बोनस में आशीर्वाद

बोनस में आशीर्वाद

‘‘बिन्नी की शादी हो रही है।’’ मैंने बुरा सा मुँह बनाकर कहा।

‘‘कौन बिन्नी?’’ इन्होंने पूछा।

‘‘बिन्नी को नहीं जानते, कमाल है?’’

‘‘भई, ये बिन्नी कोई प्रियंका गांधी या प्रियंका चोपड़ा तो है नहीं कि सारा हिंदुस्तान उसे जानेगा!’’

‘‘बिन्नी, मतलब माँ की केयरटेकर।’’

‘‘ओह, अच्छा वो नाम बिंदिया और बालविधवा?’’

‘‘छीह! इतनी घटिया बात आप कैसे कर सकते हैं?’’

‘‘ये अनमोल वचन मेरे नहीं, आपकी प्रिय दीदी रानी के हैं। उस बार हम लोग माँ की ७५वीं सालगिरह मनाने के लिए इकट्ठा हुए थे, तब मैंने पूछा था कि यह कौन है? तब दीदी ने आँख के अंधे नाम नयनसुख की तर्ज पर यह जवाब दिया था।’’

‘‘ये दीदी भी न कभी-कभी गजब करती है।’’

‘‘खैर, दीदी की छोड़ो और यह बताओ कि तुम क्यों इतनी दुःखी हो रही हो? बिन्नी की शादी हो रही है। यह तो खुशी की बात है, पर तुम्हारा सुर ऐसा है, मानो बिन्नी को कैंसर हो गया हो।’’

‘‘बिन्नी के लिए खुशी की बात होगी। पर जरा माँ के बारे में सोचिए। उन्हें अब कौन देखेगा? भाईसाहब तो सारे झंझटों से मुक्त होकर अमेरिका में जाकर बैठ गए हैं। अब जो कुछ सोचना है, मुझे और दीदी को ही सोचना है।’’

‘‘बिन्नी की शादी की बात माँ को पता है?’’

‘‘माँ को पता है। अरे, वही तो इस नाटक की सूत्रधार हैं। अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना इसी को तो कहते हैं।’’

‘‘वे ही सूत्रधार हैं, मतलब?’’

‘‘अरे, उन्होंने ही आगे बढ़कर लड़का ढूँढ़ा है। लड़का क्या, पूरा आदमी है—दो बच्चों का बाप!’’

‘‘बिन्नी की भी उम्र कम तो नहीं होगी। पंद्रह साल से तो यहीं काम कर रही है।’’

‘‘वह भी चालीस की हो चली है। बताइए, अब उसकी शादी की क्या जरूरत थी! पर माँ को जैसे परोपकार का भूत चढ़ा है। कह रही थी कि मेरे बाद इस लड़की का क्या होगा? इसलिए अपने सामने ही उसे सेटल करके जाना चाहती हूँ। और पता है, शादी का खर्च भी खुद उठा रही है। मुझे और दीदी को भी आदेश मिला है कि पाँच-पाँच साडि़याँ और एक-एक सफारी सूट का कपड़ा लेकर आना है। बोली कि छोटी बहन की शादी है, कंजूसी मत करना।’’

‘‘वाह, मतलब हमारी साली साहिबा की शादी है। तब तो हमें भी नेग-दस्तूर मिलेगा।’’

‘‘आपको तो बस हरदम मजाक ही सूझता है। स्थिति की गंभीरता को तो कभी समझते ही नहीं हैं।’’ मैंने मुँह फुलाकर कहा और विषय ही समाप्त कर दिया।

बिन्नी की शादी में न जाने का सवाल ही नहीं था। माँ का आदेश था तो उसे मानना ही था। ये ना-नुकर कर रहे थे, पर मैंने किसी तरह इन्हें राजी कर लिया। उस शादी में घर के पुरुषों का होना बहुत जरूरी था। इसलिए दीदी से भी कहा कि अकेली न आए, जीजाजी को साथ जरूर लाए।

मुझे पता चला था, मतलब माँ ने ही बताया था कि बिन्नी के भाइयों को यह शादी मंजूर नहीं थी। वे दोनों लड़ने आ गए थे। वे बोले कि आप ये क्या अधर्म कर रही हैं! ब्राह्मणों की कन्याओं पर दुबारा हल्दी नहीं चढ़ती। पर माँ ने उन लोगों को डाँट-डपटकर भगा दिया था, पुलिस का डर भी दिखाया था। पर शादी में दल बाँधकर आ गए तो? बीच मंडप में हंगामा खड़ा कर दिया तो?

