बेंगलुरु में बीस दिन

बेंगलुरु में बीस दिन

सुपरिचित लेखक। अब तक चुप्पियाँ चुभती हैं (गजल-संग्रह), अकड़ूभुट्टा, नकटी नाक (निमाड़ी हाइकु-संग्रह) नवसाक्षरों के लिए पाँच पुस्तिकाएँ, बिना पते का प्रशंसा-पत्र (व्यंग्य-संग्रह), खोलो मन के द्वार (दोहा-संग्रह), सफेद कीड़े (कहानी-संग्रह) प्रकाशित। पं. देवीदत्त शुक्ल स्मृति सम्मान, आंचलिक साहित्यकार सम्मान एवं अन्य सम्मान।

मैं मूलतः यात्रा भीरू हूँ, घर के बाहर घर जैसा आराम कहाँ, जैसी मानसिकता वाला। पर एक ही जगह पर रहते हुए आदमी ऊब जाता है। आखिर एक जैसे मकान, एक जैसे रास्ते, एक जैसे पेड़-पौधे और चेहरे आदमी कब तक देखे। हर आदमी को नए रास्ते, नए मकान, नए पेड़-पौधे कुछ तो नया चाहिए। मुझे अनजानी जगहों पर जाना असुविधाओं को बुलावा देना लगता है। मैं अनजाने डर से घिर जाता हूँ। असहज हो जाता हूँ। पर अनजाने और नए का आकर्षण भी होता है—एक अदम्य आकर्षण। इससे बचा नहीं जा सकता। मैं भी इस आकर्षण की गिरफ्त में था। फिर जहाँ मुझे जाना था, वह भी मेरा अस्थायी ही सही, घर ही था। हाँ, उस शहर में पहली बार जा रहा था और पहली बार का आकर्षण रहता ही है।

बड़ा बेटा विनय बेंगलुरु में सॉफ्टवेयर इंजीनियर है। नवंबर, २०१८ में दीपावली के बाद उसने गूगल ज्वॉइन किया था। जब वहाँ एक सोसायटी में फ्लैट रेंट पर ले लिया और सामान सेटल कर लिया तो उसने हमारे लिए तीन एयर टिकट बुक करवा दिए—दो हम पति-पत्नी और हमारे छोटे बेटे निखिल के लिए।

इंदौर से उड़ान भरकर १ फरवरी, २०१९ की रात को हम बेंगलुरु के केंपेगौड़ा इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर उतरे। बेल्ट से बैग उठाकर अच्छी तरह नाम चेक किए। यह चेक करना बहुत जरूरी लगा। पिछली बार इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एअरपोर्ट दिल्ली में ट्राली बैग उठाने में गच्चा खा चुके थे। गफलत महँगी पड़ी थी। खैर, वह एक अलग कहानी है। चेक करने के बाद हम सामान लेकर बाहर निकले। निखिल ने मोबाइल के जरिए कैब बुलवाई। कैब कई मोड़ों, पुलों और अंडरपासों से गुजर रही थी। हम उत्सुकता से रोशनी में चमचमाते पेड़ों, फूलों और ऊँची इमारतों को देखते जा रहे थे। आखिर सोसायटी के गेट से होते हुए फ्लैट तक पहुँचे।

अगले ही दिन विनय हमें भारतीय जलपान गृह नाश्ते के लिए ले गया। इससे पहले सोसायटी के पास ही उसने हमें डी.आर.डी.ओ. क्षेत्र के गेट नंबर तीन से प्रवेश करवाकर भ्रमण करवा दिया था। सुझाव भी दिया था कि सुबह घूमने के लिए मैं इस क्षेत्र में आ सकता हूँ। वहाँ कतारबद्ध खड़े बड़े-बड़े मोटे तनेवाले ऊँचे छायादार सैकड़ों पेड़ हैं। पेड़ों की शाखाएँ ऊपर मिलकर सायबान-सा बना रही थीं। पेड़ों पर तने की छाल पर उनकी क्रम संख्याएँ भी अंकित हैं। हर पेड़ को एक नंबर दिया गया था। हर पेड़ का एक नंबर था।

