प्रेमचंद : आधी शताब्दी की शोध-यात्रा

प्रेमचंद : आधी शताब्दी की शोध-यात्रा

जाने-माने साहित्यकार। इकतालीस वर्षों से दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन। अब तक प्रेमचंद पर बाईस तथा अन्य साहित्यकारों पर बीस पुस्तकें प्रकाशित। एक नवीनतम विषय ‘गांधी की पत्रकारिता’ पर एक पुस्तक। प्रेमचंद साहित्य के विशेषज्ञ के रूप में ख्यात। विभिन्न संस्थाओं, एकेडमियों द्वारा सात पुरस्कार तथा मॉरीशस से एक पुरस्कार से सम्मानित। संप्रति केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के उपाध्यक्ष।

मैंअस्सी वर्ष का हो गया हूँ। यह सही वक्त है, जब मुझे अपने अतीत का अवलोकन करना चाहिए कि प्रेमचंद के साथ मेरे आधी शताब्दी के रिश्ते की यह यात्रा कैसी व्यतीत हुई। प्रेमचंद की मेरी यह यात्रा अभी खत्म नहीं हुई है। यह तो मेरे जीवन के बाद ही समाप्त होगी, लेकिन मुझे यकीन है कि फिर कोई व्यक्ति आएगा और इस यात्रा को आगे बढ़ाएगा। मेरी कहानी का आरंभ मेरे जन्म से होता है। मेरा जन्म ११ अक्तूबर, १९३८ को दिल्ली से लगभग ७० किलोमीटर दूर एक छोटे से शहर बुलंदशहर में एक मारवाड़ी परिवार में हुआ था। परिवार में जमींदारी थी और व्यापार ही प्रमुख था, परंतु इस परंपरा को त्यागकर मैं दिल्ली में प्रोफेसर बनने का स्वप्न लेकर आया और उसमें सफल हुआ, लेकिन परिवार ने मेरे इस पथ-परिवर्तन को स्वीकार नहीं किया। मैं दिल्ली में प्रोफेसर बना और शोध के लिए प्रेमचंद पर विषय दिया गया। मैं जयशंकर प्रसाद पर काम करना चाहता था, क्योंकि वही मेरे प्रिय साहित्यकार थे, परंतु प्रेमचंद पर कार्य करने का आदेश हुआ। इसे विडंबना कहूँ या संयोग अथवा नियति का आदेश, अनिच्छा से शोध-कर्म शुरू करनेवाला विषय ही मेरे जीवन की नियति बन गया। आप किस रास्ते पर चलना चाहते हैं और नियति आपको कहाँ ले जाना चाहती है, इसका भान आपको तब होता है, जब आप ऐसे विषय पर कार्य करते हुए कुछ उपलब्धियाँ करते हैं और प्रसिद्धि एवं स्वीकृति आपके जीवन में आने लगती है। आज मैं महसूस करता हूँ कि प्रेमचंद पर कार्य करके मेरा जीवन सार्थक हो गया। जीवन में ज्ञान की प्राप्ति और ज्ञान की गवेषणा तथा ज्ञान के विकास से बड़ी सार्थकता और क्या हो सकती है?

मैंने जब प्रेमचंद पर शोध एवं आलोचना-कर्म शुरू किया, तब तक काफी शोध-ग्रंथ लिखे जा चुके थे और प्रायः उनमें एक ही सामग्री तथा अवधारणाओं की बराबर आवृत्ति की गई थी। हिंदी में शोध की दुर्दशा इस तथ्य से समझी जा सकती है कि अब तक लगभग तीस हजार शोध-ग्रंथ लिखे जा चुके हैं, परंतु मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि इनमें से दस-बीस शोध-प्रबंध ऐसे नहीं होंगे, जिन्होंने परंपरागत अवधारणाओं को चुनौती दी हो और वे हमारे ज्ञान के विस्तार में सहायक बने हों तथा हम उन्हें आज याद करते हों। हिंदी में आज स्थिति यह है कि कोई भी दस ग्रंथों को पढ़कर अपना शोध-ग्रंथ लिखकर डॉक्टर बन सकता है और सारी जिंदगी इस अभिमान में जी सकता है कि मैंने अपने शोध-कार्य से ज्ञान की नई दिशाएँ खोली हैं। मेरे समय में प्रेमचंद के मूल्यांकन की दो प्रमुख धाराएँ थीं—एक मार्क्सवादी और दूसरी गांधीवादी। इनमें मार्क्सवादी आलोचना ही प्रेमचंद के मूल्यांकन की एकमात्र धारा बनती चली गई, क्योंकि इसके पीछे मार्क्सवादी पार्टी और उसके बुद्धिजीवी तथा उनकी साहित्यिक संस्था ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ का देशव्यापी नेटवर्क काम कर रहा था और विश्वविद्यालय स्तर की पढ़ाई तक प्रेमचंद की पहचान मार्क्सवादी लेखक, खूनी क्रांति के समर्थक लेखक तथा रूसी समाजवाद के लेखक के रूप में स्थापित कर दी गई थी। केंद्र की कांग्रेसी सरकारों का समर्थन भी उनके साथ था। स्थिति यह थी कि इस विचारधारा के विरुद्ध कोई सोचने तक का दुस्साहस नहीं कर सकता था, क्योंकि मार्क्सवादी आलोचना का सत्य ही सार्वकालिक, सार्वदेशिक तथा समस्त साहित्य-समाज का सत्य बना दिया गया था। देश में होनेवाली गोष्ठियों, पाठ्यक्रम में प्रेमचंद को पढ़ाते समय तथा पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांकों में सर्वत्र प्रेमचंद के मार्क्सवादी होने का डंका पीटा जाता था और पूरा साहित्य-समाज ताली पीटकर इसका समर्थन करता था, लेकिन मैंने प्रेमचंद को समग्रतः पढ़ने के बाद अपने शोध-कार्य के दौरान महसूस किया कि यह तो प्रेमचंद का सत्य नहीं है और प्रेमचंद को एक कठघरे में बंद करके उसे अपने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करने की साजिश है। मार्क्सवादियों की साजिश तो इससे ही स्पष्ट थी कि प्रेमचंद की तीन सौ कहानियों में केवल पाँच-छह तथा चौदह उपन्यासों में केवल एक उपन्यास ‘गोदान’ ही प्रेमचंद को मार्क्सवादी कथाकार बनाने की स्थापना के लिए इस्तेमाल किए जा रहे थे। इस आलोचना में प्रेमचंद का लगभग ९५ प्रतिशत साहित्य गायब था, इसे लुप्त कर दिया गया था और यहाँ तक कि इसे भावनापूर्ण, कपोल-कल्पनापूर्ण तथा जीवन के यथार्थ से दूर साहित्य की कोठी में रख दिया गया था। इस प्रकार प्रेमचंद के दो टुकड़े कर दिए गए—एक यथार्थवादी, जिसके आधार पर वे मार्क्सवादी बनाए जाते हैं, और दूसरा आदर्शवादी, जो उन्हें कल्पनालोक का कथाकार बनाता है तथा साहित्यिक परिधि से गायब कर देता है। प्रेमचंद को प्रेमचंद के विरुद्ध खड़ा करने की यह साजिश हिंदी साहित्य में अनोखी थी, जिसके पीछे साहित्य को राजनीति का अनुयायी बनाने का कुचक्र था।

