शौर्य : एक बहुरंगी अवधारणा

शौर्य एक बहुरंगी शब्द है। शौर्य का परिवार विशद है, परिकल्पना में विविधता है। शौर्य एक भावना, स्वभाव और दृष्टिकोण भी है। शौर्य क्षणिक भी हो सकता है, प्रतिक्रियात्मक भी हो सकता है। शौर्य सुविचारित और धैर्य आधारित भी हो सकता है। शौर्य साहस है, निडरता है, पराक्रम है। यह बहुत कुछ परिस्थितियों पर निर्भर करता है। शौर्य युद्धक्षेत्र में है। देश की बाह्य और आंतरिक सुरक्षा शौर्य द्वारा ही संभव है। शौर्य एक गुलाम देश में स्वाधीनता प्राप्त करने की लालसा और प्रयास में आत्मोत्सर्ग करना भी शौर्य का ही एक रंग है। राष्ट्रनिर्माण की सतत साधना भी एक प्रकार का शौर्य है। शौर्य को परिभाषित करना असंभव है। इसको कुछ सीमाओं में बाँधना भी असाध्य कार्य है। ‘यह शौर्य है और यह नहीं’, कहना कठिन है। शौर्य कभी सामूहिक हो सकता है तो कभी एकला चलो का सूचक भी। शौर्य केवल आयुधों का खेल नहीं है, बल्कि यह आत्मबल का परिचायक है। महात्मा गांधी इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। उसी तरह से १९४७ का स्वतंत्रता-संग्राम एक अन्य प्रकार का उदाहरण है, मिसाल है।

उन्नीसवीं सदी में स्वामी दयानंद ने यह देखकर कि भारतीय समाज अंधविश्वासों से ग्रसित है, उन्होंने हरिद्वार के कुंभ में पाखंड खंडनी पताका फहराई और सत्य के प्रकाश से समाज को आलोकित करने का प्रयास किया तो यह भी शौर्य का ही काम था। शूरवीर केवल तलवार के धनी नहीं होते हैं, वे आत्मबल के भी धनी होते हैं। शौर्य स्वार्थविहीन होता है। यह समाजोन्मुखी है, सबका हित इसका मंतव्य है। भारत में शौर्य की विविधतापूर्ण, विशाल, बहुअर्थीय परंपरा अत्यंत प्राचीन है। विविधता और विशदता के कारण शौर्य की अवधारणा में एक विरोधाभास का भी आभास होता है। किंतु गंभीरता से मनन करने और इसकी गहराई में जाने पर शौर्य का एक समग्र चित्र उभरकर आता है। सतही तौर पर दिखने वाले विरोधाभास स्वयमेव शौर्य की परंपरा में समाहित हो जाते हैं; एक प्रकार से एकरूपता ग्रहण कर लेते हैं।

शौर्य की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। वह न मुसलिम काल से और न ब्रिटिश साम्राज्य के समय से प्रारंभ होती है। वह भारतीय मर्यादा, सोच और आदर्शवादिता का अभिन्न अंग है। शौर्य के उदाहरण हम युद्ध में देखते हैं और शांति के समय में भी। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के विरुद्ध बीड़ा उठाया, विद्यासागर ने विधवा विवाह एवं अन्य सामाजिक सुधारों के लिए हर प्रकार की कठिनाइयाँ झेलते हुए आंदोलन शुरू किया, वह भी शौर्य का एक पक्ष था। शौर्य के उदाहरण यद्ध में हैं और शांतिपूर्ण दैनिक जीवन में भी। इससे शौर्य के स्वभाव और उसकी विशालता का एहसास होता है। अपनी जान की परवाह न करते हुए तूफान में, बाढ़ में दूसरे के जीवन को बचाने की कोशिश शौर्य का ही एक रंग है। इसलिए शौर्य को किसी एक संकुचित नजरिए से आँका नहीं जा सकता। शौर्य तो बहुरंगी है।

शौर्यगाथाएँ केवल बड़ी-बड़ी पोथियों या दस्तावेजों में ही सीमित नहीं हैं। शौर्य जनश्रुति, जनस्मृति, दंत कथाओं, जनगीतों में भी समाहित है और सदैव गुंजायमान रहेगा। जीवन की आहुति तो सर्वोच्च शौर्य है। किंतु अपने ध्येय, सिद्धांत के लिए पूर्णतया समर्पित हो जाना भी शौर्य का परिचायक है। अतएव शौर्य बौद्धिक और वैचारिक भी है। उसका क्षितिज असीम है। सन् १८९३ के शिकागो में सर्वधर्म सम्मेलन, जो मुख्यतः ईसाई धर्म की श्रेष्ठता को प्रसारित और सिद्ध करने के लिए आयोजित किया गया था, पर स्वामी विवेकानंद के सर्वधर्म समन्वय के प्रबल उद्घोष ने एक दूसरा ही वातावरण उत्पन्न कर दिया। यह उनके करिश्माई व्यक्तित्व और उनके आत्मबल का प्रताप था। यह शौर्य का ज्वलंत वैचारिक पक्ष भी था।

‘साहित्य अमृत’ का शौर्य विशेषांक इस विडंबना को प्रतिलक्षित करता है। १५ अगस्त भारत के इतिहास में एक स्मरणीय दिन है। ब्रिटिश सत्ता के अंत का दिन है। जनता को आभास हुआ कि वर्षों तरह-तरह से स्वाधीनता प्राप्त करने के जो प्रयास हुए उनकी यह परिणति है। अतएव इस दिन हम स्वतंत्रता सेनानियों को आदरपूर्वक याद करते हैं, क्योंकि उनके अभूतपूर्व बलिदान और सहे गए कष्टों के बाद ही यह संभव हो सका। यद्यपि इसे ‘सत्ता हस्तांतरण’ की संज्ञा दी गई, किंतु वास्तव में भारतवासियों के अथक संघर्ष के उपरांत ही ब्रिटिश हुकूमत इस निर्णय पर पहुँच सकी कि भारत में अब उसका शासन बहुत समय तक चल नहीं सकता है, अतएव उसे लगा कि यह ऐसा विकल्प है, जिससे काफी हद तक भारतीयों का दिल जीता जा सकता है। ब्रिटेन को इसमें कुछ सफलता भी मिली।