बेटा जॉब पर जहाँ-जहाँ रहा, वहाँ-वहाँ हमें बुलाता रहा। हैदराबाद, गुरुग्राम (गुड़गाँव) और अब बेंगलुरु। हैदराबाद में बड़े-बड़े गोल पत्थरों ने अचरज से भर दिया था। प्राकृतिक वातावरण के बीच अत्याधुनिक और सर्वसुविधा संपन्न माइक्रोसॉफ्ट के ऑफिस की बिल्डिंगें देख मन खिल उठा था। वह स्थान बहुत सुंदर था। वहाँ एक छोटे से तालाब के पास हरियाली में मोर को विचरण करते हुए देख तो सुखद आश्चर्य हुआ था। लग रहा था कि प्रकृति को कम-से-कम नुकसान पहुँचाकर उसे अधिकाधिक सुरम्य बनाया गया है। उसे देखते हुए मन बार-बार पूछ रहा था कि क्या जन्नत यहीं है। हर जगह के लोगों का मिजाज और मिट्टी का रंग अलग-अलग होता है। गुरुग्राम और दिल्ली के आसपास की मिट्टी पीले रंग की है, जबकि बेंगलुरु की मिट्टी का रंग लाल है।

बेंगलुरु में हर जगह दुकानों-कार्यालयों के साइन बोर्डों पर कन्नड़ और अंग्रेजी में लिखा हुआ है। केवल डी.आर.डी.ओ. कैंपस में स्थित केंद्रीय विद्यालय के बोर्ड पर ही कन्नड़ और अंग्रेजी के साथ हिंदी में लिखा हुआ मिला था। कन्नड़ की लिखावट बहुत आकर्षक और सुंदर लगी। लिखावट ऐसी कि जैसे चित्रों की शृंखला हो। कन्नड़ में कई गोलाइयाँ और हुकनुमा आकृतियाँ होती हैं। कोई वर्ण मुड़ी हुई भुजा-सा, कोई वर्ण अंग्रेजी के आठ अंक-सा किंतु आड़ा पड़ा हुआ। कोई वर्ण जैसे हाथी सूँड़ उठाए हुए। कोई वर्ण गरदन उठाए कमर की ओर मुख मोड़े चौकन्ने हिरण-सा।

तीन फरवरी की सुबह ही हम बेटे द्वारा चयनित एक उपहार गृह में लोहे की फेंस के पास ही कार पार्क कर नाश्ता कर रहे थे—इडली-सांभर-डोसा-दही बड़ा आदि। विनय ने अपने लिए फिल्टर कॉफी का ऑर्डर दे दिया था। तभी बदन पर एक सस्ती-मैली साड़ी लपेटे अधेड़ महिला कहीं से आई और हमसे भोजन दिलवाने की लगातार याचना करने लगी। वह धारा-प्रवाह अंग्रेजी में बोल रही थी, ‘गीव मी सम फूड...पार्सल...आय एम हंगरी...आय हेव फोर्टी ईयर मेंटली रिटायर सन...आय’म लाइक योर मदर...प्लीज गीव मी फूड।’ वह काफी देर तक मिन्नत करती रही। ‘फूड-फूड’ की रट लगाती जा रही थी। बहुत अजीब लग रहा था, पर हम उससे उलझे बिना अपना नाश्ता करते रहे। जब उसे लग गया कि हम उसे भोजन या नाश्ते का पार्सल दिलवाने वाले नहीं हैं, तब उसने याचक का चोला छोड़कर रणचंडी का रौद्र रूप धर लिया और एक निश्चित दूरी पर जाकर हम पर धुआँधार बरसने लगी। ललकारने लगी। वह बार-बार हमारे लिए...‘यू कुड़ल्ली...यू कुड़ल्ली...’ या ऐसा ही कुछ बके जा रही थी। कुड़ल्ली का कोई अर्थ पकड़ में नहीं आ रहा था, पर इतना जरूर समझ में आ रहा था कि वह हमें अपनी भाषा में शाप दे रही थी। यह स्थिति हमें विचलित और शर्मिंदा कर रही थी। मुझे ‘रोटी’ और ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ जैसी फिल्मों की याद आने लगी। जीवन की पहली और मूल आवश्यकता है—रोटी। जब तक सभी की भूख नहीं मिटती, हम सुख से खा नहीं सकते। मुझे जगमग उजाले के भीतर का अँधेरा नजर आने लगा था। अखबारों के वे शीर्षक और टी.वी. की वे खबरें याद आने लगीं, जिनमें रखरखाव की लापरवाही के चलते बरसात में खुले में पड़ा कितना ही अनाज सड़ जाने का जिक्र होता है और ये खबरें हर साल बनी रहती हैं। इसके बाद जब हम कब्बन पार्क में गए थे, तब वहाँ भी एक आबनूसी रंग की वृद्ध महिला भीख माँगने के लिए हाथ आगे करके खड़ी थी। उसकी आँख-से-आँख मिलाना मुश्किल हो रहा था। उसकी आँखों में निरंतर एक असहनीय लाचारी टपक रही थी। उसके मुँह से एक शब्द भी निकल नहीं पा रहा था, पर आँखें इतनी बोल रही थीं कि उन बोलों को सह पाना मुश्किल था।

