बहन से बात करोगे?

बहन से बात करोगे?

वह रात भी अजीब सी रात थी। दूर तक अँधेरा-ही-अँधेरा था। आकाश में बादल छाए हुए थे। चंद्रमा आकाश में था किंतु उसे बादलों ने घेर रखा था। बहुत ही हलकी फुहार पड़ रही थी। सभी अपने-अपने घरों में मुँह ढाँपे सो रहे थे। रात के एक-डेढ़ बजे का समय होगा। एक घर के ऊपर के कमरे में एक कृश शरीर कराह रहा था और धीरे-धीरे उसकी कराह भी हलकी, फिर और हलकी पड़ती जा रही थी। इसी कमरे में एक लालटेन भी धीमी-धीमी रोशनी लेकर जल रही थी। इसकी चिमनी पर काफी धुआँ इकट्ठा हो गया था, इसलिए वह चिमनी काली पड़ गई थी। लगता था कि किसी को इस चिमनी को साफ करने की फुरसत ही नहीं मिली थी। लालटेन के भीतर जो लौ जल रही थी, उसकी रोशनी चिमनी के भीतर ही सिमटकर रह जा रही थी। थोड़ी देर बाद लालटेन की लौ भी ‘भप-भप’ करने लगी थी। शायद उसमें तेल की कमी हो गई थी। चारपाई के चारों ओर जितने भी उस घर में रहनेवाले थे, मुँह लटकाए खड़े हुए थे। सभी के चेहरों पर चिंता की रेखाएँ थीं। होंठ चुप थे, आँखें उदास थीं। कान जिन कराहों को सुन रहे थे, उन कराहों की ‘उँह-उँह’ अब कुछ कमजोर पड़ती जा रही थी। हर कोई भीतर-भीतर प्रार्थना-सा करता दिखाई दे रहा था। इस मकान में कई किराएदार रहते थे, वे सभी किराएदार अब इस कमरे में उपस्थित थे। केवल मैं ही इस पूरी घटना से अनभिज्ञ था। मैं इस कमरे में मौजूद नहीं था और इसी घर के नीचेवाले भाग में जो बरांडा था, उसमें जो एक चारपाई पड़ी थी, उस पर गहरी नींद में सो रहा था।

अचानक मेरे कंधे पर एक हाथ आया और मुझे चारपाई से उठा दिया गया। मैं दोनों हाथों से आँखें मींड़ते हुए चारपाई से उठा। सामने देखा तो जीजाजी खड़े हैं। वे घबराए हुए और हड़बडाए हुए से थे। उन्होंने मुझे जल्दी ही ऊपरवाले कमरे में आने को कहा और मेरा हाथ थामकर जीने की सीढ़ियाँ तेजी से पार करते और मुझे भी सीढ़ियाँ पार कराते हुए उसी कमरे में लाकर खड़ा कर दिया, जिसमें चारपाई पर पड़े उस कृश शरीर की कराह की आवाज निरंतर धीमी होती जा रही थी। मैं भौंचक्का रह गया। चारपाई के चारों ओर अब भी भीड़ जमा थी और अब भी लालटेन की बत्ती ‘भप-भप’ कर रही थी। मैंने देखा कि चारपाई पर यह धुँधली होती कराह किसी और की नहीं थी, यह मेरी बहन की ही थी। उस बहन की, जिसने माँ के मरने के बाद, जब मैं सात साल का था, तब से ही अपने कलेजे से लगाया था और माँ जैसा प्यार दिया था। वह मेरी छोटी-छोटी बात का भी खयाल रखती थी। कौन सी मेरी ऐसी ख्वाहिश थी, जिसे पूरा करना उसके वश में हो और उसने उस ख्वाहिश को पूरा न किया हो। तीखे नाक-नक्श और हलके साँवले रंगवाली तथा मध्यम कदवाली मेरी यह बहन, जिसे देखकर सबकी आँखें ठहर जाती थीं, जिसके घुँघराले बालों की मोहल्ले की सभी औरतों के बीच चर्चा थी। जिसकी गहरी काली और तीखी आँखें अपने में एक अलग तरह का आकर्षण लिये हुए थीं। जिसकी ढोलक बजाने की कला और जिसके सुरीले कंठ से निकले मीठे-मीठे गीतों के सब दीवाने थे, उसी बहन के कंठ से अब कराह भी ठीक से नहीं निकल पा रही थी। उसी की तीखी आँखें अब बैठती जा रही थीं। उसी का साँवला आकर्षक शरीर अब पीला-सा पड़ गया था। उसी के घुँघराले बाल अब जीवन की उलझनों की कथा कह रहे थे।

