दादाभाई नौरोजी कौन?

चार सितंबर को दादाभाई नौरोजी की जन्मतिथि थी। आधुनिक भारत की कुछ विभूतियों के जन्मदिवस पर, विशेषतया जिन्होंने देश के नव-जागरण में किसी भी प्रकार का उल्लेखनीय अवदान दिया हो, उनके चित्र पर संसद् के केंद्रीय कक्ष में माल्यार्पण की परंपरा है। प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, कुछ मंत्रिगण तथा सांसद अथवा पूर्व सांसद, जो आयोजन में सम्मिलित होते हैं, पुष्पांजलि अर्पित करते हैं। महान् विभूति के जीवन और कृतित्व विषयक एक छोटी सी पुस्तिका भी लोकसभा की ओर से वितरित की जाती है। अपने कार्यक्रम की सुविधा के अनुसार प्रधानमंत्री इसमें उपस्थित होते हैं, किंतु अध्यक्ष महोदय, उपाध्यक्ष तथा कुछ मंत्री तो अधिकतर उपस्थित रहते हैं। यह आयोजन किसी दल से संबंधित नहीं होता है। इस अवसर पर देश उनको श्रद्धा से नमन करता है, उनके अवदान को कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करता है, उनके कृतित्व से प्रेरणा प्राप्त करता है। इसकी पूरी व्यवस्था लोकसभा का सचिवालय करता है। यह आयोजन देश की एकता का सूचक हो जाता है, क्योंकि प्रायः पूरे देश से महापुरुषों का चयन किया गया है। यह एक छोटा सा आयोजन होता है, पर राष्ट्रीय स्मृति के लिए यह महत्त्वपूर्ण है। जो नए सांसद होते हैं, उन्हें इसके माध्यम से कुछ नई जानकारी प्राप्त होती है। जब हम राज्यसभा के सदस्य थे, ऐसे अवसरों पर अवश्य जाते थे। देखने में आता था कि श्री लालकृष्ण आडवाणी एक ऐसे नेता हैं, जो दिल्ली में रहने पर इन अवसरों पर अवश्य नियमित रूप से शामिल होते थे। डॉ. मनमोहन सिंह जब वित्तमंत्री थे, अकसर उपस्थित रहते थे। कर्नाटक में राज्यपाल के दायित्व से निवृत्त होने के बाद हमने पुनः इसमें भाग लेना शुरू किया, यदि स्वास्थ्य के कारण कोई अवरोध नहीं हुआ तो। दादाभाई नौरोजी के जन्मदिवस पर इस वर्ष हम नहीं जा सके। दूसरे दिन समाचार-पत्रों में देखा कि इस अवसर पर केवल लोकसभा तथा राज्यसभा के अधिकारी ही उपस्थित थे। कोई मंत्री या पूर्व मंत्री अथवा सांसद उपस्थित नहीं था।

इन अवसरों पर समुचित समादर हो सके, इसका दायित्व मुख्यतः सत्तापक्ष का ही होता है। संसदीय मामलों के मंत्री का ध्यान इस ओर होना चाहिए। स्पीकर महोदय तो विदेश में थे। संसदीय मामलों के मंत्री को तो उपस्थित होना चाहिए था। कम-से-कम वे कुछ अन्य सदस्यों को आयोजन में शामिल होने के लिए कह सकते थे। यह खेदजनक है कि दिल्ली में भाजपा के छहों संसद् सदस्य भी नदारद थे। इस समय जहाँ तक हमारी जानकारी है, पारसी समुदाय का कोई भी सदस्य लोकसभा या राज्यसभा में नहीं है। कुल मिलाकर ६०-७० हजार से ज्यादा पारसी नहीं हैं। इस अल्पसंख्यक समुदाय का देश के विकास के हर क्षेत्र में पिछले २०० वर्षों से अत्यंत सराहनीय योगदान रहा है। चाहे राजनीति हो, शिक्षा का क्षेत्र हो अथवा विज्ञान हो, औद्योगिक विकास या व्यापार का क्षेत्र हो या देश की सुरक्षा का क्षेत्र हो, इस समुदाय का अतुलनीय योगदान है, पर इन्होंने कभी अल्पसंख्यक होने के आधार पर अपने लिए कुछ नहीं माँगा। वे इस प्रकार राष्ट्रीय मुख्यधारा में घुलमिल गए हैं, हालाँकि अपनी अस्मिता को यथासंभव सुरक्षित रखा है। उनके बहुआयामी अवदान, जनहित में दान और लोकोपकारी कार्यों की चर्चा तो अलग से करनी होगी। ऐसे समुदाय के एक जाज्वल्यमान नक्षत्र थे दादाभाई नौरोजी। उन्हें हम केवल पारसी बिरादरी के रूप में नहीं देख सकते। वे राष्ट्रीय चेतना के सूत्रधारों में प्रमुख स्थान रखते हैं। उन्हें देश में भारत के ‘ग्रांड ओल्डमैन’ कहकर संबोधित किया जाता था। वे इंडियन नेशनल कांग्रेस के जन्मदाताओं में से एक थे, यानी पुरानी कांग्रेस के; १९६९ में विघटन के बाद की कांग्रेस के नहीं। वे प्रथम भारतीय थे, जो ब्रिटिश संसद् के सदस्य बने। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व और कृतित्व की चर्चा कभी अलग से होगी। अपने व्यक्तित्व का निर्माण उन्होंने अपने बलबूते पर किया। वे एक समाज-सुधारक थे, शिक्षा प्रसार में प्रयत्नशील रहे, अनेक संस्थाएँ भारत और इंग्लैंड में स्थापित कीं, प्रोफेसर रहे, बड़ौदा के दीवान बने, संपादक रहे। विश्व व्यापार में भी भाग लिया। ब्रिटिश शासनकाल में भारत से धन किस प्रकार विदेश जा रहा है, जिसे ‘डे्रन थ्योरी’ के नाम से जाना जाता है, उसको सर्वप्रथम दादाभाई नौरोजी ने उजागर किया। दो बार कांग्रेस के प्रेसीडेंट रहे। १९०६ का कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन बड़ा संवेदनशील था। उन्होंने ‘सेल्फ गवर्नमेंट’ यानी ‘अपने शासन’ का नारा दिया।

