अनुभूति

अनुभूति

बचपन बहाया मैंने,

कागज की किश्तियों में।

लड़कपन सँभाला था,

कलम की बैसाखियों ने॥

कलम किए कितने कलम,

प्रगति की राह पर।

मानपत्रों की हर कतरन,

रखी सँभालकर॥

प्रकृति का उपभोग किया,

आँख मूँदकर।

क्या घटेगा क्या बढ़ेगा,

मूल प्रश्न भूलकर॥

जमा और गुणा किए,

उन्नति के आँकड़े।

भौतिकता के युग में,

फिर पाँव जा पड़े॥

योजनाएँ अनगिनत,

नभ छूने की तैयारी।

एक हाथ में कुल्हाड़ी,

और दूजे में ले आरी॥

वन है तो जीवन है,

आधार मंत्र छोड़कर।

करने चली सृजन,

नियम सृष्टि के तोड़कर॥

प्राणधार वृक्षों का

नियंत्रण बिगाड़कर।

स्तंभ सृष्टि संतुलन के,

रख दिए उखाड़कर॥

चिन दिए घरों पे घर,

गहरे खंभ बीज कर॥

धरा का छेदकर सीना,

विनाश नींव सींचकर॥

उठा था शोर चारों ओर,

बन गए घर बन गए।

किया अनसुना रुदन कि

वन गए, वन गए॥

दीवारों के जंगल में,

गाँव लुप्त हो गए।

सुमन, सुगंध शुद्ध पवन,

सभी अल्प हो गए॥

घुटने लगा जब दम,

मैं सहमी और तड़फड़ाई।

रुकने लगी जब साँस,

तब चेतना आई॥

हाय! जिस डाल पर था घर,

उसे ही काट दिया?

अपने ही पाँवों पर,

स्वयं प्रहार किया?

चरमराई शाख ढह गई,

आ गिरी धरा पर मैं।

आहत अपंग असहाय सी,

पथरा गई थी मैं॥

न जड़, न चेतन जैसी

हुई मेरी अवस्था।

निर्बल हुआ हर अंग,

और घिर आई शून्यता॥

वृक्ष भी था घायल कुछ,

छाँव फिर भी रखी सर पर।

जीवन दिया फिर मुझको,

अपने श्वास देकर॥

जलकर स्वयं लू धूप में,

दी मुझको शीतल छाया।

भीगा स्वयं सावन में,

और मुझको सदा बचाया॥

आँधियों की धूल,

मेरे तन से दूर ही रही।

हिमपात में भी मैं,

सुरक्षित पड़ी रही॥

उदारता देख वृक्ष की,

तब मैं लजाई।

पाप-बोध से गड़ी,

मैं न उठ पाई॥

साहस कर पूछा वृक्ष से,

कि क्यों मुझको बचाया?

मैंने केवल तुमको,

भोगा और सताया॥

हलचल हुई,

पत्ते से पत्ता सरसराया।

नादान प्रश्न पर,

पिता ज्यों मुसकराया॥

ममता भरी बाँहों सी,

शाखें आईं बढ़कर।

बोली कि क्या करोगी,

जो दूँ फिर एक अवसर॥

नन्हा सा बीज एक,

मेरे हाथ में दिया।

सारतत्त्व मेरी मुट्ठी में,

फिर थमा दिया॥

उस बीज ने सृष्टि की,

झलक दिखलाई।

आत्मग्लानि से रूँधी,

और आँख भर आई॥

अश्रु पश्चात्ताप के,

बहाकर बीज ले गए।

गोद में धरा की,

जन्म लेने को समा गए॥

स्नेह स्पर्श पाकर,

अंकुरों ने आँख जो खोली।

सृष्टि-चक्र चल पड़ा,

धरा की भर गई झोली॥

 

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—माला कपूर

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