मैं तीसरे गाँव का आदमी हूँ

मैं तीसरे गाँव का आदमी हूँ

है। खटिया पर उठंगकर, सुर्ती मलते हुए, खैनी से भरे हुए लारवाले मुँह को आगे कर पिच्च से थूकते हुए या फिर ताश के पत्ते फेंटते हुए मेरा गाँव गपिया रहा है। गाँव के पूरब पुरनका पोखरा के भीटे पर, लालाजी के बैठका में, पंडीजी के दुआर पर, बाबा के बरगद के नीचे या दक्खिन टोला के नीम के तले जगह-जगह, जहाँ भी ढरकने की, बिलमने की, घड़ी-आध-घड़ी टेक लेने की जगह है, वहाँ टिककर मेरा गाँव गपिया रहा है। कोई ताश फेंट रहा है, कोई ताश बाँट रहा है, कोई बाजी समेटकर उत्साह से सीना चौड़ा कर रहा है और कोई केवल और केवल गपिया रहा है। किसी के पास कहकहे हैं तो किसी के पास अपने रोजमर्रे की बातें, किसी के पास बेटे-बहू की कहानियाँ तो किसी के कूल्हे या घुटने के दर्द और किसी के पास डाँड़-मेढ़, गोतिया-दायाद और भाई-बंधु। सबके पास वक्ता हैं, सबके पास श्रोता हैं और सबके पास अपनी-अपनी कहानियाँ हैं। सब उसे कहने और सुनने में मशगूल हैं।

इस गपियाते हुए गाँव के पीछे भी एक गाँव है। वह दरवाजे के पल्ले भिड़ाकर घर में उठंगा हुआ है। वह दो पहरों की आपाधापी के बाद अब थोड़ा सुस्ता लेना चाहता है। घर-बासन, चूल्हा-चौका और लड़के-बच्चे के बाद अपने लिए थोड़ा-सा समय निकाल लेना चाहता है। गप्प उसे भी पसंद है। वह भी गपियाना चाहता है, लेकिन इस चिलचिलाती हुई दोपहर में सोए हुए बच्चे को भला कैसे जगाया जा सकता है? उसके पंखा झलते हुए हाथों में दर्द होने लगा है, लेकिन बच्चा! पंखे के रुकते ही कुनमुना उठता है। फुसफुसाकर बतियाते हुए भी उसके जगने का डर उसे बोलने नहीं देता। थकान से आँखें झपक रही हैं, लेकिन बच्चे की कुनमुनाहट उसे फिर सचेष्ट कर देती है और वह नींद की शिथिलता में हाथ से छूटे पंखे को फिर सँभालकर और तेजी से झलने लगता है।

इन दोनों से अलग एक तीसरा गाँव भी है। उस गाँव के पाँव दुपहरिया से बहुत पहले ही गाँव की चौहद्दी और सिवान को पार कर सड़क पर जा टिकते हैं। किसी चाय की दुकान के जलते टप्पर या छान के नीचे धूनी रमाए वह अनंत ज्ञान साधना में लीन है। वह दुनिया-जहाँ की हर बात जानता है, हर क्षेत्र में दखल रखता है। वह अपना दुक्खम-सुक्खम नहीं बतियाता। गाँव-जवार की तो उसे फुरसत ही नहीं। वह राष्ट्रनीति का व्याख्याता है, विदेशनीति का परम आचार्य है और ज्ञान-विज्ञान की नाना शाखाओं का प्रकांड पंडित। जो उसकी जद में नहीं है, वह ज्ञान-विज्ञान की किसी दूसरी शाखा-प्रशाखा में भी नहीं है। वह महाअवधूत है। श्मशान-सी सुनसान सड़क के किनारे बैठ पूरी दुपहरिया ज्ञान-साधना करता है। दुपहरिया ही क्यों, तिझरिया और शाम, बल्कि देर रात; जब तक कि कालभैरव का महाप्रसाद पा स्वयं महाभैरव न हो जाए और उसके मुँह से मोहन, उच्चाटन और मारण के मंत्रों का भैरव नाद न होने लगे, तब तक निरंतर यह मसान उससे सेवित ही रहता है।