ब्रिटिश संसद् के चुनाव के समय ब्रिटेन के तत्कालीन कंजरवेटिव पार्टी के नेता ने उन्हें काला आदमी कहा, तो इंग्लैंड और अमेरिका में इस रंगभेदी टिप्पणी से बावेला मच गया। और सच्चाई यह कि दादाभाई नौरोजी का रंग उक्त नेता सैलिजबरी से कहीं अधिक साफ था। सैलिजबरी की इंग्लैंड के ही बहुत प्रसिद्ध विद्वानों ने भर्त्सना की। हमारा सरोकार तो उनके द्वारा देश के हित के लिए सकारात्मक बहुपक्षीय योगदान से है। गांधीजी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ में ‘राष्ट्रीयता के रचयिता’ (Author of Nationalism) और ‘राष्ट्रपिता’ (Father of Nation) कहकर उन्हें संबोधित किया है। वे हर प्रकार की संकीर्णता के परे थे। रुस्तम मस्तानी ने उनकी वृहद जीवनी करीब ७०-८० साल पहले लिखी थी, जो लंदन से प्रकाशित हुई थी। उसका संक्षिप्त संस्करण प्रकाशन विभाग ने प्रकाशित किया है। उनके विषय में १८९९ में उस समय के एक प्रसिद्ध पत्रकार जी.पी. पिल्लै ने क्या लिखा था, वह उद्धृत करना चाहूँगा—“If India were a republic and the republic had the right to elect it’s own president the man who by the unanimous voice of his country men would be elected its uncroned king is Mr. Dadabhai Naroji. No Indian is more loved, more honoured, more esteemed throughout the length and breadth of India then he. xx To Mr. Naroji alone is accorded the proud privilege of belonging to all India.” इसका अनुवाद हम प्रस्तुत करना चाहेंगे—‘‘यदि भारत एक गणतंत्र होता, और गणतंत्र को अपने राष्ट्रपति चुनने का अधिकार होता तो जो व्यक्ति देश की एक आवाज में अथवा सर्वसम्मति से चुना जाता, वह होते देश के बेताज बादशाह श्री दादाभाई नौरोजी। कोई अन्य भारतीय इतना सर्वप्रिय नहीं, इतना सम्मानित नहीं, इतना आदृत नहीं उनके बराबर पूरे देश में। क्या ऐसी महान् विभूति के सम्मान में वर्ष में नेता एक दिन आधे घंटे का समय नहीं निकाल सकते? सवाल उठता है कि अपने पुरखों के प्रति, जो हमारी आज राष्ट्रीय धरोहर हैं, उनके प्रति कितने संवेदनशील हैं हम।

कुछ पत्रिकाओं की चर्चा

कुछ अरसे से हिंदी की पत्रिकाओं के विषय में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर सके। देखकर प्रसन्नता होती है कि हिंदी में बहुत अच्छी पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं, जिनसे हिंदी प्रेमियों को भाँति-भाँति की जानकारी प्राप्त होती है। स्वाभाविक है कि पत्रिकाओं के अपने-अपने दृष्टिकोण होते हैं। संपादक की अपनी सोच पर भी बहुत कुछ निर्भर होता है। पाठकों का भी ध्यान रखना पड़ता है। कहीं-कहीं क्षेत्रीय भावनाओं या समस्याओं का ध्यान रखना पड़ता है। कुछ पत्रिकाएँ अधिक सुधी पाठकों को पसंद आएँगी और कुछ पत्रिकाएँ साधारण पाठकों को भी रुचिकर होती हैं। विषयों की विविधता के आधार पर पत्रिकाएँ वही अधिक लोकप्रिय होती हैं, जिनका लाभ परिवार के सभी लोग, महिलाओं और बाल-गोपाल सहित उठा सकें। सामग्री ऐसी होनी चाहिए, जो मनोरंजन कर सके, पाठक की उत्सुकता जाग्रत् कर या बढ़ा सके और साथ-साथ विचारों को परिष्कृत भी कर सके। ऐसा लगता है कि हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में न केवल वैचारिक प्रौढ़ता आ रही है, वरन् समाज की विभिन्न आवश्यकताओं और समस्याओं के विवेचन में, देश-विदेश के बदलते परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए एक अपने निजी चरित्र का भी निर्माण हो रहा है। हमारे सामने इस समय अनेक पत्रिकाएँ हैं, जिनसे उनकी कवरेज अथवा व्याप्त क्षेत्र को विविधता एवं तदनुकूल क्षमता का भी पता लगता है।

साहित्य अकादमी मध्य प्रदेश, भोपाल का मासिक प्रकाशन ‘साक्षात्कार’ का जून-जुलाई, २०१९ (४७४-४७५) हिंदी के प्रतिष्ठित कवि एवं आलोचक-विचारक विष्णु खरे पर केंद्रित है। अंक विष्णु खरे के साहित्यिक और वैचारिक अवदान का सर्वांगिक आकलन प्रस्तुत करता है। इस अंक के अतिथि संपादक नवल शुक्ल हैं, जो बधाई एवं धन्यवाद के पात्र हैं। यह अंक वास्तव में विशेषांक कहा जा सकता है, हिंदी साहित्य के पारखियों और प्रबुद्ध पाठकों को अवश्य पसंद आएगा। यह एक संग्रहणीय अंक है।

‘विवेक ज्योति’ श्रीरामकृष्ण मिशन विवेकानंद आश्रम, रायपुर (छ.ग.) से प्रकाशित होता है। यह प्रकाशन करीब ५७ वर्षों से निरंतर निकल रहा है। जैसा स्वाभाविक है कि ‘विवेक ज्योति’ श्रीरामकृष्ण-विवेकानंद भावधारा से अनुप्राणित है, किंतु इसमें किसी प्रकार की संकीर्णता नहीं दिखाई पड़ती है। श्रीरामकृष्ण-विवेकानंद भावधारा की यह विशेषता है। इसे आध्यात्मिक पत्रिका कहा जा सकता है, पर सामग्री में गूढ़ता नहीं है। जुलाई, अगस्त और सितंबर अंक सामने है। सदा की तरह इसमें प्रेरक कविताएँ हैं, ज्ञानवर्धक लेख हैं, संस्मरण हैं। केवल १३० रुपए वार्षिक चंदा है। बाल-वृद्ध सभी इसमें अपनी-अपनी रुचि की पठन-सामग्री प्राप्त कर सकते हैं। अगस्त मास की प्रायः संपूर्ण सामग्री रामकृष्ण-विवेकानंद भावधारा के अनुरूप है। निवेदिता की दृष्टि में स्वामी विवेकानंद का बत्तीसवाँ संकलन है। संपादकीय अत्यंत प्रेरणादायक है। अगस्त का महीना देश को अपने पुरखों के शौर्य की याद दिलाता है। राणा प्रताप, वीरांगना हाड़ी रानी, महारानी पद्मिनी को भावनात्मक श्रद्धांजलि दी गई है। डॉ. श्रीलाल के लेख ‘स्वतंत्रता के लिए जो हँसते-हँसते बलिदान हुए’ में कुछ क्रांतिकारियों को स्मरण किया गया है। ‘विवेक ज्योति’ का सितंबर अंक मुख्यतः स्वामी विवेकानंद की १२५वीं शिकागो यात्रा जयंती को समर्पित है। विश्वधर्म सम्मेलन और उसमें स्वामी विवेकानंद की महती भूमिका तथा प्रभाव की विस्तृत जानकारी पाठकों को मिलती है। ‘विवेक ज्योति’ वास्तव में आध्यात्मिक ही नहीं, सर्वांगात्मक राष्ट्रीय नवोत्थान की मार्गदर्शक है।