भारतीयों के संघर्ष की अनेक धाराएँ हैं और इस सफलता का श्रेय कोई एक दल नहीं ले सकता। महात्मा गांधी के नेतृत्ववाली धारा प्रमुख थी, उसने आजादी का सब श्रेय बटोरने की हर कोशिश की, यद्यपि महात्मा गांधी १५ अगस्त को हाशिए पर चले गए। उदासी में उन्होंने कई बार कहा कि मेरी कोई सुनता नहीं है। उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो पर देश के विभाजन की स्थिति में संदेश देने में अपनी असमर्थता प्रकट की। उस समय श्रीअरबिंद का जो देशवासियों के लिए संदेश प्रचारित हुआ, वह आज भी प्रासंगिक है, पठनीय है।

चूँकि सत्ता कांग्रेस के हाथ आई, अतएव दूसरी धाराओं का योगदान भुला दिया गया। १९४७ का समय अत्यंत कठिनाइयों का था। हम स्वयं उसके साक्षी रहे हैं। देश के विभाजन ने अनेक समस्याएँ पैदा कीं, उनमें जाने की आवश्यकता नहीं है। देश की आंतरिक सुरक्षा तथा सीमाओं की सुरक्षा की जटिलता बढ़ती गई। उस समय सब कठिनाइयों के होते हुए आंतरिक सुरक्षा दल, पुलिस आदि तथा सेना के तीनों विभागों ने अपने कर्तव्यों का यथासंभव पालन किया, विशेषतया थलसेना ने। अतएव उनकी सेवाओं को हम धन्यवादपूर्वक याद करते हैं। आज भी वे अहर्निश सीमाओं के प्रहरी हैं। उनके मनोबल को अधिकाधिक बढ़ाना सरकार और नागरिकों का कर्तव्य है। यह ‘शौर्य विशेषांक’ हमारे स्वतंत्रता सेनानियों एवं सब प्रकार के रक्षा बलों को समर्पित है।

भारतीय शौर्य परंपरा की एक छोटी सी झाँकी ‘शौर्य विशेषांक’ में प्रस्तुत की गई है। प्रयास है कि प्राचीन, अर्वाचीन और समकालीन घटनाओं एवं शौर्य परंपरा के प्रतीकों के विषय में कुछ सामग्री दी जाए, जो अधिकृत हो और पूरी परंपरा का प्रतिनिधित्व भी करती हो। साथ ही हमारे जो अन्य स्थायी स्तंभ होते हैं, उनको भी यथासंभव इस परंपरा से जोड़ा जाए। लोकसाहित्य को शौर्य परंपरा कैसे प्रभावित करती है, श्रीमती विद्या बिंदु सिंह का आलेख इस पर केंद्रित है। डॉ. ऊषा निगम ने कुछ भारतीय वीरांगनाओं के अवदान को स्मरण किया है। किंतु महिलाओं के और अनेकानेक उदाहरण भी हैं। पन्ना धाय का अपने बच्चे का बलिदान केवल स्वामिभक्ति का ही नहीं, उसके साहस और शौर्य का भी उदाहरण है। महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, दुर्गादास, बंदा बहादुर पर भी कुछ सामग्री प्रस्तुत है। अंडमान निकोबार की शौर्यगाथा को कुछ पन्नों में कैसे समेटा जा सकता है।

शौर्य परंपरा देशव्यापी है और जैसाकि पहले कहा जा चुका है कि विविधता से ओतप्रोत है। स्मृति में आए कुछ नामों की चर्चा हम आदरपूर्वक करना चाहेंगे, क्योंकि वे सभी के प्रेरणास्रोत हैं और रहेंगे। आगे आने वाली पीढि़याँ उनसे स्फूर्ति प्राप्त करेंगी। यह कोई संपूर्ण सूची नहीं है। हजारों ऐसी अन्य विभूतियाँ हैं। यही नहीं, न जाने कितने गुमनाम ही बिछुड़ गए या उनके बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। वासुदेव बलवंत फड़के, श्यामजी कृष्ण वर्मा, लोकमान्य तिलक, चापेकर बंधु, सावरकर बंधु, डॉ. पांडुरंग खोनखोजे, सरदार सिंह राणा, मैडम कामा, ‘संध्या’ के संपादक ब्रह्मबांधव उपाध्याय, तमिलनाडु के वांची अय्यर, कर्नाटक की रानी चेनम्मा, बाघा जतीन, उत्तर-पूर्व के यू टिरोट सिंह, आंध्र प्रदेश के सीताराम राजू, बिहार के बिरसा मुंडा, चिटगाँव के सूर्यसेन (मास्टर दा) और उनके सहयोगी, चंद्रशेखर आजाद, सरदार भगतसिंह, अशफाक उल्ला और उनके अन्य साथी, लाला हरदयाल, राजा महेंद्र प्रताप, भाई परमानंद, करतार सिंह सरावा, विष्णु गणेश पिंगले, शचींद्र सान्याल, सोहन सिंह पाठक, सूफी अंबा प्रसाद, श्रीअरविंद घोष एवं वारींद्र घोष, यतींद्रनाथ दास, ‘स्वराज’ पत्र के आठ संपादक, जो अंडमान भेजे गए।

श्रीअरविंद घोष और लाल, बाल, पाल की त्रिमूर्ति को श्रद्धापूर्वक नमन करते हैं। राजस्थान में अंग्रेजी शासन काल में स्वाधीनता संग्राम में जूझनेवाले और प्राणों की आहुति देनेवाले क्रांति केअग्रदूतों में प्रताप सिंह, अर्जुनलाल सेठी, राव गोपाल सिंह खरवा, सेठ दामोदरदास राठी, मोतीलाल तेजावत एवं विजयसिंह केनाम बडे़ आदर से लिये जाते हैं।