मैं जब कमरे में गया तो सब लोग पीछे हट गए और मुझे आगे कर दिया गया। जीजाजी ने मुझसे कहा, ‘बहन से बात करोगे?’...मैंने झट से हाँ कह दिया। जीजाजी मुझसे बोले, ‘जाओ, जीजी के कान के पास जाकर उसे पुकारो।’ मैं जीजी के कान के पास जाकर बोला, ‘जीजीऽऽ’  मगर उधर से कोई उत्तर नहीं मिला। मैंने फिर उसके और करीब जाकर खूब जोर से आवाज दी, ‘जीजी, जीजीऽऽऽ, जीजीऽऽऽऽऽ’ और उसके बदन को भी थोड़ा सा झकझोर दिया। उसने हलकी सी आँख खोली। सब थोड़ा आश्वस्त हुए। उसकी आँख खुलते ही जीजाजी उसके निकट पहुँचे और उसके कान के पास जाकर बोले, ‘सुनो, अपने भैया के लिए कुछ कहती हो?’ उसने ठहरी हुई निगाह से जीजाजी की ओर देखा और दो बूँद आँसू टपका दिए...आँसू आँख के एक कोए से ढुलककर कान के पास से होते हुए तकिये को भिगो गए थे।...

मैं अभी नौ साल का ही तो था। दो साल पहले जब माँ की मृत्यु हुई तो सात का था, पिताजी तो उसी समय दुनिया को छोड़कर चले गए थे, जब मैं केवल दो माह का था। जीजी की शादी उस समय हो गई थी, जब मैं दो साल का था। तब ही से तो मैं जीजा-जीजी के पास चला आया था। माँ भी परिस्थितिवश उसी के पास रहती थी। माँ की मृत्यु के पश्चात् तो उसी में माँ का रूप आ गया था। वह मेरे प्रति ममत्व से भर गई थी...जब कुछ दिन पहले वह बीमार हुई और उसे लगा कि वह बचेगी नहीं तो मेरी बहुत चिंता करती थी...वह अपनी मिलनेवाली सहेलियों से और अन्य औरतों से कहती थी कि मेरे न रहने पर मेरे भैया का कोई नहीं...क्या होगा इसका। अभी तो यह इतना छोटा है। नौ साल का ही तो है, कैसे रहेगा यह...ऐसा कहते-कहते वह रो पड़ती थी। कभी-कभी तो उसके रोने की आवाज दूसरों को भी सुनाई दे जाती थी। जो भी उसके मन की इस व्यथा और मन में उठते हुए इस संदेह को  सुनता था, वह तसल्ली बँधाते हुए यही कहता था’, ‘नहीं प्रेमा, तू मत घबरा, अभी तो तेरी उम्र ही क्या है, अभी तो तू चौबीस की भी पूरी नहीं हुई। तुझे कुछ नहीं होगा। और तेरे रहते तेरे भैया का क्या बुरा हो सकता है?...देख तू रोना छोड़...सबकुछ ठीक हो जाएगा।’ मगर जीजी थी कि उसे अपने दिन आते दिखाई दे रहे थे। वह कहती थी, ‘नहीं बहन, नहीं चाची, नहीं दादी, अब मैं बचूँगी नहीं।’

