मेरी बेटियाँ

मेरी बेटियाँ

उपन्यास, कहानी, व्यंग्य, नाटक, निबंध, आलोचना, संस्मरण इत्यादि गद्य की सभी प्रमुख एवं गौण विधाओं में इन्होंने अपनी विदग्धता का परिचय दिया है। उपन्यास शृंखला में ‘महासमर’, ‘तोड़ो कारा तोड़ो’ तथा रामकथा पर उपन्यास चर्चित। इन्होंने प्रायः सौ से भी अधिक उच्च कोटि के गं्रथों का सृजन किया है। ‘शलाका सम्मान’ सहित अनेक सम्मानों से अलंकृत।

रात कब की उतर आई थी। सारा मोहल्ला जैसे सुनसान पड़ गया था। लोग खाना खा, रसोई समेट, अपने-अपने घरों की खिड़कियाँ-दरवाजे बंद कर, सोने के लिए लेट गए थे।

रीना भी लेट गई तो शीना ने पूछा, ‘‘खिड़की खोल दूँ या...’’

‘‘कितनी गरमी और घुटन है। खोल दे खिड़की।’’ रीना ने कहा, ‘‘यहाँ कौन सा खजाना धरा है कि चोर लूटकर ले जाएँगे।’’

‘‘सोच ले।’’ शीना ने कहा, ‘‘बापू ने मना कर रखा है।’’

‘‘हाँ, बापू ने मना तो कर रखा है। वे मुसलमानों के हमले से डरते हैं। वे कितनी ही हिंदू लड़कियों को उठाकर ले गए हैं। जब पाकिस्तान बना था तो पता नहीं क्यों हमारे दादा अन्य लोगों के समान भारत चले नहीं गए थे।...इस गरमी का क्या करें।’’

‘‘खोल दे खिड़की।’’ रीना ने कहा, ‘‘अब बापू कभी-कभी पछताते हैं कि हम मुसलमानों के इस देश में क्यों रह गए!’’

‘‘उनको क्या पता था कि सिंध में भी ये हालात हो जाएँगे। पंजाब और बलोचिस्तान की बात और थी।’’

‘‘उस बात को तो अब सत्तर-पचहत्तर साल होने को आए।’’ रीना बोली, ‘‘क्या हालात कभी नहीं सुधरेंगे? यह आँधी कभी नहीं थमेगी? तब तो बापू पैदा भी नहीं हुए थे। यहाँ ही बसे रहने का निर्णय तो दादा का रहा होगा।’’

‘‘दादा भी तब आठ-दस साल के रहे होंगे। यहाँ रहने का निर्णय तो उनके बापू ने किया होगा। हमारे पड़दादा ने।’’

‘‘तो अब हम लोग ही क्यों नहीं चले जाते? हमें कौन रोक रहा है?’’

‘‘हमारा दुर्भाग्य।’’ शीना बोली, ‘‘सुना है कि तब तो ऐसी आँधी चली थी कि काफिले के काफिले इधर-से-उधर और उधर-से-इधर खून-गारत में भी बेरोक-टोक चले आए थे। अब तो पाकिस्तान छोड़ने के लिए पासपोर्ट चाहिए। भारत में घुसने के लिए वीजा चाहिए। और फिर अपना घर-बार छोड़कर वहाँ कहाँ जाकर रहेंगे—सड़कों-फुटपाथों पर? हजारों बातें सोचने की हैं।’’

शीना ने खिड़की खोल दी और आकर बिस्तर पर लेट गई।

‘‘तुम ठीक कहती हो; पर यह भी कोई जीना है। न होली-दीवाली मना सको। न मंदिर जा सको। न पूजा-पाठ कर सको। न कोई तीर्थ, न तीज न त्योहार।’’

‘‘अच्छा, अब सो जा। सपने में जहाँ चाहे घूम आ।’’

रीना सोचती रही।...क्या करना चाहिए उन्हें। वे पाकिस्तानी बन सकते हैं, किंतु मुसलमान तो नहीं बन सकते। किसी दिन यदि कोई उसे भी उठा ले गया तो?...उसके साथ किसी ने जबरदस्ती की तो वह तो उसकी जान ले लेगी। पर कैसे लेगी? उसके पास कहाँ कोई बंदूक-तलवार है। सब्जी काटने के चाकू से कहीं किसी के प्राण लिये जा सकते हैं।...प्राण तो ईंट-पत्थर से भी लिये जा सकते हैं, पर फिर अपने प्राण बचाए नहीं जा सकते...वे उसके हाथ-पैर बाँधकर उसकी धुलाई करेंगे...कभी नादिरशाह के विषय में एक कहानी पढ़ी थी। वह दिल्ली के लालकिले में मुगलों के हरम में आकर बिस्तर पर लेट गया था। बाहर उसके सिपाही थे और भीतर मुगलों की बहू-बेटियाँ। उसने अपनी तलवार एक ओर रख दी थी। कमर से बँधी कटार भी खोलकर बिस्तर पर टिका दी थी। करवट बदली और सो गया।

जब जागा तो सबकुछ वैसा का वैसा ही था। न किसी मुगल ने भीतर आकर उससे मुक्ति पाने का कोई प्रयत्न किया था, न मुगल शहजादियों ने भाग जाने की कोशिश की थी। न उसके हथियार हटाए गए थे। न उसके हाथ-पैर बाँधे गए थे।...

