शौर्यपूर्ण रोमांचक प्रसंग

शौर्यपूर्ण रोमांचक प्रसंग

गांधीजी ने स्वराज्य के लिए जो कार्यक्रम देश के सामने रखा, वह युवक देशभक्तों को आकर्षित करने वाला था। बहुत से युवकों ने असहयोग आंदोलन में पूरे उत्साह से भाग लिया। इसमें देश के लिए त्याग करने और कष्ट झेलने का उन्हें अवसर मिलता था। किंतु गांधीजी ने असहयोग और सत्याग्रह को स्थगित कर दिया। रचनात्मक कामों में कांग्रेस जब अपनी शक्ति लगाने लगी तो क्रांतिकारी समितियों ने अपना काम फिर से शुरू कर दिया। शचींद्रनाथ सान्याल ने ‘हिंदुस्तान लोकतंत्र संघ’ (हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन) नामक क्रांकिरी संगठन की शुरुआत की। क्रांतिकारी घोषणा-पत्र जारी किया गया, जिसमें कहा गया कि संघ का उद्देश्य समाजवादी लोकतंत्र राज्य स्थापित करना है। यह संगठन कई क्रांतिकारी दलों को मिलाकर बनाया गया था। इसकी ओर से अंग्रेजी में ‘रिवोल्यूशनरी’ (क्रांतिकारी) नाम से पत्र प्रकाशित होने लगा।

१९१७ में रूस में लेनिन के नेतृत्व में सफल क्रांति हो चुकी थी। इस महत्त्वपूर्ण घटना ने सारे संसार को झकझोर डाला। अनेक देशों के युवक सशस्त्र क्रांति के द्वारा स्वाधीनता पाने को उतावले हो उठे। भारत भी इससे अछूता कैसे रहता!

१९२२-२३ में भारतीय क्रांतिकारी दलों का नए सिरे से संगठन हुआ, उसमें रूस का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता था। ये क्रांतिकारी दल चाहते थे कि भारतीय युवकों को युद्ध विद्या की शिक्षा दी जाए, ताकि उचित समय पर वे अंग्रेजी शासन के खिलाफ सशस्त्र क्रांति कर सकें। इन क्रांतिकारी दलों में योगेशचंद्र चटर्जी, शचींद्रनाथ सान्याल, रामप्रसाद बिस्मिल, विष्णुशरण दुबलिस, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, चंद्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला और भगत सिंह जैसे नौजवान शामिल थे। इन क्रांतिकारियों ने १९२३ से ही अपनी गतिविधियाँ आरंभ कर दी थीं। पहला डाका बिचपुरा में डाला गया, जिसमें रामप्रसाद बिस्मिल के साथ रामकृष्ण खत्री और मन्मथनाथ गुप्त भी थे। इसके बाद आतंक की अनेक घटनाएँ घटीं। सरकार ने भी क्रांतिकारी दलों को कुलचने में कोई कसर उठा नहीं रखी। कितने ही क्रांतिकारी युवक फाँसी पर झूल गए। काले पानी और लंबे कारावास की सजाएँ भी बहुतों को हुईं। क्रांतिकारी चाहते थे कि भारत पूर्ण स्वतंत्र हो। ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बनकर रहना उन्हें स्वीकार नहीं था। ये समाजवाद के पक्षपाती थे। उनमें से अधिकतर पढ़े-लिखे शिक्षित युवक थे। वे सच्चे देशभक्त थे।

लखनऊ से कुछ ही मील दूर काकोरी रेलवे स्टेशन है। ०९ अगस्त, १९२५ की शाम को यहाँ से जो रेलगाड़ी जा रही थी, उसमें सरकारी खजाना भी था। खजाने के साथ हथियारबंद सिपाही थे। शाहजहाँपुर स्टेशन से कुछ नौजवान रेलगाड़ी में सवार हुए। काकोरी में किसी ने जंजीर खींच दी। गाड़ी रुक गई। वे नौजवान क्रांतिकारी गाड़ी से नीचे उतर पड़े। उनके पास पिस्तौलें और दूसरे हथियार थे। हवाई फायर करते हुए उन्होंने यात्रियों से कहा कि वे अपनी जगह बैठे रहें। गार्ड नीचे उतरकर यह देखने आया कि जंजीर क्यों खींची गई है। एक युवक ने उसकी ओर पिस्तौल तानी और कहा कि खैर चाहते हो तो धरती पर लेट जाओ। दूसरे साथियों ने खजाने वाले डिब्बे में घुसकर खजाने के बक्से को तोड़ डाला। उसमें से थैले निकाल लिये। इसी बीच एक अन्य रेलगाड़ी बराबर की रेल लाइन से गुजर गई। किसी को आभास भी न हुआ कि सरकारी खजाना लूटा जा रहा है।

काकोरी की इस रोमांचकारी डकैती में दस युवक शामिल थे। इनमें रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद, राजेंद्र लाहिड़ी, अशफाक उल्ला, शचींद्रनाथ बख्शी और भगत सिंह भी थे। काकोरी में हुई यह डकैती सरकार के लिए बड़ी चुनौती थी। जगह-जगह गिरफ्तारियाँ हुईं। पर असली लोग आसानी से पकड़ में न आए। अशफाक उल्ला और शचींद्रनाथ साल भर बाद पकड़े जा सके। चंद्रशेखर आजाद तो सदा ही पुलिस को चकमा देते रहे।

काकोरी कांड का मुकदमा दो साल तक चला। बिस्मिल, अशफाक उल्ला, रोशनसिंह और राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को फाँसी दी गई, बख्शी को आजन्म कारावास की सजा मिली। अठारह अन्य क्रांतिकारियों को तीन-तीन वर्ष का कठोर कारावास का दंड मिला।

बिस्मिल ने फाँसी के तख्ते पर खड़े होकर ‘वंदे मातरम्’ और ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाए, फिर उसने स्वयं को प्रभु के चरणों में समर्पित करते हुए कहा—

मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे,

बाकी न मैं रहूँ, न मेरी आरजू रहे।

गोरखपुर जेल में रामप्रसाद बिस्मिल हँसते-हँसते शहीद हो गए। देश की एकता, अखंडता और स्वतंत्रता की दिशा में अशफाक उल्ला खाँ का बलिदान एक अपूर्व घटना है। अशफाक उल्ला का जन्म शाहजहाँपुर के उच्च पठान कुल में हुआ था। देशभक्ति उनकी रग-रग में बसी हुई थी। राष्ट्र और धर्म का प्रश्न उठने पर वह देश को सबसे ऊँचा स्थान देते थे। गांधीजी के असहयोग आंदोलन में अशफाक की पढ़ाई छूट गई थी। काकोरी-कांड के बाद जब उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया तो शचींद्रनाथ बख्शी के साथ उन पर अलग से मुकदता चला।

पुलिस सुपरिंटेंडेंट खान बहादुर ने उनसे कहा, ‘‘देखो अशफाक, तुम मुसलमान हो, हम भी मुसलमान हैं। हमें तुम्हारी गिरफ्तारी से रंज है। रामप्रसाद वगैरह हिंदू हैं। ये लोग हिंदू सल्तनत कायम करना चाहते हैं। तुम पढ़े-लिखे खानदानी मुसलमान हो। काफिरों के चक्कर में क्यों पड़ते हो! मैं तुम्हारी मदद करूँगा।’’

अशफाक गुस्से से भर उठे। झल्लाकर बोले, ‘‘खबरदार, जो ऐसी बात मुँह से निकाली। अव्वल तो पंडितजी (रामप्रसाद बिस्मिल) वगैरह सच्चे हिंदुस्तानी हैं, उन्हें सल्तनत, हुकूमत या फिरकेवारान सरकार से कोई सरोकार नहीं। फिर भी आप की बात ही लूँ तो भी अंग्रेजी राज से हिंदू राज को अधिक तरजीह दूँगा। आपने उन्हें काफिर बताया, मेहरबानी करके मेरे सामने से चले जाइएगा।’’

अशफाक के एक मित्र ने उनसे कहा कि आपको जेल से भगाने का इंतजाम किया जा सकता है। यह सुन अशफाक ने उत्तर दिया, ‘‘भई, वतन के लिए मुसलमान को भी तो फाँसी पर चढ़ने दो।’’