सन् १९४२ के आंदोलन के उपरांत महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता-संग्राम ने और गति पकड़ी। जिससे जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटनवर्धन, डॉ. राममनोहर लोहिया, अरुणा आसफ अली के नाम जुड़े हैं। नेताजी सुभाष चंद्र बोस और आजाद हिंद फौज तथा हमारे नौ सैनिकों ने अंग्रेज शासकों को भारत छोड़ने के लिए विवश कर दिया था, साथ ही १९४३ में फाँसी केफंदे को चूमनेवाले सिंध के नवयुवक हुतात्मा हेमू कलानी का चित्र आँखों के सामने आता है। उसी समय पूर्वानुमान होने लगा कि स्वाधीनता का प्रभात समीप ही है। स्वतंत्रता-संग्राम की बात करते समय सरदार पटेल, जवाहरलाल नेहरू, बाबू राजेंद्र प्रसाद, अब्दुल गफ्फार के नाम याद आना स्वाभाविक है।

१८५७ के प्रथम स्वातंत्र्य समर की अहुतियाँ हैं—तात्या टोपे, अजीमुल्ला खाँ, नाना साहब, बाबू कँुवर जगदीश सिंह जगदीशपुर के। ये नाम सिलसिलेवार नहीं हैं, और अन्य जो नाम याद नहीं आ रहे हैं, वे कोई कम महत्त्व के नहीं हैं। हरिसिंह नलवा का नाम याद आ रहा है, जिसका नाम लेकर अफगानी महिलाएँ बच्चों को डराकर सुलाया करती थीं। जोरावर सिंह, जिसने तिब्बत तक अपनी विजय पताका फहराई। शिवाजी के साथ कवि भूषण और छत्रसाल तथा प्राणनाथ की याद आती है। भारतीय इतिहास पर दृष्टिपात करते हुए पोरस की याद आती है, जब वह विजयी होकर सिकंदर से पूछता है कि तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार किया जाए? तो पोरस तुरंत निडरता से उत्तर देता है कि ‘जिस प्रकार का व्यवहार एक राजा को दूसरे राजा से करना चाहिए।’ पृथ्वीराज चौहान और महाराज हेमू के शौर्य को विस्मृत नहीं किया जा सकता। सफलता और विफलता, हार और जीत शौर्य के आकलन के मापदंड नहीं हो सकते। शौर्य की सार्थकता प्रयास में निहित है। यह कथा अनंत है। समय-समय पर ‘साहित्य अमृत’ द्वारा स्वाधीनता युद्ध के इन बलिदानियों को श्रद्धांजलि अर्पित करने की कोशिश रहेगी।

‘साहित्य अमृत’ के संस्थापक-प्रकाशक ने इस दिशा में बहुत से ग्रंथ प्रकाशित किए हैं, जो १९४७ के बाद युद्धों में हमारे शूरवीरों की जाँबाजी को उजागर करते हैं। इस काल के शौर्य के कई प्रकरण भी उदाहरण के लिए ‘शौर्य विशेषांक’ में सम्मिलित किए गए हैं। कुछ प्रसिद्ध ऐतिहासिक महत्त्व के गीत, जो शौर्य के महत्त्व को प्रदर्शित करते हैं, उनको भी सम्मिलित किया गया है। भारतीय फिल्मों ने भी भारतीय जनमानस को समय-समय पर झकझोरा है। फिल्मों में शौर्य पर आलेख के अलावा प्रसिद्ध सिने-गीत भी इसमें शामिल किए गए हैं। फिर भी कहानी आधी-अधूरी है, परंतु विश्वास है कि ‘शौर्य विशेषांक’ विज्ञ पाठकों को पसंद आएगा। उनके सुझावों का स्वागत है।

महाराणा प्रताप : एक संतुलित चित्रण

डॉ. रीमा हूजा ने आज की पीढ़ी के इतिहासकारों में अच्छी ख्याति अर्जित की है। डॉ. सर तेजबहादुर के ऊपर किया हुआ उनका शोध-कार्य सराहनीय रहा। इसने समकालीन भारतीय इतिहास के एक अभाव की पूर्ति की है। रीमा हूजा का ‘हिस्टरी ऑफ राजस्थान’ को एक स्तरीय ग्रंथ की मान्यता प्राप्त हुई है। एक तटस्थ इतिहासकार की दृष्टि से राजस्थान पर अब तक हुए शोधों की भली-भाँति जाँच-पड़ताल कर उन्होंने अपने ग्रंथ ‘राजस्थान के इतिहास’ का प्रणयन किया। (प्रकाशक रूपा, दिल्ली) उनकी एक पुस्तक ‘महाराणा प्रताप’ (प्रकाशक जगरनॉट, दिल्ली) पर आई है, जिसको हम लेखिका की उल्लेखनीय उपलब्धि मानते हैं। महाराणा प्रताप के विषय में बहुत से विवाद रहे हैं। तथ्य और भावनात्मक रुझान को अलग कर महाराणा प्रताप का समीचीन आकलन नहीं हुआ है। तीस-चालीस वर्ष पूर्व मुसलिम काल के एक विशेषज्ञ प्रो. श्रीराम शर्मा ने राणा प्रताप पर पहले एक पुस्तक अंग्रेजी में लिखी थी। पता चला है कि उसका पुनर्मुद्रण हुआ है और नई खोज के आधार पर प्रोफेसर (डॉ.) के.सी. यादव ने पाद-टिप्पणियाँ लिखी हैं तथा कुछ सुधार प्रस्तावित किए हैं। हम उसे देखने की शीघ्र कोशिश करेंगे।