पहला गाँव मेरे बचपन के साथ विदा हो गया और दूसरा बंद किवाड़ों के भीतर बंद। कभी-कभी उससे उठती सिसकियाँ, गाली-गलौज के स्वर या कभी-कभार मंगलगान की मधुर आवाजों से अधिक उस गाँव की परिधि में प्रवेश की अनुमति घर के बाहरी आदमी को नहीं है। वह तो दरवाजे पर खड़ा होकर आवाज दे सकता है। उस आवाज का जवाब भी पहले या तीसरे गाँव का आदमी ही देगा, दूसरे गाँव ने तो सनातन चुप्पी साध रखी है; ऐसा लगता है, गोया वह जबान हिलाना ही नहीं जानता। वह जन्मजात गूँगा और बहरा है। या फिर उसकी जबान पहले या तीसरे के पास गिरवी है और उसी के कर्ज की रोटी खाकर सूद में पहले या दूसरे गाँव की पौधें तैयार कर रही है। हाँ, कभी-कभी भूलवश किसी ‘खेझरा’ धान का बीज इस्तेमाल कर लेने से नर्सरी में दूसरे गाँव की पौध भी तैयार हो जाती है। समझदार किसान उसे रोपाई से पहले ही छाँट देता है। जब ऐसा नहीं होता तो समझदारी इसी में है कि उसे समय से पहले काट-पीटकर गोदाम में रख दो, नहीं तो झरंगा की तरह वह जल्दी पककर झड़ जाएगी और किसान हाथ मलता रहा जाएगा खेत और किसान का हर्जा करेगा सो अलग।

बहरहाल, मैं तीसरे गाँव का आदमी हूँ। इसलिए उसी की बात करूँगा। मेरी ये बहकी-बहकी बातें सुनकर आप पूछ सकते हैं, मेरे इस गाँव का नाम क्या है? गाँव कोई भी हो सकता है। मेरा, आपका, इनका, उनका। किसी का भी। अजी, छोडि़ए भी, क्या फर्क पड़ता है? किसी का हो। कहीं का हो। पते की जरूरत डाक पहुँचने तक है। जब यह डाक आप तक पहुँच ही जाएगी तो पते की भला क्या जरूरत। लिफाफे और मजमून तो खिलंदड़ों के भाँपने के लिए होते हैं। अपन को न खिलंदड़ी आती है और न खिलंदड़ों से वास्ता ठहरा। अपन तो ठहरे ठेठ गँवई आदमी। जैसा मेरा गाँव वैसा आपका। वैसा ही इनका और उनका भी। सुबह उठाकर दिशा-फरागत, खैनी-गुटखा और साँझा को ठर्रा। बीच का दौर झक्क उज्जर नील-टिनोपाल पड़े कुरते, चाय की चुस्कियों और आग के गोलों की तरह उछलती बहसों का। भला जेठ की दुपहरिया की धूप में वह ताप कहाँ, जो इन आग के गोलों में है। अमेरिका की बड़ी-बड़ी मिसाइलें हों या चीन और रूस के आणविक हथियार, सब उसके ताप में गलकर तरल और कभी-कभी हवा भी हो जा रहे हैं। बीच-बीच में पान की पिच्च और तांबूल रंजित ठहाकों के कहने ही क्या? वे तो संक्रामक रोग की तरह गाँव के एक ताश अड्डे से दूसरे ताश अड्डे और एक नुक्कड़ से दूसरे नुक्कड़ तक हवा में तैर रहे हैं। यह बात अलग है कि इस घोर दुपहरिया में हवा भी पेड़ों की छाँव में दुबक जाती है, अन्यथा यह बीमारी डेंगू, चिकनगुनिया आदि-आदि से अधिक तेजी से पूरी दुनिया में फैल गई होती।