सदा प्रसन्न रहने वाले अशफाक उल्ला ने फाँसी के दिन (९ दिसंबर, १९२७) कुरान शरीफ का पाठ किया। कलमा पढ़ते हुए फाँसी के तख्ते तक गए। तख्ते को चूमा और वहाँ उपस्थित लोगों से कहा, ‘‘मेरे पाक हाथ इनसान के खून से कभी नहीं रँगे। मुझ पर लगाए गए इलजाम गलत हैं। अब खुदा के यहाँ इनसाफ कराने जा रहा हूँ।’’

इसके बाद फंदा गले में डालकर मातृभूमि का यह सच्चा सपूत दुनिया से सदा के लिए चला गया। वह अच्छे शायर भी थे। मौत से कभी नहीं डरे। वह कहा करते थे—

बुजदिलों को ही सदा मौत से डरते देखा,

गरचे सौ बार उन्हें रोज ही मरते देखा।

मौत से वीर को हमने नहीं डरते देखा,

तख्तए मौत पै भी खेल ही करते देखा।

फैजाबाद से उनका शव शाहजहाँपुर ले जाया जा रहा था। उनके अंतिम दर्शन करने को लखनऊ स्टेशन पर भारी भीड़ थी। बड़े-बूढ़े भी यों रो रहे थे मानो उनका अपना पुत्र ही चला गया हो।

रक्त मिश्रित पानी पी गया

पुलिस चाहती थी कि क्रांतिकारियों के वे साथी भी पकड़े जाएँ, जो छापा मारने के समय भाग गए थे। इस कार्य के लिए एक विशेष व्यक्ति को तैनात किया गया। पुलिस विभाग ने यह काम खुफिया विभाग के विशेष पुलिस अधीक्षक श्री भूपेंद्रनाथ चटर्जी को सौंपा। भूपेंद्र चटर्जी एक चालाक अफसर था। उसकी आदत थी कि ऑफिस का समय समाप्त होने के पश्चात् वह जेल का एक चक्कर लगाया करता था।

भूपेंद्रनाथ चटर्जी क्रांतिकारियों में फूट डालकर उन्हें पतित करने का भी प्रयत्न किया करता था। क्रांतिकारी उसके मंतव्य को समझते थे और वे उसकी चालों को विफल करते रहते थे, फिर भी वे उसकी धूर्तता से शंकित रहते थे। उससे छुटकारा पाने के लिए उन्होंने यही तय किया कि किसी दिन मौका पाकर उसे खत्म कर दिया जाए। भूपेंद्र भी इस आशंका से बेखबर नहीं था और अपनी सुरक्षा का वह पूरा ध्यान रखता था।

वह २८ मई, १९२६ की संध्या थी, जब भूपेंद्रनाथ चटर्जी जेल-निरीक्षण के लिए निकला। जो कोठरी सामने पड़ती, वह उसमें बंद कैदियों को पुकारता और उनसे कुछ-न-कुछ बात करता जा रहा था। बमकांड के अभियुक्त अनंतहरि और उसके साथियों ने उस पर दावँ अजमाना चाहा। उन्होंने अपने बम-बैरक के वॉर्डर से प्रार्थना की कि हमारी एक धोती जो सूखने के लिए डाली गई थी, वह बाहर नाली में गिर गई है और यदि आप ताला खोल दें तो हम में से कोई वह धोती उठा लाए। वार्डर ने उनकी बात मान ली और कोठरी का ताला खोल दिया, ज्योंही उसने ताला खोला, चार क्रांतिकारी उस पर चढ़ बैठे और उससे चाबी, सीटी और डंडा छीनकर उसे दबोचे रखा; इतने में ही भूपेंद्रनाथ चटर्जी उनकी कोठरी के समाने आने के लिए गैलरी के मोड़ पर पहुँचा ही था कि शेष चार क्रांतिकारी बाहर झपट पड़े। दो क्रांतिकारी तो दोनों दिशाओं में निगरानी के लिए नियुक्त हो गए और दो क्रांतिकारी मसहरी के लोहे के छड़ लेकर भूपेंद्रनाथ चटर्जी पर पिल पड़े।

अनंतहरि मित्र और प्रमोदरंजन चौधरी विद्युत् गति से उसकी खोपड़ी पर प्रहार किए जा रहे थे। भूपेंद्र की खोपड़ी का कचूमर भी निकल गया और वह गिरकर बेहोश हो गया। उसके पश्चात् भी उस पर इतने प्रहार किए गए कि वह जीवित न बच सका। उसे वहीं छोड़कर वे लोग अपनी कोठरी में आ गए और वार्डर को इस बात की चेतावनी के साथ छोड़ दिया कि यदि तूने किसी को यह बात बताई तो अवसर पाकर हम तुझे भी मार डालेंगे। वार्डर भागकर वहाँ पहुँचा, जहाँ सूचना देने के लिए घंटा लटका रहता था। उसने जोर-जोर से घंटा बजाना प्रारंभ कर दिया। इसी बीच कोठरी के क्रांतिकारियों ने हत्या के निशान मिटा दिए। अनंतहरि मित्र का लोहे का डंडा और उसके हाथ खून से सन गए थे। उसने झटपट अपनी थाली में अपने हाथ धो डाले और लोहे का डंडा भी धो डाला। अब समस्या थी कि रक्त-मिश्रित पानी कहाँ फेंकें। जिस प्रकार भीमसेन दुःशासन का रक्त पी गया था, उसी प्रकार अनंतहरि मित्र वह रक्त-मिश्रित पानी पी गया और हत्या का निशान भी उसने नष्ट कर दिया। मसहरी के लोहे के डंडे भी यथा स्थान लगा दिए गए।

चार कटे सिरों का नजराना

बहादुर शाह के साथ उनके चार शहजादे मिर्जा मुगल, मिर्जा, खिजर सुल्तान, मिर्जा अबूबकर और मिर्जा अब्दुल्ला भी कैद कर लिये गए। जब यह काफिला जेलखाने के निकट पहुँचा तो बहादुरशाह और बेगम जीनतमहल की पालकियों को एक तरफ बढ़ा दिया गया और शहजादों को दूसरी दिशा में ले जाकर उन्हें रथ से उतारा गया। शहजादों के हाथ-पैर बँधे थे। मेजर हडसन ने स्वयं चारों शहजादों का कत्ल किया और उनका गरम खून अपनी चुल्लू में भरकर पी गया। शहजादों का खून पीते हुए उसने कहा, ‘‘मेरे हृदय में प्रतिहिंसा और प्रतिशोध की आग इतनी भड़क रही थी कि यदि मैं इन शहजादों का खून न पीता तो वह आग शांत न होती।’’

इतने से ही हडसन की प्रतिशोध-ज्वाला शांत न हुई। चारों शहजादों के सिर काटकर, उन्हें एक थाल में रखकर बहादुर शाह के पास पहुँचा और कहा, ‘‘आप बादशाह हैं, मैं आपको नजराना भेंट कर रहा हूँ, इसे स्वीकार कीजिए।’’

बहादुर शाह अपने बेटों के कटे हुए सिर अपने हाथों में लेकर खून का घूँट पीकर रह गया। उसने अपने होश सँभालकर कहा, ‘‘अनहम्दुल्लिह! तैमूर की औलाद ऐसी ही सुर्खरू होकर बाप के सामने आया करती थी।’’

इसके बाद शहजादों की लाशें कोतवाली के सामने लटकाई गईं और उनके कटे हुए सिर जेलखाने के सामने खूनी दरवाजे पर लटका दिए गए। मेजर हडसन ने अपमान करने के लिहाज से बहादुर शाह जफर से कहा—

दमदमे में दम नहीं, अब खैर माँगो जान की।

अय जफर, ठंडी हुई अब तेग हिंदुस्तान की।

बहादुर शाह जफर अपमान के इस कोड़े से तिलमिला गए। उन्होंने ईंट का जवाब पत्थर से देकर कहा—

गाजियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की।

तख्ते लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की॥

बहादुर शाह जफर को कैद करके बर्मा भेज दिया गया। रंगून के कैदखाने में भारतवर्ष के उस अंतिम मुगल सम्राट् ने ७ नवंबर, १८६२ को प्राण त्याग दिए।