वैसे महाराणा प्रताप पर अच्छी पुस्तकों की हिंदी भाषा में भी कमी है। चालीस-पचास साल पहले छपी पुस्तकों का अपना महत्त्व है, किंतु नए-नए तथ्य सामने आते रहते हैं। उनकी छानबीन आवश्यक हो जाती है। राजस्थान के विश्वविद्यालयों में अन्य राजा-महाराजाओं पर शोध कार्य हुआ, पर महाराणा प्रताप की या तो अवहेलना हुई अथवा प्रचार सामग्री के अभाव में उनकी अनदेखी होती रही। कुछ समय पहले नेहरू मेमोरियल और लाइब्रेरी, दिल्ली ने दो-तीन दिवसीय एक गोष्ठी का आयोजन किया था। इसमें राजस्थान से विशेषज्ञों को आमंत्रित किया गया था, किंतु उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए आलेखों का संपादन और प्रकाशन अभी प्रतीक्षा में है। भीलों ने महाराणा प्रताप को कैसे सहायता की और महाराणा ने उनकी स्वामिभक्ति कैसे अर्जित की, यह विषय काफी हद तक उजागर हुआ है। समकालीन मुसलमान इतिहासकार महाराणा प्रताप पर लिखते हुए अपने पूर्वग्रह से मुक्त नहीं थे। प्रताप का जीवन ऐसी कठिनाइयों से भरा और अस्त-व्यस्त रहा कि किसी प्रकार के दस्तावेज तैयार किए जाते, यह असंभव ही था।

महाराणा प्रताप की शौर्य-गाथा भारतीय मानस में अविचल रूप में है। उसने विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य को भी प्रभावित किया है। महाराणा प्रताप की महानता निर्विवाद है। उसको किसी प्रकार की अतिरंजना की किंचिन्मात्र आवश्यकता नहीं है। उसको नकारने या गौण करने के प्रयास सूर्य पर धूल फेंकने के समान हैं। किसी से अथवा किसी प्रकार का तुलनात्मक प्रस्तुतीकरण निरर्थक है। राणा प्रताप अपने आप में महान् हैं, प्रातः स्मरणीय हैं। उनके निधन के समाचार से अकबर भी विचलित हो गया था। यह ऐतिहासिक तथ्य है। महाराणा प्रताप के जीवन और पराक्रम के तथ्यात्मक रेखांकन के लिए डॉ. रीमा हूजा बधाई की पात्र हैं। उनकी पुस्तक अन्य शोधार्थियों की भी मार्गदर्शक होगी। राणा प्रताप अपनी शूरवीरता, आत्मसम्मान, निर्भयता और देशप्रेम की प्रतिमूर्ति के रूप में भारत के इतिहास को गौरवान्वित करते रहेंगे।

आवाज अरावली की

पं. विजयशंकर पांडेय मूलतः भोजपुरी के उपन्यासकार, कहानीकार और लेखक हैं। उन्होंने हिंदी में काफी लिखा है। उनके अपने जीवन-मूल्य हैं। लिखने का अपना दृष्टिकोण है। उनका सद्यः प्रकाशित खंडकाव्य ‘आवाज अरावली की’ को देखने का अवसर मिला। खंडकाव्य महाराणा प्रताप की यशगाथा का आठ सर्गों में काव्यात्मक वर्णन है। भामाशाह का महाराणा को अपना संपूर्ण धन अर्पण करने का सप्तम सर्ग में अच्छा वर्णन है। विजयशंकरजी की भाषा में ओज है, जो पाठक को प्रभावित करेगी। प्रकाशक हैं, नारायण प्रकाशन, भुल्लनपुर, वाराणसी, मो. ०९४५१८८११०९।

शूरवीर सावरकर : सेकुलर भगवा ज्योति के संरक्षण

वीर सावरकर की एक नई अंग्रेजी जीवनी पढ़ने को मिली, रुचिकर लगी। लेखक ने बहुत खोज और परिश्रमपूर्वक लिखी है। पुस्तक के लेखक हैं—आशुतोष देशमुख। पुस्तक का पूरा नाम है—‘ब्रेव हार्ट सावरकर : कीपर ऑफ द सेकुलर सैफ्रेन (Safferon) फ्लेम एलाइव’। यह पुस्तक सावरकर की संपूर्ण जीवनी है। वैसे धनंजय कीर ने सर्वप्रथम अथक परिश्रम कर अंग्रेजी में उनके जीवन-चरित्र की रचना की थी। अपने जीवनकाल में वे इसका संशोधित और परिवर्धित संस्करण, जो नई सामग्री उपलब्ध हो सकी, उसका उपयोग कर प्रकाशित करवा सके। धनजंय कीर ने मराठी में भी वीर सावरकर की जीवनी लिखी। हरींद्र श्रीवास्तव की ‘लंदन में चार तूफानी वर्ष’ भी बहुत उपयोेगी है। वह अंग्रेजी और हिंदी दोनों में है। डॉ. हरींद्र श्रीवास्तव ने अपनी डॉक्टरेट उपाधि सावरकर साहित्य पर की है।

सावरकर पर जो पहले सामग्री उपलब्ध थी, उसके अतिरिक्त आशुतोष देशमुख ने उन पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं में छपे सावरकर विषयक अनेक आलेखों से जानकारी, जो साधारणातया भारत में आसानी से उपलब्ध नहीं होती है, का प्रयोग किया है। लेखक देशमुख बेहरेंद्र कॉलेज, पेंसिल्वेनिया में अकाउंटिंग (लेखा-जोखा) के प्रोफेसर हैं। वे भारत से चार्टर्ड एकाउंटेट हैं और अमेरिका से भी। उनकी डिजिटल एकाउंटिंग की पुस्तक ने काफी प्रसिद्धि प्राप्त की है। देशमुख ने लिखा है कि वे जब दस वर्ष के थे, तब से सावरकर की ‘छह स्वर्णिम पृष्ठ’ नामक पुस्तक से परिचय हुआ और अपनी माँ से पूछते रहते थे। उन्होंने सावरकर का पूरा मराठी साहित्य पढ़ा और मनन किया है। उन्होंने लिखा है, ‘जो सावरकर के बारे में विचार-विमर्श के इच्छुक हों, उनसे deshmukh.savarkar@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।’