मैसूर हिंदी प्रचार परिषद् पत्रिका राजनी नगर बेंगलुरु की मासिक पत्रिका है। गांधीजी की प्रेरणा से ५० वर्ष से परिषद् हिंदी के प्रचार और प्रसार के लिए अत्यंत सराहनीय कार्य कर रही है। अगस्त अंक में आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री के व्यक्तित्व एवं कृतित्व विषयक तथा जगदीश चंद्र माथुर के नाटकों में आधुनिकता बोध उल्लेखनीय लेख हैं।

‘संस्कारम्’ अपनी तरह की एक विशिष्ट पत्रिका है। ‘संस्कारम्’ प्रकाशन के उद्देश्यों में संक्षेप में बहुआयामी चरित्र निर्माण एवं एक समरसता, सहिष्णुता तथा सौहार्दपूर्ण समाज की रचना का लक्ष्य है। ‘संस्कारम्’ अपने को सामाजिक मूल्यों की पारिवारिक पत्रिका के रूप में रेखांकित करती है। पिछले १२ वर्षों से संस्कारम् १४-१७ विष्णु दिगंबर मार्ग (साउथ एवेन्यू), नई दिल्ली से प्रकाशित हो रही है। वास्तव में नई पीढ़ी के युवा-युवतियों को अच्छे संस्कार मिल सकें, ताकि वे देश के प्रबुद्ध नागरिक बन सकें। सामाजिक परिदृश्य में व्यक्ति का आत्मविकास कैसे हो, इस मंतव्य को संस्कारम् ध्यान में रख रहा है। जब मूल्यों के क्षरण की नित्य-प्रति चर्चा होती है, तो ‘संस्कारम्’ जैसी पत्रिका की आवश्यकता है। सभी जन-पुस्तकालयों में इसको रखने का प्रयास राज्य सरकारों को करना चाहिए, खासकर हिंदी भाषी प्रदेशों को। अधिकतर लेख हिंदी में, कभी-कभार एक-आध लेख अंग्रेजी का भी होता है। शिक्षकों और विद्यार्थियों के लिए अत्यंत उपयोगी है।

मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, भोपाल के ‘साहित्य मासिकी’ का हिंदी जगत् में अपना एक विशिष्ट स्थान है। सितंबर २०१९ ‘अक्षरा’ का संपादकीय ‘कश्मीर’ जम्मू-कश्मीर समस्या की गुत्थियों पर प्रचुर प्रकाश डालता है। ‘अक्षरा’ के संपादकीय बेबाक और स्पष्ट होते हैं। ‘अक्षरा’ में प्रकाशित लेख सदैव अच्छे होते हैं। बालशौरि रेड्डी की रचनाधर्मिता पर कमल किशोर गोयनका का लेख और रमेशचंद्र शाह का आलेख ‘एक दुविधा सवद’ निरंतर स्तंभ के अंतर्गत उल्लेखनीय है। रमेश चंद्र शाह की द्विविधा वास्तव में भारतीय संस्कृति की द्विविधा है। मनोहर पटोरिया ‘मधुर’ की कविता ‘लेखनी तुम्हारी बन गई माँ कौशल्या’ पसंद आई। तुलसी के रामचरितमानस का यह सटीक स्तवन है। वीरेंद्र निर्झर की दोनों कविताएँ अच्छी लगीं।

‘कल्याण’ का सितंबर मास का अंक (वर्ष ७३ संख्या ९) प्राप्त हुआ। गीता प्रेस गोरखपुर का अवदान हिंदी भाषा और साहित्य के लिए अतुल्य है। वार्षिक विशेषांक तो सही मायने में संदर्भ ग्रंथ बन जाता है। उसकी सदैव प्रतीक्षा रहती है। ‘कल्याण’ केवल धार्मिक और आध्यात्मिक पत्रिका ही नहीं है। यह प्राचीन भारतीय धरोहर की संरक्षक है। ‘कल्याण’ के सितंबर मास के अंक में कई महत्त्वपूर्ण लेख हैं। प्रारंभ में अष्ट गणपति स्थान स्मरण अपने में सर्व कल्याण का परिचायक है। अर्जुन लाल बंसल का आलेख ‘तुलसी की दृष्टि में सच्चे संत और ढोंगी’ अत्यंत सामयिक है। डॉ. उमेश चंद्र जोशी की परम तपस्वी श्री शिवबाला योगीजी महाराज की जीवनगाथा भी अपने में प्रेरणाप्रद है। कर्मफल विषयक बालकराम विनायकजी का आलेख, जिसमें धर्मनिष्ठ न्यायाधीश मंत्री रामशास्त्री का संदर्भ आता है, वह भी आज केसमय में विचारणीय है।

कुछ अन्य त्रैमासिकी, मासिकी और पाक्षिक पत्रिकाओं की चर्चा हम करना चाहते थे, क्योंकि वे महत्त्वपूर्ण हैं, पर समयाभाव और स्थानाभाव के कारण संभव नहीं हो पा रहा है। अगले अंक में अवश्य चर्चा करेंगे। किंतु यह जानकर दुःख हुआ और आश्चर्य भी कि एक कवि महोदय ने, जिन्हें हिंदी कविता के माध्यम से प्रतिष्ठा अर्जित हुई, साहित्य अकादेमी पुरस्कार और अन्य सम्मान प्राप्त किए, वे आज के वातावरण में इतने क्षुब्ध हैं कि उन्होंने कह डाला कि हिंदी प्रदेश में पैदा होने से वे शर्मिंदा हैं और हिंदी में लिखने में उन्हें ग्लानि हो रही है। संभव है कि मेरी जानकारी सही न हो।