सोसायटी के पास मॉल और ठेले पर खुले में बिकनेवाली सब्जियाँ काफी महँगी होती हैं। के.आर. पुरम मार्केट के बारे में प्रियंका ने अवगत कराया। उसने बताया कि केआर पुरम मार्केट में मंगलवार को हाट पड़ता है, वहाँ सब्जी और फल वगैरह सस्ते मिलते हैं। हमने वहाँ जाकर सब्जियाँ और फल लाने का निश्चय किया। प्रियंका फ्लैट में बरतन, झाड़ू-पोंछा करने आती है। आठवीं तक पढ़ी है। पूछने पर कि आगे क्यों नहीं पढ़ी, बताया कि फैमिली में एक प्रॉब्लम आ जाने से आगे नहीं पढ़ पाई। उस प्रॉब्लम के बारे में पूछना मुझे अशोभनीय लगा, इसलिए नहीं पूछा। कन्नड़भाषी प्रियंका ठीक-ठाक हिंदी बोल लेती है। वहाँ स्कूल में कन्नड़, अंग्रेजी और हिंदी तीनों भाषाएँ पढ़ाई जाती हैं।

यहाँ की जगहों और सड़कों के नाम जल्दी जुबान पर नहीं चढ़ रहे थे। उन्हें याद करने के लिए तरकीब लगानी पड़ी। बैंगनाहल्ली, बायपन्नाहल्ली, वरथुर रोड, कागादास रोड। इनके हिज्जे यही सही हो, मैं कह नहीं सकता। यह हमारी समस्या अधिक थी। वहाँ के रहवासी कन्नड़भाषियों के लिए तो इनका उच्चारण सहज होगा। बहू अंकिता ने बताया कि यहाँ गाँव को ‘हल्ली’ कहते हैं। मैं समझ गया कि इसीलिए कई स्थानों के साथ ‘हल्ली’ लगा हुआ है। अनजाने में एक सूत्र पकड़ में आ गया। नगर जब महानगर बनते हैं तो आसपास के गाँवों को निगल जाते हैं, पर उनके नाम अकसर वैसे ही जीवित रहते हैं। जबान पर चढ़ा था—आरके स्टूडियो। इसे उल्टा करके याद रखना पड़ा। आरके का उल्टा केआर और उसके साथ में पुरम लगा दो तो हो गया आरके पुरम। बैंगनाहल्ली को बैंगन से याद रखना पड़ा। के.आर. पुरम जाने के लिए बैंगनाहल्ली बस स्टॉप से बस पकड़ना थी।

दस फरवरी को साहित्यकार मित्र आचार्य बलवंत से कब्बन पार्क में मिलना तय हुआ था। हालाँकि इस बीच हम लालबाग पार्क और कब्बन पार्क देख चुके थे। चूँकि यह पार्क हम दोनों के निवास के बीच में पड़ता था, इसलिए वहीं हमने मुलाकात तय की थी। इस तरह मुझे कब्बन पार्क दुबारा जाना पड़ रहा था। मैं मेट्रो से कब्बन पार्क स्टेशन पर पहुँचा। स्टेशन से जैसे ही बाहर हुआ बलवंतजी टैक्सी वाले से बात करते हुए मिल गए। तसवीरों से बाहर मैं पहली बार उनसे मिल रहा था। उनसे जब मोबाइल पर बात होती थी तो लगता था कि कोई बुजुर्ग होंगे। पर प्रत्यक्ष देखने पर सच सामने था। आबनूसी रंग के बलवंतजी मुझसे सात-आठ साल छोटे थे, पर कद उनका छह फुट था, मुझसे कोई छह-सात इंच अधिक। ये वे ही शख्स थे, जिन्होंने मेरी कहानी ‘सुखदेव की सुबह’ पर समीक्षा लिखी थी। उस पर बात कर उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया तो दी ही थी। ‘परिकथा’ में छपी यह कहानी उन्हें बहुत पसंद थी। इससे पहले मेरा उनसे कोई परिचय नहीं था।