कीपर ऑफ दि सेकुलर सैफ्रेन फ्लेम (Keeper of the Secular Safferon Flame) अथवा ‘सेकुलर भगवा ज्योति के रक्षक’ में एक विरोधाभास दृष्टिगोचर होता है। लेखक ने वीर सावरकर की सोच और जीवनदर्शन का विवेचन किया है। सावरकर का हिंदुत्व धर्म आधारित नहीं था। वे हिंदुइज्म और हिंदुत्व में भेद करते हैं। उनके हिंदुत्व का विवेचन राष्ट्र और देशप्रेम को मान्यता देता है। वीर सावरकर का जीवन के प्रति दृष्टिकोण बिल्कुल आधुनिक, तर्कसंगत अथवा तर्कमूलक था। वे धार्मिक आस्था के व्यक्ति नहीं थे। वे अनीश्वरवादी थे अथवा अज्ञेयवादी (agrrostic), कहना कठिन है। योग के वे समर्थक थे। शायद योग क्रियाओं से ही वे कारागार की यातनाओं के बीच अपना मानसिक और शारीरिक संतुलित स्वास्थ्य की काफी हद तक रक्षा कर सके। इस पृष्ठभूमि को स्मरण रखा जाए तो पुस्तक के नामकरण में दिखता विरोधाभास लुप्त हो जाएगा।

देशमुख की पुस्तक की कुछ अपनी विशेषताएँ हैं, जिनकी ओर हम ध्यान दिलाना चाहेंगे। पहले पुराकथन में उन्होंने पुस्तक पढ़ने के बारे में सुझाव दिए हैं। लेखक ने सावरकर के सोचने की प्रक्रिया और वैश्विक दृष्टिकोण की चर्चा की है। पहले से छठे अध्याय तक सावरकर की जीवनी है। सातवें अध्याय में उनकी विचारधारा के मुख्य भागों की व्याख्या है। सावरकर को समझने के लिए उनके दर्शन और सोच के दो परिशिष्ट शामिल किए गए हैं, उनको जानना जरूरी है। उनमें सावरकर की, अन्य लेखकों ने जो आलोचना की है, उनका विश्लेषण और स्पष्टीकरण लेखक ने किया है। सावरकर के व्यक्तित्व और उनके कार्यकलापों के विषय में निरर्थक और भ्रांतिपूर्ण बातें प्रचारित की गई हैं। उनका स्पष्टीकरण लेखक का विशेष अवदान मानते हैं। तर्कों के साथ उन भ्रांतियों और आलोचनाओं के निवारण करने का विद्वान् लेखक ने संतुलित ढंग से प्रयास किया है। सुधी पाठकों को सावरकर को सही रूप में समझने में यह पुस्तक सहायक है। लेखक कहता है कि Savarkar remains secular riddle in a safforan mystay, अर्थात् सावरकर भगवा रहस्य में लिपटे हुए एक सेकुलर पहेली ही रहते। लेखक ने वीर सावरकर के बहुमुखी अवदान एवं व्यक्तित्व के सही प्रस्तुतीकरण की चेष्टा की है, जो अत्यंत सराहनीय है।

चंद्रशेखर एक जीवनी

पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की एक जीवनी अंग्रेजी में आई है। इसके लेखक हैं श्री हरिवंश और रवि दत्त वाजपेयी। हरिवंशजी एक अत्यंत वरिष्ठ पत्रकार हैं और इस समय राज्यसभा के माननीय डिप्टी चेयरमैन हैं। हरिवंशजी चंद्रशेखर को काफी समय से जानते रहे हैं और प्रधानमंत्री काल में वे चंद्रशेखर के अतिरिक्त प्रेस परामर्शदाता रहे। इस दीर्घकालीन निकटता का पूरा लाभ हरिवंशजी ने उठाया है। पुस्तक चंद्रशेखर की विरुदावली नहीं है। यह एक विश्लेषणत्मक जीवनी है। दस्तावेजों और चंद्रशेखर के अपने भाषणों, लेखों आदि का लेखक ने अच्छा इस्तेमाल किया है। चंद्रशेखर के विषय में पहले भी कुछ पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, पर वे आधी-अधूरी मालूम होती हैं। उनमें चंद्रशेखर का पूरा चित्र उभरता दिखाई नहीं देता है। यह पुस्तक, जो अंग्रेजी में है, चंद्रशेखर की पूर्ण जीवनी कही जा सकती है। चंद्रशेखर को लेखक ने विचारधारा केंद्रित अथवा सिद्धांतवादी राजनीति के अंतिम आइकन या प्रतिमूर्ति के रूप में रेखांकित किया है। चंद्रशेखर के वैचारिक पक्ष को भलीभाँति उजागर किया है।

चंद्रशेखर के सामीप्य जनित सहानुभूति लेखक की रही है, किंतु चाटुकारिता अथवा लीपापोती का आरोप उन पर नहीं लगाया जा सकता है। यदि कहीं किसी बिंदु पर प्रश्नचिह्न है तो उसके विषय में तथ्यात्मक तरीके से लेखक ने विवेचना की है। पुस्तक पढ़ते समय कभी-कभी भान होता है कि यदि कुछ और समय पुस्तक के लिखने में लेखक लगा सकता, कुछ और स्रोत खोजे जाते, थोड़ा और शोध होता तो शायद यह जीवनी और अधिक उत्तम बन जाती। कुछ विषयों पर साधारण पाठक के लिए और विवेचनात्मक जानकारी सुविधाजनक होती, पर शायद लेखक का विचार रहा कि उन घटनाओं के बारे में सामान्य जानकारी है ही। इससे पुस्तक के महत्त्व और सामयिकता पर कोई विशेष असर नहीं पड़ता है। पुस्तक का प्रकाशन प्रकाशक रूपा-एल्फ, दिल्ली द्वारा हुआ है। प्रकाशन सुरुचिपूर्ण और स्तरीय है।