राजनीतिक छलावा

भ्रष्टाचार और अलग-अलग तरीकों से जन-धन के दुरुपयोग एवं भाई-भतीजों को लाभान्वित करने की खबरें और अफवाहों से जनता का मानस क्षुब्ध है। पहले टी.वी. पर एक आश्चर्यजनक समाचार आया कि उत्तर प्रदेश के मंत्री वेतन, भत्ते एवं विविध कानून १९८१ के तहत सभी मंत्रियों के आयकर का भुगतान अभी तक सरकारी खजाने से हो रहा है। यह भी खुलासा हुआ कि जब यह कानून बना था, तब विश्वनाथ प्रताप सिंह मुख्यमंत्री थे। तर्क यह था कि अधिकतर मंत्री गरीब तबके से आते हैं, आयकर का बोझ उनके लिए वहन करना मुश्किल है, अतएव राज्य कोष से उसका भुगतान होना चाहिए। यह केवल कुतर्क है। सीमित साधन के अन्य नागरिक हैं तो उनका आयकर भी राजकीय कोष से दिया जाना चाहिए था। यह कहना भी गलत है कि अधिकतर मंत्री उस समय गरीब तबके से आते थे। विवरण में जाएँ तो पता चलता है कि उस समय भी बहुत से मंत्री लखपति और अच्छी जायदाद वाले तथा धनाढ्य ही थे। फिर अगर ऐसा था तो कोशिश होनी चाहिए थी कि केंद्र इस प्रकार का प्रावधान आयकर कानून में करे, क्योंकि अन्य राज्यों के मंत्रियों की पृष्ठभूमि भी तो उ.प्र. जैसी ही रही होगी। कुल मिलाकर यह एक चालाकी भरा तरीका था मंत्रियों को और अधिक फायदा पहुँचाने का। मंतव्य तो यही था कि मंत्रियों को संतुष्ट रखें, वे अन्य विधायकों की देखभाल कर लेंगे। अंधा बाँटे रेवड़ी, अपने-अपनों को दे। यहाँ तो खुली आँखों से यह बंदरबाँट हो रहा था। ताज्जुब इस कारण और कि ऐसा वी.पी. सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में हुआ, जिनके लिए कुछ दिनों बाद उनके अनुयायी नारे लगा रहे थे—‘राजा नहीं फकीर है।’ बहुत से मंत्री, जो इस मलाई का भोग कर रहे थे, कह रहे हैं कि उनको पता ही नहीं कि उनका आयकर राज्य कोष से दिया जा रहा है। बलिहारी है ऐसे मंत्रियों के ज्ञान की अथवा बच्चों जैसी उनकी मासूमियत की।

सन् १९८१ के बाद तो न जाने कितनी बार मंत्रियों की तनख्वाह एवं सुविधाओं में बढ़ोतरी हुई। बदनीयती से प्रेरित अनुचित कार्य को कानूनी जामा पहना दिया गया। इस कानून के कारण सन् १९८१ से लेकर अब तक मुख्यमंत्रियों और करीब १००० मंत्रियों को लाभ हुआ है। टीवी पर बताए गए उत्तर प्रदेश के कुछ मंत्री और मुख्यमंत्री रहे लोगों के आय का विवरण चौंकाने वाला था। यह विवरण स्वयं उन्होंने चुनाव आयोग को दिया था। सबके सब करोड़पति। पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की आय का विवरण तो और भी हैरतअंगेज ही कहा जाएगा। राजनीति कितना अच्छा व्यवसाय बन चुकी है। भारतीय लोकतंत्र को तो इस राजनीति ने क्लेप्टोक्रेसी (Kleptocracy) या छुपी चोरी का तंत्र बना दिया है। लाभार्थी १९ मुख्यमंत्रियों के नाम लेना व्यर्थ है, वे सभी दलों के हैं। बहुत से अब हमारे बीच हैं भी नहीं। डर यह है कि अभी भी कोई सिरफिरा शीर्ष न्यायालय में जाकर निवेदन कर सकता है कि क्यों नहीं, जो पूर्व मुख्यमंत्री और मंत्री हमारे बीच में हैं, जो आयकर राजकोष से दिया गया है, उसे ब्याज समेत वे एक अवधि के अंदर सरकारी खजाने में वापस करें। सुखद बात यह है कि इस खुलासे का प्रभाव हुआ और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के निर्देशानुसार अब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री एवं अन्य मंत्री स्वयं अपने आयकर का भुगतान करेंगे। यह केवल उत्तर प्रदेश में ही नहीं हुआ। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा और पंजाब में भी सरकारों ने यही राजनैतिक हथकंडा अपनाया। पंजाब ने २०१८ में इसे बंद कर दिया। अब योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश में भी बंद करने का निर्णय ले लिया है। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ की चुनाव आयोग को सूचित संपदा २०६ करोड़ है, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के एसेटस २३ करोड़ और हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की ३३ करोड़। जनता जानना चाहेगी कि ये अन्य सरकारें अब क्यों निर्णय ले रही हैं। राजनीति से वितृष्णा लोकतंत्र के लिए घातक होती है। जनधन के संबंध में धृतराष्ट्रीय दृष्टिकोण जनता अधिक समय तक बरदाश्त नहीं करेगी। कई राज्यों में ऐसे मामले विलंबित हैं, जो सुर्खियों में रहे हैं। आज भी पूर्व गृहमंत्री एवं वित्तमंत्री चिदंबरम तथा कर्नाटक के पूर्व मंत्री डी.के. शिवकुमार कारागार के अतिथि हैं। उनके मामले न्यायालय के सम्मुख हैं, कुछ कहना इस समय उचित नहीं है। सोचने का विषय तो यह है कि जनमानस पर ऐसे प्रसंगों का कैसा प्रभाव पड़ता है। वैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बार-बार इस बात को कहा है कि जनता का माल लूटनेवालों को उनके उचित स्थान पर पहुँचाया ही जाएगा।

ऐसे समय में याद आते हैं सरदार वल्लभभाई पटेल। ३१ अक्तूबर को उनका जन्मदिवस है और देशवासी उन्हें उस दिन श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं। सरदार पटेल की ईमानदारी असाधारण है। जमनालाल बजाज के निधन के उपरांत कांग्रेस का फंड सरदार के पास रहा। उपप्रधानमंत्री होने के बाद उन्होंने सार्वजनिक रूप से सबको आगाह कर दिया था कि उनका जो पुत्र व्यापार में है, उसके किसी लेन-देन का दायित्व उन पर नहीं है। उनकी तनख्वाह का बड़ा भाग वैसे भी जनहित के कामों में खर्च हो जाता था। यही नहीं, जब वे कांग्रेस पार्टी के प्रांतीय नेताओं से बात करते थे तो उस टेलीफोन के खर्चे का भुगतान स्वयं अपने खाते से करते थे। उन्होंने प्रधानमंत्री नेहरू को भी सावधान किया था कि नेपाली राजपरिवार के कुछ लोग भारत में बसे हैं, उनसे नेशनल हेराल्ड के शेयर खरीदवाना उचित नहीं है, जैसा कि उस समय रफी अहमद कर रहे थे। उसके एवज में उन्हें हवाईजहाज के द्वारा रात्रि को पोस्टल डाक की सुविधा दी जा रही थी। सरदार का कहना था कि यह अच्छा उदाहरण प्रस्तुत नहीं करेगा। यह दूसरी बात है कि पं. नेहरू ने किदवई की बात को ही माना। सरदार पटेल किस सादगी से रहते थे, उनके कपड़ों की मरम्मत उनकी बेटी मणिबेन पटेल कैसे करती थी, यह सर्वविदित है। १२ दिसंबर, १९५० को इलाज के लिए बंबई (अब मुंबई) जाने के पहले उन्होंने एक बक्सा बेटी मणिबेन पटेल को दिया और आदेश दिया कि इसमें जो कुछ है, वह कांग्रेस का है। यदि मेरा देहांत हो जाए तो इसे जवाहरलाल को सुपुर्द कर देना। १५ दिसंबर को सरदार का बंबई में निधन हो गया। निधन के कुछ दिनों के बाद मणिबेन पटेल पं. नेहरू से मिलने गईं और जो सरदार ने कहा था, उसे दोहरा दिया। बक्सा पं. नेहरू को दिया कि बिना खोले हुए यह आपको दे रही हूँ, यह कांग्रेस का है। उसे खोले जाने पर करीब दो करोड़ अस्सी लाख रुपए की धनराशि उसमें निकली। कहते हैं कि इसी धन से संविधान के अंतर्गत १९५२ का पहला आम चुनाव कांग्रेस द्वारा लड़ा गया। ऐसे थे सरदार पटेल। काश, इस प्रकार की राजनीति का अनुसरण सरदार पटेल के बाद सभी के द्वारा किया जाता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने जन्मदिवस पर एक सार्वजनिक सभा में सरदार पटेल की दूरदर्शिता की चर्चा करते हुए कहा कि अनुच्छेद ३७० और जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा निरस्त करने का उनकी सरकार का निर्णय सरदार पटेल से ही प्रेरित है।