तेरह फरवरी को बारह बजे के आसपास जब लिफ्ट से नीचे उतरा तो बाहर धूप खिली हुई थी। सुबह आसमान पर बादल छाए हुए थे। हवा में ठंडक थी। इसीलिए यह खिली हुई धूप बहुत भली लग रही थी। मैं पैदल चलते हुए सोसायटी के गेट से बाईं ओर कागादास रोड की ओर मुड़ गया। मुझे इधर अधिक धूप मिलने की संभावना लग रही थी। घूमने के लिए मैं किसी भी रोड पर निकल पड़ता।

फुटपाथ पर कुछ आगे बढ़ा तो सामने से एक मुसलिम युवती काला बुरका पहने आ रही थी। उसने बच्चे का हाथ पकड़ रखा था। वे दोनों माँ-बेटे ही होंगे। बच्चे ने सफेद रंग की नेकर पर सफेद रंग का हाफ आस्तीन का शर्ट पहन रखा था। बच्चा बहुत सलोना लग रहा था। उसे उसकी मम्मी लगभग खींचकर लिये जा रही थी, पर बच्चे का ध्यान तो कहीं और था। वह इधर-उधर देखे जा रहा था। उसके चलने और देखने में कोई सामंजस्य नहीं था। माँ उसे आगे चला रही थी, पर बाजार देखने का मोह उससे छूट नहीं पा रहा था। उसे देख मुझे अपना बचपन याद आ गया। मैं ऐसे ही देखने के चक्कर में मेले में गुम हो चुका था। मुझसे माँ का हाथ छूट गया था। फिर मेरे नाम का एनाउंस हुआ था। खिली हुई धूप में दो रंग थे एक काला और दूसरा सफेद। मैं उन्हें देख निहाल हो गया। काला अतीत का रंग था और सफेद भविष्य का। अतीत पर भविष्य की जिम्मेदारी थी। उसे भविष्य को बचाते हुए मंजिल तक ले जाना था।

चौदह फरवरी वेलेंटाइन डे की सुबह सर सी.वी. रमन बस स्टाप पर एक अजनबी युवक अनिरुद्ध वरखेड़े से परिचय हुआ। वह बस स्टैंड पर बैठकर कॉलेज जाने के लिए अपनी बस का इंतजार कर रहा था। मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि उसने ग्रैजुएशन में एक विषय मनोविज्ञान भी ले रखा था। वैसे मनोविज्ञान विषय कम ही विद्यार्थी लेते हैं। वह बढि़या हिंदी बोल रहा था, जबकि वह वहीं का निवासी था और उसका परिवार हिंदीभाषी नहीं था। अच्छी हिंदी का कारण पूछने पर बताया कि वह केंद्रीय विद्यालय में पढ़ा है और वहाँ उसके स्कूल के कई दोस्त हिंदीभाषी थे। उन्हीं के साथ रहकर वह बढि़या हिंदी बोलना सीख गया था। वैसे स्कूल में एक भाषा हिंदी थी ही।

उस दिन घूमकर जब फ्लैट पर वापस आया तो टी.वी. पर आतंकवादी हमले की खबरें चल रही थीं। पुलवामा में जम्मू-कश्मीर में हाईवे पर बड़ा आतंकी हमला हुआ था। इसे उड़ी से बड़ा हमला माना जा रहा था। तब उन्नीस जवान शहीद हुए थे और अब इस हमले में सी.आर.पी.एफ. के उनतालीस से अधिक जवान शहीद हुए। बस में इकतालीस जवान सवार थे। स्कारपीओ में करीब तीन सौ किलोग्राम विस्फोटक बताया जा रहा था। स्कीरपीओ जवानों की बस से टकराई थी। वेलेंटाइन डे के माथे पर इस आतंकी हमले का कलंक चिपक चुका था।