वह उठा। अपने हथियार उठाए। कटार को कमर से बाँधते हुए बोला, ‘‘तुममें से किसी ने भी साहस किया होता तो मेरी कटार मेरी छाती में उतार दी होती। पर तुमने वह नहीं किया। तभी तो तुममें से कोई भी वीर मुगल शहजादा पैदा नहीं कर पाई। सब कायर के कायर ही रहे।’’ वह बाहर चला गया।

रीना सोचती रही। उन सबकी अवस्था भी उन मुगल शहजादियों के समान थी। आज तक किसी हिंदू लड़की ने अपने साथ जबर्दस्ती करनेवाले के प्राण लेने का प्रयत्न नहीं किया। न प्राण दिए, न प्राण लिये। जिन्होंने कभी रक्त देखा ही नहीं, वे किसी के प्राण कैसे लेंगी...उसे नींद आ रही थी।

बाहर कुछ खटपट हुई। बापू का स्वर सुनाई दिया, ‘‘दरवाजा खोलो, बेटी रीना!’’

दरवाजे पर किसी ने भारी चीज से चोट की।

नहीं यह उसका स्वप्न नहीं था। यह नादिरशाह वाली कहानी भी नहीं थी।

रीना ने शीना की ओर देखा। वह भी उठकर बैठी हुई थी।

‘‘कुछ गड़बड़ है।’’

‘‘गड़बड़ है तो बापू दरवाजा खोलने को क्यों कह रहे हैं?’’

‘‘उनकी आवाज का भय नहीं सुना तूने?’’

दरवाजे पर दूसरी चोट पड़ी और किसी ने भारी स्वर में कहा, ‘‘तुम्हारे बाप को गोली मार देंगे हम। दरवाजा खोलो।’’

उन्हें लगा, बापू रो रहे हैं, ‘‘हमें बख्श दो। हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?’’

‘‘तुम इसलाम पर ईमान क्यों नहीं लाते? कलमा पढ़ो, काफिर कहीं के।’’

‘‘कलमा तो हम पढ़ लेंगे; किंतु न तो उससे हम मुसलमान बनेंगे, न तुम्हारा ईमान हमारे मन में उतरेगा।’’ यह उनके भाई का स्वर था।

‘‘तो कैसे बनेगा मुसलमान?’’ उस भारी स्वर ने पूछा, ‘‘गोली खाकर?’’

‘‘ईमान तो मन की बात है। जबर्दस्ती कोई किसी का धर्म नहीं बदल सकता।’’ भाई ने पुनः कहा।

‘‘जब मुँह में गाय का गोश्त जाएगा तो पेट में ईमान भी पैदा हो जाएगा। तुम्हारी बहनों का निकाह मुसलमान लड़कों से हो जाएगा और वे मुसलमान बच्चे पैदा करेंगी, तो उनके अंदर भी ईमान पैदा हो जाएगा।’’

भाई ने कुछ नहीं कहा। बापू भी रोते ही रहे, ‘‘हाय मेरे रब्बा!’’

‘‘हम पुलिस में शिकायत करेंगे।’’ भाई ने कहा।

‘‘पुलिस में कर, फौज में कर।’’ वह व्यक्ति बोला, ‘‘उससे क्या तुझे तेरी बहनें वापस मिल जाएँगी। फिर वे एक की न होकर भीड़ में बँटेंगी।’’

बापू जमीन पर बैठकर बच्चों के समान एडि़याँ रगड़ते हुए छाती पीट रहे थे, ‘‘हम पर रहम करो। अरे कोई तो बचाओ।’’

इस बीच कुछ हुआ था और बापू का स्वर भी बंद हो गया था।

शीना ने उत्सुकता में दरवाजा खोल दिया। उनका भाई लहूलुहान होकर जमीन पर पड़ा था। बापू अपने बाल नोच रहे थे।

दरवाजा खुलते ही भीड़ उन पर टूट पड़ी।

अगली सुबह बापू थाने के सामने बैठे अपने बाल नोच रहे थे। अपनी छाती पीट रहे थे, ‘‘मेरी बेटियाँ मुझे वापस दिलाओ।’’

किसी ने नहीं सुनी तो उन्होंने अपने पास रखी मिट्टी के तेल की बोतल अपने ऊपर उँडेल ली। मैं आग लगा लूँगा...थाने में से एक सिपाही बाहर आया, ‘‘क्यों तकलीफ करता है। आग तो तुझे हम लगा देंगे।’’

‘‘मेरी बेटियाँ...’’ बापू ने रोते हुए कहा।

‘‘उन्होंने इसलाम कबूल कर लिया है और उनके निकाह हो चुके हैं। अब तुझे मिल भी जाएँ तो क्या करेगा?’’

वह उसे घसीटता हुआ थाने के भीतर ले गया और उसे हवालात में पटक दिया, ‘‘यहाँ आग लगा या फाँसी लगा। हम खुदकुशी का एफ.आई.आर. भी लिख लेंगे।’’

 

१७५ वैशाली, पीतमपुरा

दिल्ली-११००३४

—नरेंद्र कोहली

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