प्रेमचंद की इन मार्क्सवादी स्थापनाओं के मूल में जो मंतव्य और तथ्य हैं, उन्हें आपके सामने रखना मेरे लिए आवश्यक है। यह प्रेमचंद के पाठक नहीं जानते हैं कि डॉ. रामविलास शर्मा ने प्रेमचंद पर लिखने से पहले कम्युनिस्ट पार्टी से अनुमति ली थी और जिसके कारण उन्होंने प्रेमचंद को रूसी क्रांति एवं रूसी समाजवाद का समर्थक लेखक बना दिया। डॉ. शर्मा के बाद जितने भी मार्क्सवादी आलोचकों ने प्रेमचंद पर लिखा, वे इसी स्थापना का अनुकरण करते चले गए, बिना यह सोचे कि किसी भी लेखक का मूल्यांकन समग्रता में ही हो सकता है और किसी भी लेखक को समझने/जानने के लिए यह आवश्यक है कि हम उसकी रचना-दृष्टि को भी उसके मूल्यांकन के समय प्रमुखता से ध्यान में रखें। मार्क्सवादी आलोचकों ने, जिनमें डॉ. रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, शिव कुमार मिश्र आदि उल्लेखनीय हैं, प्रेमचंद के साहित्य-दर्शन की पूर्ण उपेक्षा ही नहीं की बल्कि उसके संबंध में गलत अवधारणाओं को प्रचलित किया और वे सत्य मान ली गईं। मैं यहाँ कुछ उदाहरण आपके सामने रखना चाहता हूँ—

१. प्रेमचंद ने अपने साहित्य-उद्देश्य के बारे में लिखा कि मैं अपने साहित्य से स्वराज्य की प्राप्ति और भारतीय आत्मा की रक्षा करना चाहता हूँ। उन्होंने यह भी लिखा कि मैं साहित्य में भारतीयता की छाप लगाना चाहता हूँ, परंतु मार्क्सवादी आलोचना में इसकी कोई चर्चा नहीं मिलेगी, क्योंकि भारतीय आत्मा और भारतीयता वामपंथियों द्वारा बहिष्कृत शब्द हैं।

२. प्रेमचंद ने सन् १९१९ में एक पत्र में लिखा था कि मैं करीब-करीब बोल्शेविक उसूलों का कायल हो गया हूँ, परंतु उन्होंने शीघ्र ही मान लिया कि ‘‘साम्यवाद से लंबी-चौड़ी आशाएँ बाँधना व्यर्थ है, क्योंकि साम्यवाद से पूँजीपतियों पर मजूरों की विजय का आंदोलन है। न्याय से अन्याय पर, सत्य के मिथ्या पर विजय पाने का नाम नहीं है। वह सारी विषमता, सारा अन्याय, सारी स्वार्थपरता, जो पूँजीवाद के नाम से प्रसिद्ध है, साम्यवाद के रूप में आकर अणु मात्र भी कम नहीं होती, बल्कि उससे भी भयंकर हो जाने की संभावना है।’’ यहाँ तक कि ‘गो-दान’ तक में साम्यवाद की आलोचना है, लेकिन मार्क्सवादी आलोचना में वह मार्क्सवाद को स्थापित करनेवाली महान् कृति है।

३. प्रेमचंद ने साहित्य के प्रयोजन में भारत के प्राचीन मूल्यों, सत्यं-शिवं-सुन्दरम्, परिष्कार और मन को संस्कारित करने का बार-बार उल्लेख किया किंतु मार्क्सवादी आलोचकों ने इन्हें कभी महत्त्व नहीं दिया। प्रेमचंद ने ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ की स्थापना की, और इसमें भी मार्क्सवादियों ने आदर्श को प्रेमचंद साहित्य के मूल्यांकन से बहिष्कृत कर दिया।

४. प्रेमचंद के ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के भाषण का मार्क्सवादी बार-बार उल्लेख करते हैं और उसे वे मार्क्सवादी प्रगतिशीलता का संस्थापक दस्तावेज मानते हैं, पर खेद है कि किसी प्रगतिशील लेखक ने इसे पढ़ा ही नहीं है। इसमें एक भी शब्द मार्क्सवाद और मार्क्सवादी आलोचना का नहीं है और न रूस, मार्क्स, खूनी क्रांति का। यदि उल्लेख है तो साहित्य के द्वारा मन के संस्कार का और आध्यात्मिक आनंद, आध्यात्मिक संतोष, आध्यात्मिक सुख आदि का। यहाँ तक कि प्रेमचंद कहते हैं कि ‘प्रगतिशील’ शब्द ही निरर्थक है, क्योंकि लेखक स्वभाव से ही प्रगतिशील होता है। इस प्रकार प्रेमचंद ‘प्रगतिशील’ शब्द को मार्क्सवादी अर्थ में अस्वीकार करते हैं, परंतु हमारे मार्क्सवादी आज तक ‘प्रगतिशील’ शब्द का ढोल पीटते हुए प्रेमचंद को मार्क्सवादी सिद्ध करते रहे हैं।

५. ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के भाषण में प्रेमचंद ने एक और महत्त्वपूर्ण बात कही थी कि साहित्य राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल है, लेकिन इसमें भी मार्क्सवादियों ने प्रेमचंद के इस मत को एकदम उलट दिया और राजनीति को साहित्य के आगे बैठा दिया तथा प्रगतिशीलों का साहित्य कम्युनिस्ट पार्टी का साहित्य बन गया।