फाँसी टालकर आपने अच्छा नहीं किया

मुकदमा समाप्त होने पर जज ने खुदीराम की ओर देखते हुए कहा, ‘‘तुमने कैनेडी की पत्नी और उसकी पुत्री की हत्या करके भयंकर अपराध किया है। जानते हो, तुम्हें क्या सजा मिलेगी?’’ खुदीराम ने निर्भीकता के साथ उत्तर दिया, ‘‘हाँ, जानता हूँ, मृत्युदंड। पर मुझे दुःख है कि मेरे बम से कैनेडी की पत्नी और पुत्री की मृत्यु हो गई। मैंने तो किंग्स फोर्ड की हत्या के लिए बम फेंका था। मुझे दुःख है कि किंग्स फोड मरने से बच गया।’’

जज ने तीखी दृष्टि से खुदीराम की ओर देखा और देखते-ही-देखते कहा, ‘‘मैं तुम्हें मृत्युदंड दे रहा हूँ। तुम्हें ६ अगस्त को फाँसी पर चढ़ा दिया जाएगा। क्या तुम्हें इसके विरुद्ध कुछ कहना है?’’

‘‘हाँ, मुझे कुछ कहना है। मुझे अनुमति दी जाए कि मैं अदालत में एकत्र लोगों को यह बताऊँ कि बम कैसे बनाया जाता है?’’

: २ :

‘‘तुम किंग्स फोर्ड की हत्या क्यों करना चाहते थे? क्या तुम्हें पता नहीं था कि हत्या करना भयंकर अपराध है।’’

‘‘किंग्स फोर्ड बड़ा स्वेच्छाचारी है। निरपराध देशभक्तों को सजाएँ देकर कानून का उल्लंघन करता है। ऐसे व्यक्ति की हत्या करना कोई अपराध नहीं है। दुःख है कि मेरे बम से उसकी हत्या नहीं हो सकी। वह बच गया।’’

जज मौन होकर सोचने लगा। कुछ क्षणों तक सोचने के बाद उसने कहा, ‘‘तुम्हें जो दंड दिया गया है, वह ठीक है। तुम्हारी अपील अस्वीकार की जा रही है। पर तुम्हें १३ दिनों का जीवन प्रदान किया जा रहा है। अब तुम्हें ६ अगस्त की जगह १९ अगस्त को फाँसी दी जाएगी।’’

‘‘आपने मेरे साथ अन्याय किया है। मैं तो आज ही और अभी फाँसी पर चढ़ने के लिए तैयार हूँ। मैं फाँसी पर चढ़कर शीघ्र नया जन्म धारण करना चाहता हूँ और अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध कार्य करके पुनः फाँसी पर चढ़ना चाहता हूँ। मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है, जब तक अंग्रेजी सरकार का अंत न हो जाए, मैं इसी प्रकार बार-बार फाँसी पर चढ़ता रहूँ और बार-बार नया जन्म धारण करता रहूँ। आपने फाँसी की अवधि १३ दिनों के लिए टालकर अच्छा नहीं किया।’’

खुदीराम बोस के विचारों को सुनकर जज विस्मय की लहरों में डूब गया।

खुदीराम को फाँसी देने के बाद किंग्स फोर्ड के सिर पर भय का भूत सवार हो गया। उसे हर समय ऐसा आभास होता था, मानो कोई भयानक आकृति वाली छाया उसके सामने खड़ी हो। घर पर, अदालत में, खाते और सोते समय वह सदा उद्विग्न रहा करता था। वह सोते समय चीख उठता था, ‘‘नहीं, नहीं, मैंने खुदीराम के प्राण नहीं लिये हैं। मैं निरपराध हूँ। मुझे मत सताओ।’’

किंग्स फोर्ड की दशा बिल्कुल पागलों की सी हो गई। उसके कुटुंबियों ने उसकी बड़ी चिकित्सा कराई, पर कुछ भी लाभ नहीं हुआ। उसकी दशा दिनोदिन खराब ही होती गई।

आखिर किंग्स फोर्ड ने नौकरी से त्याग-पत्र दे दिया। वह दिन-रात अपने घर में ही रहने लगा, पर घर में भी भय का भूत उसका पिंड नहीं छोड़ता था। उसे ऐसा लगता था, मानो खुदीराम हाथ में पिस्तौल लेकर सामने खड़ा है और उससे कह रहा है कि तुमने बहुत से निरपराध देशभक्तों को सजाएँ दी हैं। मैं तुम्हें मारकर ही चैन लूँगा। तुम समझते हो, मैं मर गया? नहीं, मैं अभी जीवित हूँ, जब तक तुम्हें मार नहीं लूँगा, मुझे शांति नहीं मिलेगी।

रक्त से लिखने की होड़

२२ सितंबर, १९४४

रंगून में शहीद यतींद्रनाथ का स्मृति-समारोह मनाया गया।

रंगून का जुबली-हॉल ठसाठस भरा हुआ था।

शहीदों की स्मृति में अनेक भाषण हुए। लाहौर-जेल में देश-रक्षा के लिए प्राण न्योछावर करने वाले वीरवर यतींद्रनाथ के बलिदान की अमर गाथा भी सुनाई गई। श्रोताओं की आँखें भर आईं। अश्रुओं से मुखमंडल गीले हो गए।

तभी नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने एक मार्मिक भाषण दिया। आजादी के लिए अपना सर्वस्व लुटा देने की भावना का संचार करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘भारत देश अब स्वतंत्र हुए बिना नहीं रह सकता! लेकिन स्वतंत्रता-आंदोलन के लिए बलिदान चाहिए। वह अपनी शक्ति, संपत्ति और सर्वस्व चाहता है। अपने आराम, सुख-सुविधा, भोग-विलास, आमोद-प्रमोद, धन-संपत्ति आदि सभी कुछ क्रांतिकारियों को न्योछावर कर दो।

‘‘युद्ध-क्षेत्र में भेजने के लिए आपने अपने पुत्रों को दिया है, परंतु स्वतंत्रता देवी इतने से ही संतुष्ट नहीं होगी, उसको तो ऐसे आत्म-बलिदानी स्त्री-पुरुष चाहिए, जो अपने प्राणों की बाजी लगा दें, जो हँसते-हँसते मृत्यु का आलिंगन कर लें और जो अपने रक्त की नदी में शत्रुओं को डुबो दें—तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा।

‘‘यही आजादी की पुकार और माँग है।’’

‘‘हम तैयार हैं। लो, हमारा खून लो!’’ इसी तरह की आवाजों से हॉल एकाएक गूँज उठा।

नेताजी गंभीर हो गए। उन्होंने कहा, ‘‘भाइयो, मैं भावावेश में तुमसे कुछ कराना नहीं चाहता। मैं चाहता हूँ, तुममें से ऐसे विद्रोही सामने आएँ, जो अपने प्राणों की बाजी लगा देनेवाले प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर कर सकें। आजादी की देवी की बलिवेदी पर मृत्यु से आलिंगन करने का यह आवेदन-पत्र है।’’

‘‘हम तैयार हैं!’’ हॉल के कोने-कोने से यही आवाज गूँज उठी।

‘‘लेकिन मृत्यु से आलिंगन का आवेदन-पत्र साधारण स्याही से नहीं लिखा जा सकता। इसको तुम्हें अपने रक्त से लिखना होगा। जो ऐसा करने का साहस करते हैं, वे आगे बढ़ें। मातृभूमि की आजादी के लिए मैं तुम्हारे रक्त की मोहर अपनी आँखों के सामने लगवाना चाहता हूँ।’’

नेताजी की आवाज मानो गरज-गरजकर विद्रोहियों का आह्वान कर रही थी। उनकी आवाज में वह बल था, जिसके सामने पहाड़ भी नत हो जाए।

‘‘हम अपना खून देंगे!’’

‘‘हम सब देश के लिए बलिदान हो जाएँगे!’’

‘‘हम अपना सर्वस्व अर्पित कर देंगे!’’