चंद्रशेखर को प्रायः काफी गलत ढंग से एक राजनेता के रूप में पेश किया गया है। उनके विषय में बहुत से भ्रामक विवाद रहे हैं, पर चंद्रशेखर ने कभी उनके स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं समझी। उनका स्वभाव भी ऐसा था। लुटियन दिल्ली की उनके प्रति असहजता रही। जैसा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ हुआ, वैसा ही चंद्रशेखर के साथ हुआ। एक पिछडे़ इलाके एवं गरीब परिवार में जनमे चंद्रशेखर को लुटियन दिल्ली पचा नहीं सकी, पूर्णतया स्वीकार नहीं कर सकी। प्रधानमंत्री चंद्रशेखर उसके लिए मजबूरी रहे। चंद्रशेखर ने भी उसकी परवाह नहीं की। चंद्रशेखर की ७५वीं वर्षगाँठ के अवसर पर राजकमल प्रकाशन ने उनके विषय में उनकी रचनाओं और भाषण, संपादकीय आदि पर सात गं्रथ प्रकाशित किए थे। उनमें एक था चंद्रशेखर की आत्मकहानी—‘जिंदगी का कारवाँ’। पता नहीं कितने लोगों को इसकी जानकारी है। चंद्रशेखर को जानने और समझने के लिए उस आत्मकथन को पढ़ना आवश्यक है। उस शृंखला के ग्रंथ ‘चंद्रशेखर की जेल डायरी’ का पुनर्मुद्रण हुआ। इस पूरी शृंखला के प्रणयन में अन्य प्रतिष्ठित विद्वान् पत्रकारों के साथ हरिवंशजी का भी योगदान रहा। लोकार्पण का बड़ा भव्य और विशाल आयोजन था।

विद्वान् लेखक ने चंद्रशेखर को बचपन के वातावरण, गरीबी में शिक्षा, सब सुविधाओं से हीन परिस्थितियों के बावजूद कैसे अपने को आत्मनिर्मित किया, उसका अच्छा वर्णन किया है। साहस, निडरता, स्पष्टवादिता, सामाजिक संवेदना, अक्खड़पन और मानवीय मूल्यों से प्रेरित गुणों के अंकुर प्रारंभ से ही उनमें पनपने लगे। गरीबी क्या होती है, उसको उन्होंने जाना और भोगा। वह उनकी राजनीति का प्रस्थान-बिंदु रहा। देश की आर्थिक समस्याओं का समाधान उनके लिए सदैव सर्वोपरि रहा। राजनैतिक चेतना का विकास और शिक्षा के साथ-साथ राजनैतिक सक्रिय राजनीति में प्रवेश लेखक ने भलीभाँति व्याख्यायित किए हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के उनके अपने अनुभव हैं। वहीं से राजनैतिक यात्रा का वह मार्ग प्रशस्त होता है, जो उन्हें एक प्रभावी सांसद एवं प्रधानमंत्री के पद पर ले गया। चंद्रशेखर के रहन-सहन में कभी कोई परिवर्तन नहीं आया। पार्टी ऑफिस में चना-चबैना से पेट भरना, बरतनों को धोना, धन के अभाव में किस सूझ-बूझ से अपने ध्येय को कैसे पूरा किया जाए—यह आज के राजनैतिक कार्यकर्ताओं को चंद्रशेखर से सीखना चाहिए।

चंद्रशेखर का राजनैतिक जीवन बहुपक्षीय और उतार-चढ़ाव का रहा। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से कांग्रेस, फिर युवा तुर्क के रूप में ख्याति, कांग्रेस को समाजवादी रंग में रँगने की कोशिश, बैंकों का राष्ट्रीयकरण तथा राजा-महाराजों की प्रिवी पर्स बंद हो आंदोलन, संजीव रेड्डी और वी.वी. गिरि के राष्ट्रपति चुनाव अभियान में भाग, कांग्रेस पार्टी का टूटना, जेपी आंदोलन, आपातकाल में जेल तथा तदुपरांत जनता पार्टी का बनना और नेताओं की महत्त्वाकांक्षाओं के कारण विघटन, राष्ट्रीय पदयात्रा, कांग्रेस के आश्वासन पर प्रधानमंत्री और फिर इस्तीफा आदि अनेक प्रकरण हैं, जिन पर हरिवंशजी ने अच्छी रोशनी डाली है। बहुत सी बातें, जो रहस्यात्मक रही हैं, उनका खुलासा किया है। पुस्तक पठन से पाठक उस समय की राजनैतिक उठा-पटक की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। इससे बहुत से राजनेताओं के चरित्र का भी पता चलता है। चंद्रशेखर ने हर महत्त्वपूर्ण विषय पर अपने विचार प्रकट किए हैं, जो उनकी दूरदर्शिता प्रदर्शित करते हैं।

चंद्रशेखर को सबसे अधिक प्रभावित आचार्य नरेंद्रदेव ने किया, उसके बाद जयप्रकाशजी ने, पर वे अपने अलग विचार भी रखते थे। हाँ में हाँ मिलाना उनकी आदत में नहीं था। विचार-स्वातंत्र्य उनका एक विशेष गुण था। वे न कुंठा की राजनीति में और न बदले की भावना में विश्वास रखते थे। आपातकाल के बाद भी श्रीमती गांधी के प्रति कोई कटुता उनके भीतर नहीं थी। जो उनका मित्र एक बार हुआ, चाहे वह विरोधी भी हो जाए, चंद्रशेखर अंत तक उस मित्रता का निर्वाह करते थे। कभी-कभी उससे धोखा भी हुआ। जब चंद्रशेखर प्रधानमंत्री पद पर थे, उस समय यह चर्चा भी उठी कि उनके नजदीकी सहयोगियों, सहायकों ने उनके नाम और पद का अनुचित लाभ उठाया। कारण यही रहा कि वे बहुत जल्दी विश्वास कर लेते थे। चंद्रशेखर के वैयक्तिक एवं पारिवारिक जीवन के विषय में बहुत भ्रांतियाँ फैलाई गई हैं। लेखक ने उनकी पत्नी के स्नेहिल स्वभाव और चंद्रशेखर के राजनैतिक जीवन में उनकी भूमिका को पहली बार अच्छे ढंग से उद्घाटित किया है।