बिन्नी के भाई लोग माँ से वैसे भी खार खाए हुए थे। जब बिन्नी नई-नई काम पर लगी थी तो हर दूसरे-तीसरे महीने पैसों के लिए आकर खड़े हो जाते थे। माँ उन्हें घुड़क देती थी—‘उसका पैसा मैं बैंक में जमा कर रही हूँ। यहाँ तो उसे जरूरत नहीं है। मेरे यहाँ खाती है, सोती है। मेरा दिया कपड़ा पहनती है। जिस दिन मैं नहीं रहूँगी, यह पैसा उसके काम आएगा।’

माँ के सामने दाल नहीं गलती तो वे लोग अपनी बूढ़ी माँ को भेज देते थे। वह रोती-झींकती आती और बिन्नी से सौ-पचास झटककर ले जाती।

माँ की पुरानी महाराजिन जब बूढ़ी हो गई तो अपनी इस भोली को माँ के पास ले आई थी। बोली, ‘दुखियारी है बेचारी। बचपन में ही सुहाग छिन गया। भाइयों ने न पढ़ाया, न लिखाया। उन्हें तो मुफ्त की नौकरानी मिल गई। बेचारी भाभियों की जचगी करते-करते ही बुढ़ा जाएगी। उन लोगों से लड़-झगड़कर अपनी बहन को समझा-बुझाकर आपके पास ले आई हूँ। आप ही इसका कल्याण कर सकती हैं। एकदम गऊ है। आपकी सेवा करेगी और आपके चरणों में पड़ी रहेगी।’

माँ ने तो जैसे उसके कल्याण का बीड़ा ही उठा लिया। ट्यूटर लगवाकर उसे पढ़ाया। पहले पाँचवीं, फिर आठवीं, फिर दसवीं का बोर्ड दिलवाया। सिलाई क्लास भी भेजती रही। अपनी सिलाई मशीन उसके हवाले कर दी कि गली-मोहल्ले के बच्चों के कपडे़ सिलती रहे। अपने पास बिठाकर कढ़ाई-बुनाई सिखाई। अब वह पास-पड़ोस वालों के स्वेटर बुनकर पच्चीस-पचास कमा भी लेती है।

जिस दिन उसके दसवीं का रिजल्ट आया, उस दिन माँ बहुत खुश थीं। बोलीं, ‘चल, अब किसी स्कूल में चपरासिन तो बन सकेगी। नहीं तो मेरे बाद बेचारी एकदम सड़क पर ही आ जाती।’

‘मेरे बाद’ आजकल उनका तकिया-कलाम हो गया था। इसी के चलते उन्होंने बिन्नी की शादी का बीड़ा उठाया था। दस जगह बात करके उसके लायक वर ढूँढ़ निकाला। और अब कन्यादान करने को आतुर हैं।

मैंने एक बार कहा भी, ‘‘माँ, तुमने हमारी इतनी चिंता कभी नहीं की, जितनी बिन्नी की करती हो!’’

बोलीं, ‘तुम्हारे पिताजी तुम्हें ऐसे हाथों में सौंप गए हैं कि चिंता पास भी नहीं फटकेगी। पर इस बेचारी का कौन है?’

फिर वही बात, कभी-कभी तो बिन्नी से ईर्ष्या होने लगती है।

घर दूर से ही एकदम शादी का घर लग रहा था। रंगीन पताकाएँ, फूल मालाएँ, बिजली की झालरें तथा आम के पत्तों के बंदनवार, हल्दी-कुमकुम के छाप देखकर मन प्रसन्न हो गया।

दरवाजे के अंदर पैर रखते ही एक बुजुर्ग महिला सामने आईं, ‘‘नमस्ते दीदी रानी! पाँव लागो कुँअरजी।’’

‘‘नमस्ते!’’ मैंने कहा, ‘‘पर मैंने आपको पहचाना नहीं।’’

‘‘हम बिन्नी की माँ हैं।’’

‘‘ओह! माफ कीजिए, बहुत साल पहले देखा था न, इसलिए पहचान नहीं पाई। शादी में आई होंगी न आप! स्वागत है!’’