६. मार्क्सवादी आलोचना में जीवन का कटु यथार्थ ही एकमात्र ऐसी कसौटी है, जो प्रेमचंद को महान् बनाती है और क्रांतिकारी यथार्थवाद एवं मार्क्सवादी समाजवाद तक ले जाती है। वामपंथियों का यह मापदंड भी प्रेमचंद के साहित्य-सिद्धांत के विपरीत है। प्रेमचंद ने एकमात्र यथार्थ को साहित्य की कसौटी एवं श्रेष्ठता का आधार नहीं माना, बल्कि शुद्ध यथार्थवाद के तो वे विरोधी थे। प्रेमचंद की दृष्टि यह थी कि यथार्थ साहित्य का आदर्श नहीं हो सकता। उनके अनुसार यथार्थवाद हमारी आँखें खोलता है और आदर्शवाद हमें मनोरम स्थान पर पहुँचाता है। लेखक को जीवन के यथार्थ को देखकर उसकी मानवीय अनुभूतियों को आघात लगता है, तो वह आदर्शवादी होने पर विवश होता है। उसकी नजर में जब समाज का कोई अधिक सुंदर रूप होगा, तभी वह समाज के वैषम्य से उद्विग्न होगा। अतः यह असंतोष ही उसके मन में किसी ऊँचे आदर्श को जन्म देता है। इसलिए प्रेमचंद मानते हैं कि कुरूपता और सुंदरता का संग्राम ही साहित्य है और यथार्थ एवं आदर्श का समन्वय ही उच्चकोटि के साहित्य की पहचान है। स्पष्ट कहते हैं कि यथार्थ का उपयोग आदर्श की स्थापना के लिए है, जैसे सुंदर की कल्पना बिना असुंदर के नहीं हो सकती और प्रकाश भी अंधकार के संबंध से ही व्यक्त होता है। साहित्य को अधम एवं पतित पात्रों तक सीमित करना उचित नहीं, क्योंकि मनुष्य में जो सुंदर है, विशाल है, आदरणीय है, आनंदप्रद है, साहित्य उसी की मूर्ति है। साहित्य यदि दर्पण है तो दीपक भी है। प्रेमचंद तो यथार्थ में भी आदर्श की स्थितियाँ तलाश करने के पक्ष में थे, परंतु वामपंथी आलोचना में ये विचार निरर्थक और उपेक्षणीय हैं, क्योंकि ये मार्क्सवाद की स्थापना में सहायक नहीं बन सकते।

मैंने प्रेमचंद के इस साहित्य-दर्शन और उसकी मार्क्सवादियों द्वारा आलोचना तथा उसे बहिष्कृत करने की राजनीतिक साजिश का पर्दाफाश किया है। आप समझ सकते हैं कि जो लोग प्रेमचंद के साहित्य-दर्शन की उपेक्षा करते हैं, उसकी आलोचना करते हैं, वे प्रेमचंद-साहित्य को प्रेमचंद की दृष्टि से देखने-समझने के लिए कैसे तैयार हो सकते हैं? वे कैसे प्रेमचंद की वास्तविक मूर्ति से आपका परिचय करा सकते हैं और इस कारण हम उनकी व्याख्याओं तथा स्थापनाओं पर कैसे विश्वास कर सकते हैं? प्रेमचंद के साथ इन प्रगतिशील आलोचकों ने जैसा धोखा किया है तथा उनका अवमूल्यन किया है, वैसा कोई दूसरा उदाहरण हिंदी साहित्य के इतिहास में नहीं मिलेगा।

प्रेमचंद पर वामपंथी आलोचकों ने जो भी मिथक गढ़े, वे अधिकांशतः तथ्य एवं तर्कों पर आधारित नहीं थे, जबकि वे यह दावा करते हैं कि दुनिया की सबसे बड़ी वैज्ञानिक बुद्धि उनके ही पास है। वामपंथियों ने प्रेमचंद को आधुनिक अभिमन्यु की तरह चारों ओर से घेर लिया, क्योंकि वे जानते थे कि प्रेमचंद प्रतिवाद करने के लिए नहीं आ सकते। इस तरह वामपंथियों ने स्वयं को प्रेमचंद का वारिस घोषित कर दिया, वे अब प्रेमचंद के मालिक थे और उनकी विरासत के हकदार।

प्रेमचंद पर वामपंथी आलोचकों ने जो भी मिथक गढ़े, वे अधिकांशतः तथ्य एवं तर्कों पर आधारित नहीं थे, जबकि वे यह दावा करते हैं कि दुनिया की सबसे बड़ी वैज्ञानिक बुद्धि उनके ही पास है। वामपंथियों ने प्रेमचंद को आधुनिक अभिमन्यु की तरह चारों ओर से घेर लिया, क्योंकि वे जानते थे कि प्रेमचंद प्रतिवाद करने के लिए नहीं आ सकते। इस तरह वामपंथियों ने स्वयं को प्रेमचंद का वारिस घोषित कर दिया, वे अब प्रेमचंद के मालिक थे और उनकी विरासत के हकदार। प्रेमचंद पर वामपंथियों के इस मालिकाना माहौल के बीच मैंने प्रेमचंद को समझने तथा उन पर कुछ नए प्रकार का काम करने का निर्णय किया और शोध-कर्म के साथ प्रेमचंद संबंधी दस्तावेजों, पत्रों, पांडुलिपियों, अज्ञात साहित्य आदि को एकत्र करने का निर्णय लिया। इस कार्य में मुझे विशेषतः अमृतराय, रायकृष्ण दास, मुरारीलाल केडिया, रघुबीर सिंह, उदय शंकर शास्त्री आदि के साथ अनेक पुस्तकालयों का सहयोग मिला। इस संग्रह से प्रेमचंद के मूल्यांकन तथा मार्क्सवाद तक सीमित करने के रहस्य खुलने लगे और मैंने पाया कि प्रेमचंद के जीवन, साहित्य तथा विचार के संबंध में अनेक ऐसे झूठे मिथक गढ़े गए हैं, जिसके कारण प्रेमचंद की असल मूर्ति कहीं गायब हो गई है। इस नई अज्ञात-अप्राप्य तथा गुमशुदा सामग्री से पहले मेरे मन में प्रेमचंद की मार्क्सवादी व्याख्या-स्थापनाओं आदि के प्रति कोई गहरा अविश्वास नहीं था, क्योंकि उसी माहौल में मैं अपनी साहित्य की समझ विकसित कर रहा था, परंतु इस सामग्री ने मुझे यह स्पष्ट कर दिया कि प्रेमचंद के साथ वामपंथियों ने बड़ा अत्याचार किया है और उन पर अपना राजनीतिक दर्शन आरोपित कर अनेक झूठे मिथकों में उन्हें बाँधकर रख दिया है। इस निष्कर्ष के बाद मैंने प्रेमचंद के जीवन, साहित्य और विचार के संबंध में, नई सामग्री के आधार पर, लिखना शुरू किया, जो आज तक निरंतर चल रहा है। मैं यहाँ इन तीनों विषयों पर प्रेमचंद के संबंध में कुछ रोशनी डालना चाहता हूँ, परंतु कृपया यह ध्यान में रहे कि मैं प्रेमचंद का रिसर्चर हूँ, शोधकर्ता हूँ, प्रेमचंद का अंध-भक्त नहीं और न उन्हें वामपंथियों की तरह किसी पार्टी के जाल में फँसाना चाहता हूँ।