यह तीसरा गाँव पहले और दूसरे से अधिक पढ़ा-लिखा और होशियार है। अखबार बाँच सकता है, देश-जहान की बातें कर सकता है, बात-बात में देश की राजनीति, विदेशनीति और युद्धनीति पर बहसें कर सकता है, चौराहे पर बैठा-बैठा चाय की चुस्की लेते हुए सीरिया-लेबनान तक टहलकर आ सकता है, (कभी-कभार मंगल और चंद्रमा तक भी उड़ाने भर सकता है, लेकिन उसके लिए एनर्जी ज्यादा लगती है), गाँव-घर की मरनी-जियानी से लेकर दुनिया-जहान की बातें कर सकता है। और तो और, सामनेवाले से कमतर महसूस होते ही दूसरी सूचनाओं की जगह अपनी डिगरियाँ गिनाकर सामनेवाले पर धौंस दिखा सकता है। लब्बोलुआब यह, वह दुनिया में कोई भी करणीय और अकरणीय काम कर सकता है; सिवाय एक काम—घर में दो जून की रोटी के इंतजाम के। सानी-पानी, फावड़ा-कुदाल चलाना कौन कहे, खेत की डाँड़-मेड़ तक उसके लिए अछूत हैं। देश-दुनिया में अस्पृश्यता भले कम हुई हो, उसे क्या, उसके लिए तो ये सब सनातन अस्पृश्य चीजें हैं। भल, सारी पढ़ाई-लिखाई या कलम घिसाई इसी की खातिर की थी! नहीं न! फिर खेती रही होगी बाप-दादों के लिए उत्तम चीज, पर उसके लिए वह अपमानजनक है। खेतिहर भी क्या कोई मनुष्य होता है; दिनभर खेत में घिसाई और रात को मौसम की चिंता में उनींदी आँखें। सो खेती से उसका भावह-भसुर का रिश्ता है। कभी गाहे-बगाहे कुछ कर-करा भी दिया तो पूरा गाँव-गिराँव जान जाएगा कि आज फलाने बाबू रोपनी के खेत की मेंड़ पर खड़े बनिहारिन ताड़ रहे थे या अलाने बाबू खलिहान में ओसावन करनेवाले बनिहार के आगे बोरे का मुँह खोलकर खड़े थे और चार बोरे के बाद पाँचवें में ऑस्ट्रेलिया-भारत का मैच देखने चले गए थे। पर गाँव की खबरनवीसों को इस तरह की सुर्खियाँ बनाने का मौका कम ही मिलता था, अकसर सुर्खियों में हमारे दूसरे कारनामे ही होते, जिनके नाम तो बदल जाते, पर प्रकृति वही रहती। इन सुर्खियों को बनानेवाले, बाँचनेवाले और फिर इसपर गलचौर करनेवाले भी हमारे ही गाँव के वासी थे। हमारे यानी तीसरे गाँव के। पहले गाँव ने हमें पहले ही बहिष्कृत कर रखा था। सच तो यह है कि हमीं उन्हें अपने स्तर का नहीं मानते। इसलिए सबेरे-सबेरे ही सविनय अवज्ञा के साथ चौराहे पर निकल आते। उनसे तो अपना साबका तभी पड़ता जब कोई किसान-क्रेडिट कार्ड या सरकारी लोन की वसूली-तसूली के लिए दरवाजे पर बैन का आदमी आ पहुँचता और पहले गाँव का आदमी लाठी टेकते-टेकते हमारे तीसरे गाँव में आ धमकता। वह आदमी भी हममें से किसी एक का रिश्तेदार होता। उसे दूर से देखते ही उसका संबंधी दिशा-मैदान या बहस-मुसाहिबा के लिए कहीं निकाल लेता और तक दुबारा दर्शन नहीं देता, जब तक वे लोग राह ताकते-ताकते निकल न जाते।