वह मेरा बैग लेने लगी, तो मैंने उसे मना कर दिया, ‘‘पहिए हैं इसमें, खींचकर ले जाऊँगी।’’ दरअसल उनकी हालत ऐसी थी कि वे पहिएवाला बैग भी खींच न पातीं। बहुत ही दुर्बल हो चुकी थीं। बाल सन से सफेद हो गए थे। तभी तो पहचान नहीं पाई।

तब तक मेरी आवाज सुनकर दीदी बाहर निकल आईं, ‘‘अरे, आप लोग कब आए?’’

‘‘बस, अभी दो घंटे पहले ही पहुँचे हैं।’’ फिर कमरे में जाते-जाते दीदी ने पूछा, ‘‘स्वागत किसका कर रही थीं?’’

‘‘बिन्नी की माँ का।’’

वे होस्ट हैं पगली। तभी तो तुम्हारे स्वागत के लिए खड़ी थीं।

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब, अब वे यहीं रहेंगी। बेटों ने कह दिया है कि बिन्नी की शादी में जा रही हो तो अब वहीं रहना। घर लौटने की जरूरत नहीं है। और हमारी करुणानिधान माताराम ने तुरंत उन्हें अपनी शरण में ले लिया।’’

‘‘धिरा इज ए ब्लेसिंग इन डिसगाइस, दीदी। हम लोगों को चिंता हो रही थी न कि बिन्नी चली जाएगी तो माँ का क्या होगा! अब वह समस्या हल हो गई।’’

‘‘हालत देखी है उनकी? ये क्या काम करेंगी।’’

‘‘काम करने के लिए तो लोग हैं न, दीदी। बरतन-कपड़ों के लिए दुलारी भाभी हैं। साफ-सफाई और बाजार-हाट के लिए बिरजू भैया हैं। और माँ कह रही थीं कि रसोई के लिए भी किसी को रख लेंगी।’’

‘‘रख ली। पिछले आठ-दस दिनों से बिन्नी को किसी भी काम में हाथ नहीं लगाने दिया है।’’

‘‘ग्रेट, माँ को सचमुच सलाम करने को जी चाहता है। जो भी करती हैं, पूरे मन से करती हैं।’’

‘‘यह कहो कि जो करती हैं, अपने मन का करती हैं। किसी से पूछने-ताछने की जरूरत ही नहीं समझतीं। अब इन देवीजी को रख लिया है, जो एक पाँव कब्र में लटकाकर बैठी हैं। कल को मर-मरा गईं तो इनके बेटे आकर हंगामा खड़ा कर देंगे।’’

‘‘शुभ-शुभ बोलो दीदी, शादी का घर है।’’

मेरे कहने पर दीदी चुप तो हो गईं। पर चेहरे से लग रहा था कि उनकी भड़ास पूरी तरह निकली नहीं है।

माँ बहुत खुश हुईं। उनकी दोनों बेटियाँ और दामाद समय से पहुँच गए। उनके आदेशानुसार हम लोग तो साडि़याँ और सूटपीस भी लाई थीं। मैं अपनी ओर से एक अमेरिकन डायमंड का हलका सा सेट भी ले आई थी। पर दीदी का मूड़ देखकर उस समय निकाला नहीं। सोचा कि माँ को बाद में चुपके से दे दूँगी।

बिन्नी मिली तो लिपट ही गई। खूब रोई। मुझे भी रोना आ गया। आखिर इतने दिनों का साथ था। हर साल जब मैं दस-पाँच दिनों के लिए माँ के पास आती तो वह मेरी इतनी खातिरदारी करती। बच्चों को इतना लाड़ करती।

उसका चेहरा एकदम निखर आया था। उम्र से दस साल छोटी लग रही थी। शादी की खुशी लड़कियों के चहेरे पर नूर ले आती है। फिर बिन्नी के लिए तो शादी का मतलब था—एक अप्रत्याशित सपने का सच होना।