पाकिस्तान की बहक

अनुच्छेद ३७० के हटने के बाद से पाकिस्तान और बौखला गया है। वह समझ नहीं पा रहा है कि ३७० का मुद्दा भारत का आंतरिक मुद्दा है। वह द्विपक्षीय नहीं है। जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर संघर्ष विराम के उल्लंघन की घटनाएँ बढ़ रही हैं। नित्य प्रति गोलीबारी कर शांतिप्रिय नागरिकों का, जो सीमा के समीप के गाँवों में रहते हैं, जीवन मुश्किल कर दिया है। यही नहीं, कोशिश बराबर यह हो रही है कि किसी तरह देश में सांप्रदायिक दंगों की शुरुआत हो। आतंकवादियों के सुषुप्त केंद्रों का जो जाल वर्षों से देश में फैला हुआ है, उनको सक्रिय किया जा रहा है। जिहादी मनोवृत्ति के गुटों को हर प्रकार की सहायता देने की कोशिश हो रही है। पाकिस्तानी सेना की खुफिया एजेंसी तरह-तरह से कोशिश कर रही है कि कुछ-न-कुछ वारदातें होती रहें, ताकि भारत अपने विकास और प्रगति के रास्ते से विचलित हो। पाकिस्तान के एक पूर्व राष्ट्रपति जिया की सोच थी कि भारत की सैन्यशक्ति का पाकिस्तान सीधा मुकाबला नहीं कर सकता है, अतएव ऐसी रणनीति बनाई जाए कि धीरे-धीरे भारतीयों का खून बहे और भारत शक्तिहीन हो। मादक पदार्थों को भारत में भेजने की कोशिश पाकिस्तान वर्षों से कर रहा है। इसका कुप्रभाव देश के सीमावर्ती प्रदेशों में चिंता का विषय है। पंजाब, राजस्थान, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड इसका सामना करने के लिए साझा रणनीति बना रहे हैं। पाकिस्तान की आई.एस.आई. और वहाँ के सैन्य अधिकारी मादक पदार्थों के अवैध व्यापार द्वारा मालामाल हो रहे हैं। पाकिस्तान ने करीबन २०५० बार संघर्ष-विराम समझौते का उल्लंघन किया है। इस समय पाकिस्तान लगभग २५० आतंकवादियों को भारत की ओर सीमा पार कराने की फिराक में है। सीमावर्ती इलाकों में आतंकी गुटों के उपद्रवियों को पाकिस्तान भारतीय इलाकों में भेजने की भरसक तरकीबें अपना रहा है। वह चाहता है कि पाकिस्तानी घुसपैठिए, खासकर जम्मू-कश्मीर में संपर्क स्थापित कर वहाँ के कुछ युवकों को स्थान-स्थान पर आतंकवादी घटनाएँ करने के लिए प्रेरित करें, ताकि अशांति का वातावरण बराबर बना रहे। पाकिस्तान के आतंकवादी संगठन और पाकिस्तान की सरकार व सेना की इसमें पूरी साँठगाँठ है, यद्यपि दुनिया को दिखाने के लिए कहने को आतंकवादी संगठनों और उनके नेताओं पर पाबंदी लगा दी गई है अथवा कैद कर दिया गया है। पाकिस्तान की इन सब हरकतों से निपटने के लिए भारतीय सेना सतर्क है। अपने खुफिया तरीकों से सूचना एकत्र कर राज्य सरकारों को सावधान भी करती रहती है। हाल ही में सूचना मिली थी कि दक्षिण भारत में पाकिस्तानी आतंकवादी कुछ उपद्रव करने पर तुले हैं। समुद्र के रास्ते से भी गुजरात, महाराष्ट्र आदि तटवर्ती राज्यों में कुछ आतंकवादी गतिविधियों की आशंका है। इसीलिए राज्य सरकारों को सतत सावधानी बरतनी है। भारतीय सेना जवाब में सख्त कार्रवाई कर रही है। भारत ने भी स्पष्ट कर दिया है कि जम्मू-कश्मीर के विवाद में अब और कोई प्रकरण नहीं है। है तो केवल एक ही कि जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान ने १९४७ में अवैध रूप से अपने कब्जे में कर लिया था, उसको कैसे और कब पुनः भारत में शामिल किया जाए। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने आशा व्यक्त करते हुए अपने वक्तव्य में कहा कि एक न एक दिन शीघ्र ही पी.ओ.के., जो नाजायज तरीके से पाकिस्तान ने हथियाया है, फिर से भारत के अधिकार क्षेत्र में होगा।