‘‘अपने रक्त की अंतिम बूँद तक हम लड़ेंगे।’’ इस तरह के अनेक सम्मिलित स्वर चारों ओर गूँजने लगे।

सारी जनता मानो एक पैर पर खड़ी हो गई। फिर उपस्थित जन-समुदाय में ज्वार-भाटा आ गया। सबसे पहले महिलाओं ने मंच को घेर लिया। प्रत्येक को सबसे पहले हस्ताक्षर करने की चिंता थी। एक होड़ सी लगी हुई थी कि कौन आगे आए। हॉल के कोने-कोने में हस्ताक्षर किए जाने लगे। मृत्यु के आवेदन-पत्र पर हस्ताक्षर करने का यह क्रम लगभग एक घंटे तक चलता रहा।

कितना अवर्णनीय था वह दृश्य! अपने प्राचीन इतिहास के गौरव की स्मृति ताजा हो गई।

बलिदान सार्थक सिद्ध हुआ

जनरल रोअ ने झलकारी को डपटते हुए कहा, ‘‘तुमने रानी बनकर हमको धोखा दिया है और महारानी लक्ष्मीबाई को यहाँ से निकलने से मदद की है। तुमने हमारे एक सैनिक की भी जान ली है। मैं भी तुम्हारे प्राण लूँगा।’’

झलकारी ने गर्व से कहा, ‘‘मार दे गोली, मैं प्रस्तुत हूँ।’’

एक अन्य अंग्रेज अफसर ने कहा, ‘‘मुझे तो यह स्त्री पगली मालूम पड़ती है।’’

जनरल रोज ने तत्काल उत्तर दिया, ‘‘यदि भारत की प्रतिशत नारियाँ इसी प्रकार पागल हो जाएँ तो हम अंग्रेजों को सबकुछ छोड़कर यहाँ से चले जाना होगा।’’

झलकारी को एक तंबू में बंद करके पहरा बिठा दिया गया। अवसर पाकर झलकारी रात में चुपके से भाग निकली। जनरल रोज ने सुबह होते ही किले पर भयंकर आक्रमण कर दिया। उसने देखा कि झलकारी एक तोपची के पास खड़ी हुई अपनी बंदूक से गोलियों की वर्षा कर रही है। अंग्रेजी तोप से निकला हुआ एक गोला झलकारी के पास वाले तोपची को लगा। वह तोपची उसका पति पूरनसिंह था। अपने पति को गिरा हुआ देखकर तोप का संचालन झलकारी ने सँभाला और शत्रु-सेना को विचलित करने लगी। शत्रु-सेना ने भी अपनी सारी शक्ति उसी के ऊपर लगा दी। एक गोला झलकारी को भी लगा और ‘जय भवानी!’ कहते हुए वह भूमि पर गिर पड़ी। वह अपना काम कर चुकी थी। उसका बलिदान बड़ा सार्थक सिद्ध हुआ।

कौन कहता है, हिंदुस्तान आजाद नहीं होगा

प्रातः ही सेना ने शानदार परेड की। उसके बाद आजाद हिंद फौज के जवानों ने अपनी स्त्रियों को बताया कि आज नेताजी को सोने से तौला जाएगा। तिरंगे फूलों से सजी एक तराजू के एक पलड़े पर नेताजी को बैठाया गया। मलाया के बंगाली डॉक्टर परिवार के लोगों ने शंख बजाए। एक गुजराती महिला आगे बढ़ी। उसने जीवन भर की कमाई सोने की पाँच ईंटें तराजू पर धर दीं। अब तो इस पलड़े में सोने-चाँदी, हीरे-मोती चढ़ाए जाने लगे। हर ओर से महिलाएँ चली आ रही थीं। दस-बारह वर्ष की किशोरियाँ, युवतियाँ, लड़कियाँ, प्रौढ़ महिलाएँ गहने लिये आ रही थीं। कोई रूमाल में बाँधे थी, तो कोई किसी पिटारी में लिये थी।

वे आतीं और तराजू में उन्हें चढ़ा देतीं। फिर नेताजी को हाथ जोड़ती। अजब उत्सव का पर्व था, अनोखा दृश्य था। शंख बज रहे थे। वहाँ खड़े युवक और सैनिक जवान ‘जयहिंद’ और ‘इनकलाब जिंदाबाद’ के नारे लगा रहे थे। लोगों ने देखा कि पलड़ा भर गया है, पर वजन पूरा नहीं हुआ। एक सैनिक ने कहा, ‘अभी और सोना चाहिए’

बस फिर कया था, आसपास महिलाएँ अपने कानों के बुँदे, गले की मालाएँ और अँगूठियाँ उतार-उतारकर पलड़े पर रखने लगीं। एक महिला ने अपनी सोने की घड़ी उतारकर पलड़े पर चढ़ा दी। पर वजन अभी बराबर नहीं हुआ था।

तभी किसी महिला की सिसकियों की आवाज सुनाई दी। सब चौंक उठे। कमांडर लक्ष्मीबाई एक महिला को सहारा देती हुई अपने साथ लेकर आईं। महिला के बाल खुले हुए थे, आँखें लाल थीं। लक्ष्मीबाई ने बताया, ‘कल ही खबर आई है, इस बहन का पति मारचे पर शहीद हो गया।’ सुभाष बाबू ने सम्मान में अपनी टोपी उतार दी। बोले, ‘बहन, देवता भी तुम्हारे पति का स्थान लेने को ललचाते होंगे। मैं तुम्हारा भाई हूँ।’ उसने अपने सुहाग की निशानी पलड़े पर चढ़ा दी। पर वजन अब भी बराबर नहीं हुआ।

तभी वहाँ एक वृद्धा आई। वह सोने के फ्रेस में जड़ी एक तसवीर को अपने सीने से चिपकाए थी। बोली, ‘यह मेरे इकलौते बेटे की तसवीर है। जंग शुरू होने से पहले अंग्रेजों ने इसे फाँसी लगा दी थी। काश, मेरा एक और बेटा होता तो मैं उसे भी मादरे हिंद पर चढ़ा देती।’ वृद्धा का गला भर आया। उसने तसवीर को जमीन पर पटका, शीशा टूट गया। फोटो निकालकर उसने हाथ में ले ली। सोने का फ्रेम पलड़े पर रख दिया। झट से तराजू के पलड़े बराबर हो गए।

सुभाष बाबू खड़े हो गए। उन्होंने वृद्धा के चरण छुए और बोले, ‘‘कौन कहता है कि हिंदुस्तान आजाद नहीं होगा। बहनों, माताओं और हमारे नौजवानों का त्याग जरूर रंग लाएगा।’’

वहाँ उपस्थित लोगों से उन्होंने कहा, ‘‘मैं तुम्हारे लिए शांति का नहीं, लड़ाई का संदेश लाया हूँ। तुम आजादी के अमृत से गुलाम आत्मा को धोना चाहते हो तो बड़े-से-बड़ा बलिदान देने को तैयार रहो। आप मुझे खून दें, मैं आपको आजादी दूँगा।’’

हवा में कहीं महाकवि बायरन के शब्द गूँज उठे थे—

जंग आजादी की जब भी कभी छिड़ जाती है,

रुकने का नाम न ले, रंग पे रंग लाती है।

खून से लथपथ हुआ, बेटे को विरासत में बाप,

दे के जाता है जिसे, यह वह अमर थाती है!

आजाद हिंद बैंक में बीस करोड़ से ऊपर रुपया जमा हो गया।

पक्षी पिंजरा भी ले उड़ेगा

सुभाषचंद्र का परिचय पुलिस कमिश्नर ने कराया था, परंतु ‘हलो, हाय’ के बीच डिक्री भूल गया था। उसने चौंककर पूछा, ‘‘आपकी तारीफ?’’