आर्य समाज मंदिर में बिन्नी की शादी खूब धूमधाम से संपन्न हुई। करीब आधा कस्बा निमंत्रित था। सबने माँ की खूब जय-जयकार की। और यह भी बोले कि तुम्हारी माँ का पी आर बहुत तगड़ा है। मैंने कहा, उसी के बल पर उन्होंने अकेले इतने दिन काटे हैं।

बरात में कुल जमा पाँच लोग थे। दूल्हे की माँ, दूल्हे के भाई-भाभी और दोनों बच्चे। सबकी खूब खातिरदारी की गई। कपड़ों और भेंट-वस्तुओं से उन्हें लाद दिया गया। दूल्हे की माँ गद्गद थी। कृतज्ञभाव से बोली, ‘‘बहनजी, आपने मेरा मरना आसान कर दिया। नहीं तो इन बच्चों की चिंता के मारे मैं हलकान थी।’’

विदाई के समय बिन्नी खूब रोई। इतना तो शायद हम दोनों भी अपनी शादी में नहीं रोई थीं। और माँ जितना बिन्नी के लिए रोईं, हमारे लिए नहीं रोई थीं।

जैसा कि बेटी की विदाई के बाद होता है, घर एकदम सूना हो गया था। बिन्नी अपने पंद्रह साल के अस्तित्व की छाप घर के हर कोने में छोड़ गई थी। मुझे डर लगा कि माँ यह सब कैसे झेल पाएँगी। मैंने दो-चार दिन रुकना चाहा तो माँ ने साफ मना कर दिया। बोलीं, ‘‘तुम बच्चों को नौकरों के भरोसे छोड़ आई हो, यह मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगा। जमाना कितना खराब है, जानती हो?’’

‘‘माँ, वे सब मेरे पुराने लोग हैं। गंगाराम बरसों से हमारे यहाँ काम करता रहा है। और गायत्री, उसी ने एक तरह से उन दोनों को पाला है।’’

‘‘फिर भी, तुम अब लौट जाओ। मेरे अकेलेपन की चिंता मत करना। मुझे तो अब इसकी आदत हो गई है।’’

‘‘अगर मैं कहूँ, कुछ दिन चलकर मेरे पास रहो, तो तुम मानोगी नहीं। इस मामले में खासी दकियानूसी हो।’’

वे सिर्फ हँसकर रह गईं।

रात को सोने से पहले माँ ने हम चारों को कमरे में बुलाया और सामने बिठाकर नेग-दस्तूर दिया। दामादों को चाँदी के गिलास, हम दोनों को साडि़याँ और बच्चों को लिफाफे। इन्होंने घर पर मजाक किया था, पर माँ ने सचमुच परंपरा का निर्वाह किया।

यह सब करने के बाद माँ ने पूछा, ‘‘अब एक बात बताओ। इस घर के बारे में तुम्हारा क्या खयाल है?’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब, घर में कितना इंटरेस्ट है?’’’

‘‘क्यों? बिन्नी के नाम करना है?’’ दीदी तपाक से बोली। माँ ने उन्हें घूरकर देखा। फिर शांति से बोलीं, ‘‘बिन्नी को जो देना था, मैं दे चुकी। अब कुछ देना-पावना बाकी नहीं है। कभी तीज-त्योहार पर आएगी तो साड़ी-चूड़ी कर दूँगी, बस।’’

‘‘फिर क्यों पूछ रही हो?’’

‘‘इसलिए कि घर को रखना चाहोगी तो नीचे-ऊपर दोनों हिस्से करके तुम्हारे नाम कर दूँगी।’’

‘‘और भैया?’’ मैंने पूछा।

‘‘उसने कह दिया है कि मुझे कोई इंटरेस्ट नहीं है। मैं हिंदुस्तान वापस नहीं आऊँगा। आया भी तो किसी शहर में ही रहूँगा। तो अब तुम्हीं लोगों को तय करना है।’’

‘‘ऊपर तो किराएदार हैं न?’’ मैंने कहा।

‘‘हैं, तो तुम्हें कौन सा यहाँ रहना है? किराया लेती रहना।’’

‘‘तो क्या किराया है?’’ दीदी ने व्यंग्य किया।

‘‘बेटा, तुम शहर से तुलना मत करो। यहाँ इससे ज्यादा कोई नहीं देता।’’

‘‘फिर इतने से किराए के लिए घर को क्यों बरबाद कर रही हो? जरा भी प्राइवेसी नहीं है। दिनभर बच्चों की चिल्ल-पों मची रहती है सो अलग।’’

‘‘बेटा, यह घर किराएदारों के हिसाब से बना ही नहीं था। सोचा था कि सब लोग इकट्ठा होंगे तो इतना बड़ा घर तो चाहिए न! पर सब लोग इकट्ठा कितनी बार आए? एक तुम्हारे बाबूजी की तेरही पर, दूसरी बार मेरी ७५वीं सालगिरह पर। अब शायद मेरी...’’

