की त्रिधारा का सम्मिलन का क्षण था यह।

हमदर्द इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस ऐंड रिसर्च

एसोसिएटेड हकीम अब्दुल हमीद सेंटेनरी हॉस्पीटल

जामिया हमदर्द (हमदर्द यूनिवर्सिटी)

नई दिल्ली-११००६२

दूरभाष : ९८१८९२९६५९

—श्रीधर द्विवेदी

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