पंद्रह फरवरी की सुबह मैंने गौर किया कि मैं सोसायटी के गेट से घूमने के लिए जब दाहिनी ओर मुड़ता हूँ, तब चार कदम की दूरी पर ही बैठा हुआ एक बीमार कुत्ता डी.आर.डी.ओ. की कॉलोनी की बाउंड्री से सटे फुटपाथ पर मिल जाता है। एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि सुबह मैंने उसे वहाँ बैठा हुआ न पाया हो। कुत्ते का रंग भूरा था, जिस पर काली चित्तियाँ पड़ी हुई थीं। मैंने उसे भूरिया नाम दे दिया था। वह अपना मुँह टाँगों के बीच डाले दीन-हीन सिकुड़ी हुई मुद्रा में बैठा रहता था। वह कुछ दिनों का ही मेहमान लग रहा था। उसका बदन काँपता रहता था। उसकी जबान बाहर निकली हुई रहती थी। उसकी आँखों में दर्द और पसरी हुई उदासी को आसानी से पढ़ा जा सकता था।

उस दिन आखिर सँकरी और घुमावदार गलियों को पार करता हुआ मैं उस जगह पर पहुँच गया, जिसे नीचे की ओर हम आठवीं मंजिल की बालकनी से उत्सुकता देखा करते थे। मन में उस जगह पर पहुँचकर ऊपर बालकनी और फ्लैट को देखने की मेरी इच्छा बलवती थी। मुझे वहाँ पहुँचने में करीब आधा या पौन घंटा लगा होगा। पर वहाँ पहुँचकर मुझे किसी बच्चे जैसी खुशी महसूस हुई। मुझे लगा, अभी मेरे भीतर एक बच्चा जिंदा है, जिसे नई जगह देखकर खुशी होती है। मैंने सोसायटी की बाउंड्री से बाहर ऊपर नजरें उठाकर बी ब्लॉक की बहुमंजिला इमारत में अपने फ्लैट की बालकनी को ढूँढ़ मोबाइल के कैमरे से तड़ातड़ तीन-चार फोटो ले लिये। मैं वहाँ कब से पहुँचना चाहता था। ऊपर फ्लैट की बालकनी से नीचे बाउंड्री के पार की इमारतें और जमीन का एक खाली टुकड़ा तो दिखता था, पर उधर पहुँचने का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था। नीचे सोसायटी की बाउंड्री इतनी ऊँची थी कि वहाँ से उस पार देखना संभव नहीं था और उसे पार करना भी। फ्लैट की बालकनी से रोज नीचे की ओर हम अचरज से देखा करते थे। यहाँ हम से आशय मैं और जीवनसंगिनी सुलभा से है।

नीचे सोसायटी के उसी तरफ बाहर जमीन का बड़ा-सा टुकड़ा खाली था, जबकि आसपास एक-दूसरे से सटे चार-चार, पाँच-पाँच मंजिला मकान खड़े थे। उस खाली टुकड़े पर एक कोने में नींव खुदते देख अचरज हो रहा था। क्योंकि अब तो मकान बीम-कालम से बनते हैं, नींव वाले नहीं। वह अब पुराने जमाने की बात हो गई है। वहाँ एक छोटा-सा मकान आकार ले रहा था। उसकी दीवारें ईंटों की बजाय ब्लॉक्स से बन रही थीं। देखते-देखते उस मकान की दीवारें खड़ी हो गई थीं। मकान की ड्राइंग बहुत सरल थी—दो छोटे-छोटे कमरे और उसको जोड़नेवाला एक गलियारा। ऊपर पतरे भी चढ़ने लगे थे। इसी दौरान ऊपर मुँड़ेर पर पतरे रखते-रखते कारीगर नीचे गिर गया। हम धक्क रह गए। कुछ ही समय बाद जब फिर वही कारीगर ऊपर आकर के काम करने लगा, तब कहीं जाकर राहत मिली। शायद उसे कोई खास चोट नहीं आई थी।

हमारे ब्लॉक की यह इमारत चौदह फ्लोर की है और पूरी सोसायटी में ऐसे आठ ब्लॉक हैं, जिसमें सात सौ पचास फ्लैट हैं। यहाँ काम करनेवाली बाइयाँ ही एक सौ साठ हैं। अभी तो पूरे फ्लैट भरे भी नहीं हैं। आसपास की ऊँची इमारतों के बीच एक वह छोटा-सा सिर्फ दो कमरोंवाला एक मकान का आकार लेने की हिमाकत कर रहा था। उसकी यह हिमाकत अच्छी लग रही थी।