‘‘प्लीज माँ!’’ मैंने माँ को टोक दिया तो वे चुप हो गईं। फिर दीदी ही बोलीं, ‘‘सारिका, इस उम्र में प्राइवेसी की नहीं, कंपनी की जरूरत होती है। वह जरूरत पर आवाज देने के लिए कोई पास में है, यह एहसास बड़ा सुकून देता है। रही बच्चों की चिल्ल-पों की बात तो मैं तो इसके लिए तरस गई हूँ। नाती-पोतों की किलकारियाँ सुने अरसा हो गया। पहले छुट्टियों में बच्चे नानी के घर जाते थे। अब शायद वह रिवाज ही खत्म हो गया।’’

‘‘अब छुट्टियाँ होती ही कहाँ हैं, माँ!’’ मैंने कहा, ‘‘मार्च में स्कूलवाले परीक्षा लेकर रिजल्ट निकाल देते हैं। फिर अप्रैल में नए सेशन शुरू करके छुट्टियों के लिए ढेर सारा होमवर्क दे देते हैं। बच्चे भी परेशान होते हैं और माँ-बाप भी। ऊपर से ये हॉबी क्लासेस अलग चल गई हैं। छुट्टियाँ कब शुरू हुईं, कब खत्म हुईं, पता ही नहीं चलता।’’

‘‘और यहाँ आकर बच्चे करेंगे भी क्या?’’ दीदी बोलीं, ‘‘छोटे थे, तब भी बोर होते थे। अब तो सवाल ही नहीं उठता।’’

‘‘माँ, तुम्हारा दूसरा ऑप्शन क्या है?’’ मैंने दीदी की बातों से माँ का ध्यान हटाने के लिए कहा।

‘‘दूसरा ऑप्शन यह है कि घर को बेच देते हैं। पैसा तुम दोनों बाँट लेना।’’

‘‘और भैया?’’

‘‘उसने कह दिया है कि जो देना है, सारिका-राधिका को दे दो। मुझे कुछ नहीं चाहिए।’’

‘‘और घर बिक जाएगा तो तुम कहाँ रहोगी?’’

‘‘अभी थोड़े ही, मेरे मरने के बाद। हाँ, एक बात है।’’

‘‘क्या?’’

‘‘ये बिन्नी की माँ अगर मेरे बाद भी बनी रही तो उसे एक कोना दे देना। पड़ी रहेगी। दोनों सौ-पचास भेजती रहना। उसकी जिंदगी कट जाएगी।’’

‘‘मेरी समझ में नहीं आता कि ये बला तुमने आखिर क्यों पाल ली है?’’ दीदी के स्वर में खासा रोष था।

‘‘बेटा! एकाकी बुढ़ापा क्या होता है, इसे मैं बहुत अच्छी तरह से जानती हूँ। मेरे पास तो फिर भी साधन हैं। पर जिसे पहने हुए कपड़ों के साथ घर से निकाल दिया गया हो, उसके बारे में सोचो।’’

‘‘सबके बारे में सोचने का ठेका तुम्हीं ने ले रखा है?’’