‘‘सुभाषचंद्र बोस, देशबंधु दास का एक शिष्य।’’

इसी बीच पुलिस कमिश्नर टेगार्ट बोल पड़ा, ‘‘सर, ये अत्यंत मेधावी और योग्य व्यक्ति हैं। इन्होंने आई.सी.एस. परीक्षा में चौथा स्थान प्राप्त किया था और इंग्लिश कंपोजीशन में पहला! परंतु इन्होंने राजपत्रित नौकरी से त्यागपत्र दे दिया।’’

‘‘रिजाइंड? फॉर ह्वाट?’’ डिकी माउंटबेटन ने अचंभे से पूछा।

‘‘फॉर माइ अनफॉरच्युनेट कंट्री—केवल अपने दुर्भाग्यग्रस्त देश की खातिर।’’

सामने पड़ी प्लेट में लज्जतदार मुर्ग-मुसल्लम की एक टाँग मुँह में डालते हुए डिकी ने कहा, ‘‘आप लोगों को स्वयं को भाग्यशाली समझना चाहिए कि हिंदुस्तान पर अंग्रेजी का राज है। हमारा इंग्लैंड सुसंस्कृत लोकतंत्र, न्यायपालिका और विरोधी दल से युक्त है।’’

‘‘यह सब तो केवल ब्रिटिश जनता के लिए ही है न?’’ सुभाषचंद्र ने टिप्पणी की।

‘‘इसका मतलब?’’

‘‘स्वेज नहर के इस पार आते ही इंग्लैंड का न्यायप्रिय मनुष्य अन्यायी बन जाता है। हमारे लिये बनी व्यवस्था सर्वथा अन्यायपूर्ण है। कोर्ट में आरोपी हिंदुस्तानी हुआ तो अंग्रेज जज उसे टेढ़ी नजरों से देखता है। कानून का अर्थ, शिक्षा के प्रावधान, कानूनी धाराएँ—सब फाइलों में बंद पड़े रहते हैं। हमारे देश को भी चाहिए इंग्लैंड जैसी संसद्—सर्वथा मुक्त, स्वतंत्र विचारों की।’’

‘‘ऐसा क्यों कहते हैं, मि. बोस। वायसराय की कौंसिल में हम हिंदुस्तानी प्रतिनिधियों को लेते नहीं क्या?’’

‘‘उनमें से इने-गिने भले योग्य होते हों, परंतु बाकी सब तो वायसराय के पिट्ठू ही होते हैं। दरिद्र रियासतों के नवाब और राजे-महाराजे हमारे देश का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं क्या?’’

सुभाष के शब्दों से अभिव्यक्त दाह को माउंटबेटन ने महसूस किया। वह भी सावधान और सतर्क हो गया। वर्तमान हालात के संबंध में अपनी खीझ व्यक्त करते हुए माउंटबेटन ने कहा, ‘‘वह तुम्हारे गांधी! उनकी हड़तालें, उनके उपवास और सड़कों पर प्रदर्शनों का यह तमाशा—ऐसे तरीकों से कभी आजादी मिल सकती है क्या?’’

‘‘कुछ समय तक इन्हीं तरीकों को आजमाकर देखते हैं। बाद में उचित समय पर जब नाक दबा दी जाएगी तो आप लोगों के मुँह अपने-आप खुल जाएँगे।’’

‘‘यह धमकी तो नहीं है न?’’ माउंटबेटन ने पूछा।

‘‘जी नहीं, ये हमारे हृदय की वेदना का विस्फोट है।’’

‘‘किसलिए?’’ माउंटबेटन की आँखें सुभाष पर टिक गईं।

पुलिस कमिश्नर टेगार्ट माउंटबेटन को छोड़ने के लिए नृत्यशाला के द्वार तक आया। विदा होने से पहले डिकी बोला, ‘‘मि. टेगार्ट।’’

‘‘यस सर!’’

‘‘बोस नाम के उस उग्र युवक पर कड़ी दृष्टि रखिए। एक खतरनाक क्रांतिकारी बनने के लिए जो भी दुर्गुण आवश्यक होते हैं, वे सब उसके शरीर में कूट-कूटकर भरे हुए हैं।’’ माउंटबेटन ने आँखें नचाते हुए आगे कहा, ‘‘मुझे तो ऐसा महसूस हुआ कि उसके अंग-अंग में अंग्रेजों के प्रति द्वेष और विद्रोह का दावानल सुलग रहा है।’’

‘‘सर, हम पूरी तरह सावधान हैं, आई.सी.एस. से त्यागपत्र देने के बाद जिस दिन वह हावड़ा स्टेशन पर उतरा, उसी दिन से मैंने उसके पीछे गुप्तचर लगा दिए हैं। उसके नित्य के कार्यक्रम का विवरण उसके पत्र-व्यवहार की सभी प्रतिलिपियाँ—उसके पास भले न हों, पर हमारे रिकॉर्ड में हैं। मानता हूँ कि वह अद्भुत शक्ति-संपन्न आंदोलनकारी है। परंतु वह कितनी ही उड़ान भरे, उसके पंख मरोड़ने के लिए हम अपने पिंजरे को दिन-रात चौकस रखते हैं।’’ टेगार्ट गर्व से कह रहा था।

‘‘व्यर्थ का आत्मविश्वास मत पालिए, नहीं तो एक दिन यह धुन का पक्का पक्षी पिंजरा भी ले उड़ेगा। टेक केयर।’’

क्रूर जेलर—बलिदानी सिपाही

सुभाष का सारा शरीर ज्वर से बेतरह जल रहा था। वह अति मद्धिम स्वर में बोले, ‘‘पानी...पानी!’’

जेलर पास आया। उसने जोर से जमीन पर बूट पटके। वह मुसकराते हुए बोला, ‘‘क्रांटि देवटा को पानी चाहिए।’’

‘‘वंदे माटरम् बोलो मि. सुभाष, पानी वही देगा।’’ जेलर की विद्रूपमयी मुसकान चाकू की तेज धार-सी चमक रही थी।

सुभाष का दम घुटने लगा था। उनका अंग-अंग दुःख रहा था। फिर भी वह मौन साधे रहे।

‘‘सट्टा से टकराने का नटीजा समझ में आया मि. सुभाष! अब भी वकट है, सँभल जाओ, वंदे माटरम में कुछ नहीं रखा है। है टो उससे पानी माँगो, वह होगा टो पानी देगा।...हम भी टो देखें कि उसमें किटनी टाकट है।’’ जेलर की मूँछें बल खा रही थीं।

सुभाष से बोलते बन नहीं पा रहा था। वे अभी अर्धचेतनावस्था में ही थे। उनके ध्यान में माँ दुर्गा आ चुकी थीं। जेलर बार-बार विद्रूपबाण चला रहा था। उसने पुलिस कांस्टेबल से पानी मँगवाया और सुभाष के पास ले जाकर फैला दिया। सुभाष की देह पर कुछ छींटे पड़े, लेकिन न उनमें क्रोध जगा और न आवेग उठा। वह चुप बने रहे।

उस पुलिस कांस्टेबल से सुभाष के प्रति जेलर का यह क्रूर मजाक बर्दाश्त नहीं हुआ। सुभाष अति मंदिम स्वर में कह उठे थे, ‘‘वंदे मातरम्!...वंदे मातरम्।’’

जेलर गुर्राया और सुभाष की नकल बनाता हुआ बोला, ‘‘वंदे माटरम् की दुम, मरो प्यासे और रोटे रहो बंदे माटरम् को।’’

वही पुलिस कांस्टेबल पुनः पानी लेकर लौटा और जोर से बोला, ‘‘लाट साहब की औलाद, हमारे क्रांतिकारी नेताजी की ताकत देखो।’’ इसके बाद उसने सुभाष का सिर अपनी गोदी में रखा और पानी पिलाने लगा। जेलर चीखता-चिल्लाता रहा। गाली निकालता रहा, परंतु उस पुलिस कांस्टेबल ने उसकी एक नहीं सुनी और सुभाष को पानी पिलाकर कड़कदार आवाज में बोला, ‘‘नेताजी सुभाष को तेज ज्वर है, जेलर साब।’’

‘‘टो हम क्या करे...और टुम डेमफूल उसे पानी पिलाटा है...आई विल सी यू...।’’ जेलर गरजते हुए बोला।

‘‘गाली नहीं, कुत्ते की औलाद! वो हमारे नेताजी हैं...हमारे प्राण हैं...जे तमगा, पेटी...जे टोपी सोटी को हजार बार लात मारता है पाजी!’’ इसी के साथ उसने पुलिस की वरदी को उतार फेंका।