पाकिस्तान की आंतरिक दशा भी अनेक संकटों से ग्रस्त है। पाकिस्तान की तथाकथित चुनी हुई सरकार, जिसके प्रधानमंत्री इमरान खान हैं, पाकिस्तानी सेना के आदेशानुसार काम करती है। कोई भी महत्त्वपूर्ण निर्णय सरकार नहीं ले पाती है, जब तक पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष की स्वीकृति न मिले। भारत-पाकिस्तान के संबंधों में क्योंकि सेना का आधार और महत्त्व ही भारत से दुश्मनी रखने में है। भारत पाकिस्तान के लिए हौवा है, इसी पर पाकिस्तानी सेना की अहमियत निर्भर करती है। जिसे कभी पूर्वी पाकिस्तान कहा जाता था, पाकिस्तान से उसके अलग हो जाने के बाद, जो भारत-पाकिस्तान के बँटवारे का मूल धार्मिक आधार बताया जाता था, वह समाप्त हो गया। अब पाकिस्तान के वजूद का कारण भारत से वैमनस्य बनाए रखने तक ही सीमित हो गया। पाकिस्तान की सेना १९७१ में अपनी शर्मनाक हार को भूल नहीं पाई है। शिमला समझौते के समय भारत की उदारता थी कि सेना के अधिकारियों सहित बड़ी संख्या में समर्पण करने वाले सैनिकों को बिना शर्त पाकिस्तान वापस जाने दिया। पाकिस्तान में गिलगिट, बाल्टिस्तान, बलूचिस्तान में भीषण असंतोष है। जनता आंदोलन कर रही है। जम्मू-कश्मीर का जो भाग १९४७ में पाकिस्तान ने आक्रमण कर हथिया लिया था, वहाँ भी पाकिस्तान के विरोध में आवाज बुलंद हो रही है। इसीलिए मुजाहिरों के नेता अलताफ हुसैन ने कहा कि जम्मू-कश्मीर में जाँच टीम भेजने से पहले राष्ट्रमंडल की प्रोब (जाँच) टीम पाकिस्तान भेजी जानी चाहिए, जो यह जाँच करे कि पाकिस्तान अपने नागरिकों और अल्पसंख्यकों से कैसा व्यवहार करता है। मुजाहिर वे पाकिस्तानी नागरिक हैं, जो पाकिस्तान बनने के समय दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार आदि से पाकिस्तान चले गए थे। अब उन्हें असलियत का पता चल रहा है। पाकिस्तानी अधिकारियों के दुर्व्यवहार से वे भी पीड़ित हैं। पंजाब और सिंध के रहनेवालों का आपसी रिश्ता पहले से ही अत्यंत कटु है। कभी-कभी लगता है कि पाकिस्तान टूटने के कगार पर खड़ा है। अल्पसंख्यकों के ऊपर किस प्रकार के अत्याचार हो रहे हैं, इसकी एक दुःखद कहानी है। केवल हिंदू और सिख ही नहीं, ईसाई भी इसके शिकार हैं। अभी हाल ही में थार एक्सप्रेस के जरिए करीब ७५ हिंदू परिवारों ने राजस्थान में शरण ली है। वहाँ लड़कियों का अपहरण होता है, पुलिस सब रफा-दफा कर देती है। आर्थिक अव्यवस्था के अतिरिक्त वहाँ का माहौल तरह-तरह की अंदरूनी समस्याएँ, अशांति और टकराव का है। भारत के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने पाकिस्तान को उचित चेतावनी दी है कि यदि वह आतंकवाद को बढ़ावा देता रहेगा तो उसके टुकड़े-टुकड़े हो जाएँगे।

आतंकवादियों पर नियंत्रण कर पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर के मामले को, ३७० को लेकर अंतरराष्ट्रीयकरण करने की कोशिश कर रहा है, अपनी जनता को भी भुलावे में रखने का प्रयास कर रहा है और दूसरे देशों को गुमराह करने की कोशिश भी। अन्य देश हकीकत को जानते हैं, अतएव कोई भी इस मामले में, चीन को छोड़कर, घास नहीं डाल रहा है। इमरान खान ने राष्ट्रपति ट्रंप से दो बार मुलाकात में आग्रह किया कि वे भारत-पाकिस्तान के विवाद में मध्यस्थता करें तो ट्रंप ने कहा कि वे तैयार हैं, यदि भारत राजी हो। भारत ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि प्रधानमंत्री मोदी ने कभी भी तीसरी पार्टी के हस्तक्षेप के विषय में राष्ट्रपति ट्रंप से नहीं कहा। दोनों देशों का आपसी मामला है और आपसी बातचीत से सुलझा सकते हैं। इसके अलावा अनुच्छेद ३७० को निरस्त करना भारत का अपना आंतरिक मामला है। पाकिस्तान को इससे कोई लेना-देना नहीं है। राष्ट्र संघ के सदस्यों से पाकिस्तान ने अपना रोना रोया, पर अधिकतर ने यही कहा कि वे दो देशों के आपसी विवाद में नहीं पड़ना चाहते हैं। बहुत कोशिश करने के बाद सुरक्षा परिषद् की बंद कमरे में बैठक हुई, चीन की मदद के बावजूद पाकिस्तान जो चाहता था कि यूएन में यह मामला विचार के लिए उठाया जाए, वैसा संभव नहीं हुआ। जेनेवा में मानवीय अधिकार सम्मेलन में पाकिस्तान के विदेश मंत्री ने इस विषय को फिर उठाया। हमारे प्रतिनिधि ने वहाँ मुँहतोड़ जवाब दिया कि आतंकवाद मानवीय अधिकारों के हनन का सबसे बड़ा कारण है। वहाँ के सूचना मंत्री व विदेश मंत्री ने बार-बार इस बात को स्वीकार किया है कि विश्व के देश पाकिस्तान के साथ नहीं हैं। फिर भी इमरान खान कहते हैं कि वे कश्मीर के मसले को हर फोरम में उठाएँगे। यही नहीं, यहाँ तक कहा है कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों के विरुद्ध दुनिया के सब मुसलमान एकजुट होकर खड़े हो जाएँगे।

उन्होंने राष्ट्रमंडल की जनरल एसेंबली, न्यूयॉर्क में इसको उठाने की धमकी दी है। भारत के प्रधानमंत्री भी उसमें सम्मिलित होंगे। तब पाकिस्तान को उचित उत्तर मिल जाएगा। इमरान इसलामी देशों का समर्थन भी प्राप्त नहीं कर सके हैं। पाकिस्तानी मीडिया के अनुसार सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात तथा कई अन्य देशों ने इमरान को संदेश भेजा है, परामर्श दिया है कि वे नरेंद्र मोदी के विरोध की बयानबाजी बंद कर कोशिश करें कि दोनों देशों के बीच बातचीत का रास्ता खुले। विदेश मंत्री जयशंकर ने भी स्पष्ट किया है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय में भारत की स्थिति मजबूत हुई है। वे भारत की बढ़ती हुई शक्ति को मान्यता दे रहे हैं। अपने भाषणों में इमरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फासिस्ट, नाजी, हिटलर आदि भी कह चुके हैं। आरोप लगाते हैं कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनुसार मुसलिम विरोधी नीतियाँ अपना रहे हैं। इमरान की भाषा और उनकी बौखलाहट के विषय में कुछ अधिक कहना अनावश्यक है। अपने अल जजीरा टी.वी. के एक साक्षात्कार में कहा कि अनुच्छेद ३७० को हटाने के बाद भारत से वार्त्तालाप का प्रश्न ही नहीं है। इमरान ने पारंपरिक युद्ध की आशंका जताई और यह भी कहा कि यदि हार होती दिखी तो अणुबम के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं बचता है। इमरान इतने दबाव में हैं कि मानसिक संतुलन खो चुके हैं। जहाँ तक भारत के प्रधानमंत्री का प्रश्न है, वे विदेश में जहाँ भी जाते हैं, व्यक्तिगत वार्त्तालाप में और पब्लिक फोरम में आतंकवाद पर नकेल लगाने की बात करते हैं, ताकि लोग शांतिप्रिय जीवन व्यतीत कर सकें।