मैं सबसे पहले प्रेमचंद के जीवन को लेता हूँ। आपने अमृतराय द्वारा अपने पिता की लिखी जीवनी ‘प्रेमचंद : कलम के सिपाही’ पढ़ी होगी या उसके बारे में सुना होगा तथा आपने अपने जीवन में उनके बारे में अनेक लोक-विश्वास भी सुने होंगे, लेकिन कुछ ऐसे हैं, जो तथ्यों पर आधारित नहीं हैं। प्रेमचंद पर मैं जब उनकी कालक्रमानुसार अर्थात् तारीखवार जीवनी (‘प्रेमचंद विश्वकोश’, खंड : एक ‘जीवनी’) लिख रहा था, तब मेरे सामने अनेक ऐसे तथ्य आए, जो प्रचारित तथ्यों के विपरीत थे और इस प्रकार नए तथ्य सामने आते गए। आप पढ़ते रहे हैं, सुनते रहे हैं कि प्रेमचंद गरीबी में पैदा हुए, गरीबी में जिंदा रहे और गरीबी में ही मर गए। यह डॉ. रामविलास शर्मा का कथन है। यहाँ तक कि उनके पास कफन तक के पैसे नहीं थे, पर खेदजनक है कि उपलब्ध दस्तावेजों से यह सिद्ध नहीं होता। प्रमाण अनेक हैं, पर दो-चार उदाहरण ही दूँगा। सन् १९२० में उनका वेतन सौ रुपए मासिक था, सन् १९२५ में ‘रंगभूमि’ उपन्यास के प्रकाशन पर उन्हें अठारह सौ रुपए अग्रिम रॉयल्टी मिली, सन् १९३४ में फिल्म कंपनी में काम करने बंबई गए तो वेतन था आठ सौ रुपए महीना, दिल्ली में रेडियो से दो कहानी का पाठ करने पर मिले अस्सी रुपए तथा जब उनका देहांत हुआ तो बैंक के दो खातों में थे लगभग पाँच हजार रुपए। इसके साथ उनके पास दो बीमा पॉलिसी थीं। यदि आप आज की मुद्रा में उस समय के रुपए को परिवर्तित करेंगे तो सहज रूप से इस मत पर पहुँचेंगे कि प्रेमचंद की गरीबी का तथा कफन तक के पैसे न होने का मिथक झूठा है। इसके बाद उनके जीवन के दो-तीन प्रसंगों की और चर्चा करूँगा। प्रेमचंद ने अपनी बेटी कमलादेवी के अस्वस्थ होने पर पं. रामदास गौड़ से भूत-प्रेत को शांत करने का यज्ञ कराया था, बेटी की शादी में दहेज दिया था और हिंदू विधवा के पुनर्विवाह का अपना विचार वापस ले लिया था। अमृतराय ने ऐसे तथ्यों का कोई उपयोग नहीं किया, जबकि उनके पास इनके प्रमाणित दस्तावेज थे। यहाँ तक कि उन्होंने प्रेमचंद के देहांत और उनकी शव-यात्रा का विवरण भी गलत दिया और ऐसा विवरण दिया कि उनकी शव-यात्रा में कोई लेखक शामिल नहीं था। मेरी खोज के बाद यह तथ्य सामने आया कि जैनेंद्र कुमार, जयशंकर प्रसाद, नंददुलारे वाजपेयी, परिपूर्णानंद वर्मा, पं. वाचस्पति पाठक आदि उनकी शव-यात्रा में थे और प्रसाद का तो प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी से बहुत ही भावुक संवाद हुआ था। यहाँ तक कि देहांत के आठ-दस दिन पहले निराला तथा अज्ञेय मिलने आए थे। मेरे विचार में जब कोई पुत्र अपने पिता की जीवनी लिख रहा हो तो तथ्यों का विलोपन तथा कुछ को गौरवान्वित करना स्वाभाविक सा हो जाता है। मेरा सोचना है, एक कालजयी लेखक भी मनुष्य होता है, वह भी गुणावगुणों का पुंज होता है और वह निश्चय ही देवता नहीं, मनुष्य होकर ही बड़ा हो सकता है। गांधी बड़े इसलिए हैं कि उन्होंने अपनी आत्मकथा में जीवन की दुर्बलताओं का भी उद्घाटन किया है।

अब आपको मैं प्रेमचंद के साहित्य की ओर ले चलता हूँ। प्रेमचंद की अज्ञात-अप्राप्य साहित्य की खोज में अमृतराय का काम मील का पत्थर है। उन्होंने सन् १९६२ में प्रेमचंद के ऐसे साहित्य की नौ पुस्तकें प्रकाशित की थीं, जिनमें सैकड़ों पृष्ठों का अज्ञात-अप्राप्य साहित्य था। उस समय मैंने प्रेमचंद पर कार्य शुरू किया था और इस विपुल साहित्य की खोज से पूरा हिंदी-संसार हतप्रभ था। अमृतराय के कार्य की भरपूर सराहना हुई और वे साहित्य अकादमी द्वारा सम्मानित हुए। उस समय तथा कुछ वर्षों तक यह मान लिया गया कि प्रेमचंद का संपूर्ण ज्ञात-अज्ञात साहित्य सामने आ गया है, परंतु मुझे क्रमशः यह स्पष्ट होता गया कि अभी काफी कुछ शेष बचा है जिसे ढूँढ़ना चाहिए और उसे साहित्य-संसार के सामने लाना चाहिए। मैंने खोज का सिलसिला जारी रखा और सन् १९८८ में भारतीय ज्ञानपीठ ने मेरे द्वारा खोजी सामग्री को ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’ (दो खंड) के नाम से प्रकाशित किया। इसमें लगभग १४०० पृष्ठों की प्रेमचंद के साहित्य की वह सामग्री थी, जो हिंदी-संसार क्या, उनके पुत्रों तक को ज्ञात नहीं थी। इसमें ३० तो कहानियाँ ही हैं, सैकड़ों पत्र, लेख, समीक्षा, संस्मरण और दस्तावेज थे। भारत के आधुनिक साहित्य के इतिहास में और संभवतः विश्व साहित्य में इतने विपुल अज्ञात साहित्य की खोज की यह एकमात्र घटना थी। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि प्रेमचंद की अनेक ज्ञात-अज्ञात कहानियाँ पाठकों के सामने से ओझल कर दी गईं और प्रेमचंद की चिंताओं तथा संवेदनाओं का एक महत्त्वपूर्ण संसार लुप्त सा हो गया। आपको मालूम है क्या कि प्रेमचंद ने एक कहानी परिवार-नियोजन पर लिखी थी, एक लेनिन के कामरेडों पर, जिसमें एक रूसी प्रेमिका प्रेमी से धोखा करके जार के गवर्नर से शादी कर लेती है। एक कहानी ‘जिहाद’, जो आज के जिहाद पर लिखी गई थी, एक कहानी जिसमें वे अवैध संतान की स्वीकृति में एक नया मानवीय तर्क देते हैं तथा एक अन्य कहानी जो ‘लिव-इन-रिलेशनशिप’ के दुष्परिणाम को दिखाती है तथा ‘शूद्रा’ कहानी भोले-भाले भारतीयों को छल-कपट से मॉरिशस आदि देशो में ले जाने की दुखद कथा कहती है।