सुभाष फटी-फटी आँखों से वह अद्भुत दृश्य देखते रह गए। धीरे-धीरे उनकी आँखों में बिजली चमकने लगी। वह पुलिस कांस्टेबल जोर-जोर से नारे लगा उठा, ‘‘वंदे मातरम्...वंदे मातरम्...वंदे मातरम्...नेताजी सुभाष...जिंदाबाद, हमारी आजादी अमर रहे।’’

‘‘चोऽऽप, स्टुपिड...टुमने ड्यूटी पर बगावट की है। अनुशासन टोड़ा है। टुम्हें इसकी सजा मिलेगी। ऐसी सजा कि फिर कोई अनुशासन टोड़ने का नाम न ले सके।’’

‘‘कौन देगा हमें सजा?’’ वह पुलिस कांस्टेबल बोला, ‘‘टुम देगा...पालटू कुट्टा टुम।’’ उसने उसकी नकल उतारना शुरू किया।

फिर वह पुलिस कांस्टेबल जेल से बाहर चला गया। दूसरे दिन जेल में समाचार मिला कि उस पुलिस कांस्टेबल को सरकारी ड्यूटी पर इनकलाबियों का साथ देने और जेल से भाग खड़ा होने के कारण पुलिस ने उसका पीछा किया। उसके नहीं रुकने पर गोली चलानी पड़ी। वह मारा गया।

पति की पीड़ा उसकी पीड़ा थी

भाई बालमुकुंदजी के घर पर बम का कारखाना है, इस संदेह में पुलिस ने उनके गाँव के घर पर छापा मारा। घर का छप्पर उजाड़ दिया गया, कमरों की जमीन खोद डाली गई, पर कहीं भी कोई बम नहीं मिला।

लार्ड हार्डिंग पर बम फेंकने के अभियोग में भाईजी पर मुकदमा चलाया गया। भाई परमानंदजी ने बड़ी निर्भीकता के साथ उनके मुकदमे की पैरवी की, पर कुछ लाभ नहीं हुआ। उन्हें फाँसी की सजा दी गई। भाई परमानंदजी ने प्रिवी कौंसिल में अपील की, पर अपील में भी सजा ज्यों की त्यों बनी रही। ५ अक्तूबर, १९१४ को भाईजी फाँसी पर चढ़ा दिए गए। यहाँ भाईजी की धर्मपत्नी रामरती देवी की चर्चा करना बहुत आवश्यक है, क्योंकि उनकी चर्चा किए बिना भाईजी की जीवन-गाथा अधूरी रहेगी।

रामरती देवी एक भारतीय महिला थीं, जो बहुत सुंदर थीं। फाँसी के एक वर्ष पूर्व ही उनका विवाह हुआ था। वे अपने पति से बड़ा प्रेम करती थीं। भाईजी जब जेल गए, तो वे उनसे मिलने के लिए बराबर जाया करती थीं। एक दिन उन्होंने भाईजी से पूछा, ‘‘खाना कैसा मिलता है?’’

भाईजी ने उत्तर दिया, ‘‘क्या पूछती हो? मिट्टी मिली हुई आटे की रोटी।’’

बस फिर क्या था। रामरती देवी भी उसी दिन से मिट्टी मिली हुई आटे की रोटी खाने लगीं।

एक दूसरे दिन रामरती देवी ने भाईजी पूछा, ‘‘सोते कहाँ हो?’’

भाईजी ने उत्तर दिया, ‘‘मिट्टी के चबूतरे पर एक कंबल बिछा लेता हूँ।’’

बस उसी दिन से रामरती देवी भी कंबल बिछाकर सोने लगीं।

फाँसी के दिन रामरती देवी बड़े तड़के उठीं। उन्होंने नहा-धोकर अपना विधिवत् सिंगार किया, वे सज-धजकर एक चबूतरे पर जा बैठीं। वे मौन हो गईं। उनकी आँखें बंद हो गईं। वे पुनः न तो बोलीं और न उनकी आँखें खुलीं। वे अपने पति के साथ ही साथ स्वर्ग चली गईं। उनकी कहानी अमर हो गई।

गोली कहाँ लगी—पीठ पर सीने में?

छोटे-छोटे बच्चों में भी विचित्र जागृति आ गई थी।

लेकिन पटना के नौजवानों ने तो अपने बलिदानों से इतिहास को भी थर्रा दिया था। नौजवानों की एक मतवाली टोली पटना सेक्रेटेरियट के सामने जुलूस के रूप में पहुँची, उसका जीवंत वर्णन ‘सन् बयालीस का विद्रोह’ से यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है—

जुलूस आजादी के नशे में चूर सेक्रेटेरियट पहुँचा। सभी लोग अपनी जान हथेली पर लिये हुए थे। अतएव आजादी के इन दीवानों को कौन रोकने वाला था। जहाँ देखो, वहीं अजीब मस्ती थी। उधर आर्चर गुरखा सिपाहियों के साथ सेक्रेटेरियट के सामने डटा खड़ा था। फौजी लोग अपनी-अपनी भयावनी राइफलें लिये तैयार खड़े थे।

मि. आर्चर ने गरजते हुए लोगों से पूछा, ‘‘तुम क्या चाहते हो?’’

‘‘झंडा फहराना!’’ एक छोटे से छात्र ने आवेश के साथ उत्तर दिया।

‘‘कौन झंडा फहराना चाहता है, वह जरा आगे आ जाए।’’ आर्चर ने झल्लाकर कहा।

देखते-ही-देखते ग्यारह छात्र जुलूस को चीरते हुए आगे आकर कतार में खड़े हो गए। उनका सीना गर्व के साथ आगे निकला हुआ था तथा आँखें क्रोध के मारे लाल हो रही थीं। आर्चर ने एक छोटे से छात्र की ओर संकेत करते हुए कड़ककर कहा, ‘‘झंडा फहराना चाहता है, झंडा। झंडा फहराने से पहले अपना सीना खोल ले!’’

आर्चर का कहना था कि उस छात्र ने दोनों हाथों से अपना कुरता फाड़ा और सीना खोलकर सामने कर दिया। वह कतार में से एक कदम आगे निकल आया।

आर्चर उस लड़के के साहस की कदर नहीं कर सका। उसने तुरंत हुक्म दिया, ‘‘गोली चलाओ।’’ और उसी क्षण देखते-ही-देखते वे ग्यारहों वीर गोली के शिकार हो गए। फिर क्या था, गोलियों की बौछार होने लगी। जनता घायल हुई, पर डटी रही। इतने में जयघोष हुआ—वंदे मातरम्! अंग्रेज भारत छोड़ो! लोगों की आँखें सेक्रेटेरियट के गुंबद की ओर गईं। देखा, एक दुबला-पतला नौजवान हाथ में तिरंगा झंडा लिये मुसकरा रहा है। अपार जनसमूह समुद्र की भाँति उमड़ पड़ा। उसका बलिदान सफल हुआ। कमीने फौजी उस समय तक वहाँ से हट चुके थे। सेक्रेटेरियट के गुंबद पर लहराता हुआ तिरंगा झंडा ऐसा प्रतीत होता था, मानो वह आजादी के इन अमर शहीदों की विमल कीर्ति को हवा के झोंकों के साथ भूमंडल के इस कोने से उसे कोने तक पहुँचा रहा हो।

छह विद्यार्थियों की मृत्यु वहीं हो चुकी थी। बाकी चार अस्पताल ले जाए गए। एक को ऑपरेशन के लिए टेबिल पर लिटाया गया। कुछ देर के बाद उसकी मूर्च्छा टूटी। झट बालक ने आतुर भाव से डॉक्टर से प्रश्न किया—‘‘मेरे गोली कहाँ लगी है, पीठ पर या सीने में?’’ डॉक्टर लड़के के भाव को समझ गया। उसने गोली के घाव की ओर इधारा करते हुए कहा, ‘‘गोली सीने के बीच में लगी है!’’ लड़का कुछ मुसकराया और बड़े गर्व के साथ धीमे स्वर में बोला, ‘‘अच्छा, लोग यह तो नहीं कहेंगे कि भागते हुए को गोली लगी थी!’’ बस अंतिम शब्दों के साथ उसके प्राण पखेरू इस नश्वर शरीर को त्यागकर उड़ गए। वह बालक तो आज दुनिया में नहीं है, किंतु उसका बलिदान भारत के स्वतंत्रता के युद्ध में अमर हो गया है।