सोलह फरवरी की सुबह मैंने वरथुर रोड पकड़ा। मैं उस पर आगे बढ़ता जा रहा था। यह सँकरा रोड कोई दो किलोमीटर के बाद खत्म हो गया था। इस रोड को आड़ा काटते हुए एक फोर या फोर से भी अधिक लेनवाली व्यस्त सड़क थी। ऐन सुबह ही उस सड़क पर तेज आवागमन का ऐसा शोर था कि लग रहा था कि जैसे कोई नदी बाढ़ से उफनती हुई चली जा रही हो। दिन में तो यह शोर और अधिक होता होगा। मैं वरथुर रोड के उसी मुहाने से वापस लौटने लगा। रास्ते में मैंने ड्राइविंग सिखानेवाली कई कारों को आते-जाते देखा।

सत्रह को रविवार था। रविवार का दिन मेरे लिए खास होता है। कुछ अच्छा-सा लगता है। इसी दिन अखबार में कहानी-कविताओं और रोचक लेखों से युक्त रविवारीय पृष्ठ आते हैं। बुक स्टाल पर रखी पत्र-पत्रिकाओं को मैं खड़ा रहकर गौर से देखता हूँ। मुझे बुक स्टाल पर सिवाय ‘राजस्थान पत्रिका’ के हिंदी का कोई अखबार नजर नहीं आया। बाकी के सारे अखबार और पत्रिकाएँ अंग्रेजी, कन्नड़, तमिल, तेलुगु और मलयालम भाषा के थे। बेटा विनय इंडियन एक्सप्रेस मँगवाता था। ‘राजस्थान पत्रिका’ पहले ही खासतौर से मेरे लिए विनय ने लगवा दिया था।

डी.आर.डी.ओ. के गेट से घुसकर केंद्रीय विद्यालय के गेट से निकला। फुटपाथ पर दीवार से सटा मेरा परिचित मरियल-सा कुत्ता भूरिया आगे की टाँगों के बीच अपना सिर टिकाए हुए बैठा था। वह रह-रहकर काँप जाता था। जैसे उसे हिचकी चल रही हो। आगे का रास्ता दो सड़कों में फट जाता है। मैं वर्थुर रोड छोड़कर सीधे बैंगनाहल्ली बस स्टॉप की ओर बढ़ जाता हूँ। रास्ते में कई दुकानें हैं। कुछ दुकानों में खाल उधड़े मुरगे और बकरे बिकने के लिए लटके हैं। बस स्टॉप पर तीन-चार आबनूसी रंग की औरतें रंगीन फूल-मालाओं को करीने से पल्ली पर सजाए बैठी थीं। वापस लौटकर मैं गेट नंबर तीन से अंदर घुसा। भीतर एक ऐसा बड़े-बड़े हरे पत्तोंवाला पेड़ था, जिसके पत्ते लाल होकर झड़ रहे थे। नीचे लाल पत्तों की एक चादर-सी बिछी थी।

शाम को सोसायटी वाकिंग ट्रेक पर एक कटे बालोंवाली लड़की बुची नाक, काले मुँह, छोटे पाँव और छोटी ही पूँछवाले कुत्ते को जंजीर से बँधे घूम रही थी। उसे देख सहसा कब्बन पार्क में देखी एक सुनहरे रंग की विदेशी युवती की याद हो आई, जिसका जूड़ा शंकर भगवान् की जटाओं जैसा बँधा था। बड़भागी बूची नाकवाले कुत्ते को देख भूरिया के भाग पर मन-ही-मन तरस आया।

अठारह फरवरी को डी.आर.डी.ओ. के गेट नंबर पाँच से घुसकर केंद्रीय विद्यालय के पासवाले गेट से निकल फिर दाहिनी ओर आगे बढ़ा। मुझे दाढी़ सेट करवानी थी। इधर मैंने सैलून की चार-पाँच दुकानें देखी थीं। एक सैलूनवाले ने दाढ़ी की सेटिंग के लिए फिफ्टी रुपीज बताए। मैं आगे बढ़ा। अगला सैलूनवाला खाली भी था।