उनके साहित्य में अनेक ऐसे कथा-प्रसंग हैं, जो देश के प्रति उनकी चिंताओं तथा सरोकारों को प्रकट करते हैं, पर वे कभी चर्चा के विषय नहीं बनते, क्योंकि आलोचक न तो इतनी खोज करता है और न इनसे उनका उद्देश्य ही सिद्ध होता है। इसके प्रकाशन ने हिंदी-संसार में बड़ी हलचल की और राजेंद्र यादव, सुधीश पचौरी जैसे वामपंथी लेखक भी इसकी प्रशंसा से स्वयं को नहीं रोक पाए। राजेंद्र यादव ने ‘हंस’ में लिखा कि यह खोज योरोपीय विश्वविद्यालयों में होने वाले शोध-कार्यों के समान उच्चकोटि की है। इसके बाद भी यह क्रम चलता रहा और इस पुस्तक के दूसरे संस्करण में, जो वाणी प्रकाशन ने अभी किया है, लगभग १०० पृष्ठों की नई सामग्री जोड़ी गई। इस खोज के दौरान प्रेमचंद की मूल पांडुलिपियों को खोजा गया, यहाँ तक ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और ‘गो-दान’ की पांडुलिपि भी मिलीं तथा उनकी कुछ रचनाओं की आरंभिक रूपरेखाएँ भी मिलीं, जो अंग्रेजी में लिखी गई थीं। ‘गो-दान’ की रूपरेखा अंग्रेजी में है, जो मैंने प्रकाशित करा दी है। इन खोजों ने प्रेमचंद की वर्तमान अवधारणाओं को ही नहीं बदला, उनके अध्ययन की दिशाओं के नए द्वार भी खुले और यह स्पष्ट हुआ कि प्रेमचंद को समझने के लिए किसी विदेशी विचारधारा के स्थान पर भारतीय चिंतन परंपरा और स्वाधीनता के भारतीय संघर्ष के परिप्रेक्ष्य में रखकर ही उनका मूल्यांकन करना होगा। स्वाभाविक था, इसके लिए प्रेमचंद के मूल पाठ तथा समग्र पाठ की अति आवश्यक थी। आपके सामने जब तक लेखक का समग्र साहित्य नहीं है और वह भी कालक्रम में नहीं है तो आपके सारे निष्कर्ष निरर्थक तथा अप्रामाणिक हो जाते हैं।

खेदजनक है, साहित्य के इस मूलभूत सिद्धांत को न तो वामपंथी आलोचकों ने समझा और न कभी इस प्रश्न को ही उठाया गया कि यदि लेखक के साहित्य को उसके प्रकाशन-क्रम में रखकर नहीं देखा जाएगा तो उसकी साहित्य-यात्रा के विकासात्मक स्वरूप को कैसे समझा जा सकता है? प्रेमचंद के साहित्य को, विशेषतः उपन्यासों एवं कहानियों को लेकर बड़ी अराजकता रही है। आप देखें कि ‘मानसरोवर’ के आठ खंडों में २०३ कहानियाँ हैं और उनका कोई प्रकाशन-क्रम नहीं है। जब प्रकाशक श्रीपतराय ने कुछ कहानियाँ एकत्र कर लीं तो ‘मानसरोवर’ के खंड छपते रहे। यहाँ तक कि इसके आरंभिक दो खंड प्रेमचंद ने ही प्रकाशित किए थे, परंतु उनमें भी ऐसी ही अराजकता विद्यमान है। अब स्थिति यह है कि ‘मानसरोवर’ अब ‘नया मानसरोवर’ के नाम से प्रकाशित कराया है और उसमें २०३ नहीं २९९ कहानियाँ हैं; वे सभी प्रकाशन-क्रम से लगाई गई हैं और कहानियों के संबंध में पूरा विवरण दिया गया है। जो लोग प्रेमचंद की विरासत के दावेदार हैं, यह कार्य उन्हें करना चाहिए था। हिंदी के मार्क्सवादी आलोचक डॉ. शिवकुमार मिश्र ने अमृतसर की संगोष्ठी में सन् १९८० में कहा था कि हमारी पीड़ा है कि गोयनका ने प्रेमचंद पर काम किया, हमने क्यों नहीं किया? डॉ. मिश्र ने इसका उत्तर नहीं दिया, क्योंकि वे जानते थे कि कम्युनिस्ट पार्टी के उद््देश्यों के अनुरूप प्रेमचंद की व्याख्या करते आ रहे थे और उनका लक्ष्य साहित्यिक नहीं राजनीतिक था। डॉ. मिश्र तथा उनके साथी लेखक तब भी यह जानते थे कि प्रेमचंद को ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ का संस्थापक बनाकर वे वास्तव में हिंदी साहित्य की मुख्य धारा सांस्कृतिक राष्ट्रीय धारा को हाशिए पर डालकर प्रगतिशील साहित्य-धारा को प्रमुख धारा के रूप में स्थापित करके कम्युनिस्ट विचारधारा को देशभर में फैलाना चाहते हैं।

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि प्रेमचंद ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के संस्थापक नहीं थे, वे तो इसके प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष भी नहीं होना चाहते थे और जिन पाँच-छह हिंदुस्तानी युवकों ने लंदन में ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की स्थापना की थी, वे सब जमींदार-नवाबों के परिवार के युवक थे और उसका जो मेनिफेस्टो प्रेमचंद ने ‘हंस’ के जनवरी, १९३६ के अंक में प्रकाशित किया था, उसमें कम्युनिस्ट-दर्शन तथा उसकी कोई शब्दावली का इस्तेमाल नहीं किया गया था। उनमें केवल सज्जाद जहीर ही प्रेमचंद को एक उर्दू लेखक के रूप में जानते थे और उन्होंने ही प्रेमचंद पर दबाव डाला कि वे ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के प्रथम अधिवेशन के सभापति हो जाएँ। सज्जाद जहीर समझ रहे थे और बाद में डॉ. रामविलास शर्मा भी कि प्रेमचंद की लोकप्रियता तथा समाज में उनकी स्वीकृति उनके राजनीतिक दर्शन को हिंदी क्षेत्रों में फैलाने में सहायक बनेगी। इसी कारण प्रेमचंद द्वारा जवाहरलाल नेहरू, जाकिर हुसैन आदि को सभापति बनाने के आग्रह पर भी सज्जाद जहीर ने उन्हें सभापति बनने के लिए तैयार कर लिया, लेकिन यह प्रेमचंद का भारत-प्रेम ही था कि उन्होंने अपने व्याख्यान में भारतीय जीवन-मूल्यों को ही स्थापित करने पर बल दिया। यह वामपंथियों की खूबी है कि उन्होंने प्रेमचंद द्वारा ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के उद्घाटन की घटना को इतनी बार घोषित किया कि वे प्रगतिशील साहित्य-धारा के संस्थापक और वामपंथी साहित्य के मसीहा मान लिये गए तथा वामपंथी उनकी विरासत के असली हकदार बन गए।