तालिबान और अमेरिका के अधिकारियों के बीच जो समझौता होने जा रहा था, अच्छा है उसे राष्ट्रपति टं्रप ने स्वीकार नहीं किया। तालिबान अफगानिस्तान में आतंकवाद की जड़ है। प्रतिदिन वहाँ हादसों और लोगों के मरने की खबरें आती हैं। पाकिस्तान से तालिबान को शह मिलती है, सहायता और समर्थन मिलता है। अफगानिस्तान की सरकार तालिबान और अमेरिकी शांतिवार्त्ता के खिलाफ थी। सुरक्षा दृष्टि से अफगानिस्तान में भारत के भी अपने स्टे्रटेजिक सरोकार हैं। उसके पुनर्निर्माण में भारत का बड़ा सहयोग है। पाकिस्तान नहीं चाहता है कि अफगानिस्तान से भारत के संबंध सुदृढ़ हों। अफगानिस्तान शुरू से ही कह रहा है कि भारत को भी इस बातचीत में सक्रिय भाग लेना चाहिए। भारत जानता है कि तालिबान पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। तालिबान पक्के जिहादी हैं। मंगलवार १७ सितंबर को ही एक चुनावी रैली में आत्मघाती हमलों में ७८ लोग मारे गए। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ घानी बालबाल बच गए थे। वे राष्ट्रपति के चुनाव में दूसरी बार प्रत्याशी हैं। तालिबान की आतंकी गतिविधियाँ पाकिस्तान के बलबूते और समर्थन पर बहुत कुछ निर्भर करती हैं। खेद इस बात का है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से व्यक्तिगत नाराजगी से राहुल गांधी तथा कुछ अन्य कांग्रेसी एवं दूसरी विरोधी पार्टी के नेताओं के बयानों का पाकिस्तान फायदा उठाने की कोशिश कर रहा है। समय-समय पर उनको उद्धृत करता है। आगे भी करेगा, जो हमारे हित में नहीं है। वैसे कांग्रेस के बहुत से प्रतिष्ठित नेताओं ने ३७० अनुच्छेद के हटाने का समर्थन किया है। ‘३७० अस्थायी प्रावधान है’, यह तो स्वयं प्रधानमंत्री नेहरू ने ही कहा था।

यहाँ सावधानी की आवश्यकता है। जहाँ तक बाहरी दुश्मनी का सवाल है, देशहित ही सर्वोपरि है। जो बंधन जम्मू-कश्मीर में लगाए गए, वे परिस्थितियों की आवश्यकता के कारण थे। पाकिस्तान कुप्रचार कर रहा है। झूठी और भड़काऊ खबरें फैला रहा है जम्मू-कश्मीर की जनता को भड़काने के लिए। वैसे सरकार उन बंधनों को धीरे-धीरे शिथिल भी कर रही है। जो स्थानीय निर्णय लेनेवाले हैं, इस मामले को उनके ऊपर ही छोड़ना पड़ता है। कम-से-कम असुविधा वहाँ के नागरिकों को हो, इसका ध्यान सरकार को है और होना भी चाहिए। सरकार के पाँच अगस्त के अनुच्छेद ३७० के निरस्त करने के निर्णय से और जम्मू-कश्मीर को तीन यूनियन टेरिटरी (केंद्र शासित प्रदेश) बनाने में वहाँ की जनता को कितनी सुविधाएँ मिलेंगी और तीनों के विकास में किस प्रकार एक गति आएगी, इसकी चर्चा विरोधी दल नहीं करते। यह भी नहीं कहते कि जम्मू-कश्मीर समय रहते पूर्ण राज्य का दर्जा पुनः पा जाएगा। यह निर्णय किसी प्रदेश या वहाँ की जनता की अवमानना की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए। इससे भारत की एकता में एक मानसिक अवरोध था। वह दूर हुआ है।

स्पेशल स्टेटस अथवा एक विशेष दर्जा बेमानी है, जब वहाँ की जनता उन सुविधाओं से वंचित रहे, जो देश के अन्य प्रदेश के रहनेवालों को उपलब्ध है। अनुच्छेद ३७० के हटने के उपरांत वास्तव में पूर्व जम्मू-कश्मीर के निवासियों को यह विशिष्ट दर्जा या स्पेशल स्टेट्स मिल गया है, जिसके वे अधिकारी थे, पर अभी तक जिससे वे वंचित रहे।

‘ऑपरेशन सद्भावना’ का प्रारंभ, जो हमारे सैन्य अधिकारियों ने बहुत पहले शुरू किया था, उसको आज और अधिक सुदृढ़ करने की आवश्यकता है। जनता की दैनिक आवश्यकताओं की सामग्री सुविधाजनक ढंग से नागरिकों को उपलब्ध होनी चाहिए। बीमारी में दवा-दारू का प्रबंध किया जाना चाहिए। किसी को अस्पताल पहुँचने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए। ऐसा वातावरण बनाने की कोशिश निरंतर होनी चाहिए, जिससे जनता का अधिकाधिक विश्वास प्राप्त हो। युवक-युवतियों के लिए खेलकूद की सुविधाओं का प्रबंध होना चाहिए, ताकि वे आकर्षित हों, उन्हें एहसास हो कि सरकार हमारी है। दो दशक तक प्लेवीसाइट फ्रंट ने, जब १९५३ में शेख अब्दुल्ला हिरासत में लिये गए थे, जो अलगाव और गलतफहमी का जहर फैलाया था, उसको हटाना इतना आसान काम नहीं है। युवक-युवतियों को शिक्षा के माध्यम से क्या भविष्य में उन्नति के अवसर उपलब्ध हो सकते हैं, इसकी जानकारी होनी चाहिए। इस दिशा में जो कुछ भी हो सके, करने की कोशिश होनी चाहिए। ऑपरेशन सद्भावना की अवधारणा को अमलीजामा पहनाने का काम स्थानीय अधिकारी बेहतर तरीके से कर सकते हैं, ताकि जनता का हर वर्ग लाभान्वित हो सके और भविष्य के प्रति आश्वस्त हो।

इसके अतिरिक्त बाहर से जिनको जम्मू-कश्मीर भेजा जाता है, उनको वहाँ के धर्म, इतिहास, संस्कृति की जानकारी होनी चाहिए। ये अत्यंत संवेदनाशील मामले हैं। थोड़ी सी भी भूलचूक बड़ी कठिनाइयाँ पैदा कर सकती है। इस समय जम्मू-कश्मीर की स्थिति ऐसी है कि वहाँ हमें हर स्तर और हर तरीकेसे सही सूचनाएँ पहुँचाने की कोशिश करनी चाहिए। पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ एक प्रकार से ‘इनफॉर्मेशन वार’ छेड़ रखा है, जिसकी काट करने की आवश्यकता है। यह कार्य कुशलता और चतुराई से होना चाहिए।