‘‘ये पूर्वजन्म के ऋणानुबंध होते हैं, बेटा! नहीं तो बिन्नी मेरे पास ही क्यों आती! दुनिया में और भी तो घर थे। खैर, मैं बिन्नी की माँ का भार तुमपर नहीं डालूँगी। ऐसा करो, घर का जो पैसा आएगा, उसमें से पाँच-दस हजार बैंक में डाल देना। ऐसी व्यवस्था कर देना कि उसका खर्चा-पानी चलता रहे। बाद में वह रकम बिन्नी को दे देना।’’

‘‘इतना झंझट करने की जरूरत क्या है! वे पाँच-दस हजार उनके बेटों को दे दो। रुपयों के लालच में वे माँ को रख लेंगे।’’

‘‘जो बेटे माँ को घर से बेदखल कर सकते हैं, उनका कोई भरोसा है क्या?’’ जीजाजी ने इतनी देर बाद पहली बार मुँह खोला था, ‘‘वे लोग पैसे भी हड़प लेंगे और माँ को भी भूखों मार देंगे।’’

‘‘वैसे भी वो कौन सी सौ साल जीनेवाली हैं।’’

‘‘प्लीज सारिका?’’ अच्छा हुआ जीजाजी ने ही दीदी को घुड़क दिया। हम लोगों की तो हिम्मत नहीं थी। उसके बाद कमरे में एक असहज सी चुप्पी छा गई।

उस सन्नाटे को तोड़ते हुए कुछ देर बाद ये बोले, ‘‘माँजी, मैं एक बात कहूँ!’’

‘‘बोलो बेटा! इसीलिए तो तुम सबको बुलाया है कि सबकी राय मालूम हो।’’

‘‘यह घर बाबूजी ने इतने प्यार से बनाया है। इसे आपका नाम दिया है। कल को यह बिक जाएगा तो आप लोगों की याद के साथ नाम भी खो जाएगा।’’

‘‘जब हम ही नहीं रहेंगे बेटा, तो नाम के रहने, न रहने से क्या फर्क पड़ता है?’’

‘‘लोग तो चले जाते हैं, माँजी, पर उनका नाम रह जाता है। हर व्यक्ति यह कोशिश करता है कि उसके बाद भी उसका नाम बना रहे।’’

‘‘ठीक है, पर इसके लिए क्या करने को कहते हो?’’

‘‘इस घर को बिन्नी की माँ जैसी निराश्रित-असहाय वृद्धाओं के लिए आश्रय-स्थल बना दिया जाए तो?’’

‘‘भाईसाहब आप क्या कहते हैं?’’ इन्होंने जीजाजी से पूछा।

‘‘आइडिया बहुत अच्छा है, बशर्ते तुम मुझसे कोई डोनेशन न माँगो।’’

‘‘हमारे-आपके डोनेशन से क्या होगा! इसके लिए तो हमें कोई एन.जी.ओ. पकड़ना पडे़गा।’’

‘‘संदीप! क्यों हम बहनों का हक मार रहे हो? हमारी माताश्री पहले ही बहुत पहुँची हुई हैं। उसपर तुम नए-नए आइडिया परोस रहे हो।’’

‘‘दीदी! मैंने सोचा कि यदि यह घर बिक भी गया तो इस छोटे से कस्बे में इसका कितना पैसा मिलेगा! जो मिलेगा, उसके भी दो हिस्से होंगे।’’

‘‘तीन कहो। बिन्नी की माँ को भूल गए?’’

‘‘फिर तो आपको बहुत हिस्से करने पड़ेंगे। बिरजू भैया के बेटे की इंजीनियरिंग की पढ़ाई इसी घर से हो रही है। दुलारी भाभी की बहुओं को यहीं से सिलाई मशीनें हासिल होती हैं। ऊपरवाली भाभी मोंटेसरी माँजी के भरोसे ही टे्रनिंग ले रही है।

‘‘तुम तो बडे़ खुफिया निकले, दामादजी!’’ माँ हैरान थीं।

‘‘माँ, इतना पुण्य जोड़कर क्या करोगी?’’

‘‘यही तो साथ जाएगा बेटा! बाकी सब तो यहीं छूट जाना है।’’

इसी आध्यात्मिक नोट पर वह महफिल बरखास्त हो गई।

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सुबह मैं तैयार हो रही थी तो देखा कि दीदी रानी अभी गाऊन में ही घूम रही हैं।

‘‘आप लोग देर से निकलोगे क्या?’’ मैंने पूछा।

‘‘नहीं, मैं दो-चार दिन रुकने की सोच रही हूँ। सब लोग एकदम चले जाएँगे तो घर सूना हो जाएगा।’’

‘‘मैं भी रुकना चाह रही थी, पर माँ ने साफ मना कर दिया।’’