अभी मेरे सामने प्रेमचंद के विचार-पक्ष के नए उद्घाटनों का परिचय देना बाकी है। प्रेमचंद विचारधारा के कई पक्ष हैं—स्वयं प्रेमचंद अपने विचार एवं सरोकारों के बारे में क्या कहते हैं, उनके समकालीन आलोचक तथा बाद के आलोचक किस प्रकार उनकी व्याख्या करते हैं तथा किस प्रकार उनकी विचारधारा को मुख्यतः वामपंथी लेखक उन्हें वामपंथी लेखक होने की स्थापना का आंदोलन चलाते रहे हैं। प्रेमचंद के विचारों की कुछ जानकारी मैं आरंभ में दे चुका हूँ, अतः उसकी आवृति की आवश्यकता नहीं है। बस इतना ध्यान रहे कि प्रेमचंद वाल्मीकि, वेदव्यास, तुलसी, कबीर आदि की परंपरा के संवाहक साहित्यकार हैं। उनके सामने अपने समय का भारत है, भारत-दुर्दशा है और भारत के स्वत्व-बोध एवं अस्मिता की रक्षा के साथ औपनिवेशिक शासन से मुक्त होने की चुनौती है। भारत की आत्मा की रक्षा के लिए स्वराज्य आवश्यक है और स्वराज्य से ही भारत की आत्मा से साक्षात्कार हो सकता है तथा उसे संजीवनी मिल सकती है। प्रेमचंद के पास भारतीयता का एक स्वप्न है, जैसा कि स्वामी विवेकानंद एवं महात्मा गांधी के पास भी भारत की मुक्ति का एक स्वप्न था। स्वामी विवेकानंद अपने विचार-दर्शन, गांधी आचरण से और प्रेमचंद अपने लेखकीय धर्म से स्वप्न को आकार दे रहे थे।

प्रेमचंद के मन-मानस की रचना में उर्दू में पढ़ी रामायण, महाभारत, पुराण आदि संस्कृत साहित्य, हिंदी में अनूदित बांग्ला, मराठी आदि साहित्य तथा अंग्रेजी में इंग्लिश, फ्रेंच, रूसी साहित्य का योगदान है। उन्होंने आरंभ में रवींद्रनाथ टैगोर की कहानियों का उर्दू में अनुवाद किया था और स्वामी विवेकानंद, रामायण और महाभारत, हिंदू सभ्यता और लोकहित, कालिदास आदि पर लेख लिखे तथा वाल्मीकि एवं व्यास की प्रशंसा की कि उन्होंने अपने पात्रों को ‘पूर्ण मनुष्य’ बनाकर प्रस्तुत किया। वे अपने इन आरंभिक लेखों में भारतीय सभ्यता के गुणों की प्रशंसा, ईसाई धर्म और पश्चिमी सभ्यता के दुष्प्रभावों तथा हिंदुस्तानियों द्वारा अंग्रेजों से तुलना में स्वयं को धिक्कारना तथा हीन समझने की आलोचना करते हैं। बंग-भंग की घटना उनके देश-प्रेम को इतना सशक्त एवं सक्रिय बना देती है कि उसके प्रभाव में सन् १९०८ में देशप्रेम की पाँच कहानियाँ लिखते हैं और ‘सोजेवतन’ कहानी-संग्रह में प्रकाशित कराते हैं। इसकी एक कहानी ‘दुनिया का सबसे अनमोल रत्न’ में देश-रक्षा के लिए बहनेवाला खून दुनिया का सबसे अनमोल रत्न है और एक हिंदू सैनिक युद्ध के मैदान में ‘भारत माता की जय’ कहकर प्राण त्यागता है। इस प्रकार वे अपना आरंभिक साहित्यिक जीवन देशभक्ति तथा एक नई राष्ट्रीय चेतना से शुरू करते हैं, जिसकी प्रेरणा उन्हें बंगीय साहित्य और बंगीय राजनीतिक उथल-पुथल से मिलती है। यद्यपि वे इससे पूर्व ही सांस्कृतिक-राष्ट्रीय जागरण के अंग बन चुके थे।

उस समय का नवजागरण सर्वव्यापी था और समाज के विभिन्न अंगों में कायाकल्प की नई चेतना आंदोलन का रूप ले रही थी। इसका परिणाम हुआ कि प्रेमचंद का कथा साहित्य एक प्रकार से राष्ट्र एवं स्वराज्य के कथात्मक महासमर का आख्यान बन गया और यह भी कहा गया कि प्रेमचंद स्वाधीनता संग्राम और गांधीवाद के साहित्यिक संस्करण थे। प्रेमचंद की इस साहित्यिक जागृति में समाज, संस्कृति, संप्रदाय, भाषा आदि सभी में एक नई जागृति, एक नए परिवर्तन तथा एक प्रकार से कायाकल्प का आह्वान था। उन्होंने भारतीय समाज में जागृति, मुक्ति और आमूलचूल परिवर्तन की चेतना उत्पन्न की, कृषि संस्कृति की रक्षा की ओर ध्यान आकर्षित किया, लघुतम समाज के शोषण एवं दमन से मुक्ति की लड़ाई लड़ी तथा सांप्रदायिक सद्भाव तथा सामरस्य की अनिवार्यता सिद्ध की। प्रेमचंद ने लगभग तीन हजार पात्रों की सृष्टि करके भारतीय जीवन की विराटता के साथ सभी प्रमुख धर्मों, वर्णों, वर्गों, जातियों के पात्रों की कहानियाँ लिखीं, जिसमें सभी प्रकार के पात्रों के साथ विदेशी पात्र, पशु-पक्षी, धर्म-प्रवर्तक, इतिहास-पुरुष, देवी-देवता तथा बाल-पात्रों तक को स्थान मिला। वे एक ऐसी युवा पीढ़ी को भी जन्म देते हैं, जो व्यक्ति, समाज और देश के लिए अराष्ट्रीय तथा अमानवीय परिस्थितियों, रूढि़यों तथा शासकीय अन्यायों से टकराती है और समाज को बेहतर जीवन देना चाहती है। वे अपने समय के ही नहीं, बाद के कथा-साहित्य में भी एकमात्र ऐसे कथाकार हैं, जो युवा पीढ़ी को राष्ट्रीय, सांस्कृतिक, सामाजिक आदि जड़ता, दासता एवं हीनता के विरुद्ध खड़ा करते हैं, यह युवा पीढ़ी प्रश्न और विद्रोह करती है और एक आधुनिक भारतीय समाज की रचना का स्वप्न देखती है। आप देखेंगे कि प्रेमचंद के पात्र पुरातनता, मध्ययुगीनता और आधुनिकता को एक साथ जीते हैं, परंतु उनके स्वप्न में ऐसा भारत है, जो एकता, समता, स्वाधीनता, स्वत्व एवं अस्मिता-बोध के साथ व्यक्तिशः उन्नति का आदर्श सामने रखता है।