रही बात दूसरे गाँव की, तो वह दिनभर हमारे भूगोल से ही बाहर होता है। हाँ, कभी-कभी इतिहास या साहित्य का हिस्सा जरूर बन जाता, वह भी रीमा भारती और वेद प्रकाश के उपन्यासों का लिबास पहने, क्योंकि दिन के उजाले और लिबास में उसे देखने की हमें आदत ही नहीं रह गई है। हाँ, कभी-कभी कुछ नावाछिटिया मेंबर चायना मोबाइल और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की कृपा से रात्रिकालीन सेवा का दिवस-संस्करण स्क्रीन पर जरूर उतार लाते, लेकिन उसके बाद ही वे पाँत बहिष्कृत हो कोई और बाट पकड़ लेते। इसलिए दूसरे गाँव के समाचार माध्यमों तक हमारी खबरें या तो पहुँचती नहीं या पहुँचतीं भी तो पहले गाँव के आदमी के पुराने लाज-लिहाज से फिल्टर होकर। सो अपनी यह धूनी पूरी तरह सेफ थी। और उस दूसरे गाँव की जगह इस तीसरे गाँव की चौहद्दी में बहुत थी भी नहीं। सो दोनों ने एक अघोषित समझौता सा कर लिया था।

‘पिच्च! ई ससुरी सरकार महिलन के आरक्षण देके हमहन के सड़क पर घुमावत ह।’ टम्मन काका बड़ा जोर देके बोलते हैं। हैं तो पुरान संघतिया बाकी गाँव के रिश्ता-नाता की बात ठहरी, सो वे एक पुश्त आगे निकल गए। वही क्यों, सब अपने मान-मर्यादा और रिश्ते-नाते के साथ सीधे चले आए हैं पहिले गाँव से। पहिला गाँव से अलग एक नया टापू होने के बावजूद मान-मरजाद से कोई समझौता नहीं है यहाँ। पांडेजी, उपाध्यायजी, तिवारीजी, राय साहब, बाबू साहब, जाधवजी, सींघ साहब, गुप्ताजी, वर्माजी से लगायात चाचा, काका, दादा सब अपने पूरे मान-मरजाद में बरकरार हैं। हाँ खान-पान में सब गोसाईंजी के चेले हैं, माने ‘मुखिया मुख सों चाहिए खान-पान को एक’। मुरगा, मुरगी, कालिया, कबाब से लेकर तमाम खाद्य-अखाद्य, पेय-अपेय सब एक ही मुख और एक ही भाव से खाते हैं। इस गाँव के बासिंदे मान-मरजाद और उपाधि-सुपाधि तक भले सामंती हों, अपने व्यवहार में पूरी तरह लोकतांत्रिक और मानवीय हैं। एक ही बोतल और एक ही पत्तल में शराब और चखने में सब बाँट लेते हैं। उसमें पप्पू पंडित और समशद धोबी या विजय बाबू और झिंदूरी दुसाध में कोई फरक नहीं। पढ़े-लिखे जो ठहरे। ऊँह, निठल्ला पहला गाँव! झूठी शानो-शौकत, झूठा छुआ-छूत। अरे, ‘एक बूँद एकै मल मूतर, एक चाम एक गूदा। एक जोति थे सब उतपना, कौन बाहमन कौन सूदा।’ भारत काका पुराने कबीर पंथी ठहरे। पुराने माने इतने कि इस तीसरे गाँव के सबसे उम्रदराज सदस्य हैं, लेकिन मेंबरी अभी नई है। दरअसल गाँजे से जल्दी ही ठर्रा पर शिफ्ट हुए हैं, सो पहिला गाँव के परभंस बाबावाले पुराने अखाड़े से बेदखल हो इस तीसरे गाँव में हेल आए हैं। सो बात-बात में कबीर बाबा की याद उन्हें सताने लगती है।

 