मैंने विनोद कुमार से दाढ़ी सेट करवाई। उससे कुछ बातचीत भी हुई। वह कन्नड़ में बोल रहा था। सबकुछ समझ में तो नहीं आ रहा था, पर कुछ-कुछ समझ रहा था। उसने बताया कि वह अपनी दुकान का किराया ६००० रुपए देता है। दाढ़ी सेट करवाने के बाद जब मैं उसे पैसे देने लगा तो पैसे न लेते हुए वह बार-बार ‘राईटऽ-राईटऽ’ कह रहा था। पहले तो मैं समझ नहीं पाया। कहीं अधिक पैसे तो नहीं माँग रहा। वैसे पहले ही पूछ लिया था, चालीस ही तो बताया था। वह मेरे दाएँ हाथ की ओर इशारा कर रहा था। आखिर में मुझे समझ में आ गया कि वह दाएँ हाथ से पैसे देने का कह रहा है। मैं उसे बाएँ हाथ से पैसे देने की कोशिश कर था। उसके लिए राइट ही राइट था और मेरे लिए राइट लेफ्ट दोनों बराबर थे।

उन्नीस फरवरी को मैं अखबार देख रहा था। इंडियन एक्सप्रेस में बेंगलुरु में मधुमक्खियों की समस्या पर विस्तार से लिखा था। मधुमक्खियों की समस्या को लेकर बी.बी.एम.पी. को पंद्रह-बीस शिकायतें रोज मिल रही थीं। बी.बी.एम.पी. समय पर सबकी मदद नहीं कर पा रही थी। लोग निजी तौर पर आदिवासियों को १००० रुपए तक देकर अपने निवास से मधुक्खियाँ हटवा रहे थे। मनुष्य बहुत खुदगर्ज है। उसने-अपने घर बनाने के लिए पशु-पक्षियों के घर उजाड़ दिए हैं। अब मूक पशु-पक्षी और ये मधुमक्खियाँ जाएँ तो जाएँ कहाँ। वहाँ सोसायटी में भी मधुमक्खियों का प्रकोप था। घूमते हुए मैंने एकाध जगह पर मरी हुई मधुमक्खियों के ढेर देखे।

बीस फरवरी को सोसायटी में ही बाहर तीन-चार राउंड लगा आया, आगे नहीं गया, क्योंकि ९ बजे तो मुझे तैयार होकर कैब से एअरपोर्ट निकलना था। अकसर उस ब्लाक के गार्ड से बात हो जाती थी। गार्ड उन्नीस-बीस साल का लड़का ही था। वह नॉर्थ-ईस्ट असम से था। वहाँ अधिकतर गार्ड नॉर्थ-ईस्ट के ही थे। लड़के ने बताया कि उसका भाई उसे यहाँ लाया था। हैंडीमेन कंपनी ने उसे यहाँ गार्ड का काम दिया है। उसकी नीली वर्दी पर कंपनी का मोनो लगा रहता था। वह चार साल से घर नहीं गया था। बता रहा था कि यहाँ रात को मच्छर बहुत काटते हैं।

नौ बजे के करीब टैक्सी में बैठा। चुपचाप बैठने की बजाय मैंने टैक्सी ड्राइवर से बात करने की सोची। जानने की इच्छा हुई कि बेंगलुरु एअरपोर्ट के नाम के साथ केंपेगौड़ा क्यों जुड़ा है। केंपेगौड़ा आखिर कौन हैं? टैक्सी ड्राइवर कृष्णा ने बताया कि कोई पाँच सौ साल पहले केंपेगौड़ा ने बेंगलुरु को बसाया था। उन्हीं के नाम पर स्टेशन का बेंगलुरु के हवाईअड्डे का नाम केंपेगौड़ा अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डा पड़ा।

अंत में डॉ. हंसा दीप का जिक्र जरूरी है, जिनके कारण यह यात्रा-संस्मरण संभव हुआ। जब हंसाजी को पता लगा कि मैं बेंगलुरु में हूँ तो उन्होंने लिखा कि बेंगलुरु एक खूबसूरत शहर है। यहाँ की जलवायु बहुत अच्छी है। इतने अच्छे शहर में हो तो एक यात्रा-संस्मरण तो बनता है। यह संस्मरण उसी आग्रह का परिणाम है। उनका बहुत-बहुत धन्यवाद।

राधारमण कॉलोनी, मनावर-४५४४४६,

जिला-धार (म.प्र.)

दूरभाष : ९८९३०१०४३९

—गोविंद सेन

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