विदेशी मीडिया में बहुत से भ्रामक समाचार आते हैं। कुछ दिनों पहले अमेरिका में रहने वाले कश्मीर के पंडितों ने वॉशिंगटन से छपने वाले ‘वॉशिंगटन पोस्ट’ के दफ्तर के सामने डिमोस्ट्रेशन प्रदर्शन किया, किस प्रकार की अनर्गल और एकपक्षीय बातें वह प्रकाशित कर रहा है। मीडिया को जैसा अंग्रेजी में कहा जाता है—कल्टीवेट, यानी अच्छे संपर्क बनाने की अधिकाधिक कोशिश हर स्तर पर होनी चाहिए। यह अच्छा कदम है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख विदेशी मीडिया से विचार-विमर्श करेंगे, ताकि वह आर.एस.एस. जो प्रायः कटु और भ्रामक आलोचना का पात्र बनता है, उसकी भूमिका, उसके उद्देश्य और उसकी कार्यप्रणाली की सही जानकारी विदेशी मीडिया प्राप्त कर सके। इसके अलावा जम्मू-कश्मीर के बारे में बोलते समय राजनेताओं तथा अधिकारियों को बहुत सोच-समझकर बोलना चाहिए और भाषा के मामले में बहुत सावधानी बरतनी चाहिए। इसके साथ ही जम्मू-कश्मीर के निवासी, जो हर प्रकार से भारतीय नागरिक हैं और देश के दूसरे भागों में या प्रदेशों में व्यापार में संलग्न हैं, सेनाओं में हैं अथवा शिक्षण संस्थाओं में अध्ययन कर रहे हैं, उनकी न केवल पूरी सुरक्षा होनी चाहिए, बल्कि ऐसा सद्व्यवहार होना चाहिए कि वे पूरी तरह विश्वास कर सकें कि हमारे अंदर किसी प्रकार के भेदभाव को स्थान नहीं है। सद्भावना और सहिष्णुता हमारे नित्यप्रति के आचरण और व्यवहार में परिलक्षित होनी चाहिए। पाकिस्तानी कुप्रचार को नाकामयाब बनाने का यह एक सशक्त साधन तो है ही, यह एक भारतीय होने के कारण हमारा कर्तव्य भी है।

मोदी सरकार के सौ दिन

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल का लेखा-जोखा विभिन्न मंत्रालय प्रस्तुत कर रहे हैं। जनता उसको स्वीकार कर रही है। कांग्रेस और विरोधी दल कटु आलोचनाएँ कर रहे हैं और करनी चाहिए, तभी लोकतंत्र की सरकार जागरूक रहती है। मोदी सरकार को भी अपनी पुरानी योजनाओं का समय-समय पर पुनर्निरीक्षण करना उचित होगा। नए कार्यक्रम, जैसे प्लास्टिक के ऊपर रोक तथा फिटनेस भी जनता को छू रहे हैं। विरोधी दल भूल जाते हैं कि नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री की हैसियत से जनता से तादात्म्य स्थापित कर लिया है। उनकी बात पर अधिक से अधिक लोगों को विश्वास है। अतएव विरोधी पक्षों को व्यक्तिगत आक्षेपों को दूर रखकर, वैकल्पिक सुझाव सकारात्मक ढंग से देने चाहिए। आज जिस असहज स्थिति में वे अपने को पाते हैं, शायद उससे निजात पा सकें।

१७ सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ६९वीं वर्षगाँठ थी। वह पार्टी ने जोर-शोर से मनाई, यह स्वाभाविक है। प्रधानमंत्री ने स्वयं हर वर्ष की तरह अपनी पूज्य माता से आशीर्वाद लिया और गुजरात के कई सार्वजनिक कार्यक्रमों में अपने को व्यस्त रखा। उनके लिए यह जन्मदिवस अन्य दिवसों की तरह ही था, अपने कर्तव्यों की ओर सदैव ध्यान रखना, यह उनकी अपनी शैली है, जो दूसरों को चमत्कृत करती है। हमारी उनको शत-शत बधाइयाँ और शुभकामनाएँ।

नरेंद्र मोदी एक बड़े मोटीवेटर व प्रेरक हैं। आजकल नेतृत्व (लीडरशिप) मोरल (मनोबल) और मोटीवेशन अर्थात् अपने सहयोगियों तथा कार्य करनेवालों को कैसे प्रेरणा दी जाए, इसकी शिक्षा बड़े-बड़े प्रबंधन संस्थानों में दी जाती है। पोथे के पोथे लिखे गए, किंतु नरेंद्र मोदी स्वयं उसके मूर्तिमान उदाहरण हैं। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) पर भारत को गर्व है। उसकी उपलब्धियाँ अनेक हैं और भविष्य में संभावनाएँ भी। सभी ने पिछले दिनों देखा कि चंद्रयान-२ के अंत में संयोग से कुछ अवरोध पैदा हो गया, जिसकी आशा नहीं थी। अतएव इसरो के चेयरमैन और उनके सहयोगी हतोत्साहित दिखाई पड़े। चेयरमैन की आँखें डबडबा आईं। मोदी ने उनको गले लगा लिया, ढाढस बँधाया। धैर्य का संदेश दिया। इसरो के सभी अधिकारी और कर्मचारी गद्गद हो गए। उसके बाद इसरो के कर्मियों को जिन शब्दों में संबोधित किया, वह पहले का तैयार किया भाषण नहीं था। संबोधन में ऊर्जा थी, आशावादिता थी। ‘विफलता तो सफलता की सीढ़ी होती है।’ जो कुछ शब्द उनके मुख से उस समय निकले, वे हृदय के उद्गार थे। उनमें धैर्य और कर्तव्य-पालन का संदेश निहित था। उनके इन थोड़े शब्दों को स्वर्णाक्षर कहा जाना चाहिए। यहाँ सही नेतृत्व के दर्शन होते हैं, प्रेरक कैसा हो, यह आभास होता है। मनोबल कैसे कायम रखा जाता है, यह नरेंद्र मोदी का विशिष्ट गुण ही कहा जाएगा।

इसरो के अध्यक्ष और उनके सहयोगियों के चेहरों पर मुसकराहट आ गई। हताशा-निराशा का अवसान हो गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शब्दों और व्यवहार ने इसरो के अध्यक्ष और सहयोगियों के अपने दायित्व के प्रति गर्व, अपनी क्षमता में विश्वास पुनः जाग्रत् कर दिया। अवसाद का वातावरण लुप्त हो गया। इसरो केअध्यक्ष, उनकेसहयोगियों तथा देशवासियों का मनोबल बढ़ गया। संपूर्ण इसरो संस्थान में कुछ क्षणों में ही इच्छाशक्ति, संकल्पशक्ति का पुनः संचार हो गया। प्रधानमंत्री के चंद शब्दों ने सबको धैर्य दिया, प्रोत्साहित किया, भविष्य के प्रति आशावान बना दिया। देशवासियों को नवरात्र, दुर्गापूजा, विजयादशमी एवं दीपावली पर्व की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।

(त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी)

हमारे संकलन