इधर इस गाँव के दो टोले हो गए हैं। एक उत्तर और दूसरा दक्खिन। जाहिर है, दक्खिन पर अछूतों का पुराना हक है। सो यह दक्खिन टोला यहाँ भी अछूत है। बात-बात में उसे दक्खिन लगा दिया जाता है, कभी जबान से और कभी आँखों-ही-आँखों में। यह नया टोला अब पहिले और दूसरे गाँव के भूगोल के थोड़ा करीब आ गया है। सड़क से हटकर बारी में। बराइठा के भीटे पर रोहनियावा आम के नीचे सरस साधना में लीन है। इसके पास न छीलम-गाँजा है और न खैनी, न ठर्रा। हो भी कैसे? कहाँ तो रोहिनियावा आम की चटक पीत बैकुंठी आभा और कहाँ नशों का तामसी संसार?

 

इधर डॉक्टर विद्या विशारद भी इस गाँव के नए सदस्य बने हैं। हिंदी साहित्य में पीएच.डी. हैं और १५-२० साल कई विश्वविद्यालयों और शहर-शहरात की खाक छान चिर बेरोजगार का तगमा लेकर लौटे हैं, सो जब-तब उनका ज्ञान का दौरा पड़ जाता और इसी तरह वे भी बलबला पड़ते। शुरू-शुरू में बलबलाने के बाद मंडली की ओर सिर उठाकर देखते भी पर कोई दाद तो छोडि़ए, ध्यान भी तैयार न होता। पढ़े-लिखे शहराती पागल से अधिक की गिनती न थी उनकी। कुछ दिन विचारधारा वगैरह का भी चक्कर काटा था उन्होंने। इसलिए शुरू-शुरू में डी-क्लास-वी, क्लास की भी सोचते थे। पर जल्द ही पता लग गया कि यहाँ कोई क्लास-व्लास से वास्ता नहीं। यह गाँव इन सबसे ऊपर उठे मुमुक्षुओं का गाँव है। दिनभर की बड़बड़ साधना और शाम ढले ठेके पर पहुँच मोक्ष की प्राप्ति ही इनके जीवन का परम लक्ष्य है। उसके बाद तो पान की एक गिलोरी के बाद सारा ज्ञान-विज्ञान, क्लास-व्लास, विचारधारा-सिचारधारा तलवे के नीचे, बचा तो सिर्फ बम भोला। इस ज्ञान के बाद ही विशारदजी ने अपने सब डिगरहिया ज्ञान को एक दिन बस पर लादकर सर्वविद्या की राजधानी भेज दिया, जहाँ से उन्होंने ये विद्याएँ ग्रहण की थीं। अब वे भी निधड़क निरंजन हैं, जो मन आए बोलो-कहो। पर परम ज्ञान की साधना से अभी वंचित हैं, जो शाम ढलने के बाद उनके तमाम सांघतियों को प्रज्ञापेय के पान के बाद प्राप्त होता है।

इधर इस गाँव के दो टोले हो गए हैं। एक उत्तर और दूसरा दक्खिन। जाहिर है, दक्खिन पर अछूतों का पुराना हक है। सो यह दक्खिन टोला यहाँ भी अछूत है। बात-बात में उसे दक्खिन लगा दिया जाता है, कभी जबान से और कभी आँखों-ही-आँखों में। यह नया टोला अब पहिले और दूसरे गाँव के भूगोल के थोड़ा करीब आ गया है। सड़क से हटकर बारी में। बराइठा के भीटे पर रोहनियावा आम के नीचे सरस साधना में लीन है। इसके पास न छीलम-गाँजा है और न खैनी, न ठर्रा। हो भी कैसे? कहाँ तो रोहिनियावा आम की चटक पीत बैकुंठी आभा और कहाँ नशों का तामसी संसार?