चंद्रशेखर अपने विचारों के पक्के थे। राज्यसभा में आते ही उन्होंने प्रधानमंत्री नेहरू की चीन और तिब्बत नीति की कटु आलोचना करने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई। चंद्रशेखर ने अनेक नेताओं के बारे में जो आकलन किया है, वह पठनीय है। पता चलता है कि कथनी और करनी में कितना भेद है। उनकी स्पष्टवादिता और सिद्धांतप्रियता के तीन प्रकरणों की चर्चा करना चाहेंगे। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक बार उनके कांग्रेस में आने के बाद उनसे पूछा कि वे कांग्रेस में क्यों आ गए? उन्होंने तुरंत उत्तर दिया कि ‘कांग्रेस को पूरी तरह समाजवादी मार्ग पर लाने के लिए।’ इंदिरा ने पूछा कि यदि यह संभव नहीं हुआ, तब क्या करोगे? चंद्रशेखर का जवाब था कि ‘पार्टी को तोड़ने का प्रयास करूँगा।’

दूसरा प्रकरण है, जब कांग्रेस ने समर्थन वापस लिया और उन्होंने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। वास्तव में राजीव उनका इस्तीफा नहीं चाहते थे, केवल अपने दवाब में रखना चाहते थे। चंद्रशेखर को यह कहाँ बरदाश्त होता। शरद पवार ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि वे राजीव के कहने पर उनको इस्तीफा वापस लेने के लिए राजी करने के लिए गए। कुछ रूखेपन से चंद्रशेखर ने पूछा कि कैसे आना हुआ? झिझकते हुए पवार ने कहा कि कुछ समझने में गलतफहमी हो गई है, कांग्रेस नहीं चाहती है कि उनकी सरकार गिरे। चंद्रशेखर गुस्से में थे, उन्होंने कहा कि क्या आप प्रधानमंत्री से इस प्रकार का बरताव करते हैं? प्रधानमंत्री के पद की एक विशेष गरिमा होती है। क्या कांग्रेस समझती है कि प्रधानमंत्री दो गुप्तचर कांस्टेबलों को राजीव पर खुफियागीरी, जासूसी के लिए भेजेंगे? और बात समाप्त करते हुए पवार से कहा कि जाकर कह दो—चंद्रशेखर दिन में तीन बार अपना निर्णय नहीं बदलता। वह सत्ता से हर हालात में चिपकना नहीं चाहता। जाकर कह दो कि चाहे अभी राष्ट्रपति ने इस्तीफा मंजूर न किया हो, पर उन्हें करना ही पडे़गा।

तत्कालीन राष्ट्रपति श्री वेंकटरमन ने कांग्रेस की इस विषय में आलोचना की है। उन्होंने अपने राष्ट्रपति काल के संस्मरणों में लिखा है कि कांग्रेस की पदलोलुप मित्रमंडली राजीव गांधी को गुमराह करती रहती थी कि चंद्रशेखर की प्रधानमंत्री पद पर अच्छी छवि बनना राजीव के लिए हानिकारक होगा। राष्ट्रपतिजी ने चंद्रशेखर को राजी कर लिया कि कुछ जरूरी कानूनी मसले हैं, उनको संसद् में अगले दिन पारित करा लें, जिसमें पंजाब में राष्ट्रपति शासन को बढ़ाने का अहम मामला भी था। उसके उपरांत उनका इस्तीफा मंजूर हो। एक अत्यंत रोचक प्रसंग है। चंद्रशेखर का पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मिलने का मौका सार्क की बैठक में मिला था। दोनों देशों के संबंधों में तनातनी तो थी ही। पाकिस्तान ने स्वीडन के कुछ इंजीनियरों का जम्मू-कश्मीर में अपहरण कर लिया था। स्विस सरकार परेशान थी। प्रधानमंत्री चंद्रशेखर चिंतित दिखे। चंद्रशेखर ने अपने प्रधान सचिव एस.के. मिश्रा से कहा कि नवाज शरीफ से बात करना चाहेेंगे। फोन मिलते ही बेतकल्लुफी से चंद्रशेखर ने कहा कि भाईजान! इन निर्दोष स्वीडिश इंजीनियरों को छुड़वा दीजिए। नवाज शरीफ का जवाब था कि भाईसाहब, पाकिस्तान सरकार का इस घटना से कोई लेना-देना नहीं है, शायद किसी गैर-सरकारी गुट ने ऐसा किया हो! चंद्रशेखर ने फिर उसी लहजे में कहा कि भाईजान! यहाँ न प्रेस है, न मीडिया, हम आपस में बात कर रहे हैं, मानवीय आधार पर उनको छुड़वा दीजिए।

इंजीनियर पाकिस्तान ने रिहा कर दिए। किसी को कानोकान खबर नहीं कि यह कैसे हुआ! ऐसी थी चंद्रशेखर की सोचने और काम करने की प्रणाली। एस.के. मिश्रा, जो चंद्रशेखर के प्रधान सचिव रहे हैं, ने इस घटना को बडे़ नाटकीय ढंग से रेखांकित किया है। चंद्रशेखर योग्यता के आधार पर ही उच्च पदों पर नियुक्ति करते थे। उनके नौकरशाहों से अच्छे संबंध रहे। पर प्रधानमंत्री के पद के समय उन पर ठीक से नियंत्रण रखा। वे नौकरशाही का प्रभावी उपयोग करना जानते थे, हालाँकि पहले कभी उनका प्रशासन से संबंध नहीं रहा। वे एक अद्भुत सूझबूझ के व्यक्ति थे। चंद्रशेखर बहुपाठी थे। साहित्य से प्रेम था। राजनीति शास्त्र के विद्यार्थी रहे थे और देश-विदेश की घटनाओं में दिलचस्पी रखते थे।