जब चारपाई पर मरणासन्न जीजी को जीजाजी ने पुकारा था और पूछा था कि अपने भैया के लिए कुछ कहना चाहती हो, तब बहन की आँखों से जो आँसू ढुलके थे, वे मेरी चिंता में उसके धड़कते हुए दिल के ही टुकड़े थे, जो आँसू बनकर बाहर निकल आए थे। जीजाजी बहन के आँसुओं का अर्थ समझ गए थे। वे बहन की तरफ देखकर और अपने सीधे हाथ से अपनी छाती ठोकते हुए बोले, ‘मैं हूँ न’...‘सुनो, तुम कुमर की चिंता मत करना। जब तक मैं हूँ, तुम्हारे भैया को कोई तकलीफ नहीं होगी। वह एकदम सुरक्षित है। तुम खुशी-खुशी जाओ।’...फिर आँखों में आँसू भरकर जीजाजी जीजी के कान के पास जाकर बोले, ‘तुमको मुझ पर यकीन तो है न?’...जीजी ने ‘हाँ’ में अपनी गरदन हिलाने की कोशिश की और फिर वह गरदन एक तरफ लटक गई।

जीजाजी चीख-चीखकर रोने लगे। आस-पास खड़े जितने लोग थे, वे भी रोने लग गए। मैं भी जीजी से लिपटकर रोने लगा था, ‘नहीं जीजी, मुझे छोड़कर मत जा, देख मैं तेरे बिना कैसे रहूँगा। देख, आँखें खोलकर जरा मेरी तरफ देख तो, तू बोल क्यों नहीं रही। जीजी बोल, बोल न।’...जीजाजी ने मेरा हाथ थामकर जीजी से अलग किया और मुझे गोदी में उठाकर तथा गले से चिपकाकर बोले, ‘नहीं कुँअर, अब तेरी जीजी नहीं बोलेगी, वह हम सबको छोड़कर चली गई है। भगवानजी ने उसे अपने घर बुला लिया है...रो मत मेरे बेटे। तसल्ली रख, तुझे मैं कुछ नहीं होने दूँगा।...’

इसी प्रकार वे न जाने क्या-क्या कहते रहे। मुझे याद है कि जब मेरी माँ की मृत्यु हुई थी तो जब मैंने रोना शुरू किया था तो सब लोगों ने मुझे चुपाते हुए यह कहा था, ‘लल्ला, रो मत, तेरी अम्माँ भगवानजी के घर गई है, दो-चार दिन में वापस आ जाएगी’...और मैंने तब इस बात पर विश्वास करके रोटी भी खा ली थी; लेकिन अब तो मैं सबकुछ समझ चुका था। मैं मरने का अर्थ भी समझ चुका था और यह भी जान चुका था कि मरकर कोई वापस नहीं आता है। आस-पास खड़े किराएदार भी मुझे गोदी में ले-लेकर चुपाते रहे, किंतु मैं था कि न तो मेरे आँसू रुक रहे थे और न ही मेरे रोने की आवाज। घर में खूब रोना-धोना चल रहा था। रोने की आवाजें सुनकर मोहल्ले के पास-पड़ोस के लोग भी आकर इकट्ठे होने लगे थे। सभी बड़े अफसोस में थे। जीजी बहुत मिलनसार और सबको इज्जत देनेवाली थी। पूरा मोहल्ला उसे बहुत चाहता था।

मोहल्ले के लोग जाग गए थे। कोई दूसरे से पूछ रहा था, ‘क्या हुआ?’...दूसरा उत्तर देते हुए कहता, ‘अरे वो जंगबहादुर हैं न, वो जो भार्गव प्रेस में काम करते हैं, उनकी बीबी, अरे वो कुमर की बहन जिसका नाम प्रेमवती है, वो मर गई।’...कोई महिला कह रही थी, ‘ये तो बहुत बुरा हुआ। अब उसके बेचारे भैया का क्या होगा। बेचारा बिना माँ-बाप का बालक अब बहन को भी खो बैठा। बड़ा बदनसीब निकला बेचारा कुमर।’