यह नए किस्म के अवधूतों का टोला है। इनकी धूनी हर दुपहरिया किसी बगीचे, किसी पोखरे के भीटे या किसी छान-छप्पर या किसी आम या महुए की गाँछ तले जगती है और तिझरिया बिना किसी ताम-झाम के आगली दुपहरिया के लिए बिलम जाती है। इसके लिए न पहला गाँव अनपढ़, गँवार-जाहिल है और न दूसरा गाँव ठेठ उपेक्षणीय। इसकी रस-साधना में इन दोनों की चर्चा अनिवार्य मंत्र हैं। वह इनका जाप कर रहा है, उनपर बहस कर रहा है, उनकी बातें कर रहा है, उनकी चिंताओं-दुश्चिंताओं से सरोकार रख रहा है और हर तिझरिया यह लड़खड़ाते कदमों से नहीं अधिक मजबूत कदमों से गाँव की ओर लौट रहा है। यह न देश की राजनीति से नावाकिफ है और न उसके चरित्र के प्रति आश्वस्त, फिर भी उसकी चिंता का पहला विषय पहला और दूसरा गाँव है; दूसरे गाँव की कोख में पलती और गोद में खेलती तीसरे गाँव की औलादें हैं। यह नया टोला इस गाँव का इतिहास पढ़ रहा है। ताल-पोखर, डाँड़-मेंड से संवाद कर रहा है, पेड़ों के पत्तों-पत्तों से उनका हाल-चाल पूछ रहा है। यह सीख रहा है कि इन सबने कैसे अपनी हवा से, अपने पानी से और अपनी मिट्टी से अपने हरे-भरे आँचल की छाँव में इस गाँव को पाला, पोसा, सँभाला-सहेजा? किस तरह इन्होंने हमें जीवन के पहले पाठ सिखाए? हमें यानी हमारे दादों-परदादों से लेकर हमारी पीढ़ी तक। जी हाँ, हमारी पीढ़ी। हाँ-हाँ खैनी खाकर पिच्च से थूकनेवाली हमारी पीढ़ी, लड़खड़ाते कदमों से चौराहे से घर लौटनेवाली हमारी पीढ़ी, अपने ही बाप-दादों को मूर्ख और जाहिल समझनेवाली हमारी पीढ़ी।

दोष इस पीढ़ी का नहीं, उन पाठशालाओं का था, जहाँ हमने ‘सत्यं वद धर्मं चर’ की सहज शिक्षा की पोथीबद्ध व्याख्याएँ रट लीं और अपनी सुविधा के अनुसार उनके नए भाष्य भी कर डाले। हमारा यह नया टोला इन पोथियों के बाहर की जीवन की सहज पाठशालाओं की ओर लौट रहा है। यह वह पाठशाला है, जहाँ पेड़ है, नदी है, खेत है और उनमें रमता हुआ सहज निरुज मन है। सहजता की यह पाठशाला ही जीवन की वास्तविक पाठशाला है। मानवता का हर रास्ता इस पाठशाला से होकर ही गुजरता है। यही वह आखिरी रास्ता है, जिससे हमारा तीसरा गाँव चौराहे की मसान-साधना छोड़ पहले गाँव में फिर से दाखिल हो सकता है, रात के बसेरे की तरह नहीं, अपनी पूरी आत्मीयता के साथ। तब किसी विद्या विशारद को अपने ज्ञान की गठरी बस पर लाद किसी सर्वविद्या की राजधानी नहीं भेजनी होगी, किसी टम्मन काका को स्त्रियाँ के आरक्षण के लिए सरकार को नहीं गरियाना होगा और न एक पत्तल मुरगा और बोतल सदाबरत चलाकर अपने व्यक्तित्व की लोकतांत्रिकता सिद्ध करनी होगी। तब इस रोहनियावा आम की वैष्णव आभा की तरह हमारे गाँव की वैष्णवता पूरे शबाब पर होगी और उसकी रस-साधना का सा आनंद पूरे जहान में कहीं न होगा। न कोई दैन्य होगा न पलायन, न बँटवारा और न टोला। पूरा गाँव, पूरी सरेहि और उसमें बिखरा हुआ सारा कुमकुम-चंदन ही हमारा अंगराग होगा और उसकी शस्यश्यामल धरती ही हमारा आराध्य। हमारे कर्म की स्वर्णाभ आभा ही उसका पीतांबर होगा और तब हम भी चैतन्य महाप्रभु की तरह इस विराट् श्यामलता लीन हो जाएँगे। यह तल्लीनता ही हमारे जीवन का लक्ष्य होगा और तब हम भी अपने गाँव के उस बूढ़े साधू की तरह पूरी तरंग में गा सकेंगे—