प्रेमचंद ने अपने अंतिम समय में लिखा था कि लोगों का चरित्र ही निर्णायक तत्त्व है, क्योंकि कोई समाज-व्यवस्था नहीं पनप सकती, जब तक कि हम व्यक्तिशः उन्नत न हों। इसीलिए वे खूनी क्रांति अथवा रक्तिम समाजवाद की बात नहीं करते, वे सारा जीवन आत्म-परिष्कार, आत्मोत्सर्ग, वृत्तियों का परिष्कार, मन का संस्कार तथा देवत्व की जागृति की चर्चा करते हैं और उन्हें अपने साहित्य का प्रयोजन बनाते हैं। उनकी मृत्यु से एक महीने पहले ‘हंस’ का सितंबर, १९३६ का अंक छपा था और इसमें उनका प्रसिद्ध लेख ‘महाजनी सभ्यता’ प्रकाशित हुआ था। वामपंथी आलोचना में इस लेख की बार-बार चर्चा होती है कि प्रेमचंद ने अंतिम समय में रक्तिम क्रांति का दर्शन स्वीकार कर लिया था, परंतु यह खेदजनक है कि यह आलोचक यह नहीं बताते कि इसी अंक में उनकी कहानी ‘रहस्य’ भी छपी थी, जिसका प्रतिपाद्य है कि मानवीय सेवा से ही देवत्व की उपलब्धि होती है, अर्थात् वे अपनी अंतिम प्रकाशित रचना में ‘देवत्व’ के भारतीय मूल्य की ही स्थापना करते हैं। अतः प्रेमचंद की वसीयत का निर्णय खूनी क्रांति से नहीं ‘देवत्व’ की उपलब्धि से ही होगा, जो मनुष्य को मनुष्यता के सर्वोच्च शिखर की प्राप्ति कराती है।

प्रेमचंद के इस विराट् एवं भव्य भारतीय जीवन के चित्रण में पूरी दृढ़ता के साथ आत्मा का अस्तित्व बना हुआ है। वे अपने पात्रों को आत्म-परीक्षाओं से गुजारते हैं और उन्हें श्रेष्ठ मनुष्य के रूप में पेश करते हैं। इस प्रकार वे अपने पात्रों की आत्मा के शिल्पी हैं और पाठक के भी। वामपंथी मुक्तिबोध तक ने माना कि प्रेमचंद हमारी आत्मा के शिल्पी हैं तथा वे अपने पात्रों की उदारता, उदात्तता, नैतिकता और मानवीय गुणों से हमें अपने आत्म एवं समाज के प्रति उन्मुख करके एक अच्छा मानव बनाने लगते हैं। यहाँ मैं ‘महाभारत’ के यक्ष-युधिष्ठिर के प्रसंग का उल्लेख करना चाहूँगा, जिसमें युधिष्ठिर यक्ष के कहने पर भी अपने सहोदर भाई के स्थान पर सौतेले भाई नकुल की प्राणरक्षा करने का आग्रह करता है। यक्ष द्वारा कारण पूछने पर युधिष्ठिर कहता है कि यदि मैं ऐसा नहीं करता तो मेरे भीतर का मनुष्य भाव मर जाएगा, यदि मैं पहले सौतेली माता के प्रति अपने दायित्व को भूल जाऊँगा। युधिष्ठिर का यह मानुष-भाव भारतीय साहित्य का प्राणतत्त्व है, यह प्रेमचंद साहित्य में आपको पूरे सौंदर्य के साथ मिलेगा। आपने ‘मंत्र’ कहानी पढ़ी होगी। एक बूढ़ा भगत ऐसे डॉक्टर के बेटे को विषदंश से बचाता है, जिसने उसके एकमात्र बीमार बचे बेटे को देखने से मना कर दिया था और जो इसके कारण मर गया था। आपने ‘गो-दान’ भी पढ़ा होगा, इसमें होरी राम अपने ऐसे भाई के परिवार का भरण-पोषण करता है, जिसने उसकी गाय को जहर दे दिया था और जो अपनी मृत्यु के समय उससे मिलकर स्वर्गीय आनंद की अनुभूति करता है। यहाँ तक कि ‘कफन’ कहानी में प्रेमचंद मानुष-भाव की रक्षा करते हैं। घीसू और माधव मधुशाला में कुछ खाते-पीते हैं, परंतु वे भी दूर खड़े भिखारी को बचा हुआ भोजन देकर सुख की अनुभूति करते हैं।

प्रेमचंद साहित्य में तो मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी भी मानवीय संवेदनाओं तथा मानवीय उत्कर्ष से परिपूर्ण दिखाई देते हैं। प्रेमचंद की मानुषता, मानवीय संवेदना को भारतीय आत्मा कहें, भारतीयता कहें, भारतीय संस्कृति कहें, इन सभी के मूल में मनुष्य होना ही सबसे बड़ा सत्य है। भारतीयता के जितने भी गुण हैं, उसका जो भी स्वरूप है, वह किसी ग्रंथ या पैगंबर के धर्म के अनुरूप नहीं है, उसे किसी बंधन में नहीं बाँधा जा सकता है। यह भारतीयता हम भारतीयों का स्वभाव है, जो हजारों वर्षों से हमारे मन में विद्यमान है। हम जानते हैं कि मनुष्य से श्रेष्ठ कोई नहीं है इस धरती पर और यह भी कि मनुष्यता का आचरण ही सबसे बड़ा धर्म और संस्कृति है। इस कारण प्रेमचंद को केवल साम्राज्यवाद एवं सामंतवाद के विरोध तक सीमित करना अथवा उन्हें ग्रामीण जीवन का अथवा गांधीवाद का कथाकार बनाकर संकुचित करना उनके विराट् मानवीयता के संसार को सीमित करना है और अज्ञेय के अनुसार जो उनकी ‘महाकरुणा’ है, उसकी गहरी संवेदना को खंडित करना है। प्रेमचंद को वामपंथी बनाने के मूल में प्रेमचंद ओझल हो जाते हैं और पार्टी का विचार प्रमुख बन जाता है और जो इसका खंडन करता है तथा तर्क के साथ देता है, उसका खंडन करने में असमर्थ होने पर उसकी नीयत पर आक्रमण होता है कि वह हिंदूवादी है, प्रतिक्रांतिवादी है, सेठाश्रयी है। आपको विवेक का ऐसा पतन केवल प्रगतिशील आलोचना में मिलेगा, जहाँ शिविरबंदी और पक्षधरता मानसिक रुग्णता बन जाती है। प्रेमचंद ने अपनी मृत्यु के आठ-दस दिन पहले अज्ञेय से कहा था कि कुछ लोग उनके विचारों का सम्मान नहीं करते, बल्कि उनके विचारों के इस्तेमाल की कोशिश करते हैं। अज्ञेय कहते हैं कि प्रेमचंद स्वयं इस इस्तेमाल से बचते रहे, परंतु उनके बाद दशकों तक प्रेमचंद का इस्तेमाल राजनीतिक उद्देश्यों से होता गया और उनकी भारतीय विवेक चेतना, जो उनकी राष्ट्रीय तथा सांस्कृतिक चेतना का ही समन्वित रूप था, उसकी उपेक्षा ही नहीं अपमानित भी किया जाता रहा। प्रेमचंद इस भारतीय विवेक चेतना से देश की मुक्ति का महासमर लड़ रहे थे और औपनिवेशक दूषण से अपनी संस्कृति की रक्षा भी कर रहे थे और वे अपने इतिहास का भी समुचित उपयोग भी कर रहे थे।