विद्वान् लेखक साधुवाद के पात्र हैं कि उन्होंने चंद्रशेखर की एक संपूर्ण, समग्र और सुविचारित जीवनी प्रथम बार प्रस्तुत की है। हरिवंशजी की यह एक अत्यंत सराहनीय उपलब्धि है। पिछले पचास-साठ वर्षों की भारतीय राजनीति को समझने के लिए यह पुस्तक अत्यंत उपयोगी है। एक अभाव था, जिसकी पूर्ति हरिवंशजी ने की है। यह एक ऐसे सैद्धांतिक राजनेता की जीवनी है, जो भारत की राजनीति को जमीन से जोड़ना चाहता था, जो गरीब-असहाय, उपेक्षित और शोषित समुदाय की पीड़ा से भलीभाँति परिचित था और उसके निदान के लिए सतत जीवनपर्यंत तत्पर और प्रयत्नशील रहा। प्रकाशक रूपा, दिल्ली ने एक आवश्यक और स्तरीय प्रकाशन किया है।

क्रांति और स्वाधीनता : एक संकलन

‘क्रांति और स्वाधीनता’, डॉ. ऊषा निगम के कुछ लेख हैं, जो पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं, का संकलन है। समय-समय पर ‘साहित्य अमृत’ में भी उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती रही हैं। अधिकतर संकलित आलेख १८५७ के स्वतंत्रता-संग्राम के उपरांत के क्रांतिकारी आंदोलन के प्रथम चरण से संबंधित हैं। क्रांति और स्वाधीनता संग्राम की घटनाओं और उनके पात्रों को उन्होंने रेखांकित किया है। उन्हें भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के अध्ययन और खोज में विशेष दिलचस्पी है। सभी आलेख प्रेरणादायक हैं, किंतु डॉ. खानखोजे और सरदार सिंह राणा के चित्रांकन विशेष उल्लेखनीय हैं। यह संकल्प प्रकाशन, सोनिया विहार, दिल्ली द्वारा प्रकाशित है। प्रकाशन स्वागत योग्य है। पब्लिक पुस्तकालयों और शिक्षालयों के लिए पुस्तक उपयोगी है।

माथुर चतुर्वेदी के संस्कार गीत

पिछले दिनों एक दिलचस्प पुस्तक ‘संस्कार गीत माथुर चतुर्वेदियों की समृद्ध परंपरा’ देखने को मिली। पुस्तक का संकलन और संयोजन श्रीमती विनीता चौबे ने किया है। पुस्तक चित्रमय है और आर्ट पेपर पर छपी है। पुस्तक का मूल्य केवल ४०० रुपए है और यह आईसेक्ट पब्लिकेशन, स्कोप कैंपस, एन.एच.-१२, होशंगाबाद रोड, भोपाल से उपलब्ध है। पुस्तक महत्त्वपूर्ण इस दृष्टि से लगी कि यह एक प्रयास है, एक समुदाय का, अपनी संस्कार-परंपरा के संरक्षण का। चूँकि आज के आपाधापी के समय, वैश्विक दुनिया तथा आधुनिकता की दौड़ में हमारी परंपराएँ लुप्त होती जा रही हैं। किसी भी समुदाय की अस्मिता की परिचायक उसकी अपनी परंपराएँ ही होती हैं। विनीताजी ने माथुर चतुर्वेदियों के सभी संस्कार विषयक जन्म से लेकर मृत्यु तक के गीतों का संकलन किया है। वैसे बहुत से गीत सभी समुदायों में मान्य और प्रचलित है, किंतु बहुत से केवल एक समुदाय केंद्रित होते हैं। आज की पीढ़ी इन गीतों को भूल रही है। कुछ तो इनको गाँव-गँवई के गीत कहकर नकार देते हैं। पर अपने को पहचानने, अपने सामूहिक अस्तित्व को अभव्यंजित इन्हीं गीतों से किया जा सकता है। संकलन में गणपति, देवी आदि के भजनों के अतिरिक्त लाँगुरिया, दादरानाथ के गीत, बन्नी, बन्ना, मात, शादी-ब्याह, थोड़ी, बधावे, जच्चा (सोहर), पालना तथा अन्य गीत संकलित हैं। संस्कारों के समय जो चौक, स्वास्तिक आदि बनाए जाते हैं, दिए गए चित्र इनको समझने में सहायक हैं।

श्री संतोष चौबे (अध्यक्ष बनमाली सृजनपीठ) ने अपने आशीर्वाद-स्वरूप ‘दो शब्द’ के अंतर्गत ठीक ही लिखा है कि संस्कार गीतों में महिला स्वर पूरी ताकत के साथ ध्वनित होता है, उसे होना भी चाहिए। संपादक और संकलनकर्ता श्रीमती विनीता चौबे अपने इस कल्पनाशील एवं श्रमसाध्य प्रयास के लिए साधुवाद तथा सराहना की पात्र हैं। पुस्तक अपनी गुणात्मकता के कारण अवश्य वांछित लोकप्रियता की अधिकारी होगी। अच्छा होगा, यदि इस प्रकार के संकलन अन्य समुदाय के लोग भी अपनी थाती, अपनी विरासत के संरक्षण के लिए निकालने के प्रयास करें। सब मिल-जुलकर भारतीय संस्कृति की विरासत की विविधता से कैसे एकता सुदृढ होती है, इस सत्य को ही रेखांकित करेंगे।

देशवासियों को स्वाधीनता दिवस की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!

 

(त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी)

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