मैं पूरे मोहल्ले में खूब प्रख्यात था। सामनेवाली दादी ने अगर कहा, ‘भैया कुमर, जरा हमारा छोटा सा काम कर दोगे, आज तुम्हारे दादा जरा जल्दी काम पर चले गए हैं, इसलिए घर में कोई सब्जी नहीं है, जरा ला दोगे बाजार से आधा सेर तोरई?’... मैं चाहे खेल ही रहा होता था, तब भी खेल को अधूरा छोड़कर और अपने साथी खिलाड़ियों से यह कहकर कि मेरा दाव याद रखना, जरा दादी की तोरई ले आऊँ, अभी आता हूँ। ऐसा कहकर मैं झटाक से जाता था और फटाक से वापस आकर अपने खेल में जुट जाता था। बराबर वाली चाची ने कभी साबुन मँगवा लिया, चार-पाँच मकान छोड़कर जो मेरी मुँहबोली मौसी थीं, उन्होंने अगर कभी अरहर की दाल या चावल मँगवा लिये तो मैं भागकर ले आया। मतलब यह है कि मैं कभी भी, किसी के भी काम को मना नहीं करता था। सारे मोहल्ले की महिलाओं और पुरुषों के मन में मेरे प्रति बड़ा ही ममत्व था। अतः जीजी की मृत्यु की इस दारुण घटना पर  सभी को मेरा खयाल आ रहा था। इस बेचारे बच्चे का क्या होगा?

अब अगले दिन का सवेरा हो चुका था। सूर्यदेव ने अपने दर्शन दे दिए थे। मगर बादल के एक-दो टुकड़े अब भी उसका पीछा नहीं छोड़ रहे थे। जीजी को जमीन पर लिटा दिया गया था। ऊपर से चादर डाल दी गई थी। नाक में रुई लगा दी गई थी। मैं बार-बार उसे देखने जा रहा था। सोच रहा था कि कोई करिश्मा हो जाए और जीजी उठ खड़ी हो, वह जिंदा हो जाए और मुझे गले से लगाकर मुझसे बातें भी करे, मगर मेरा सोचा कहाँ होनेवाला था!

कितनी ही यादें ताजा हो आई थीं। उसकी बीमारी के दिनों में किसी हकीम ने कोई घास बताई थी, जिसका अर्क निकालकर उसे दिया जाता था। मैं दूसरे-तीसरे दिन इस घास को लेने के लिए चंदौसी के पास चार मील दूर जीजाजी के पैतृक गाँव सिसरका तक पैदल जाता था और उसी दिन वह घास लेकर उलटे पाँव लौट आता था। जब उसकी यह दवा मैं लाता था तो कितनी ही देर तक वह मुझे निहारती रहती थी, जैसे कह रही हो कि तू मेरी कितनी चिंता करता है, थक गया होगा...।

मुझे याद आया कि एक बार मोहल्ले के किसी बच्चे से मेरी लड़ाई हो गई थी और मेरे जरा सा खून निकल आया था तो उसके घरवालों से वह मेरी हिमायत में कितना  लड़ी थी...मैं जाने किन-किन यादों में खो गया था। उस समय मुझे याद आया कि जब मैं स्कूल में इम्तिहान देने जा रहा होता था तो वह मुझे दही-पेड़ा खिलाना नहीं भूलती थी...कितनी ही यादें मेरे स्मृति-पटल पर आ-जा रही थीं...उधर जीजी को श्मशान घाट पर ले जाने की तैयारियाँ होने लगी थीं। सुबह के ग्यारह बजे उसे श्मशान घाट ले जाया गया था और दोपहर को लगभग तीन बजे हम सब लोग उसकी क्रिया करके लौट आए थे।

जीजाजी ने आजन्म मेरी देखभाल की, पढ़ाया-लिखाया, मेरी शादी की। मुझसे कुछ चाहा नहीं। बस मुझे चाहते रहे। अब तो वे भी नहीं हैं, चालीस साल पहले वे भी विदा ले गए। उनका तो जन्म ही शायद इसलिए हुआ था कि वे मुझे सँवारकर स्वयं विदा ले जाएँ। उनके जाने पर मैं बहुत रोया किंतु मृत्यु कहीं आँसुओं की भाषा सुनती है?...नहीं सुनती। मगर अभी भी जीजाजी के ये शब्द न जाने क्यों मेरे कानों में अचानक गूँज जाते हैं, ‘बहन से बात करोगे?’...

—कुँअर बेचैन

२ एफ-५१, नेहरू नगर

गाजियाबाद-२०१००१ (उ.प्र.)

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