वामपंथी लेखक प्रेमचंद को इतिहास-विरोधी दिखाते हैं, परंतु सत्य यह है कि प्रेमचंद हिंदू संस्कृति, राम, कृष्ण, विक्रमादित्य, वाल्मीकि, कालिदास, तुलसी, प्रताप, शिवाजी आदि अनेक राष्ट्रपुरुषों की प्रशंसा करते हैं। उनकी लगभग १५ कहानियाँ इतिहास-पुरुषों पर हैं तथा राम के जीवन पर लिखी जीवनी है। उनका इतिहास-दर्शन इन पंक्तियों से समझा जा सकता है, जो उन्होंने अपने ‘कर्बला’ लेख में लिखा है, ‘‘हिंदू जाति यदि अपने पुरखाओं को किसी धर्म-संग्राम में आत्मोत्सर्ग करते हुए देखकर प्रसन्न न हो, तो सिवाय इसके और क्या कहा जा सकता है कि हममें वीर-पूजा की भावना ही नहीं रही, जो किसी जाति के अधःपतन का अंतिम लक्षण है। जब तक हम अर्जुन, प्रताप, शिवाजी आदि वीरों की पूजा और उनकी कीर्ति पर गर्व करते हैं, तब तक हमारे पुनरुद्धार की कुछ आशा हो सकती है। जिस दिन हम इतने जाति-गौरव शून्य हो जाएँगे कि अपने पूर्वजों की अमर-कीर्ति पर आपत्ति करने लगें, उस दिन हमारे लिए कोई आशा न रहेगी। हम तो इस चित्त-वृत्ति की कल्पना करने में भी असमर्थ हैं, जो हमारे अतीत-गौरव की ओर इतना उदासीन हो।’’ प्रेमचंद की इस टिप्पणी पर कोई टिप्पणी नहीं करूँगा। आप स्वयं इसका निष्कर्ष निकालें और देखें कि क्या इस प्रेमचंद को आप जानते हैं। इस पर भी वामपंथी आलोचक प्रेमचंद में वस्तुनिष्ठता और यथार्थवादी क्रांतिकारी समाजवाद की बात करते हैं, परंतु ऐसा यथार्थ नहीं हो सकता, जो आदर्श से शून्य हो और आदर्श ठोस जीवन-दृष्टि के अभाव में अर्थहीन एवं निरर्थक होगा। इसीलिए प्रेमचंद का एक पक्ष मंगल का है और दूसरा अमंगल से मुक्ति का। यही प्रेमचंद का ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ है, यही उनका ‘मंगल भवन अमंगल हारी है’, यही उनकी भारतीयता है, यही उनकी विरासत और यही उनका मंगलसूत्र है।

और अंत में, वाराणसी महादेव की नगरी है, परंतु यह उस नगरी का प्रताप है कि हिंदी साहित्य के तीन सम्राटों की वह कर्म-क्षेत्र रही। ये तीन सम्राट् हैं—काव्य-नाटक सम्राट् जयशंकर प्रसाद, आलोचना-सम्राट् आचार्य रामचंद्र शुक्ल और कथा-सम्राट् प्रेमचंद। आरंभिक दो सम्राट् संस्कृत साहित्य एवं भाषा में पारंगत थे, परंतु प्रेमचंद उर्दू-फारसी के संस्कार में दीक्षित होकर आए थे, लेकिन उन्होंने हिंदी भाषा का मानक रूप दिया और रचनात्मकता में भी इन दो सम्राटों की तुलना में अपना नया मार्ग चुना तथा भारतीय जनता को कथा में स्थान देकर अपने कथा साहित्य को विराटता, भारतीयता और उच्चतम मानवीयता एवं सर्वोन्मुखी कायाकल्प से समृद्ध किया तथा इस महान् राष्ट्रीय-सांस्कृतिक जागरण एवं भारतीयता के उन्मेष ने हिंदी कथा-साहित्य में ‘प्रेमचंद युग’ की स्थापना की। आज तक ‘प्रेमचंद युग’ का कोई विकल्प सामने नहीं आया और जैनेंद्र, अज्ञेय, यशपाल, नागर, धर्मवीर भारती जैसे बड़े लेखक भी अपनी ऐसी पहचान नहीं छोड़ सके। यहाँ तक कि प्रसाद और रामचंद्र शुक्ल भी भारत की सीमा तक ही सीमित रहे, परंतु प्रेमचंद ही वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, तुलसीदास और टैगोर के समान दिग्विजय में सफल हुए। इस देश का वही साहित्यकार अमरत्व प्राप्त कर सकता है, जो भारतीयता, भारतीय विवेक और अस्मिता का रक्षक हो, मानवीयता का संस्थापक तथा लोक-मंगल का गायक हो। प्रेमचंद ने इसी साहित्य-धर्म को अपनाया और इसी कारण वे आज भी कथा-सम्राट् के सिंहासन पर विराजमान हैं। भविष्य में भी इस देश में वही साहित्यकार अमरत्व प्राप्त कर सकेगा, जो भारतीयता की इस विरासत का वारिस बनने को तैयार होगा। आशा है, हमें और अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी होगी।

ए-९८, अशोक विहार,

फेज प्रथम, दिल्ली-११००५२

दूरभाष : ९८११०५२४६९

—कमल किशोर गोयनका

हमारे संकलन