ज्यों गूँगो मीठे फल की रस अंतर्गत ही भावै॥

परम स्वादु सबहीं जु निरंतर अमित तोष उपजावै।

यह ‘तोष’ ही जीवन की चरम साधना और उसकी चरम उपलब्धि है। पुरानी आत्मवादी दार्शनिक शब्दावली इसे ही मोक्ष कहती है और अनात्मवादी शब्दावली निर्वाण। यह मोक्ष या निर्वाण जीवन से परे किसी अज्ञात लोक में लब्ध होनेवाला आनंद या सुख नहीं, इसी जीवन में इसी लोक में मिलनेवाला सुख है। बहुत पहले हमारे गाँव की इन्हीं अमराइयों में रमनेवाले एक मनस्वी कवि के मुँह से किसी निसर्ग सुंदर रूपसी को देखकर अनायास ही फूट पड़े ये शब्द इसके प्रमाण हैं— ‘अहो लब्ध नेत्र निर्वाणम्।’ नेत्रों को निर्वाण सुख देनेवाला यह रूप किसी नागर कन्या में संभव भी कैसे हो सकता है, अवश्य ही किसी जानपद क्षेत्र की अमराइयों में ही कहीं कवि को उसका साक्षात्कार हुआ होगा और उसकी अभ्यर्थना में उसने पूरा का पूरा नाटक (अभिज्ञान शाकुंतलम्) ही रच डाला और वह भी उस कन्या की तरह ही अपूर्व। यही नहीं, उसके सौंदर्य की अभिव्यक्ति भी ऐसी की, जो समूचे भारतीय साहित्य में विलक्षण है और उसी के दम पर उपमा के क्षेत्र में सदियों से समूचे भारतीय साहित्य में अकेले ताल ठोंके खड़े हैं।

निसर्ग का साहचर्य ही विलक्षण है। सर्जनात्मक है। जीवन में रस और तरंग का संचार करनेवाला है। विश्व में जो भी सर्जनात्मक है, मंगलमय है और सुंदर है; वह निसर्ग के ही सान्निध्य का दाय है। निसर्ग की छाया से दूर जीवन की सहजता ही लुप्त नहीं होती, उसमें अमंगल का बीज भी अपने आप अंकुरित होने लगता है। कृत्रिमता, कुटिलता, व्यभिचार, घृणा, वैमनस्य, रोग, दुःख, सब-के-सब निसर्ग से दूर होते मानस की कलाएँ हैं। जैसे-जैसे हम इससे दूर होते जाएँगे, हमारे भीतर ये कलाएँ वैसे-वैसे अधिक विकसित होती जाएँगी। धीरे-धीरे हम यंत्रीभूत और क्षयग्रस्त हो जाएँगे। आज हमारी संस्कृति और सभ्यता के जो भी उपादान हैं, वे हमें विकास के शीर्ष की ओर तो ले जाते हैं, पर इस शीर्ष के आगे भी कुछ है। भले ही वह आज अज्ञात है, अदृष्ट है और मोहक या आकर्षक है, लेकिन कल? यह प्रश्न अनुत्तरित है। हाँ, इस कल की संकेत भी हमें प्रकृति के माध्यम से ही हमें मिल रहे हैं। पिघलते ग्लेशियर, टूटते हिमशृंग, तप्त होती धरती, बदलता मौसम-चक्र, यह सब हमारे विकास लब्ध भावी जीवन के ही पूर्व संदेश हैं।

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय

वर्धा-४४२००१ (महाराष्ट्र)

दूरभाष : ९८९११०८४९१

—राजीव रंजन

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