घायलों के शरीर से जो गोलियाँ निकाली गई थीं, उनकी जाँच करने से पता चला है कि वे दमदम गोलियाँ थीं, जिनका व्यवहार अंतरराष्ट्रीय विधान के मुताबिक युद्धकाल में भी मना है।

पुलिस का घेरा तोड़कर कूद पड़ा

सावरकर को इंग्लैंड में बंबई के वारंट पर गिरफ्तार किया गया था। अतः बंबई ले जाने के लिए उन्हें मोरिया नामक जहाज पर बिठाया गया। जहाज पर उनके साथ कई गोरे सिपाही भी थे, जो हथियारों से लैस थे। सावरकर को बिदा करने के लिए अय्यर आदि उनके साथ बंदरगाह पर उपस्थित हुए। वे जानते थे कि बंबई में उन पर मुकदमा चलेगा और मुकदमे में या तो फाँसी की सजा मिलेगी या आजीवन काले पानी की सजा तो अवश्य मिलेगी।

अतः उन्होंने मन-ही-मन निश्चय किया, चाहे जैसे भी हो, वे मार्ग में गोरों के पहरे से निकल भागेंगे।

फलतः सावरकर ने अय्यर से हिंदी में कहा, उन्हें मार्सलीज बंदरगाह पर पहले से ही पहुँच जाना चाहिए। क्योंकि उन्होंने मार्ग से ही मार्सलीज बंदरगाह पर पहुँचने का निश्चय किया है।

यद्यपि सावरकर ने अय्यर से हिंदी में बात की, पर फिर भी गोरे सिपाही शंकित हो उठे। वे कड़ाई के साथ सावरकर की निगरानी करने लगे। जहाज चल पड़ा। जहाज जब फ्रांस के बंदरगाह मार्सलीज के पास से होकर आगे बढ़ने लगा, तो सावरकर ने गोरे सिपाहियों से कहा, ‘‘मुझे शौचालय में ले चलो।’’

गोरे सिपाही सावरकर को शौचालय में ले गए। सिपाही तो बाहर ही रह गए, पर वे शौचालय में घुस गए। उन्होंने भीतर से गुंडी चढ़ा ली। शौचालय के भीतर एक बड़ा सा शीशा रखा हुआ था, जिससे भीतर की सारी चीजें बाहर दिखाई पड़ती थीं। सावरकर ने उस शीशे पर कपड़ा डाल दिया। शौचालय के भीतर ऊपर एक छोटा सा रोशनदान था। यद्यपि छेद बहुत कम था, पर कोई भी होशियार आदमी उससे बाहर निकल सकता था। सावरकर उसी रोशनदान से बाहर निकलने का प्रयत्न करने लगे। दो-तीन बार के प्रयत्नों के पश्चात् उन्हें सफलता मिल गई। वे बाहर निकलकर समुद्र में कूद पड़े।

कूदने की आवाज से गोरे सिपाही चकित हो उठे। उन्होंने समुद्र में देखा, तो वीर सावरकर बड़े साहस के साथ तैरते हुए मार्सलीज बंदरगाह की ओर बढ़े जा रहे थे। गोरे सिपाहियों ने शीघ्र ही नावें छोड़ दीं। सावरकर पर गोली भी चलाने लगे। सावरकर बड़ी वीरता के साथ डूबते-उतराते हुए अपने आपको बचाने लगे।

अधिक प्रयत्न करने पर भी गोरे सिपाही सावरकर को पकड़ नहीं सके। वे फ्रांस की धरती पर मार्सलीज बंदरगाह में पहुँच गए। वे बंदरगाह से निकलकर दौड़ते हुए किसी फ्रेंच पुलिस की खोज करने लगे।

गोरे सिपाही चेर-चोर का शोर मचाते हुए उनके पीछे दौड़ने लगे। आखिर एक साधारण पुलिस मैन मिल गया। उन्होंने उससे कहा, ‘‘मैं चोर नहीं हूँ, एक राजनीतिक बंदी हूँ। मुझे थाने में ले चलो। मैं इस समय फ्रांस में हूँ। मुझे गोरे सिपाही यहाँ नहीं पकड़ सकते।’’

पर उस पुलिस मैन की समझ में सावरकर की बात नहीं आई। उसने गोरे सिपाहियों से कुछ रुपए लेकर सावरकर को उनके सुपुर्द कर दिया। फलतः वे पुनः बंदी बना लिये गए।

एक गोरे ने पहुँचकर सावरकर पर घूँसे से वार भी किया। उन्होंने घूँसे के जवाब में उसे ऐसा कसकर तमाचा लगाया कि वह गश खाकर धरती पर गिर पड़ा। पर इससे यह तो हुआ ही कि उनके हाथों में हथकड़ी डाल दी गई। सावरकर को इस बात से बड़ा दुःख हुआ कि उनके अय्यर आदि साथी समय पर बंदरगाह पर नहीं पहुँच सके थे। अय्यर और मेडम कामा आदि पहुँचे उस समय थे, जब यह घटना घट चुकी थी और सावरकर बंदी बना लिये गए थे।

सावरकर को पुनः जहाज पर बिठाया गया। जहाज पर कड़ी से कड़ी निगरानी रखी जाने लगी। ७ जुलाई, १९११ का दिन था। सावरकर ने बंदी के रूप में अपनी मातृभूमि का दर्शन किया। हथियार बंद सिपाहियों ने शस्त्र की झनकार से उनका स्वागत किया। उन्हें एक बंद गाड़ी में बिठाकर नासिक ले जाया गया और कारागार में बंद कर दिया गया।

फाँसी का हार मेरे गले में डाला जाए

लंदन के एक न्यायालय ‘ओल्ड बेली क्रिमिनल कोर्ट’ में खचाखच भरी हुई दर्शक-दीर्घाओं के लोग उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे उस नरसिंह को देखने के लिए, जिसने इंग्लैंड की भूमि पर दिनदहाड़े एक उच्च अंग्रेज अफसर का खून बहाकर भारत के खून का बदला चुका दिया।

न्याय-मंदिर के काष्ठ-कक्ष में खड़े हुए एक भीमकाय व्यक्ति ने जब विजेता की भाँति चारों ओर दृष्टि दौड़ाई तो दर्शकों में कानाफूसी प्रारंभ हो गई—

‘‘अरे यह तो सदेह काजल का पहाड़ जैसा लगता है।’’

‘‘इसे देखकर हिंदुस्तान के शेर देखने की इच्छा नहीं रह जाती।’’

‘‘यह हत्यारा तो बिल्कुल नहीं लगता।

‘‘मौत के मुँह में जाते हुए भी कितना प्रसन्न है।’’

ऐसे ही जाने कितने विचार अधर-कूप से निकलकर कर्ण-खाइयों में कूदते रहते, यदि न्याय-देवता अपनी चौकी पर गदा का आघात करके ‘ऑर्डर! ऑर्डर!’ का गर्जनाघोष न करते।

जीवन और मृत्यु के वाक्युद्ध के प्रति तटस्थ भाव दिखाते हुए अपराधी की ओर देखकर न्यायाधीश ने पूछा, ‘‘मिस्टर ऊधमसिंह, तुम्हें कुछ कहना है?’’

उत्तर मिला, ‘‘जी हाँ, महोदय! मुझे ऊधमसिंह के नाम से नहीं राम मोहम्मद सिंह के नाम से पुकारिए।’’

‘‘पर सरकारी वकील ने तो तुम्हारा नाम ऊधमसिंह बताया है।’’

‘‘यदि सरकारी वकील का ही मानता है तो फिर किसी से कुछ पूछने की आवश्यकता की क्या रह जाती है।’’

‘‘तुम सिक्ख हो या मुसलमान?’’

‘‘जी, मैं हिंदुस्तानी हूँ।’’

‘‘अपनी सफाई में तुम्हें क्या कहना है?’’