‘‘तुम्हारे बच्चे छोटे हैं न। मेरे साथ यह प्रॉब्लम नहीं है।’’

लौटते में मैंने इन्हें रास्ते में बताया, ‘‘अच्छा है, दीदी दो-चार दिन रुक रही हैं। सब लोग एकदम चले जाते तो घर सूना हो जाता। माँ दुःखी हो जातीं।’’

‘‘तुम्हें क्या लगता है कि आदरणीय दीदी तुम्हारी माँ का अकेलापन बाँटने के लिए रुकी हैं?’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब जल्दी ही पता चल जाएगा।’’

‘‘इनका अनुमान एकदम सही था। सप्ताह भर में ही माँ का फोन आ गया, ‘‘राधिका! मैं बिल बनवा रही हूँ। सोचा, मोटा-मोटी बातें तुम्हें बता दूँ।’’

‘‘तुम्हें मरने की इतनी क्या जल्दी पड़ी है, माँ?’’

‘‘मैं कोई आज ही मरनेवाली नहीं हूँ। पर हर काम समय से हो जाए तो अच्छा है। पता नहीं, बाद में हाथ-पैर, आँख-कान और खासकर दिमाग सलामत रहे, न रहे। तो सुनाऊँ?’’

‘‘हाँ बोलो।’’

‘‘मैंने यह घर तुम्हारे नाम कर दिया मय सामान के।’’

‘‘दीदी से पूछ लिया है?’’

‘‘उसी की सहमति से सब तय हुआ है। मेरे पास जो थोड़ा सा कैश है और चार चीजें हैं, वो उसे दे रही हूँ। तुम्हें मेरा कोई गहना पसंद हो तो बता दो, ताकि अलग रख दूँ।’’

‘‘नो चीटिंग ममा! मुझे जो दे रही हो, वह सिर-माथे। अब प्लीज बार-बार जाने की बात मत करना, दुःख होता है।’’

शाम को ये ऑफिस से लौटे तो मैंने कहा, ‘‘आपने सही अंदाजा लगाया था, दीदी रानी बँटवारे का पूरा प्लान बनाकर ही माँ के यहाँ से विदा हुई हैं।’’

फिर मैंने उन्हें पूरा ब्योरा सुनाया और कहा, ‘‘यह घर एक तरह से मेरे नहीं, आपके नाम हुआ है।’’

‘‘मतलब?’’

‘‘आपने उस दिन जो योजना बताई थी, लगता है, माँ को बहुत भा गई है। इसलिए तो घर मय साजो-सामान के सौंप रही हैं। इसका मतलब समझ रहे हैं आप? साठ साल की जमी-जमाई गृहस्थी। बरतन, क्रॉकरी, पलंग, बिस्तर, अलमारियाँ, फर्नीचर, लाईट, कूलर, पंखे आदि आपको कुछ खरीदना नहीं पडे़गा। माँ के ढेर सारे कपडे़ भी हैं। मतलब आश्रम की मूलभूत जरूरतें पूरी हो गई हैं। आगे का काम आप देखिए।’’

वे थोड़ी देर चुप रहे। फिर गंभीर स्वर में बोले, ‘‘राधिका, तुम्हें ऐसा तो नहीं लग रहा कि तुम ठगा गई हो!’’

‘‘मतलब!’’

‘‘तुम्हारे हिस्से तो कुछ नहीं आया?’’

‘‘ऐसा क्यों सोच रहे हैं?’’

‘‘क्या सचमुच खुश हो?’’

‘‘देखिए खुशी की परिभाषा सबकी एक सी नहीं होती। उस घर में माँ-बाबूजी की इतनी यादें हैं कि उसके बिकने की कल्पना मात्र से ही मैं दुःखी हो गई थी। अब लग रहा है कि माँ-बाबूजी हमेशा मेरे साथ रहेंगे। उनका आशीर्वाद हमेशा मुझे मिलता रहेगा।’’

‘‘और बोनस में उन लोगों के आशीर्वाद भी मिलेंगे, जो उस सुमन वाटिका में आकर रहेंगी।’’

वह कल्पना ही इतनी सुंदर थी कि मुझे रोमांच हो आया।

 

१२०, मदनलाल ब्लॉक, एशियाड विलेज

नई दिल्ली-११००४९

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