‘‘मुझे कहना है कि ओ डायर को मैंने मारा है और न्याय का नाटक न रचकर जल्दी ही फाँसी का हार मेरे गले में डाला जाए।’’

‘‘एवमस्तु,’’ जैसा कुछ कहकर न्यायाधीश ने अपना काम पूरा कर दिया।

१२ जून, १९४० को भारत-माता के उस वीरपुत्र ने इंग्लैंड की भूमि पर हँसते-हँसते फाँसी का फंदा चूम लिया।

ऐसा वीर था तात्या टोपे

१८ अप्रैल, १८५९ को अपराह्न के चार बजे तात्या को फाँसीस्थल ले जाया गया। तात्या ने अंग्रेज अधिकारियों से एक बात दोबारा कही कि उसके वृद्ध पिता को किसी भी प्रकार से त्रस्त न किया जाए, क्योंकि वे पूर्ण रूप से निर्दोष हैं।

बड़े निःसंकोच और निर्भीक भाव से तात्पया सीढि़याँ चढ़कर मृत्यु-मंच पर जा पहुँचा।

आँखें ढकने के लिए जब टोप पहनाया जाने लगा तो उसने कहा, ‘‘इसकी कोई आवश्यकता नहीं है, मैं अपनी मौत को आमने-सामने देखने के लिए तैयार हूँ।’’ उसे टोप नहीं पहनाया गया। उसके हाथ-पैर भी नहीं बाँधे गए। तात्या ने फाँसी का फंदा स्वयं खींचकर अपने गले में डाल लिया। फंदा कसा गया, मेंडल खींचा गया और झटके के साथ वह तख्ता नीचे गिर गया, जिस पर तात्या खड़ा था। उसकी देह रस्सी के सहारे झूल रही थी। उसके प्राण-पखेरू उड़ चुके थे। उसका पार्थिव शरीर रस्सी के सहारे सूर्यास्त तक झूलता रहा।

अंग्रेज अफसर तात्या के सिर से बाल निकालकर ले गए। इंग्लैंड में आज तक तात्या के बालों का प्रदर्शन करके उसकी वीरता की कहानियाँ कहीं और सुनी जाती हैं।

एक मुट्ठी देश की माटी साथ रहने दो

१८५७ के स्वातंत्र्य युद्ध की ज्वाला भले ही अंग्रेजों के लिए ठंडी पड़ गई हो, पर वे चिंगारियाँ जिन युवकों के हृदयों में स्वाधीनता के लिए सबकुछ न्योछावर कर देने की ज्वाला जगा चुकी थीं, उन्हीं में प्रमुख थे वासुदेव बलवंत फडके। अंग्रेजी शासन का चैन हराम करनेवाले इस वीर पुरुष को जब गिरफ्तार किया गया तो न्यायालय में उसने अपने निवेदन द्वारा इस अन्यायी शासन की जो चीरफाड की, उससे शासक भी दहल उठे। आजन्म कारावास की सजा मिलने पर जेल जाते समय उन्होंने एक ही माँग की—‘एक मुट्ठी माटी की, अपने देश की माटी की। इसके पास रहते में सारे कष्ट आनंद से सहन कर लूँगा।’ अदन की जेल में यह माटी साथ रखे, अक्षरशः सारी यातनाएँ सहन कर उन्होंने प्राण त्यागे।

छापामार युद्ध के वृद्ध सेनानी

१८५७ के युद्ध में जिन अनेक वीरों का नाम गौरव के साथ लिया जाता है, उनमें बिहार के जगदीशपुर के राजा कुँअरसिंह भी एक हैं। वीरता के लिए और साथ ही छापामार युद्ध के लिए वे प्रसिद्ध थे। ८० वर्ष की आयु में भी उनका तेज कायम था। स्वातंत्र्यवीर सावरकर के अनुसार तो कुँअरसिंह की बराबरी करनेवाला कोई वीर नहीं था। तात्या टोपे के साथ मिलकर छापामार युद्ध में जो चमत्कार उन्होंने दिखाए, उसकी कोई तुलना ही नहीं। अंग्रेजों के लिए उनकी चाल समझ पाना बड़ा कठिन हो गया था।

युद्ध के दौरान अपना बायाँ हाथ बुरी तरह घायल हुआ देख उन्होंने उसी क्षण काटकर गंगा को अर्पित कर दिया और एक ही हाथ से वे लड़ते रहे।

शरीर में संगीनें भोंककर लटकाया, फिर जलाया

हत्या से पहले जिस तरह की क्रूर यातनाएँ लोगों को दी गईं, उसकी कई मिसालें रसले ने अपनी पुस्तक में दी हैं। इन में से केवल एक हम नीचे देते हैं—

‘‘कुछ सिपाही अभी जीवित थे और उन्हें दया करके मार डाला गया। किंतु इनमें से एक को खींचकर मकान से बाहर रेतीले मैदान में लाया गया। उसे टाँगों से पकड़कर खींचा गया, एक सुविधा की जगह लाया गया। कुछ अंग्रेज सिपाहियों ने उसके मुँह और शरीर में संगीनें भोंककर उसे लटकाए रखा। दूसरे लोग एक छोटी सी चिता के लिए ईंधन जमा कर लाए, जब सब तैयार हो गया, तो उसे जिंदा भून दिया गया। इस काम को करने वाले अंग्रेज थे और कई अफसर खड़े देखते रहे, किंतु किसी ने दखल न दिया। इस नारकीय अत्याचार की वीभत्सता उस समय और भी अधिक बढ़ गई, जब उस अभागे दुखिए ने अधजली और जिंदा हालत में भागने का प्रयत्न किया। अचानक जोर लगाकर वह चिता से कूद पड़ा। उसके शरीर का मांस हड्डियों से लटक रहा था। वह कुछ गज दौड़ा, फिर पकड़ लिया गया, वापस लाया गया, फिर आग पर रख दिया गया और जब तक राख नहीं हो गया, संगीनों से दबाकर रखा गया।’’

फाँसी के दिन बजन बढ़ गया

गोपी मोहन साहा ने फाँसी का दंड एक बलिदानी वीर के आदर्श के अनुरूप ही ग्रहण किया। पहली मार्च, सन् १९२४ को गोपी मोहन को फाँसी लगाई गई। इस दंड की प्रसन्नता के कारण फाँसी के दिन उसका वजन पाँच पौंड बढ़ गया था। फाँसी के पूर्व की रात को भी वह सुख की नींद सोया और फाँसी के पूर्व उसने यह अभिलाषा प्रकट की थी कि भारत की प्रत्येक माता उस जैसे बालक को जन्म दे और भारत के प्रत्येक घर में उसकी माता जैसी महान् माता हो। फाँसी के फंदे पर झूलने के पूर्व उसकी अंतिम इच्छा थी—

‘‘मेरे खून की प्रत्येक बूँद भारत के प्रत्येक घर में आजादी के बीज बोए।’’

फाँसी का फंदा मेरे हाथ में दो

फाँसी के तख्ते के पास खड़ा करके पिंगले से पूछा गया, ‘‘कुछ कहना चाहते हो?’’

पिंगले ने कहा, ‘‘दो मिनट की छुट्टी भगवान् से प्रार्थना करने के लिए मिलनी चाहिए।’’

हथकडि़याँ खोल दी गईं। पिंगले ने आकाश की ओर दृष्टि की और हाथ जोड़कर कहने लगा—

‘‘हे भगवान्! तुम हमारे हृदयों को जानते हो। जिस पवित्र कार्य के लिए आज हम जीवन की बलि चढ़ा रहे हैं, उसकी रक्षा का भार तुम पर है। भारत स्वाधीन हो, यही एक कामना है।’’

प्रार्थना पूरी हो चुकी थी। जल्लाद फाँसी का फंदा लेकर पिंगले की ओर बढ़ा। पिंगले ने उसे टोककर कहा, ‘‘लाओ फंदा मेरे हाथ में दो। भारत के विजय की यह माला मैं अपने हाथों ही पहनूँगा।’’

पिंगले ने स्वयं ही फाँसी की रस्सी अपने गले में डाल ली और शंखनाद किया—‘‘भारत माता की जय!’’

नीचे से तख्ता खींच दिया गया। एक झटके के साथ वीरवर पिंगले के प्राण-पखेरू उड़ गए।

राजेंद्र पटोरिया

आजाद चौक, सदर

नागपुर-४४०००१ (महा.)

दूरभाष : ९८८१०१०७९८

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